सोमवार, 26 नवंबर 2018

मोदी मनमोहन से थोड़ी विनम्रता सीखते तो 'तेरी मां मेरी मां' नहीं बोलना पड़ता

नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह न सही, अपनी पार्टी के पितामह अटलबिहारी वाजपेयी का ही अनुसरण करते तो संसद की भाषाई मर्यादा बचा ले जाते.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मध्य प्रदेश में शनिवार को दिया भाषण सुना, तो उसी हफ्ते मनमोहन सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस याद आई जिसमें उन्होंने कहा कि मैंने कभी कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया भी होगा तो मैं उसे दोहराना नहीं चाहूंगा. उन्होंने यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी को अपने प्रधानमंत्री पद की गरिमा बनाए रखनी चाहिए और विपक्षी नेताओं के साथ सार्वजनिक मंच से गाली गलौज नहीं करनी चाहिए.

इदौर में 21 नवंबर को मनमोहन सिंह ने नरेंद्र मोदी के पुराने वादों की याद दिलाते हुए अच्छे दिनों की समीक्षा की. उन्होंने भाजपा की सरकार की असफलता गिनाने के लिए सिर्फ आंकड़ों की बात की.

एक पत्रकार ने पूछा कि मोदी जी भाषणों को देखते हुए क्या आपको लगता है कि वे अपने पद की मर्यादा रख पा रहे हैं? इसके जवाब में मनमोहन सिंह ने कहा, 'सम्मानपूर्वक मेरा मानना है कि मोदी जी प्रधानमंत्री के पद का ठीक इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. प्रधानमंत्री को ये नहीं शोभा देता कि वे दूसरे नेताओं के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर गाली गलौज करें. वे गैरबीेजेपी राज्यों में जाते हैं तो नेताओं पर खूब बरसते हैं. यह उचित बात नहीं हैं. इससे ज्यादा मैं और कुछ नहीं कहूंगा.'

एक पत्रकार ने पूछा कि आपने प्रधानमंत्री रहते हुए अपने अंतिम संबोधन में कहा था कि यदि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो यह एक त्रासदी होगी, अब आप क्या कहेंगे, यह त्रासदी थी या नहीं? इस पर मनमोहन सिंह ने कहा, 'मुझे नहीं याद आ रहा है कि मैंने 2014 में इतने कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया था. अगर मैंने इस्तेमाल किया तो मैं इसे दोहराना नहीं चाहूंगा.'

मनमोहन सिंह की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश की रैलियों में और कड़े शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने शनिवार को कहा, 'कांग्रेस के पास चर्चा मुद्दे नहीं हैं, इसलिए ये लोग मेरी मां को गाली देने की राजनीति पर उतर आए हैं. कुछ बुराइयां उनके खून में समा गई हैं.'

मोदी ने कहा कि कांग्रेस इस चुनाव में न चार पीढ़ियों का हिसाब देने को तैयार है, न मध्य प्रदेश में 55 सालों के शासन का हिसाब देने को तैयार है, न शिवराज सिह चौहान द्वारा किए गए कामों पर चर्चा करने को तैयार है. वे अपनी चार पीढ़ी और एक चायवाले के चार साल के शासन की तुलना को भी तैयार नहीं हैं.

प्रधानमंत्री ने आगे कहा, 'जिसके पक्ष में सत्य न हो, न्याय न हो, कुसंस्कार हो, अहंकार हो, वह मुद्दे छोड़कर तेरी मां मेरी मां पर आ जाता है. आजादी के बाद इतने सालों तक जिस पार्टी ने शासन किया, उसके नेता मोदी के साथ भिड़ने की बजाय, मां को गाली दे रहे हैं. मोदी से मुकाबला करने की ताकत नहीं, और आप मां को घसीटकर ले आते हैं.'

मोदी ने कहा, 'कांग्रेसी नामदार हैं, हम कामदार. नामदार चाहे जिसे गालियां दे सकते हैं, भले ही गलती उनकी हो. प्रदेश का बच्चा-बच्चा शिवराज को मामा बोलता है. कांग्रेसी उन्हें शकुनि मामा, कंस मामा कहने लगे. अच्छा होता अगर कांग्रेस के राजा-महाराजा और नामदार शिवराज को गाली देने से पहले क्वात्रोची मामा को याद कर लेते. भोपाल के गुनहगार एंडरसन मामा को याद कर लेते, जिन्हें नामदार के पिताजी की सरकार ने चोरी से भगा दिया था.'

मोदी ने दिल्ली की राजनीति में प्रवेश से पहले जिन मुद्दों और जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देते हुए विकास के नारे से अपनी शुरुआत की थी, वे अब उन्हीं की जुबान पर नहीं आ रहे हैं. क्वात्रोची और एंडरसन को कांग्रेसियों का मामा बताना कम से कम एक प्रधानमंत्री के मुंह से शोभा नहीं देता. उनके हर भाषण में अब गुस्सा और अपशब्द होते हैं.

मोदी पहले भी ऐसा बोलते रहे हैं. ‘मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा, मैं तो फक़ीर हूं’, ‘वे मुझे मार डालेंगे, मुझे थप्पड़ मार देना’, ‘मुझे लात मार कर सत्ता से हटा देना’, ‘मुझे फांसी पर चढ़ा देना’, ‘मुझे उलटा लटका देना’, ‘मुझे चौराहे पर जूते मारना’…. ये सब मोदी के ही जुमले हैं जो उनके अलग भाषणों में सुने जा चुके हैं.

