गुरुवार, 21 नवंबर 2019

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाला?

इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये दानकर्ताओं ने अब तक 150 मिलियन डॉलर यानी करीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का राजनीतिक चंदा दिया है और इसमें से 95 फीसदी अकेले बीजेपी को गया है.

बीजेपी सरकार ने पिछले वर्ष चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था की थी. इसे शुरू करते हुए कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के आने से चुनावों और राजनीतिक पार्टियों को होने वाली फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी. लेकिन इसके आने के साथ विश्लेषकों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए.

आज 21 नवंबर को कांग्रेस ने संसद में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर स्थगन प्रस्ताव पेश किया. कांग्रेस के कई नेताओं ने सरकार इसे 'बड़ा घोटाला' बताते हुए सरकार से इस पर जवाब मांगा. बाद में कांग्रेस ने इस मुद्दे पर सदन से वाक आउट भी किया.

साभार: द हिंदू 
बीबीसी के मुताबिक, 'इन बॉन्ड के ज़रिए दानकर्ताओं ने अब तक 150 मिलियन डॉलर यानी करीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का चंदा दिया है और रिपोर्ट्स के मुताबिक इनमें से ज़्यादातर रक़म बीजेपी को मिली है.' कई मीडिया रिपोर्ट में कहा गया कि बॉन्ड के जरिये दी गई दान की रकम में से 95 फीसदी अकेले बीजेपी को गया है.

जब इलेक्टोरल बॉन्ड आने वाला था, उसी समय इस पर सवाल उठने लगे थे. एसोसिएशन फॉर डेमो​क्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) के जगदीप छोकर जैसे लोगों ने आशंका जताई थी कि सरकार अपारदर्शिता को बढ़ाकर पारदर्शिता लाने की बात कह रही है और लोगों को बेवकूफ बना रही है.

उनका कहना था कि '​सरकार ने ऐसे नियम बना दिए हैं कि इसके जरिये उसी दल को फायदा मिलेगा जो सत्ता में है.' अब आंकड़े दिखा रहे हैं कि उनकी आशंका सही थी. अकेले सत्तारूढ़ बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये आए चंदे का 95 फीसदी मिला है.

लोकसभा में कांग्रेस के नेता सांसद अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि "इलेक्टोरल बॉन्ड एक बहुत बड़ा घोटाला है, देश को लूटा जा रहा है."

कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने लोकसभा में इस मुद्दे पर कहा कि "2017 से पहले इस देश में एक मूलभूत ढांचा था. उसके तहत जो धनी लोग हैं उनका भारत के सियासत में जो पैसे का हस्तक्षेप था उस पर नियंत्रण था. लेकिन 1 फ़रवरी 2017 को सरकार ने जब यह प्रावधान किया कि अज्ञात इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए जाएं जिसके न तो दानकर्ता का पता है और न जितना पैसा दिया गया उसकी जानकारी है और न ही उसकी जानकारी है कि यह किसे दिया गया. उससे सरकारी भ्रष्टाचार पर अमलीजामा चढ़ाया गया है." मनीष तिवारी ने कहा कि 'चुनावी बॉन्ड जारी करके सरकारी भ्रष्टाचार को स्वीकृति दी गई है.

कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा, "इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये अमीर लोग सत्ताधारी पार्टी को चंदा देकर राजनीतिक हस्तक्षेप करेंगे...जब ये बॉन्ड पेश किए गए थे, तो हममें से कई लोगों ने गंभीर आपत्ति जताई थी लेकिन हमारी नहीं सुनी गई."

कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने भी इस पर सवाल उठाते हुए कहा, "इलेक्टोरल बॉन्ड का 95 फ़ीसदी पैसा बीजेपी को गया, क्यों गया, ये क्यों हुआ. 2017 के बजट में अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर जो रोक लगाई थी उसे ख़त्म कर दिया गया. अरुण जेटली ने यह रोक लगाई थी कि कोई भी कंपनी अपने लाभ के 15 फ़ीसदी से अधिक ज़्यादा पैसा नहीं लगा सकती. लेकिन अब उसे हटा लिया गया है. प्रधानमंत्री को इस पर जवाब देना होगा."

उधर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने ट्विटर के जरिये इलेक्टोरल बॉन्ड पर सवाल उठाए. राहुल गांधी ने लिखा, "न्यू इंडिया में रिश्वत और अवैध कमीशन को चुनावी बॉन्ड कहते हैं."

कांग्रेस के कई नेताओं ने आरोप लगाया कि रिजर्व बैंक ने इस योजना पर आपत्ति जताई थी, लेकिन सरकार ने उसकी सलाह को नजरअंदाज किया और योजना लागू कर दी. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने कहा कि, रिजर्व बैंक को दरकिनार करते हुए चुनावी बॉन्ड लाया गया ताकि कालाधन बीजेपी के पास पहुंच सके.

इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह के बैंकिंग बॉन्ड होते हैं जिसके जरिये राजनीतिक दलों को फंड मिलता है. इसे लेकर पहले भी विवाद रहा है और आरोप लगता है कि पार्टियां अपनी आय और व्यय का ईमानदार ब्योरा नहीं पेश करती हैं और पार्टियों को चंदे के नाम पर काला धन खपाया जाता है.

किसी भी सियासी पार्टी को मिलने वाले चंदे इलेक्टोरल बॉन्ड कहा जाता है. यह चंदा कोई भी दे सकता है, लेकिन आम तौर पर अमीर, पूंजीपति और कारोबारी लोग बॉन्ड के जरिये किसी पार्टी को चंदा देते हैं.

नियम है कि सभी दल चुनाव आयोग में खुद को मिले चंदे की पूरी जानकारी देंगे. पार्टियां एक हज़ार, दस हज़ार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपए तक का चुनावी बॉन्ड ले सकती हैं. चुनावी बॉन्ड की बिक्री के लिए सिर्फ सरकारी बैंक एसबीआई अधिक्रत है. ये बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध रहते हैं. 15 दिनों के अंदर इन्हें पार्टी के खाते में जमा कराना होता है. इसमें दान देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है.

हाल ही में पत्रकार नितिन सेठी ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कई रिपोर्ट लिखी हैं जो न्यूजलॉन्ड्री और हफिंगटन पोस्ट में छपी हैं. कई दस्तावेज के आधार पर इन रिपोर्टों में कहा गया है कि सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने में रिजर्व बैंक, एसबीआई और चुनाव आयोग की सलाह को नजरअंदाज किया और मनमाने तरीके से चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को प्रभाव में लाया गया.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ​वित्त मंत्रालय की कड़ी निगरानी में इस बॉन्ड सिस्टम को प्रभाव में लाया गया और विभिन्न आपत्तियों पर गौर नहीं किया गया. रिपोर्ट में दस्तावेज के सहारे कई अनियमितताएं गिनाते हुए कहा गया है कि 'चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री कार्यालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री का आदेश दिया'.

अरबों रुपये का कॉरपोरेट चंदा एकतरफा बीजेपी को गया है, इसे देखते हुए भी इस पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह केंद्रीय स्तर पर सरकारी भ्रष्टाचार का नया स्वरूप है? 

बुधवार, 20 नवंबर 2019

हम शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं

नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे तो अपने एक भाषण में कहा था कि 'चीन अपनी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है, लेकिन भारत सरकार नहीं खर्च करती.' हालांकि, यह झूठ था लेकिन यह बयान बहुत चर्चित हुआ था क्योंकि यह उनके शुरुआती झूठ में से एक था.

मोदी जिस दौरान यह बात उठा रहे थे, इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, उस दौरान यानी 2012-13 में भारत सरकार अपनी कुल जीडीपी का 3.1 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रही थी. विश्व बैंक के मुताबिक, 2013 में भारत अपनी जीडीपी का 3.8 प्रतिशत खर्च कर रहा था. मोदी जी के आने के बाद यह घट गया.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 2017-18 के आर्थिक सर्वे में यह बात सामने आई कि भारत सरकार ने शिक्षा पर खर्च घटा दिया है. 2014-15 यह 3 प्रतिशत से नीचे आकर 2.8 फीसदी रह गया. 2015-16 में यह और घटकर 2.4 फीसदी हो गया. 2016-17 में इसमें मामूली बढ़ोत्तरी की गई और यह 2.6 फीसदी हो गया.

मनमोहन के समय में शिक्षा पर जो खर्च कुल जीडीपी का 3 प्रतिशत से ज्यादा ही रहा, मोदी जी ने उसे घटाकर 3 प्रतिशत से नीचे कर दिया.

एचआरडी मंत्री रहते हुए प्रकाश जावड़ेकर ने इसी मार्च में कहा था कि भारत सरकार का शिक्षा पर खर्च जीडीपी का 4.6 प्रतिशत हो गया है. लेकिन यह मंत्री जावड़ेकर का बयान भर है. जब बजट में शिक्षा पर आवंटन बढ़ा नहीं तो खर्च कुल जीडीपी का 2.6 प्रतिशत से 4.6 कैसे हो गया?

मानव संसाधन मंत्रालय की वेबसाइट पर आखिरी डाटा 2012 और 2013 का पड़ा है.

इन लोगों का डाटा के साथ खेल करने का ​रिकॉर्ड इतना खराब है कि जबतक विश्वसनीय आंकड़ा जारी न हो, भरोसा नहीं कर सकते. आंकड़ा दबाना और झूठ फैलाना इस सरकार का प्रिय शगल है.

अमेरिका अपनी जीडीपी का 5.8 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है. ध्यान रहे कि उसकी जनसंख्या हमसे बहुत कम है और इकोनॉमी हमसे बहुत बड़ी है. अमेरिका का शिक्षा पर पिछले 22 सालों में सबसे कम खर्च भी 4 प्रतिशत से ऊपर रहा है.

यूनीसेफ के मुताबिक, चीन 2012 से अपनी जीडीपी का 4 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है और उसने छह साल लगातार इस खर्च को बरकरार रखकर अपना नेशनल टॉरगेट पूरा कर लिया है.

विश्वबैंक के मुताबिक, कुछ देशों का कुल जीडीपी का शिक्षा पर खर्च देख लें- अफगानिस्तान- 4.1, अर्जेंटीना- 5.5, आस्ट्रेलिया- 5.3, बेल्जियम- 6.5, भूटान- 6.6, बोत्सवाना- 9.6, बोलिविया- 7.3, ब्राजील- 6.2, बुरुंडी- 4.8, कनाडा- 5.3, क्यूबा- 12.8, डेनमार्क- 7.6, फिनलैंड- 6.9, आइसलैंड- 7.5, इजराइल- 5.8, केन्या- 5.2, नेपाल- 5.2, न्यूजीलैंड- 6.4, नार्वे- 8, ओमान- 6.8, साउथ अफ्रीका- 6.2, सउदी अरब- 5.1 वगैरह-वगैरह.

कहने का मतलब है कि ज्यादातर देशों का शिक्षा पर खर्च हमसे बेहतर है. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उनके हर भाषण में एक शब्द जरूर आता था नॉलेज इकॉनमी. वे कहते थे कि यह ज्ञान का युग है, हमें नॉलेज इकॉनमी तैयार करनी है, क्योंकि यह ज्ञान का युग है. मनमोहन सरकार ने करीब 1500 नये विश्वविद्यालय खोलने की चर्चा छेड़ी थी. वे बार बार शोध को बढ़ावा देने की बात करते थे.

अभी छह साल से न तो नॉलेज इकॉनमी टर्म सुनाई दिया है, न ही नये विश्वविद्यालय खोलने की कोई चर्चा हुई है, न ही मोदी जी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर पाए जो वादा किए थे. छह साल से एक जेएनयू बंद करने का अभियान छेड़े हैं और आश्चर्य है कि वह भी अभी तक बंद नहीं करा पाए.

बीजेपी सरकार को जेएनयू से लड़ते हुए छह साल बर्बाद हो चुके हैं. अब सरकार को चाहिए कि जेएनयू के बच्चों से लड़ने की जगह अशिक्षा से लड़े. भारत वह देश है ​जहां पर अभी भी करीब 8 से 9 करोड़ बच्चे शिक्षा से बाहर हैं. सरकार को अब अपनी प्राथमिकताएं बदल देनी चाहिए. 

स्वास्थ्य और शिक्षा लोगों का बुनियादी अधिकार है, जिम्मेदारी ले सरकार

दुनिया के लगभग सभी विकसित देश अपने लोगों को मुफ्त शिक्षा मुहैया कराते हैं. जिन विकसित देशों में शिक्षा मुफ्त नहीं है, वहां पर सरकारें यथासंभव अनुदान देकर शिक्षा को सुलभ बनाने की कोशिश करती हैं.

इस मामले में जर्मनी टॉप पर है जहां पर सरकारी संस्थानों में उच्च शिक्षा या तो मुफ्त है या फिर नॉमिनल चार्ज देना होता है.

नार्वे में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और डॉक्टरेट बिल्कुल मुफ्त है.

तमाम अच्छे और प्रगतिशील कानूनों को सबसे पहले लागू करने वाला देश है स्वीडन. यहां भी शिक्षा मुफ्त है. यह सिर्फ नॉन यूरापियन लोगों पर कुछ नॉमिनल चार्ज लगाता है. यहां पीएचडी करने पर आपको बाकायदा सेलरी मिलती है.

आस्ट्रिया में भी शिक्षा मुफ्त है. नॉन यूरोपियन के लिए कुछ नॉमिनल चार्ज है.

फिनलैंड में हर स्तर की शिक्षा पूरी तरह मुफ्त है, भले ही आप कहीं के भी नागरिक हों. 2017 से इसने नॉन यूरोपियन पर कुछ चार्ज लगाया है.

चेक रिपब्लिक मुफ्त शिक्षा देता है भले ही आप कहीं के भी नागरिक हों.

फ्रांस में उच्च शिक्षा पूरी तरह मुफ्त है. कुछ पब्लिक विश्वविद्यालयों में नॉमिनल चार्ज लगता है.

बेल्जियम और ग्रीस में भी नॉमिनल चार्ज पर शिक्षा मुहैया कराई जाती है.

स्पेन भी सभी यूरोपीय नागरिकों के लिए फ्री शिक्षा मुहैया कराता है.

इसके अलावा डेनमार्क, आइसलैंड, अजेंटीना, ब्राजील, क्यूबा, हंगरी, तुर्की, स्कॉटलैंड, माल्टा आदि देश स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक, सभी तरह की शिक्षा मुफ्त में मुहैया कराते हैं.

फिजी में स्कूली शिक्षा मुफ्त है. ईरान के सरकारी विश्वविद्यालयों में शिक्षा फ्री है.

रूस में मेरिट के आधार पर छात्रों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है. फिलीपींस ने 2017 में कानून बनाकर शिक्षा फ्री कर दिया है.

श्रीलंका में स्कूली शिक्षा और मेडिकल फ्री है. थाईलैंड 1996 से मुफ्त शिक्षा मुहैया करा रहा है. चीन और अमेरिका जैसे देश जहां फ्री शिक्षा नहीं है, वे भी इस तरफ आगे बढ़ रहे हैं.

जिन विकसित देशों में शिक्षा और ​स्वास्थ्य मुफ्त हैं, वहां की सरकारें और लोग इसे मुफ्तखोरी नहीं कहते. वे इसे हर नागरिक का मूलभूत अधिकार कहते हैं. सबसे बड़ी बात कि वे स्वनामधन्य विश्वगुरु भी नहीं हैं.

ऐसा इसलिए है ​क्योंकि ये विकसित देश हैं और इनके लोगों का दिमाग भी विकसित है. वे अपने ही विश्वविद्यालयों में काल्पनिक गद्दार नहीं खोजते. वे अपने विपक्षियों और आलोचकों को देश का दुश्मन नहीं समझते. वे पढ़े लिखे हैं और पढ़ाई का महत्व समझते हैं.

भारत में नेहरू भी पढ़े लिखे आदमी थे इसलिए तमाम विश्वविद्यालय और संस्थान खुलवाए. अनपढ़ों को पढ़े लिखे लोगों से तकलीफ होती है इसलिए वे नये विश्वविद्यालय और नये कॉलेज खोलने की जगह देश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय को बंद करने का अभियान चलाते हैं और कहते हैं कि हम विश्वगुरु बनेंगे.

यह दुखद है कि पिछले छह साल से एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के खिलाफ सरकार और सत्ता में बैठे लोगों की ओर से कुत्सित अभियान चलाया जा रहा है.

आज नहीं तो कल, यह होना है कि सभ्य देशों की तरह हमारी भी सरकार कम से कम गरीब लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी लें और बुनियादी अधिकार की तरह यह सेवाएं उन्हें मुफ्त में मुहैया कराएं.

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

सरकार देशभक्ति और सुरक्षा के नाम पर झुनझुना पकड़ा रही है: रवीश कुमार

(केंद्र सरकार ने 2016 में एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध की घोषणा की थी. इसके बाद लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रिया देखने को मिली. सोशल मीडिया पर दो दिन तक एनडीटीवी ट्रेंड करता रहा. पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और पार्टियों की ओर से इस कार्रवाई की निंदा हुई. इस प्रकरण को लेकर हमने एनडीटीवी के रवीश कुमार से बातचीत की थी जो कि 5 नवंबर, 2016 को फर्स्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित हुई थी. रवीश कुमार से हुई बातचीत यहां हूबहू रखी जा रही है- )

मेरी प्रतिक्रिया यही है कि जनता अपनी राजनीतिक पसंद रखे. लेकिन उस पसंद को वो हर जगह न ढूंढे. मीडिया का संस्थान उसकी राजनीतिक पसंद के अनुकूल क्यों होना चाहिए? दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है. आप दोनों को अलग-अलग रूप में देख सकते हैं, पसंद कर सकते हैं. लेकिन आजकल राजनीति ऐसा चाहने लगी है कि सबकुछ हमारे अनुकूल हो. उसे देशभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा नाम के दो अंतिम तर्क मिल गए हैं. राजनीति के पास अब बुद्धि नहीं रही.

कोई राजनीतिक विचारधारा, विमर्श की भाषा में जब कोई नेता बात करता था, तब बहुत सारी बातें निकलती थीं. तो अब उतनी क्षमता किसी में है नहीं. न ही धीरज बचा है नेताओं में. नेता क्या करते हैं? हमेशा वे राष्ट्रभक्ति और इन सब चीजों का सहारा लेकर बात करने लगते हैं कि इसके नाम पर हम सबकुछ कर रहे हैं. राजनीति एक अलग स्वतंत्र और बहुत ही खूबसूरत प्रक्रिया है. उसमें जनता को अलग-अलग दलों के साथ या एक दल के साथ जुड़ना चाहिए. उसमें और मीडिया की स्वतंत्रता में कोई टकराव नहीं है.

आप क्या सातों दिन एक ही कमीज पहनना चाहेंगे? क्या आप ऐसे जीवन की कल्पना करते हैं? नहीं करना चाहेंगे न. वे यही चाह रहे हैं कि राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को ऐसी ट्रेनिंग कर दी जाए कि वे एक ही वर्दी में घूमते रहें. लेकिन इससे फिर लोग तो लोग नहीं रहेंगे न! वे इतनी सी बात को समझ जाएं.

लोगों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं चाहता हूं कि समर्थन से ज्यादा लोग इस बात को समझें, अपने भीतर इस बात को लागू करें कि सवाल करने की जगह आजाद होनी चाहिए. वे ये भी देखें कि पत्रकारिता का पैमाना लागू हो रहा है कि नहीं और इस बात के प्रति वे सतर्क रहें.

चाटुकारिता जब पत्रकारिता में घुस जाती है तो इससे नुकसान जनता का होता है और फायदा एक अकेले आदमी का होता है. जो वो एंकर या पत्रकार है, सिर्फ उसका. वो किसी नेता से जनता का भरोसा बेचकर कितना कुछ कमाता है, कितना कुछ पाता है ये बात जनता को मालूम नहीं. इसलिए जनता को चाहिए कि जब भी देखे कि ये पत्रकार कुछ ज्यादा ही सरकार के प्रति समर्थन रखता है तो उसे सतर्क रहना चाहिए. इसका मतलब उस पत्रकार ने जनता के भरोसे का फायदा उठाकर नेता से कुछ बड़ा समझौता किया है. हमारा काम थोड़ी है राजनीति की दिशा तय करना. हमारा काम है हर चीज पर सवाल करना. लेकिन राजनीतिक सहनशीलता खत्म होती जा रही है.

राज्यों में भी एक तरह के मीडिया का नियंत्रण है, केबल पर प्रोग्राम ऑफ कर दिए जा रहे हैं. यह क्या है? क्या कभी प्रोग्राम इसके लिए ऑफ हुआ है कि अर्धसैनिक बलों को सैलरी नहीं मिल रही है, उनको पेंशन नहीं मिल रहा है. उनको शहीद का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. पुलिस के लोग ड्यूटी पे मारे जाते हैं उनको शहीद का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. उनको पेट्रोल पंप नहीं दिया जा रहा है जबकि वे भी ड्यूटी पर मर रहे हैं. वो लोग अपनी मांग तो कर रहे हैं. इन मांगों को लेकर कोई झगड़ा क्यों नहीं है? क्यों स्कूलों में ठेके के शिक्षक पढ़ा रहे हैं जबकि वैकेंसी है? क्यों हर राज्य में वैकेंसी खाली है? अभी जो कैदी भाग गए या भगाए गए तो अखबारों में रिपोर्ट आई कि हर राज्य में जेलों में जो नियुक्ति होनी चाहिए वो मंजूर पदों से आधी से भी कम है. इसका मतलब है कि ये सरकारें जानबूझ कर बेरोजगारी पैदा कर रही हैं. वे लोगों को बेरोजगार रख रही हैं.

लोग सवाल न करें इसलिए देशभक्ति और देश की सुरक्षा के नाम पर झुनझुना पकड़ा के चली जा रही है. ऐसा क्या हो गया है हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को? ये प्रक्रिया धीरे धीरे चली आ रही है और हम इससे भी बुरे दिन देखने वाले हैं. इससे भी बुरी स्थिती देखने वाले हैं. जनता को सोचना चाहिए. हुकूमत चाहे तो एक पत्रकार की नौकरी कभी भी ले सकती है लेकिन जनता को सोचना चाहिए कि उसके बदले में सरकार कितने लोगों का हक गायब कर देगी. सोचना चाहिए जनता को.

अगर हर किसी को लगता है कि लोकतंत्र की रक्षा होनी चाहिए तो हर किसी को इसके समर्थन में आना चाहिए. क्या उनकी राजनीतिक विचारधारा ने दुनिया का अंतिम सत्य देख लिया है? क्या अब उसके बाद कोई सत्य नहीं है? क्या कोई दावे के साथ कह सकता है ऐसा? दुनिया की कोई विचारधारा ऐसा कह सकती है क्या? इसीलिए सवाल जवाब के दौर होते हैं. आपकी विचारधारा अपनी जगह है. इससे टेस्टिंग होती है, आप अपने को चेक करते हैं. इतने की भूमिका होती है.

आप पूछ कह रहे हैं कि क्या आपातकाल जैसी स्थिति है? मैं कह रहा हूं कि उससे भी बदतर स्थिति है. जब लोग फोन पर बात करने से डरने लगें, जब वो इस बात से डरने लगें कि दो बयान अगर गलत हो जाएगा तो पता नहीं 50 आदमी आकर क्या करेगा. जब आप कोई बात कहें और 500 वकील लगाकर आपके खिलाफ कोर्ट केस होने लगे तो ये आपातकाल की स्थिति है. और इससे ज्यादा हम क्या देखना चाहते हैं? इससे बदतर क्या होगा? या ठीक है हम ये भी देख लेंगे. लेकिन इसके बदले में आपने जनता को क्या दिया?

वो पंजाब का किसान जसवंत था. पांच साल के अपने बच्चे को सीने से चिपका कर नहर में कूद कर मर गया. दस लाख रुपया कर्जा था. क्या आप उसके आंसू पोंछ पाए? पोंछ सकते हैं आप? हम बंद कर देते हैं, अखबार, टीवी सब बंद करवा दीजिए आप. इसकी जरूरत ही नहीं है. क्या आप ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं? भाषण कुछ, काम कुछ. भाषण दीजिए लोकतंत्र का और काम कीजिए ठीक उसके खिलाफ. यह स्थिति खतरनाक है.

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

आरटीआई कानून बदलकर भ्रष्टाचार का रास्ता क्यों साफ किया गया?

व्यापम जैसा महाघोटाला सामने लाने वाला आरटीआई कानून कुचल दिया गया है. सरकार ने इस कानून में संशोधन करके सूचना आयोग को 'पिंजड़े का तोता' बना दिया है. गुरुवार को नये कानून के मुताबिक सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और उनके वेतन को लेकर नये नियमों की घोषणा कर दी गई. 

अब सूचना विभाग किसी लिजबिज सरकारी विभाग जैसा सरकार का कठपुतली बन जाएगा. ऐसा करके मोदी जी ने भ्रष्टाचारियों के हाथ काफी मजबूत कर दिए हैं.

एक विदेशी दौरे पर मोदी जी ने दुनिया को बताया था कि उनके पीएम बनने के पहले भारत में पैदा होने के लिए उनको शर्म आती थी. वे उस भारत में पैदा होने के लिये शर्मिन्दा थे, शास्त्रों के मुताबिक जहां देवता जन्म लेने के लिए तरसते हैं.

तो जब वे एक राज्य के मुख्यमंत्री बनकर भी भारत में पैदा होने के लिए शर्मिंदा थे, एक मछुआरे का बेटा भारत का राष्ट्रपति बन गया था. उसी राष्ट्रपति के कार्यकाल में भारत की संसद ने एक ऐसा कानून बनाया जिसकी दुनिया भर में सराहना हुई. यह था सूचना का अधिकार कानून. बीबीसी के मुताबिक, 'इस क़ानून को आज़ाद भारत में अब तक के सब से कामयाब क़ानूनों में से एक माना जाता है. इस क़ानून के तहत नागरिक हर साल 60 लाख से अधिक आवेदन देते हैं.'

व्यापम घोटाले का खुलासा आरटीआई के जरिये हुआ था. इसमें अरबों रुपये डकारे गए. यह दुनिया का अकेला घोटाला है जिसमें तमाम अधिकारी और आम लोग मारे गए.

उन्हीं काले 70 सालों के दौरान, आज से 14 साल पहले देश को सूचना अधिकार कानून मिला था, जब मोदी जी भारत में पैदा होने के लिए शर्मिंदा थे. इन 70 सालों को उन्होंने भारत के इतिहास के काले दिनों के रूप में प्रचारित किया. क्या सिर्फ देश तभी महान है जब आपको सत्ता मिले? अगर आप सत्ता में नहीं हैं तो आप भारतीय होने के लिए शर्मिंदा हैं?

ख़ैर, उस कामयाब और जनता का हाथ मजबूत करने वाले कानून में संशोधन कर दिया गया. आरटीआई कानून इस सिद्धांत पर बना था कि जनता को यह जानने का अधिकार रखती है कि देश कैसे चलता है. इसके लिए सूचना आयोग को स्वायत्तता दी गई के वह सरकारी नियंत्रण से मुक्त होगा. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, वेतन, भत्ते, और कार्यकाल यह सब सुप्रीम कोर्ट के जज और चुनाव आयुक्तों के समान होगा. यानी सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त.

अब चूंकि मोदी जी ईमानदार हैं, इसलिये उन्होंने कानून बदल दिया. अब सूचना आयोग स्वायत्त नहीं होगा. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन, भत्ते आदि सब केंद्र सरकार निर्धारित करेगी. यानी वह जब जिसे चाहे, जितने समय के लिए चाहे, रखेगी. चाहेगी तो हटा देगी. यानी आरटीआई कानून अब दुनिया के सबसे बेहतर नागरिक अधिकार कानूनों में से एक नहीं रहेगा.

नए बिल में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग संवैधानिक पद है. सूचना आयोग एक कानूनी विभाग है. दोनों की स्थिति जस्टिफाइड होनी चाहिए. यानी अब सूचना आयोग के अधिकारी का पद जज के समान अधिकार सम्पन्न नहीं होगा, तो वह कमजोर माना जायेगा. वह उच्च अधिकारियों को निर्देश दे सकने की स्थिति में नहीं होगा.

प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के साथ भी यही किया गया जो आरटीआई एक्ट के साथ हुआ. उन्हीं पिछले 70 सालों में जब मोदी जी शर्मिंदा थे, भारत की जनता ने आंदोलन करके लोकपाल पास कराया था. मोदी जी ने ऐसा लोकपाल बनाया जो सरकार की अनुमति के बिना कोई हैसियत नहीं रखता. एक और पिजड़े का तोता.

70 साल के संघर्षों में जो भी अच्छा हासिल हुआ था, उसे खराब किया जा रहा है. बस मैं जेटली जी की तरह यह सब अंग्रेजी में नहीं लिख रहा, इसलिए शायद आप इसे हल्के में लेंगे. अब इस लोकतंत्र में सारे अधिकार सिर्फ डेढ़ लोगों के हाथ में होंगे. लोकतंत्र का संघीय ढांचा अपने करम को रोएगा.

सरकार बताना चाह रही है कि भ्रष्टाचार अब बुराई नहीं है. भ्रष्टाचार सिर्फ कांग्रेस का बुरा था. अब भ्रष्टाचार के लिए संसद के भीतर कानून बनाकर रास्ता खोला जा रहा है. सड़कों पर ईमानदारी के बड़े बड़े होर्डिंग लगे हैं. सवाल उठता है कि मोदी जी के परिवार नहीं है, इसलिए वे किसके लिए बेईमानी करेंगे? आप ही सोचिए कि संसद के अंदर भ्रष्टाचार की गंगा बहाने का रास्ता साफ हो गया है, यह किनके लिए हुआ है?

द वायर ने आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज का बयान छापा है, जिसमें उन्होंने कहा है, ‘सरकार ने बिल्कुल गोपनीय तरीके से ये नियम बनाए हैं, जो कि 2014 की पूर्व-विधान परामर्श नीति में निर्धारित प्रक्रियाओं के उल्लंघन है. इस नीति के तहत सभी ड्राफ्ट नियमों को सार्वजनिक पटल पर रखा जाना चाहिए और लोगों के सुझाव/टिप्पणी मांगे जाने चाहिए... इन नियमों का बनाने से पहले जनता से कोई संवाद नहीं किया गया. ये पूरी तरह से आरटीआई कानून को कमजोर करने की कोशिश है. इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार के पास किसी भी वर्ग या व्यक्तियों के संबंध में नियमों में किसी भी तरह के बदलाव का अधिकार है. यह बेहद चिंता का विषय है कि सरकार इस आधार पर नियुक्ति के समय अलग-अलग आयुक्तों के लिए अलग-अलग कार्यकाल निर्धारित करने के लिए इन शक्तियों का संभावित रूप से इस्तेमाल कर सकती है.’


गांधी, अम्बेडकर और भगत सिंह के देश में झूठ, भ्रष्टाचार और जनता के साथ धोखा करने का कानून बनेगा, यह किसने सोचा था. ऐसी ईमानदारी पर ईमान के सारे देवता शर्मिंदा हैं.

पांच साल में एक ईमानदार पार्टी 70 साल वाली कथित भ्रष्ट पार्टी ही नहीं, देश की सभी पार्टियों की अपेक्षा 100 गुना ज्यादा संपत्ति वाली कैसे बन गई? वह भी स्वनामधन्य फकीरों की पार्टी? इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे फ्रॉड के जरिये सारा कॉरपोरेट चंदा एक ही पार्टी को कैसे जा रहा है?

आप एक नागरिक के रूप में फिलहाल उन्माद में हैं. नशा उतरेगा, तब तक देर हो चुकी होगी.

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

गांधी की हत्या के आरोप से सावरकर बरी हुए थे, उनकी विचारधारा नहीं

जिन दो राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें से एक किसानों की कब्रगाह के रूप में जाना जाता है और दूसरा देश में सर्वाधिक बेरोजगारी ​के लिए. बावजूद इसके, केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा ने इतिहास के एक विवादित पन्ने को उलटकर उसे चुनावी मुद्दा बना दिया है.

महाराष्ट्र में भाजपा हिंदुत्व की राजनीति के पितृपुरुष विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने का वादा किया है और प्रधानमंत्री इसे लेकर मोर्चा खोल दिया है. उनका जोर सावरकर को भारत रत्न देने से ज्यादा इस बात पर है कि कांग्रेस की अगुवाई में देश ने सावरकर का अपमान किया.

आरएसएस, बीजेपी समेत हिंदूवादी संगठन सावरकर के लिए भारत रत्न जैसे सम्मान की मांग करें, यह स्वाभाविक ही है क्योंकि इस संगठन जिस उग्र हिंदुत्व की ​बुनियाद पर टिके हैं, उसके जनक सावरकर ही हैं.


कुछ लोग सावरकर को भारत रत्न देने का विरोध क्यों कर रहे हैं?

इसके पीछे कई वजहें हैं जिनमें सबसे बड़ा कारण है महात्मा गांधी की हत्या. 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी. इसके छठवें दिन सावरकर को गांधी की हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया. हालांकि सबूतों के अभाव में उन्हें फरवरी, 1949 में इस आरोप से बरी कर दिया गया.

सावरकर को भले ही इस आरोप से बरी कर दिया गया, लेकिन उस समय  देश के गृहमंत्री रहे सरदार पटेल इस बात को लेकर मुतमईन थे कि यह काम आरएसएस और उस विचारधारा का है. गांधी की हत्या के बाद गृह मंत्री सरदार पटेल को सूचना मिली कि ‘इस समाचार के आने के बाद कई जगहों पर आरएसएस से जुड़े हलकों में मिठाइयां बांटी गई थीं.’ 4 फरवरी को एक पत्राचार में भारत सरकार, जिसके गृह मंत्री पटेल थे, ने स्पष्टीकरण दिया था:

‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिए… भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है. देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है. वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है…संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है. उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है. इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके. इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है.’

निजी तौर पर सावरकर को बरी किया जाना एक बात है, लेकिन वह विचारधारा गांधी की हत्या के आरोप से बरी नहीं हुई जिसके जनक सावरकर थे और जिसने गांधी की हत्या पर मिठाइयां बांटी थीं. आरएसएस के लोगों ने ​गांधी की हत्या पर मिठाई बांटकर खुशियां मनाईं, यह बात पटेल के पत्रों से लेकर गांधी के ​सचिव प्यारेलाल तक के रिकॉर्ड में दर्ज है.

गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल नैय्यर के हवाले से एजी नूरानी ने लिखा है: ‘उस दुर्भाग्यपूर्ण शुक्रवार को कुछ जगहों पर आरएसएस के सदस्यों को पहले से ही ‘अच्छी ख़बर’ के लिए अपने रेडियो सेट चालू रखने की हिदायत दी गई थी.’

इतिहासकार सुमित सरकार अपनी किताब 'आधुनिक भारत' में लिखते हैं,
‘गांधी की हत्या पूना के ब्राह्मणों के एक गुट द्वारा रचे गए षडयंत्र का चरमोत्कर्ष था, जिसकी मूल प्रेरणा उन्हें वीडी सावरकर से मिली थी.’

दूसरे इतिहासकार बिपन चंद्र अपनी किताब 'आजादी के बाद का भारत' में लिखते हैं, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांप्रदायिकता और हिंसात्मक विचारधारा को साफ-साफ देखते हुए और जिस प्रकार की नफरत यह गांधीजी और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध फैला रहा था, उसे देखकर यह स्पष्ट हो गया था कि यही वे असली शक्तियां हैं जिन्होंने गांधी की हत्या की है. आरएसएस के लोगों ने कई जगहों पर खुशियां मनाईं थीं. यह सब देखते हुए सरकार ने तुरंत ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया.’

सरदार पटेल ने आरएसएस प्रमुख गोलवलकर को आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का कारण बताते हुए पत्र लिखकर कहा था, आरएसएस के भाषण ‘‘सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते हैं… देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है. इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है. हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया. जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया. इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.’’

पत्रकार पवन कुलकर्णी अपने एक लेख में लिखते हैं, 18 जुलाई, 1948 को लिखे एक और खत में पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कहा, ‘हमारी रिपोर्टों से यह बात पक्की होती है कि इन दोनों संस्थाओं (आरएसएस और हिंदू महासभा) ख़ासकर आरएसएस की गतिविधियों के नतीजे के तौर पर देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण हुआ जिसमें इतना डरावना हादसा मुमकिन हो सका.’

पवन कुलकर्णी आगे लिखते हैं कि ‘अदालत में गोडसे ने दावा किया कि उसने गांधीजी की हत्या से पहले आरएसएस छोड़ दिया था. यही दावा आरएसएस ने भी किया था. लेकिन इस दावे को सत्यापित नहीं किया जा सका, क्योंकि जैसा कि राजेंद्र प्रसाद ने पटेल को लिखी चिट्ठी में ध्यान दिलाया था, ‘आरएसएस अपनी कार्यवाहियों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता… न ही इसमें सदस्यता का ही कोई रजिस्टर रखा जाता है.’ इन परिस्थितियों में इस बात का कोई सबूत नहीं मिल सका कि गांधी की हत्या के वक़्त गोडसे आरएसएस का सदस्य था.’

लेकिन कुछ वर्ष पहले फ्रंटलाइन मैगजीन में छपे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे के एक इंटरव्यू में उन्होंने कबूल किया कि उस समय अदालत में झूठ बोला गया था. यह झूठ सावरकर को बचाने के लिए बोला गया था. गोपाल गोडसे ने यह सच इसलिए बयान किया क्योंकि आरएसएस ने गोडसे बंधुओं के उस कथित बलिदान को भुला दिया.

जो आरएसएस आज प्रचारित कर रहा है कि सावरकर अदालत से बरी हो गए थे, उसी आरएसएस पर से सरदार पटेल ने प्रतिबंध इस शर्त पर हटाया था कि ‘आरएसएस पूरी तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहेगा’ और किसी तरह की राजनीति में शामिल नहीं होगा. आरएसएस ने न सिर्फ सरदार पटेल से किया गया वादा तोड़ दिया, बल्कि अपने दामन से गांधी की हत्या का दाग धोने के लिए झूठ का पहाड़ कर चुका है.

यह सही है कि सावरकर क्रांतिकारी थे और अपनी गतिविधियों के लिए उन्हें सजा हुई, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों से लिखित में वादा किया कि वे क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर रहेंगे और अंग्रेज सरकार के वफादार रहेंगे. इसे उन्होंने ताउम्र निभाया भी. 

अटल और आडवाणी की सियासी जोड़ी के प्रमुख रणनीतिकार रह चुके सुधींद्र कुलकर्णी ने ठीक ही कहा है कि 'सावरकर को हिंदुत्व रत्न कहा जा सकता है, लेकिन वह भारत रत्न पाने के हकदार नहीं है. वह एक देशभक्त थे, लेकिन एक आंशिक देशभक्त थे. मुस्लिमों से दुश्मनी रखने वाला एक सच्चा भारतीय नहीं हो सकता.' 

'संतन को सिर्फ सीकरी सो काम'

परसाई जी ने लिखा था कि 'धर्म जब धंधे से जुड़ जाए तो इसी को योग कहते हैं.' शास्त्रों में लिखा है 'आप्तवाक्यं प्रमाणम'. मतलब बाबा लोग जो भी कहते हैं वही प्रमाण है. अगर परसाई जी की बात को आप प्रमाण नहीं भी मानते तो कलियुग के 'कल्कि भगवान' को प्रमाण मानिए, जिनके यहां आयकर विभाग ने छापा मारा है.
स्वनामधन्य 'कल्कि भगवान' के यहां छापे में मिली 500 करोड़ की संपत्ति. 

स्वनामधन्य 'कल्कि भगवान' के आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापा मारकर 500 करोड़ की संपत्ति का पता लगाया है. खबर है कि 'कल्कि भगवान' के 40 ठिकानों पर छापा पड़ा है. इतने ठिकाने तो चंबल में ठाकुओं के नहीं होते, जितने कलियुग के 'कल्कि भगवान' के थे.

हमने ऐसे भगवानों की महिमा के बारे में सुना है जिनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. यहां ऐसे भगवान हैं जो अपनी मर्जी के विरुद्ध आयकर द्वारा खुद ही हिला दिए गए और उनकी अकूत संपत्ति की गाथा सुनकर उनके भक्त लोग भी हिल ही गए होंगे.

तो 'कल्कि भगवान' के ठिकानों से आयकर विभाग ने 18 करोड़ रुपये की कीमत के अमेरिकी डॉलर, 88 किलो सोना, 1271 कैरेट हीरा जब्त किया है. 'कल्कि भगवान' के ठिकानों से मिली कुल अघोषित संपत्ति को जोड़ कर 500 करोड़ बताया गया है.

इन स्वघोषित 'कल्कि भगवान' का नाम विजय कुमार है. उम्र 70 साल है. पहले एलआईसी में क्लर्क थे. फिर बाबा हो गए. देश में खूब कारोबार फैलाया. जमीनें खरीदीं, अकूत संपत्ति बनाई. पैसा हद से ज्यादा हो गया तो विदेशों में निवेश कर दिया. बाबा बहुराष्ट्रीय हो गए. अब इनका कहना है कि ये भगवान विष्णु का 10वां अवतार हैं.

उधर, वेंकैया जी नरेंद्र मोदी जी को भी विष्णु का अवतार बता चुके हैं. अब एक ही समय, एक ही भूमि पर विष्णु जी के दो अवतार हो जाएं तो यह विष्णु जी भी कैसे बर्दाश्त करेंगे. इसलिए उन्होंने आयकर विभाग को प्रेरित किया और छापा पड़ गया.

स्वनामधन्य 'कल्कि अवतार' से लेकर रामदेव तक, सबसने मिलकर यह सिद्ध किया है कि धर्म को धंधे से मिलाना ही योग है. बाबा रामदेव ने महर्षि पतंजलि का चूरण और चटनी के साथ महायोग करा दिया और अरबपति बन गए. उनके जैसे सैकड़ों बाबा हैं जिन्होंने धर्म का धंधे से योग कराने का सफल प्रयोग किया है. कई बाबा तो ऐसे महायोगी हैं जो सरकारों को अपनी जेब में रखते हैं.

हाल ही में ऋषिकेष जाना हुआ. वहां पर एक अजीज मित्र मिल गए. बोले चलिए आपको घुमाता हूं. वे मुझे एक हाहाकारी आश्रम में ले गए. आश्रम इतना बड़ा कि घूमते घूमते हांफा छूट गया. भव्य ​बिल्डिंगें बनी हैं. हजारों कमरे हैं. सब किराये पर उठाए जाते हैं. बाबा की कई करीबी शिष्याएं हैं जो विदेशी हैं. बाबा की विदेशों तक पहुंच है. वहां से विदेशी लोग आध्यात्म की खोज में आते हैं और आश्रम में दान के नाम पर भारी निवेश करके लौट जाते हैं.

गंगा किनारे बना यह आश्रम इतनी जमीन में फैला हुआ है जितने में कोई केंद्रीय यूनिवर्सिटी बन सकती है. ​उसी उत्तराखंड में तमाम इलाके हैं जहां बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं हैं. लेकिन बाबा के पास अकूत जमीन और अकूत संपत्ति है. विदेशों तक फैला हुआ धर्म का व्यवसाय है. नेता से लेकर अभिनेता तक सब उनके शरणागत आते हैं. नेता को वहां से वोट मिलता है और अभिनेता को वहां से नोट मिलता है.

अब कुटी बनाकर निर्जन में रहने और कंदमूल खाने वाले ऋषियों, संतों और साधुओं के जमाने लद गए. संत कबीर ने लिखा था, 'संतन को कहां सीकरी सो काम'. अब संतों की कटेगरी बदल गई है. अब के संत कहते हैं कि 'संतन को सिर्फ सीकरी सो काम'. उनको सीकरी में प्रवेश न मिले तो नई सीकरी बसा देते हैं और नये राजा बना देते हैं.

इस तरह 'आप्तवाक्यं प्रमाणम' के न्याय से परसाई जी की बात सच साबित होती है कि धर्म ​कलियुग में सबसे चोखा धंधा है और धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को योग कहते हैं. 

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

जिसका सूरज नहीं डूबता था, वह गांधी के प्रति नफरत के गंदले में डूब गया

विंस्टन चर्चिल एक ऐसे साम्राज्य का शासक था जिसके बारे में कहते हैं कि उसका सूरज कभी नहीं डूबता था. लेकिन चर्चिल महात्मा गांधी से नफरत करता था. उसकी गांधी के प्रति यह नफरत भारतीयों के प्रति नफरत का प्रतिबिंब थी. उसने गांधी को हिकारत से “भूखा नंगा फकीर” कहा. कैबिनेट में उसके सीनियर रह चुके Leo Amery के मुताबिक, एक बार उसने भारतीयों को “पाशविक धर्म के अनुयायी पाशविक लोग” कहा था.

महात्मा गांधी ने जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की और 'करो या मरो' जैसा निर्णायक नारा दिया तो गांधी को हिंसा फैलाने के आरोप में जेल में डाल दिया गया.

इसके बाद चर्चिल ने Leo Amery को पत्र लिखा, “भारत सरकार के दस्तावेज खंगालो और गांधी के खिलाफ ऐसे सबूत एकत्र करो कि वह जापान के साथ मिलकर षडयंत्र कर रहा है.” Leo Amery ने जवाब दिया, “ऐसे कोई सबूत मौजूद नहीं है. सिवाय इसके कि दो जापानी बौद्ध भिक्षु एक बार उनके वर्धा आश्रम में आए थे.”

गांधी पर हिंसा फैलाने का आरोप झूठा था, जिसके विरोध में गांधी ने जेल में ही अनशन शुरू कर दिया. इस पर चर्चिल को संदेह था कि यह गांधी असल में अनशन नहीं करता, यह चोरी से कोई सप्लीमेंट लेता है. इसमें तथ्य नहीं था, यह उसकी नफरत थी.

उसने ​वायसराय लिनलिथगो को तार भेजा, “हमने सुना है कि गांधी अनशन के दौरान ग्लोकोज लेते हैं. क्या इसकी पुष्टि की जा सकती है?”

दो दिन बाद वायसराय का जवाब आया कि यह संभव नहीं है. “गांधी पिछले फास्ट के दौरान खुद सतर्क थे कि कहीं उनके पानी में ग्लोकोज न मिलाया हो. उनकी देखरेख करने वाले डॉक्टर ने उन्हें मनाने की कोशिश भी की लेकिन उन्होंने ग्लूकोज लेने से मना कर दिया.”

गांधी के अनशन को तीसरा हफ्ता शुरू हो गया. चर्चिल ने फिर तार भेजा कि “गांधी 15 दिन तक जिंदा कैसे है. यह एक फ्रॉड है, जिसका खुलासा होना चाहिए. कांग्रेस के हिंदू डॉक्टर चुपके से उसे ग्लूकोज दे रहे होंगे.”

वायसराय ने अपना घोड़ा खोल दिया लेकिन कोई सबूत नहीं मिला. वायसराय ने फिर ​चर्चिल को लिखा, 'यह आदमी दुनिया का सबसे बड़ा फ्रॉड है'. लेकिन हमें कोई सबूत नहीं मिला. चर्चिल का साम्राज्य साबित नहीं कर पाया कि गांधी का अनशन एक धोखा है.

जो ​चर्चिल कहता था कि गांधी से कोई बातचीत सिर्फ मेरी लाश की कीमत पर हो सकती है, वह गांधी को ज्यादा समय कैद में भी नहीं रख पाया. भारत आजाद हो गया.

1951 में चर्चिल की वॉर मेमोरी The Hinge of Fate प्रकाशित हुई. उन्होंने इसमें गांधी पर ग्लूकोज लेकर अनशन करने का आरोप फिर दोहराया. इस बार आजाद भारत ने उन्हें जवाब दिया कि ​चर्चिल की औकात नहीं है कि वे गांधी को पहचान पाएं.

चूंकि विंस्टन चर्चिल भारतीयों को तुच्छ समझता था, इसलिए गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के प्रति उसकी नफरत वक्त बेवक्त बाहर आती रहती थी.

1945 में लंदन में संयुक्त राष्ट्र की असेंबली का पहला सत्र आयोजित हुआ. इंडियन डेलीगेशन की अगुआई कर रही थीं नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित. सत्र के दौरान चर्चिल उनके बगल बैठे थे. अचानक चर्चिल ने विजयलक्ष्मी पंडित से पूछा, 'क्या आपके पति को हमने नहीं मारा? सच में हमने नहीं मारा?'

विजयलक्ष्मी पंडित के पति रणजीत सीताराम पंडित की जेल में मौत हो गई थी. चर्चिल इसी बारे में बात कर रहा था. विजयलक्ष्मी पंडित सकपका गईं, लेकिन थोड़ा सोचकर बोलीं, 'नहीं, हर आदमी अपने निर्धारित वक्त तक जिंदा रहता है.'

हालांकि, इस जवाब के बाद दोनों में मित्रवत व्यवहार हुआ. बाद में चर्चिल ने विजयलक्ष्मी पंडित से कहा, 'तुम्हारे भाई जवाहर लाल ने मनुष्य के दो दुश्मनों पर विजय पा ली है, नफरत और डर, जो कि मनुष्य के बीच सर्वोच्च सभ्य दृष्टिकोण है और आज के माहौल से गायब है.'

इसके कुछ समय बाद नेहरू महारानी के राज्याभिषेक में शामिल होने लंदन गए. समारोह खत्म हुआ तो संयोग से वहां नेहरू और च​र्चिल ही बचे, बाकी लोग चले गए. चर्चिल नेहरू की तरफ घूमे और कहा, 'मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, यह अजीब नहीं है कि दो लोग जिन्होंने एक दूसरे से बेहद नफरत की हो, उन्हें इस तरह से एक साथ फेंक दिया जाए?'

नेहरू ने जवाब दिया, 'लेकिन मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, मैंने आपसे कभी नफरत नहीं की.'

चर्चिल ने फिर कहा, 'लेकिन मैंने की, मैंने की.'

फिर उसी शाम डिनर पर चर्चिल ने नेहरू के लिए कहा, 'यहां एक ऐसा आदमी बैठा है जिसने नफरत और डर को जीत लिया है.'

1945 में चर्चिल को ब्रिटेन की जनता से सत्ता से उखाड़ फेंका. 47 में भारत आजाद हो गया.

Judith Brown किताब Nehru: A Political Life कहती है कि आजादी के बाद 1948 में जब चर्चिल की नेहरू से मुलाकात हुई तो ​चर्चिल ने भारत की आजादी का विरोध करने के लिए नेहरू से माफी मांगी थी.

जब तक ​चर्चिल को समझ में आया कि भारत की आजादी की लड़ाई की अगुआई करने वाले गांधी और नेहरू क्या चीज हैं, तब तक देर हो चुकी थी.

भारत के लोगों और गांधी से नफरत करने वाला चर्चिल हार गया. नफरत से भरे एक पिद्दी के हाथों जान गंवा कर भी गांधी जीत गया. गांधी के हत्यारे को दुनिया हत्यारे के रूप में ही जानेगी. भारत गांधी के देश के रूप में जाना जाएगा.

इसलिए गांधी से नफरत करने वालों से अपील है कि गांधी से नफरत मत करो, हार जाओगे. गांधी के प्रति अपने अंदर नफरत भर तो लोगे, लेकिन गांधी के बराबर आत्मबल कहां से लाओगे?

भारत के राष्ट्रपिता को नमन!

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(संदर्भ: इतिहासकार रामचंद्र गुहा, बिपनचंद्र, प्रोफेसर विश्वनाथ टंडन, टेलीग्राफ)

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

गांधी और भगत सिंह के नाम झूठ कौन फैला रहा है?


कुछ सालों से नई पीढ़ी के दिमाग में भरा गया है कि महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी लेकिन उन्होंने नहीं चाहा। सोशल मीडिया पर यह मूर्खता खूब चल रही है। जानबूझ कर गलत तथ्य देकर गांधी को भगत सिंह के खिलाफ खड़ा किया जाता है, जैसे पटेल को नेहरू के खिलाफ खड़ा किया जाता है। 


मजेदार है कि यह बात उस विचारधारा के लोग फैला रहे हैं जो उस समय भगत सिंह और उनके साथियों का मजाक उड़ा रहे थे। अपने मुखपत्र में इनका कहना था कि 'ताकतवर से लड़ना बुजदिली है, इसलिए अंग्रेजों से लड़ने की जगह उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। इसके लिए शम्सुल इस्लाम को पढ़ा जा सकता है जहां मुखपत्र और महान गुरुजी की लेखनी के उद्धरण मौजूद हैं।

अंग्रेजी हुक्मरानों को उस समय सफलता नहीं मिली थी, लेकिन सत्तर सालों बाद उनके षड्यंत्र की विषवेल फलफूल रही है। गांधी और भगत सिंह को एक दूसरे का दुश्मन बताया जा रहा है।

सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब "भारत का स्वाधीनता संघर्ष" में लिखा है-"महात्मा जी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने की पूरी कोशिश की। अंग्रेजों को गुप्तचर एजेंसियों से पता चला कि यदि भगत सिंह को फांसी दे दी जाये और उसके फलस्वरूप हिंसक आंदोलन उभरेगा, अहिंसक गांधी खुलकर हिंसक आंदोलन का पक्ष नहीं ले पाएंगे तो युवाओं में आक्रोश उभरेगा। वे कांग्रेस और गांधी से अलग हो जायेंगे। इसका असर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को समाप्त कर देगा।"

पर शुक्र है उस समय भारतीय जनता ने अंग्रेजी साम्राज्यवादी चाल को विफल कर दिया। कुछ नवयुवकों ने आक्रोश में आकर काले झण्डों के साथ प्रदर्शन किया लेकिन उसके बाद ही हिंसक आंदोलन का अंत हो गया। महात्मा गांधी ने अफसोस के साथ कहा, मैंने सारे प्रयत्न किए लेकिन हम सफल नहीं हुए। जो विरोध कर रहे हैं उनको गुस्सा निकालने दीजिए। भगत ने देश की आजादी के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है। बलिदान का ऐसा उदाहरण कम मिलता है।

यह सच है कि अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति- भगत सिंह की सजा कम करने के लिए कहने वाले गांधी जी की बात यदि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मान ली गई होती तो इसका सबसे अधिक लाभ गांधी जी का होता, उनकी अहिंसा की विजय होती।

अंग्रेजों की यह साजिश थी कि ऐसी रणनीति बनाई जाये कि अवाम को ऐसा लगे महात्मा के अपील पर फांसी रुक जायेगी, महात्मा ने स्वयं वाइसराय से मिलकर लिखित रूप में अपील की कि भगतसिंह की फांसी रोक दी जाये।

लेकिन अचानक समय से पहले ही भगत सिंह को फांसी दे दी गई। करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन प्रारम्भ होने से पहले ही फांसी देने का एक मात्र मकसद था गांधी के प्रति नवयुवकों में विद्रोह पैदा करना।

भगत सिंह ने स्वयं फांसी के पूर्व अपने वकील से मिलने पर कहा था- मेरा बहुत बहुत आभार पंडित नेहरू और सुभाष बोस को कहियेगा, जिन्होंने हमारी फांसी रुकवाने के लिए इतने प्रयत्न किये।

इतना ही नहीं भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह जी जिन्होंने 23 मार्च को अपना पुत्र खोया था, 26 मार्च को कांग्रेस अधिवेशन में लोगों से अपील कर रहे थे- आप लोगों को अपने जेनरल महात्माजी का और सभी कांग्रेस नेताओं का साथ जरूर देना चाहिए। सिर्फ तभी आप देश की आजादी प्राप्त करेंगे।

इस पिता के उदगार के बाद पूरा पंडाल सिसकियों में डूब गया था। नेहरू, पटेल, मालवीय जी के आंखों से आंसू गिर रहे थे।

वैसे यह झूठ फैलाने वाले दंगापंथियों से एक सवाल है कि जब भगत सिंह को फांसी हो रही थी तब आरएसएस के कई बड़े नेता जैसे हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर, मुंजे आदि क्या कर रहे थे? भगत की फांसी रुकवाने के लिए इन लोगों ने क्या किया? जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि कुछ नहीं। वे शाखा लगा रहे थे और जिन्ना के साथ हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र का खेल रहे थे। जब पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन में लाठियां और गोलियां खा रहा था, तब जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेजों के लिए कैंप लगाकर सैनिकों की भर्ती कर रहे थे, ताकि हिंदुस्तान के युवा अंग्रेजों की फौज में भर्ती होकर अंग्रेजों की तरफ से विश्वयुद्ध में भाग ले सकें.

भगत सिंह को फांसी हुई तो आरएसएस के मुखपत्र में लेख लिखकर क्रांतिकारी नौजवानों को 'बुजदिल' कहकर उनको अपमानित करने का काम इन्होंने जरूर किया था।
कहते थे कि हम शाखाओं में देश पर मर मिटने वाले युवक तैयार करेंगे। लेकिन अंग्रेजों को लिखित में दे रखा था कि आरएसएस क्रांतिकारी आंदोलन से दूर रहेगा।

संघ शाखा लगाता रहा, लाठी भांजता रहा और तबतक भारत की जांबाज जनता ने देश आजाद करा लिया। जिन मुस्लिमों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को गोलवलकर हिंदुओं का दुश्मन बता रहे थे, वे सब मिलकर लड़े और देश आजाद हो गया।

अब जिन्होंने आज़ादी आंदोलन में नाखून तक न कटवाया, उल्टा राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गद्दारी की, वे सबसे बड़े ठेकेदार बनकर सर्टिफिकेट बांटते फिर रहे हैं कि नेहरु ऐसे थे, गांधी ऐसे थे...

इनको इतिहास में जाकर सौ साल पुराना हिसाब इसीलिए करना है क्योंकि ये अपने अतीत से शर्मिंदा हैं। वरना इतिहास का सिर्फ इतना महत्व है कि उससे सबक लिया जाए। नेताओं की गलतियों से बड़ी है लाखों लोगों की कुर्बानी और उसका सम्मान! लेकिन लिंचतंत्र उसे भी अपमानित ही कर रहा है।

सौ साल पहले जो हुआ उसे आज सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन नेहरू नेहरू करने में संघ परिवार को बहुत मजा आता है क्योंकि अपना बताने को कुछ है नहीं। इसलिए झूठ फैलाते रहते हैं।


भ्रष्टाचार से लड़ाई जनता को उल्लू बनाने के लिए लड़ी जाती है

भ्रष्टाचार एक ऐसी लड़ाई है जो भारत में जनता को उल्लू बनाने के लिए लड़ी जाती है। मजे की बात है कि नरेंद्र मोदी एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद, भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री बने। वे आज भी लगभग अपने हर भाषण में भ्रष्टाचार पर जरूर बोलते हैं। लेकिन उनका पिछले छह साल का कार्यकाल यह गवाही देता है कि जनता को बहुत सफाई से उल्लू बना रहे हैं।
फोटो साभार: गूगल

पिछली बार सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने हथियार में दलाली को वैधानिक दर्जा दे दिया था। दूसरा कारनामा राफेल विमान की खरीद में हुआ। राजीव गांधी के कार्यकाल में बोफोर्स घोटाला हुआ था। उसके बाद की सरकारों ने किसी भी रक्षा खरीद के लिए बहुस्तरीय प्रणाली बनाई थी। इस प्रणाली को काफी पारदर्शी बनाते हुए सरकार ने नियम बनाए थे कि किसी भी रक्षा खरीद में सेना, संसद की सुरक्षा समिति, रक्षा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और मंत्रिमंडल की भूमिका होगी, लेकिन मोदी सरकार ने इन नियमों का पालन नहीं किया और ​राफेल की खरीद में जितने सवाल उठे, उनमें से किसी का भी जवाब नहीं दिया, न ही जांच कराई।

फिर इन्होंने लंबे आंदोलन के बाद बने लोकपाल को नहीं लागू होने दिया और अंततः उसमें संशोधन करके उसे कमजोर किया और फिर लागू किया। अब भारत का लोकपाल संस्था वजूद में तो है, लेकिन उसकी कानूनी स्थिति सीबीआई नामक 'पिंजरे के तोते' से अलग नहीं है, क्योंकि लोकपाल को जांच करने का अधिकार प्रिवेंशन आफ करप्शन एक्ट के तहत है और इस एक्ट में संशोधन करके सरकार ने यह व्यवस्था कर दी है कि बिना सरकार की अनुमति के कोई जांच नहीं जा सकती।

कई मामलों में जहां भ्रष्टाचार का आरोप लगा, मोदी सरकार ने ऐसे किसी भी मामले की जांच नहीं कराई। चाहे वह सहारा बिरला डायरी हो, चाहे फ्री में जमीन बांटने का मामला हो, राफेल घोटाला हो, व्यापम घोटाला हो, चावल घोटाला हो या फिर चिक्की घोटाला। किसी की न कायदे से जांच हुई न मामला अंजाम तक पहुंचा।

व्यापम शायद दुनिया का एकमात्र घोटाला होगा जिसमें दर्जनों लोग मारे गए।

पहले आडवाणी और फिर मोदी ने स्विस बैंक में काले धन को मुद्दा बनाया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद भारत से बाहर एक भी अकॉउंट चिह्नित नहीं किए गए, उल्टा कई लोग जनता का हजारों करोड़ लेकर भाग गए। जनता की जेब पर डाका डाल कर नोटबन्दी कर दी, जिसका फायदा बताया गया कि आतंकवाद और नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। नतीजा हुआ कि अर्थव्यवस्था अपने 20 साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है, कश्मीर में जो हो रहा है आप देख ही रहे हैं। नक्सलवाद का क्या बिगड़ा है वह खुद घोषणा करने वाले पीएम साब ही जानते होंगे।

अगला वार हुआ भ्रष्टाचार विरोधी कानून प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट पर। राफेल सौदे के बाद सरकार ने इस एक्ट को बदल कर कमजोर कर दिया। अब सरकार में शामिल किसी आदमी की जांच तब तक नहीं हो सकती, जब तक सरकार अनुमति न दे। अब कौन भ्रष्टाचारी इतना बड़ा महापुरुष होगा जो भ्रष्टाचार करके अपने ही खिलाफ जांच का आदेश देगा? चोर को ही कहा गया है कि तुम चौकीदारी करो।

अगला निशाना बना आरटीआई कानून, जो लंबे संघर्ष के बाद जनता को कानूनी अधिकार के रूप में मिला था। मोदी सरकार ने उस संस्था को कमजोर क्यों किया? जवाब साफ है कि भ्रष्टाचारी को बचाने के लिए। जनता सब बात को एक आवेदन से जान लेती थी, मोदी जी को यह अच्छा नहीं लगता था।

योजना आयोग को पिछली सरकार ने क्यों भंग किया था यह आजतक रहस्य ही है। उसकी जगह लेने वाले नीति आयोग ने सरकारी संपत्तियां बेचने की सिफारिश के अलावा आज तक क्या किया, कोई नहीं जानता।

सीबीआई, सीवीसी, आरटीआई, लोकपाल, प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट आदि को कमजोर करना, हथियार दलाली वैध करना और किसी भी घोटाले की जांच न होने का आपस मे गहरा संबंध है।

छह साल में ये स्पष्ट हो गया है कि एक पीएमओ के अलावा किसी मंत्रालय का कोई खास मतलब नहीं है। देश की सारी शक्तियां डेढ़ नेताओं और गुजरात कैडर के कुछ अधिकारियों द्वारा संचालित पीएमओ में एकत्र हो गई हैं। अब नया कारनामा होने जा रहा है कि तीनों सेनाओं का एक प्रमुख होगा।

कहने को मोदी के पहले भाषण से लेकर आज अंतिम भाषण तक में भ्रष्टाचार से लड़ने का कड़ा संकल्प मौजूद है।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नेता में भगवान खोज रहे लोगों की नियति ही है अंत में उल्लू बनना। जो उल्लू बनकर खुश हैं उन्हें आप बधाई दे सकते हैं।

सोमवार, 12 अगस्त 2019

प्राचीन काल का परमाणु परीक्षण और पोखरियाल का घोड़ा चतुर

एक हैं रमेश पोखरियाल निशंक और वे एक ही हैं. यह भारत देश का सौभाग्य है कि इस बार शिक्षा व्यवस्था की खटिया खड़ी करने का जिम्मा इनको दिया गया है. शायद सीधे सादे आदमी हैं इसलिए पार्टी के एजेंडे पर प्रतिबद्ध होकर लंबा फेंकते तो हैं, लेकिन बारूद ज्यादा डाल देते हैं, इसलिए वार लक्ष्य के पार निकल जाता है.

झूठ बोलने की मुश्किल यह है कि हर बार याद नहीं रहता कि पिछली बार क्या बोला था. रमेश पोखरियाल निशंक इसी फेर में फंसे हैं बेचारे. पिछली बार बीजेपी की सरकार आई तो संसद में बोले कि पहली बार दूसरी सदी में महर्षि कण्व ने परमाणु परीक्षण किया था. फिर बाद में ​बोले कि ऋषि कणाद ने परमाणु परीक्षण किया था. अब आईआईटी में जाकर बोल रहे हैं कि चरक संहिता वाले चरक ऋषि ने परमाणु और अणु की खोज की थी और नासा कह रहा है कि संस्कृत की वजह से बोलने वाला कंप्युटर बनेगा.
फोटो साभार: गूगल

एक तो यह अनमोल हीरा सिर्फ भारत के पास है जिसके मुखारविंद से सिर्फ और सिर्फ विज्ञान और परमाणु तकनीक की जानकारी झरती है. लेकिन हर बार भूल जाते हैं कि​ पिछली बार क्या कहा था, इसलिए एक पे नहीं रह पाते और घोड़ा चतुर घोड़ा चतुर करते रहते हैं.

सुना है कि ये साब दर्जनों किताबों के लेखक हैं लेकिन वे किताबें रद्दी में भी आठ रुपये किलो बिक सकी हैं या दीमकों ने उन्हें अपनी माटी ​में मिला कर 'वाल्मिीकि' बना दिया है, कौन जाने? बस इतना पता है कि इनके लिखे का जिक्र आजतक इस ब्रम्हांड में नहीं हुआ.

योग्यता के हिसाब से तो शिक्षा को बर्बाद करने के लिए निशंक जी एकदम सही आदमी हैं, लेकिन झूठ बोलने की इनकी ट्रेनिंग कमजोर रह गई. इन्हें देशहित में कुछ दिन के लिए संघ की शाखा में जाना चाहिए और राजेंद्र यादव के शब्दों में एकदम 'घाघ, घुन्ना और घुटा हुआ' झुट्ठा बनना चाहिए.

सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम बात यह है कि प्राचीन भारत का ज्ञान विज्ञान उपहास का पात्र नहीं है. उसने अपना लोहा मनवाया है. भारतीय दर्शन में हर विषय में गंभीर विचार हुआ है जिसका अपना वैश्विक महत्व है. हो सकता है कि किसी युग में हम तकनीकी रूप से बेहद वि​कसित रहे हों, लेकिन आज वहां नहीं है. उलूल जुलूल बातें कहने की जगह शोध कार्यों को बढ़ाना चाहिए. क्या कम्प्युटर साइंस और संस्कृत को लेकर भारत में कोई शोध हुआ है? क्या आधुनिक परमाणु तकनीक और वैदिक ज्ञान पर कोई प्रमाणिक शोध हुआ है जो दोनों का आपस में अनन्य संबंध स्थापित करे? अगर हुआ है तो भी, अगर नहीं हुआ है तो भी, निशंक जी को तुरंत इन पर काम शुरू करवाना चाहिए. अभी वे जगहंसाई करवा रहे हैं.

हाल ही में सरकार ने संसद को बताया है कि 'देश की 70 प्रमुख प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिकों के 2911 पद रिक्त हैं.

युवाओं को सुरक्षित भविष्य चाहिए. वे नौकरी की तलाश में इधर उधर भाग रहे हैं. उन्हें शोध करने में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिखता. निशंक जी मानव संसाधन विकास मंत्री हैं. युवा शोध की तरफ जाएं, नई नई खोज करें, इसके लिए वे क्या कर रहे हैं? जवाब है कुछ नहीं. वे खुद ही इतिहासकार बन गए हैं.

भारत में दक्षिणपंथी राजनीति की यही विडंबना है कि वहां सर्वोच्च नेता से लेकर आम कार्यकर्ता तक सब इतिहासकार और वैज्ञानिक हैं. अमित शाह संसद में आजादी और कश्मीर का अनर्गल इतिहास बता रहे हैं. निशंक जी बाहर विज्ञान का गलत इतिहास बता रहे हैं. कार्यकर्ता व्हाट्सएप पर बाबर अकबर से लेकर सावरकर और नेहरू तक का इतिहास बता रहे हैं और सब मिलकर, इतिहास में लौटकर हिसाब बराबर कर लेने की तैयारी कर रहे हैं.

जिस वक्त बेरोजगार युवा यूपी में आत्महत्या कर रहे हैं, देश भर के प्रतियोगी छात्र रवीश कुमार को प्रोग्राम चलाने का मैसेज कर रहे हैं, दक्षिणपंथी चपेट में आए युवा लिंचिंग और कश्मीर में व्यस्त हैं, उस समय निशंक जी खुद ही इतिहास क्यों बता रहे हैं?

45 साल में सबसे निचले स्तर की रिकॉर्ड बेरोजगारी के दौर में निशंक का मंत्रालय शिक्षा और रोजगार को लेकर सुधार का कौन सा कदम उठाने जा रहा है? यह सब मत पूछिए. बस इतिहास पूछ लीजिए.

प्राचीन भारत का ज्ञान बहुत समृद्ध था तो यह गौरव की बात है. लेकिन आज के ज्ञान युग में आपके वैज्ञानिक या ऐतिहासिक दावों को अगर तार्किक, ऐतिहासिक व वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ पेश नहीं किया गया तो आप मूर्ख कहलाएंगे. दुनिया में जितनी महाशक्तियां हैं वे प्राचीन काल के गौरव के आधार पर महाशक्ति नहीं बनी हैं. वे अपनी आधुनिकतम आर्थिक और तकनीकी क्षमताओं के कारण महाशक्ति बनी हैं. संघ परिवार को यह बात कब समझ में आएगी?


रविवार, 4 अगस्त 2019

भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का प्रचार झूठ पर आधारित है

यह बात मीडिया आपको नहीं बताएगा कि भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का प्रचार झूठ पर आधारित है.

18 जुलाई, 2015 को आउटलुक में एक खबर छपी. अरविंद पनगढ़िया ने एक कार्यक्रम में कहा था कि '15 साल से भी कम समय में हमारी अर्थव्यवस्था में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की संभावनाएं बहुत प्रबल हैं.' यह व्याख्यान इंडियन इंस्टीट्यूट आफ बैंकिंग एंड फाइनेंस ने आयोजित किया था. इस खबर में ​कहा गया कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) सहित कई विश्लेषक यह अनुमान व्यक्त कर चुके हैं कि अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है. वर्ष 2030 तक भारत की जीडीपी 10,000 अरब डालर तक पहुंच सकती है.

अब मोदी जी का लक्ष्य है कि 2025 तक 5000 अरब डॉलर की इकोनॉमी बनाएंगे. मतलब जो स्वाभाविक प्रगति थी, उससे भी कम का लक्ष्य रखा है. मंदी की आहट देखकर यह प्रचार किया गया है कि हम 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बना देंगे.

भारत अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में पांचवें नंबर से फिसल कर सातवें पर पहुंच गया है. मौजूदा विकास दर 5.8 प्रतिशत है और 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कम से कम आठ प्रतिशत की विकास दर चाहिए, जबकि बाजार में मचा हाहाकार बता रहा है कि आने वाला समय और मुश्किल होगा.

पनगढ़िया ने उक्त कार्यक्रम में कहा था, 'वर्ष 2003-04 से 2012-13 के दशक के दौरान रपये में आई वास्तविक मजबूती पर यदि गौर किया जाये तो डालर के लिहाज से हमने सालाना 10 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की. इस रफ्तार से हम 2014-15 के दाम पर मौजूदा 2,000 अरब डालर की अर्थव्यवस्था को अगले 15 साल अथवा इससे भी कम समय में 8,000 अरब डालर तक पहुंचा सकते हैं, इसके साथ ही हम दुनिया की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था जापान से आगे निकल सकते हैं.'

2003-04 से लेकर 2012-13 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था 8.3 प्रतिशत की अच्छी रफ्तार से आगे बढ़ी थी. यही वह दौर था जब गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या में सबसे अधिक कमी आई. आज भारत की विकास दर 5.8 फीसदी पर अटकी हुई है और बाजार में जिस तरह की भगदड़ है, यह और नीचे जाएगी.

बेरोजगारी का प्रकोप शुरू हो गया है.

मारुति सुजुकी इंडिया ने 1,000 से ज्यादा अस्थायी कर्मचारियों की छंटनी कर दी है और नई भर्तियां रोक दी है. कंपनी अपने को मंदी से बचाने के लिए अन्य लागत कटौती उपायों की योजना बना रही है.

अनुमान है कि माह-दर-माह बिक्री गिरने और डीलरशिप पर इनवेंट्री बढ़ने के चलते आटो सेक्टर की हालत खस्ता हो चुकी है. वाहन कंपनियों की बिक्री निचले स्तर पर है. आने वाले महीनों में आटो सेक्टर से 10 लाख नौकरियां जा सकती हैं.

हुंडई, महिंद्रा, टाटा, बजाज आदि सबकी हालत खराब है. अर्थव्यवस्था की सुस्ती बढ़ रही है, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में नकदी का संकट बना हुआ है. मानसून की देरी से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी तेजी नहीं आ पाई.

बेरोजगारी अपने 45 साल के निचले स्तर पर पहुंच गई है. नोटबंदी ने सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले कुटीर, लघु और मझोले उद्योगों की रीढ़ तोड़ दी थी. वहां पर हालत और खराब ही हुए हैं. कारखाने बंद होने का सिलसिला जारी है और उत्पादन सिकुड़ रहा है जिसके चलते रोजगार छिन रहे हैं. देश में हस्तकला और छोटे छोटे पारंपरिक उद्योगों के लिए मशहूर इलाकों में मुर्दनी छा गई है.

जुलाई महीना भारतीय शेयर बाजार के लिए पिछले 17 साल का सबसे खराब महीना था.
5 जुलाई को आम बजट पेश होने के बाद शेयर बाजार धड़ाम हो गया और सरकार के 50 दिन पूरे होने तक शेयर बाजार में निवेशकों के 12 लाख करोड़ डूब गए.

एसबीआई के चेयरमैन रजनीश कुमार कह रहे हैं कि अब 'SBI की वित्तीय हालत को सुधारने के लिए केवल भगवान का सहारा ही बचा है.'

एचडीएफसी के दीपक पारेख कह रहे हैं कि 'मंदी साफ दिख रही है' आरबीआई गवर्नर कह रहे हैं कि 'अर्थव्यवस्था अनिश्चित दौर की ओर जा रही है.'

दर्जनों उद्योगपति ढहती अर्थव्यवस्था पर खुलकर चिंता जाहिर कर रहे हैं. अर्थशास्त्री सरकार को आगाह कर रहे हैं लेकिन सरकार ने इसका उपाय ढूंढने की तरह आपको 5 ट्रिलियन डॉलर का झुनझुना पकड़ा दिया है.

रविवार, 23 जून 2019

क्या आप जानते हैं कि देश में सालाना कितने किसान मर रहे हैं?

हमारे सियासी गलियारे में जिसके नाम का नारा लगे, समझिए उसके दुर्दिन आ चुके हैं. किसानों के नाम पर न राजनीति नई है, न किसानों की खुदकुशी का सिलसिला नया है. 

महाराष्ट्र में पिछले चार साल में 12 हजार 21 किसानों ने आत्महत्या की है. किसानों की कब्रगाह बन चुके महाराष्ट्र में पिछले चार साल से रोजाना 8 किसान खुदकुशी कर रहे हैं.राज्य में इस साल जनवरी से मार्च तक ही 610 किसानों ने आत्महत्या की है.
दिल्ली में किसानों के प्रदर्शन के दौरान महाराष्ट्र का एक बच्चा. फोटो: रायटर्स 

महाराष्ट्र के राहत और पुनर्वास मंत्री सुभाष देशमुख ने विधानसभा को बताया है कि जनवरी 2015 से दिसंबर 2018 के बीच 12 हजार 21 किसानों ने आत्महत्या की, जिनमें से सिर्फ 6 हजार 888 यानी 57 फीसदी किसानों के परिजन ही आर्थिक सहायता पाने के योग्य पाए गए.

मंत्री जी ने बताया है कि राज्य में किसान आत्महत्या थम नहीं रही है. उनके हिसाब से पिछले चार सालों में हर साल औसतन 3,005 किसानों ने आत्महत्या की है.

महाराष्ट्र भीषण सूखे से जूझ रहा है और ऊपर से किसानों की आत्महत्या के आंकड़े बेहद चिंताजनक हैं.

इस मामले पर लगातार लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ ने न्यूज क्लिक से बातचीत में दावा किया है कि 'सरकार द्वारा आत्महत्या को लेकर जारी आंकड़े बोगस हैं. ये आंकड़े एनसीआरबी ने नहीं जारी किए हैं. ये आंकड़े राजस्व विभाग के हैं. वास्तविकता में इससे कही ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है. 2014 के बाद से ही वास्तविक आत्महत्या का आंकड़ा पता नहीं चल रहा है. सरकार ऐसा मुआवजा देने से बचने के लिए कर रही है. जिन 12 हजार किसानों की मौत को स्वीकार कर रही है, उसमें से भी सिर्फ आधे लोगों को मुआवजा दिया गया है.'

पी साईनाथ कहते हैं,'इसका सीधा कारण वही है जो पिछले 20 सालों से चला आ रहा है. यानी कृषि संकट. महंगाई बढ़ने से कृषि लागत बढ़ गई है. न्यूनतम समर्थन मूल्य भी किसानों को नहीं मिल पा रहा है. किसानों को बैंक से क्रेडिट नहीं मिल रहा है. मजबूरन किसान साहूकारों की चपेट में आ जाते हैं. अब सरकार में बैठे लोगों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह वास्तविक कारण जानना ही नहीं चाह रहे हैं. समस्या का हल निकालना तो दूर की बात है.'

21 जून को छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले से खबर आई कि बीजेपी किसान मोर्चा के वरिष्ठ नेता मोहन राम निराला ने ही फांसी लगाकर जान दे दी. खुदकुशी की वजह कर्ज बताई जा रही है. मोहन राम निराला बीजेपी किसान मोर्चा के जिलाध्यक्ष थे. इस मामले में बीजेपी ने दावा किया कि एक सुसाइड नोट मिला है, लेकिन पुलिस ने इस दावे को खारिज कर दिया.

बीजेपी नेताओं का कहना है कि निराला के शव के पास एक सुसाइड नोट मिला था. नोट में कर्ज से परेशान होकर खुदकुशी करने का जिक्र है. बीजेपी नेताओं का दावा है कि सुसाइड नोट में निराला ने 4 लाख रुपये का कर्ज लेने की बात कही है. बीजेपी ने इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी गठित की है.

आजतक की खबर में लिखा गया है कि बीजेपी कांग्रेस सरकार को घेरने की योजना बना रही है. लेकिन बीजेपी को यह याद रखना चाहिए कि इस वक्त केंद्र में उसकी सरकार है और किसानों की खुशहाली और दोगुनी आय का दावा पीएम खुद करते रहते हैं.

बीजेपी और कांग्रेस दोनों किसानों के साथ भद्दा मजाक कर रहे हैं. कांग्रेस शासित राज्यों में किसानों की कर्जमाफी का बड़ा शोर मचाया गया. पंजाब सरकार किसानों का कर्ज माफ करने का दावा कर रही है, लेकिन कर्ज माफी के नाम पर आए दिन किसानों के साथ मजाक भी होता रहता है. ताजा मामले में पंजाब के बरनाला के बड़बर गांव में कर्ज माफी के लिए किसानों की लिस्ट बनाई गई है, लेकिन इस लिस्ट में 13 जीवित किसानों को मृत दिखा दिया गया. इस पर किसानों ने एतराज जताया और कहा कि अगर सरकार को कर्ज माफ नहीं करना है तो न करे लेकिन कम से कम उन्हें कागजों में मरा हुआ तो ना दिखाए.

बड़बर गांव के किसान गुरमुख सिंह ने आजतक से कहा कि कर्ज माफी के नाम पर किसानों से पंजाब में सिर्फ मजाक किया जा रहा है. स्थानीय को-ऑपरेटिव सोसाइटी की ओर से जो कर्ज माफी की पहली किसानों की लिस्ट बनाई गई थी उसमें उन्हें कागजों में मृत दिखा दिया गया है. इसके बाद उन्होंने अपने जीवित होने के सबूत बैंक के सामने पेश किए और बड़ी मशक्कत के बाद अपना नाम दूसरी कर्ज माफी की लिस्ट में ऐड करवाया, लेकिन दूसरी लिस्ट में भी उन्हें एक बार फिर से मृत दिखा दिया गया है.

मजे की बात यह है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस किसानों के कर्ज को मुद्दा बना रही है और राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में बीजेपी भी इसे मुद्दा बना रही है. किसान दोगुनी स्पीड से मर रहे हैं और ये दोनों पार्टियां पब्लिक को मूर्ख बना रही हैं.

पी साईनाथ ने मुझसे एक इंटरव्यू में कहा था कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना एक बहुत बड़ा घोटाला है. इससे सिर्फ बीमा कंपनियों को फायदा हो रहा है, किसानों को कोई फायदा नहीं हो रहा. उल्टा उनसे भी पैसा वसूला जा रहा है.

किसान संगठनों की समन्वय समिति में सक्रिय योगेंद्र यादव का दावा है कि 'इस देश में सभी तरह की सरकारें आई हैं. अच्छी, बुरी. लेकिन वर्तमान सरकार जैसी झूठी सरकार नहीं आई. नरेंद्र मोदी सरकार साफ़ झूठ बोलती है. ये जुमला चलाते हैं कि किसानों की आय दोगुनी कर देंगे. सरकार का कार्यकाल ख़त्म हो गया लेकिन अब तक इनको यह पता तक नहीं है कि किसानों की आय बढ़ी या नहीं बढ़ी.'

यादव के मुताबिक, 'सरकार की एक उपलब्धि है कि फसल बीमा योजना में सरकार का ख़र्चा साढे चार गुणा बढ़ गया लेकिन उसके दायरे में आने वाले किसानों की संख्या नहीं बढ़ी. फसल बीमा योजना के तहत किए गए किसानों के दावों की संख्या इस सरकार में घट गई है. सरकार कहती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य उसने डेढ़ गुणा कर दिया है, ये पूरी तरह झूठ है.'

किसान आत्महत्याओं की कहानियां अंतहीन हैं. एक लेख में नहीं लिखी जा सकती हैं. आप चाहें तो कुछ देर चिंतन कर सकते हैं कि जिस देश में पिछले 20 साल में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने कर्ज, सूखा, फसल बर्बाद होने और आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या की हो, उस देश की सरकार ने ​इन आत्महत्याओं का आंकड़ा ही जारी करना बंद कर दिया है.

2015 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चला था कि किसान आत्महत्या की दर 42 फीसदी बढ़ गई है. इसके बाद से सरकार ने आंकड़े नहीं जारी होने दिए. जब तक आंकड़े जारी हुए, त​ब तक खुदकुशी करने वाले किसानों की संख्या 10 से 15 हजार सालाना थी. आज यह 10 हजार है या 20 हजार, किसी को नहीं मालूम है.

समस्या का उपाय करने की जगह यह कोशिश की जा रही है कि समस्या पर बात ही न हो. जिस गति से किसान अपनी जान दे रहे हैं, कोई दूसरा देश होता तो वहां हाहाकार मच गया होता. लेकिन भारत की सियासत से ज्यादा संवेदनहीन भारत की जनता है. आप लिखेंगे कि कि इतनी बड़ी संख्या में किसानों ने खुदकुशी कर ली तो कोई 'सोशल मीडिया वीर' आकर कमेंट बॉक्स में आपके लिए गाली लिख देगा.

लेकिन ​अगर कोई इंसान जिंदा है तो उसे अपने आप से पूछना चाहिए कि जिस देश में सिर्फ एक राज्य में एक सरकार के कार्यकाल में 12 हजार किसान आत्महत्या कर लेते हैं, क्या वह देश सच में मजबूत देश कहलाएगा?


शुक्रवार, 21 जून 2019

'धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं'

(व्यंग्य विधा के पितामह हरिशंकर परसाई का 'वैष्णव की फिसलन' शीर्षक से यह लेख बेहद लोकप्रिय है. यहां पर हेडिंग बदल दी गई है.)

वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिएवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं। कर्ज लेने वाले आते हैं। विष्णु भगवान के वे मुनीम हो जाते हैं। कर्ज लेने वाले से दस्तावेज लिखवाते हैं-

‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि...

वैष्णव बहुत दिनों से विष्णु के पिता के नाम की तलाश में है, पर वह मिल नहीं रहा। मिल जाय तो वल्दियत ठीक हो जाय।

वैष्णव के पास नंबर दो का बहुत पैसा हो गया है। कई एजेंसियां ले रखी हैं। स्टाकिस्ट हैं। जब चाहे माल दबाकर ‘ब्लैक’ करने लगते हैं। मगर दो घंटे विष्णु-पूजा में कभी नागा नहीं करते। सब प्रभु की कृपा से हो रहा है। उनके प्रभु भी शायद दो नंबरी हैं। एक नंबरी होते, तो ऐसा नहीं करने देते।

वैष्णव सोचता है- अपार नंबर दो का पैसा इकठ्ठा हो गया है। इसका क्या किया जाय? बढ़ता ही जाता है। प्रभु की लीला है। वही आदेश देंगे कि क्या किया जाय।

वैष्णव एक दिन प्रभु की पूजा के बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा- प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका!

तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज उठी- अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकल होटल बहुत चल रहे हैं।

वैष्णव ने प्रभु का आदेश मानकर एक विशाल होटल बनवाई। बहुत अच्छे कमरे। खूबसूरत बाथरूम। नीचे लॉन्ड्री। नाई की दुकान। टैक्सियाँ। बाहर बढ़िया लान। ऊपर टेरेस गार्डेन।

और वैष्णव ने खूब विज्ञापन करवाया।

कमरे का किराया तीस रुपए रखा।

फिर वैष्णव के सामने धर्म-संकट आया। भोजन कैसा होगा? उसने सलाहकारों से कहा - मैं वैष्णव हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन कराऊँगा। शुद्ध घी की सब्जी, फल, दाल, रायता, पापड़ वगैरह।

बड़े होटल का नाम सुनकर बड़े लोग आने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव, बड़े अफसर और बड़े सेठ।

वैष्णव संतुष्ट हुआ।

पर फिर वैष्णव ने देखा कि होटल में ठहरने वाले कुछ असंतुष्ट हैं।

एक दिन कंपनी का एक एक्जीक्यूटिव बड़े तैश में वैष्णव के पास आया। कहने लगा- इतने महँगे होटल में हम क्या यह घास-पत्ती खाने के लिए ठहरते हैं? यहाँ ‘नानवेज’ का इंतजाम क्यों नहीं है?

वैष्णव ने जवाब दिया- मैं तो वैष्णव हूँ। मैं गोश्त का इंतजाम अपने होटल में कैसे कर सकता हूँ?

उस आदमी ने कहा- वैष्णव हो, तो ढाबा खोलो। आधुनिक होटल क्यों खोलते हो? तुम्हारे यहाँ आगे कोई नहीं ठहरेगा|

वैष्णव ने कहा- यह धर्म-संकट की बात है। मैं प्रभु से पूछूँगा।

उस आदमी ने कहा- हम भी बिजनेस में हैं। हम कोई धर्मात्मा नहीं हैं- न आप, न मैं।

वैष्णव ने कहा- पर मुझे तो यह सब प्रभु विष्णु ने दिया है। मैं वैष्णव धर्म के प्रतिकूल कैसे जा सकता हूँ? मैं प्रभु के सामने नतमस्तक होकर उनका आदेश लूँगा।

दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा- प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरने वाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ?

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई- मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है- ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।

वैष्णव समझ गया।

उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतजाम करवा दिया।

होटल के ग्राहक बढ़ने लगे।

मगर एक दिन फिर वही एक्जीक्यूटिव आया।

कहने लगा- हाँ, अब ठीक है। मांसाहार अच्छा मिलने लगा। पर एक बात है।

वैष्णव ने पूछा- क्या?

उसने जवाब दिया- गोश्त के पचने की दवाई भी तो चाहिए।

वैष्णव ने कहा- लवण भास्कर चूर्ण का इंतजाम करवा दूँ?

एक्जीक्यूटिव ने माथा ठोंका।

कहने लगा- आप कुछ नहीं समझते। मेरा मतलब है- शराब। यहाँ बार खोलिए।

वैष्णव सन्न रह गया। शराब यहाँ कैसे पी जाएगी? मैं प्रभु के चरणामृत का प्रबंध तो कर सकता हूँ। पर मदिरा! हे राम!

दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा- प्रभु, वे लोग मदिरा माँगते हैं| मैं आपका भक्त, मदिरा कैसे पिला सकता हूँ?

वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आई- मूर्ख, तू क्या होटल बैठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे। वही सोमरस यह मदिरा है। इसमें तेरा वैष्णव-धर्म कहाँ भंग होता है। सामवेद में तिरसठ श्लोक सोमरस अर्थात मदिरा की स्तुति में हैं। तुझे धर्म की समझ है या नहीं?

वैष्णव समझ गया।

उसने होटल में ‘बार’ खोल दिया।

अब होटल ठाठ से चलने लगा। वैष्णव खुश था।

फिर एक दिन एक आदमी आया। कहने लगा- अब होटल ठीक है। शराब भी है। गोश्त भी है। मगर मारा हुआ गोश्त है। हमें जिंदा गोश्त भी चाहिए।

वैष्णव ने पूछा- यह जिंदा गोश्त कैसा होता है?

उसने कहा- कैबरे, जिसमें औरतें नंगी होकर नाचती हैं।

वैष्णव ने कहा- अरे बाप रे!

उस आदमी ने कहा- इसमें ‘अरे बाप रे’ की कोई बात नहीं। सब बड़े होटलों में चलता है। यह शुरू कर दो तो कमरों का किराया बढ़ा सकते हो।

वैष्णव ने कहा- मैं कट्टर वैष्णव हूँ। मैं प्रभु से पूछूँगा।

दूसरे दिन फिर वैष्णव प्रभु के चरणों में था। कहने लगा- प्रभु, वे लोग कहते हैं कि होटल में नाच भी होना चाहिए। आधा नंगा या पूरा नंगा।

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई- मूर्ख, कृष्णावतार में मैंने गोपियों को नचाया था। चीर-हरण तक किया था। तुझे क्या संकोच है?

प्रभु की आज्ञा से वैष्णव ने ‘कैबरे’ भी चालू कर दिया।

अब कमरे भरे रहते थे- शराब, गोश्त और कैबरे।

वैष्णव बहुत खुश था। प्रभु की कृपा से होटल भरा रहता था।

कुछ दिनों बाद एक ग्राहक ने बेयरे से कहा- इधर कुछ और भी मिलता है?

बेयरे ने पूछा- और क्या साब?

ग्राहक ने कहा- अरे यही मन बहलाने को कुछ? कोई ऊँचे किस्म का माल मिले तो लाओ।

बेयरा ने कहा- नहीं साब, इस होटल में यह नहीं चलता।

ग्राहक वैष्णव के पास गया। बोला- इस होटल में कौन ठहरेगा? इधर रात को मन बहलाने का कोई इंतजाम नहीं है।

वैष्णव ने कहा- कैबरे तो है, साहब।

ग्राहक ने कहा- कैबरे तो दूर का होता है। बिलकुल पास का चाहिए, गर्म माल, कमरे में।

वैष्णव फिर धर्म-संकट में पड़ गया।

दूसरे दिन वैष्णव फिर प्रभु की सेवा में गया। प्रार्थना की- कृपानिधान! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं- पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई- मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।

वैष्णव ने बेयरों से कहा- चुपचाप इंतजाम कर दिया करो। जरा पुलिस से बचकर, पच्चीस फीसदी भगवान की भेंट ले लिया करो।

अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा।

शराब, गोश्त, कैबरे और औरत।

वैष्णव धर्म बराबर निभ रहा है।

इधर यह भी चल रहा है।

वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।

(हिंदी समय से साभार)

शुक्रवार, 31 मई 2019

क्या नेहरू सरकार का पहला संविधान संशोधन प्रेस के खिलाफ था?

हमारे अजीज अरुण तिवारी ने तीन चार दिन पहले #नेहरूकीविरासत सीरीज में एक पोस्ट लिखी, एक पोस्ट लिखी कि 'भारत के गणतंत्र बन जाने के ठीक 18 महीने बाद पहला संविधान संशोधन प्रेस फ्रीडम को दबाने के लिए किया गया था. मद्रास की एक पत्रिका क्रॉस रोड्स नेहरू जी की नीतियों की आलोचना करती थी....सो उस समय की सरकार से बर्दाश्त नहीं हुआ. पत्रिका बैन कर दी गई थी. वामपंथी लेखक रोमेश थापर एडिटर हुआ करते थे.'

अगर ऐसा हुआ तो आजादी के तुरंत बाद ही बहुत बुरा हुआ था. लेकिन क्या सच में ऐसा ही हुआ था? आइए देखते हैं.

भीमा कोरेगांव की घटना के बाद, सितंबर, 2018 में पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई के संबंध में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘जिनकी गिरफ्तारी हुई है वे पहले भी गिरफ्तार हो चुके हैं. आरोप गंभीर हैं. किसी सरकार को गिराने की साजिश रचना, हिंसा को बढ़ावा देने के लिए अपनी विचारधारा का सहारा लेना और सबसे बड़ी बात किसी देश को तोड़ने के लिए साजिश रचना, मैं समझता हूं इससे बड़ा अपराध कुछ और नहीं हो सकता...प्रेशर कुकर को हम दबाने की कोशिश नहीं करेंगे. लोकतंत्र में सबको बोलने की आजादी है. सबको चलने की आजादी है. सब कुछ करने की आजादी है. लेकिन किसी को भी देश को तोड़ने की इजाजत नही दी जा सकती है. हिंसा को बढ़ावा देने की आजादी नही दी जा सकती है.’
संविधान की कॉपी पर हस्ताक्षर करते हुए संविधान सभा के सदस्य.


यह एक उदाहरण है जिसे ध्यान में रखते हुए यह कह सकते हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता हमेशा सत्ता से टकराती रही है. राजनाथ सिंह ने जो भी कहा, वह इससे पहले भी कई बार कहा जा चुका है. बोलने की आजादी पर सारे प्रतिबंध इन्हीं तर्कों के सहारे थोपे गए.

आजाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ पहला डंडा नेहरू मंत्रिमंडल ने चलाया, जिसमें सरदार पटेल और डॉक्टर अंबेडकर शामिल थे. इस डंडे का शिकार बने जनसंघ नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी, क्रासरोड साप्ताहिक के संपादक रोमेश थापर और आर्गेनाइजर के संपादक केआर मल्कानी.

आजादी के बाद मई, 1950 में सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला आया. यह दो केसों से संबंधित था. रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य और बृजभूषण बनाम दिल्ली राज्य. रोमेश थापर जानेमाने वामपंथी थे जो बंबई से 'क्रासरोड' नामक साप्ताहिक निकालते थे. वे इसके संपादक और प्रकाशक थे. थापर, नेहरू और उनकी नीतियों के घोर आलोचक थे. यह वही समय था जब मद्रास और केरल में वामपंथ तेजी से बढ़ रहा था. मद्रास सरकार ने मेंटेनेंस आफ पब्लिक आर्डर एक्ट 1949 के तहत इस पत्र के छपने और प्रसारित होने पर पाबंदी लगा दी. रोमेश थापर सुप्रीम कोर्ट चले गए.

दूसरा मामला दिल्ली से छपने वाले संघ के मुखपत्र आर्गेनाइजर का था. केआर मल्कानी इसके संपादक और बृजभूषण इसके प्रकाशक थे. दिल्ली के कमिश्नर ने भड़काने वाली फोटो और सामग्री छापने के आरोप में पंजाब पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1949 के तहत इस पर पाबंदी लगा दी. ध्यान रहे कि बंगाल और दिल्ली पंजाब सबसे ज्यादा दंगा प्रभावित इलाकों में थे.

दोनों मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने एक ही दिन फैसला दिया और कहा कि अनुच्छेद 19(2) में 'पब्लिक आर्डर' और 'पब्लिक सेफ्टी' जैसे पदों का जिक्र नहीं है इसलिए ये फैसले असंवैधानिक हैं.

जब यह फैसला आया, उसी दौरान भारत सरकार ने पाकिस्तान सरकार से एक समझौता किया. नेहरू और लियाकत अली के बीच समझौता हुआ कि दोनों सरकारें अपने यहां के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करेंगी. इसे नेहरू—लियाकत पैक्ट नाम दिया गया. इसमें ऐसी हर गतिविधियों पर पाबंदी लगाने का समझौता था, जिसके तहत दोनों देशों में युद्ध की स्थिति बने. मार्च, 1950 में नेहरू ने पटेल को पत्र लिखा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी लगातार अखंड भारत की बात कर रहे हैं जिससे परेशानी खड़ी हो रही है. पटेल ने जवाब में लिखा कि अब हम संविधान से बंधे हैं जो बोलने की आजादी देता है. हम कोई एक्शन नहीं ले सकते. समझौता साइन होने के बाद मुखर्जी ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और दोनों देशों में खुलकर युद्ध की बात करने लगे. पाकिस्तान ने इसपर प्रतिक्रिया दी. थापर नेहरू की विदेश नीति पर लगातार हमले कर रहे थे तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपने अखंड भारत के लिए प्रचार कर रहे थे.

इस मसले पर नेहरू और पटेल ने के पत्राचार में नेहरू ने लिखा कि मुख्य अभियुक्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हिंदू महासभा हैं जो इस समझौते के क्रियान्वयन में बाधा बन रहे हैं. इस पर पटेल ने कहा कि दो मामलों में कोर्ट के निर्णय ने हमारे सभी संवैधानिक उपायों को हिलाकर रख दिया है. हमें जल्दी ही संविधान में संशोधन करना पड़ेगा.

जून, 1951 में संविधान में पहला संशोधन हुआ. तीन संशोधनों में से एक प्रेस और फ्री स्पीच को लेकर था. अनुच्छेद 19(2) जोड़कर अभिव्यक्ति की आजादी पर 'युक्तियुक्त निर्बंधन' यानी reasonable restrictions की बात जोड़ी गई. नेहरू का कहना था कि इससे मामला कोर्ट के पाले में चला जाएगा, लेकिन अंबेडकर ने कहा कि हमें बोलने की आजादी भी देनी है और सुरक्षा भी जरूरी है. इसलिए पाबंदी भी तार्किक होनी चाहिए. इसमें मोटा मोटी मानहानि, अभद्रता, कोर्ट की अवमानना, और राष्ट्र की सुरक्षा जैसे मसलों पर बोलने पर उचित पाबंदी की बात कही गई.

इस संशोधन के पक्ष में नेहरू ने कहा, किसी को बोलने की ऐसी आजादी नहीं दी जा सकती कि उसके बोलने के पश्चात दो देशों में युद्ध छिड़े और बर्बादी हो. हालांकि, मुखर्जी का कहना था कि देश का बंटवारा एक गलती थी. इसे बलप्रयोग से सुधार लेना चाहिए.

जस्टिस एपी शाह ने एमएन राय मेमोरियल लेक्चर में 2017 में कहा था, ''संविधान असेंबली के वाद-विवाद के दौरान दो बार इस बात का प्रयास किया गया कि अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगाने के लिए देशद्रोह को एक आधार बनाया जाए. परंतु असेंबली के अन्य सदस्यों के विरोध और उनको डर था कि देशद्रोह को फिर राजनीतिक असहमति को कुचलने के लिए प्रयोग किया जा सकता है, इसको संविधान के अनुच्छेद 19(2) से हटा दिया गया. वर्ष 1950 में संविधान बनाने वालों के इन एक्शन को खुद सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया. यह बातें सुप्रीम कोर्ट ने बृज भूषण एंड रोमेश थापर के केस में कही थी. इस फैसले के कारण ही संविधान में पहले संशोधन को बढ़ावा मिला और अनुच्छेद 19(2) को संशोधित किया गया. जिसके तहत 'अंडरमाईनिंग दाॅ सिक्योरटी आफ दाॅ स्टेट’ की जगह  'इन दाॅ इंटरेस्ट आफ पब्लिक आर्डर’ को शामिल किया गया. हालांकि संसद में बोलते समय नेहरू ने साफ किया कि जहां तक भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए की बात है तो मेरा मानना है कि यह धारा काफी आपत्तिजनक है और न तो इसका प्रैक्टिकल व न ही ऐतिहासिक तौर पर कोई स्थान होना चाहिए. अगर आप पसंद करे तो हम इस संबंध में निर्णय ले सकते हैं. जितना जल्दी हम इससे छुटकारा पा लेंगे, उतना अच्छा होगा.''

देशद्रोह की धारा अब तक बरकरार है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने समय समय पर उसकी व्याख्या की है.
खैर, क्या पहले संविधान संशोधन में बोलने की आजादी पर जो 'युक्तियुक्त निर्बंधन' जोड़ा गया, वह प्रेस पर हमला था? बेशक, सुप्रीम कोर्ट का रोमेश थापर और बृजभूषण केस का निर्णय नजीर बना और आज भी उसे अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में कोट किया जाता है. लेकिन संशोधन के साथ जोड़े गए युक्तियुक्त ​निर्बंधन को कोर्ट ने अपनी व्याख्या में गलत नहीं ठहराया, न ही कानूनविदों ने इसे गलत ठहराया. कानून में वैयक्तिक आजादी का महत्व है, लेकिन यह दुनिया भर में बहस का विषय बन चुका है कि क्या आजादी आत्यांतिक हो सकती है? या इस पर देश और समाज के हित में कुछ पाबंदियां जरूरी हैं? संशोधन के वक्त नेहरू, पटेल, अंबेडकर आदि सब सहमत थे कि राज्य के लिए समस्या उत्पन्न करने वाली आजादी से आजादी को ही खतरा है.
जैसे आज कश्मीर में अलगाववाद या नक्सलवाद के प्रसार को अभिव्यक्ति के नाम पर छूट नहीं मिल सकती, उसी तरह उस समय क्रासरोड और आरगेनाइजर के मामले में समझा गया.

यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी आजादी, हमारा संविधान और हमारी व्यवस्था को 1947 से लेकर लंबे समय तक नकारने वाले यही दोनो थे, दक्षिणपंथी और वामपंथी. इन दोनों ने आजादी को झूठा कहकर उस पर हर संभव हमले किए और अब दोनों इस व्यवस्था के हिस्से हैं. ​एक पंक्ति में कोई बात कह देने मात्र से भ्रम फैलता है कि 'प्रेस पर पहली पाबंदी नेहरू ने लगाई थी'.

सूचना स्रोत: द हिंदू और स्क्रॉल के लेखों में कानूनविद अभिनव चंद्रचूड, लाइव लॉ में जस्टिस एपी शाह, एनडीटीवी, सीआईएस इंडिया में कानूनविद गौतम भाटिया, मीडिया चिंतन में माखनलाल चतुर्वेदी के कुलपति जगदीश उपासने.  

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...