उनको मनमोहन सिंह पर 'रेनकोट पहनकर नहाने' वाला कटाक्ष भी प्रधानमंत्री के पद के अनुरूप बेहद छिछला था. वे 'पचास करोड़ की गर्लफ़्रेंड' कहते हुए जरा भी नहीं हिचकिचाते. बल्कि इसे चुनावी इजहार मानकर संतोष कर लेते हैं कि उन्होंने महान भाषण दिया है.

चुनावी राजनीति में भाषा का पतन नरेंद्र मोदी से ही नहीं शुरू हुआ है. राहुल गांधी या दूसरे किसी भी पार्टी के नेता अपनी भाषाई मर्यादा के लिए नहीं जाने जाते. लेकिन प्रधानमंत्री पद से मोदी जैसी भाषा अभूतपूर्व है. वे यह परंपरा डाल रहे हैं कि किसी पद की कोई गरिमा नहीं है और चुनावी मुकाबले में अपशब्दों की अहम भूमिका होगी.

मनमोहन सिंह में एक बात गौर करने लायक है कि जब वे प्रधानमंत्री नहीं हैं, तब भी वे जब भी बोलते हैं तो एक विकास के विजन के साथ बोलते हैं. वे कभी भी व्यक्ति पर केंद्रित नहीं होते, किसी व्यक्ति के बारे में सवाल करने पर संक्षिप्त और सभ्य उत्तर देते हैं या फिर सवाल को टाल जाते हैं. जबकि मोदी पत्रकारों से कभी मुखातिब ही नहीं होते और अपने एकतरफा भाषणों में वह बोलते हैं जो उन्हें पसंद होता है.

मोदी अपने पांच राज्यों के चुनाव में सिर्फ व्यक्तियों पर बात कर रहे हैं. वे नेहरू, इंदिरा, सोनिया और राहुल पर न सिर्फ निजी हमले कर रहे हैं, बल्कि भाषाई मर्यादा को बार बार तोड़ रहे हैं.

इसके उलट जिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लोग 'पप्पू' कहते हैं, मध्य प्रदेश में ही उन्होंने कहा, 'मोदी जी अपने भाषण में गलत शब्द का प्रयोग करेंगे, झूठ बोलेंगे नफ़रत भरी बात करेंगे. क्योंकि मोदी जी जानते हैं कि जो भरोसा जनता ने मोदी जी पर किया था वो टूट गया है.'

क्या मोदी जी को अपने गिरते ग्राफ से बौखलाहट होने लगी है? यह एक कारण हो सकता है लेकिन उनका पिछला भाषाई रिकॉर्ड भी बहुत खूबसूरत नहीं है. बस प्रधानमंत्री बनने के बाद उनसे उम्मीदें बढ़ी थीं. काश वे अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह से ही सीखते कि पद की गरिमा के अनुरूप ही शब्दों का चुनाव करना चाहिए.

मोदी जब प्रधानमंत्री बनकर संसद पहुंचे थे तो पहले दिन संसद की चौखट पर सिर रखकर उसे प्रणाम किया था. यह भी पहली बार था. लेकिन संसद की उस पूजनीय पवित्रता को उन्होंने ही भंग कर दिया जो पिछले 70 सालों में कभी नहीं देखी गई थी. स्तरहीन भाषा का प्रयोग संसदीय परंपरा की अजीबोग़रीब गिरावट है जिसकी भरपाई मुश्किल है. देश के युवा को प्रधानमंत्री से सीखने के लिए क्या है, सिवाय इस स्तरहीन भाषा के? नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह न सही, अपनी पार्टी के पितामह अटलबिहारी वाजपेयी का ही अनुसरण करते तो संसद की भाषाई मर्यादा बचा ले जाते.

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद के आलोचक प्रेमचंद


प्रेमचंद यूरोपीय राष्ट्रवाद की आलोचना के साथ ऐसे राष्ट्रवाद की कल्पना करते थे जिसमें किसानों, मजदूरों और गरीबों के लिए जगह हो. 

'सांप्रदायिकता सरकार का सबसे बड़ा अस्त्र है और वह आखिर दम तक इस हथियार को हाथ से न छोड़ेगी.' प्रेमचंद यह पंक्ति उस अंग्रेजी शासन के लिए जब लिख रहे थे तब वे यह भली भांति समझ रहे थे कि यह जनता को बांटने का एक कारगर हथियार है. इसीलिए वे कह रहे थे कि 'सरकार ने भारत में सांप्रदायिकता का बीज बो दिया है और किसी दिन इस वृक्ष का फल भारत और भारतीय सरकार दोनों के लिए घातक साबित होगा.' ऐसा हुआ भी. यह सांप्रदायिकता देश के विभाजन का न सिर्फ कारण बनी, बल्कि आज तक हिंदुस्तान सांप्रदायिकता से ग्रस्त है. आश्चर्यजनक रूप से महात्मा गांधी, भगत सिंह, मौलाना आज़ाद और तमाम स्वतंत्रता के नायक जिस सांप्रदायिकता से लड़ रहे थे वही सांप्रदायिकता आज़ादी के बाद भी बार बार मुसीबत की वजह बनती रही है.

प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के पास के गांव लमही में हुआ था. बचपन में ही उनके सिर से मां का साया उठ गया था. 15 साल की उम्र में ही उनकी शादी हो गई और इसके कुछ ही समय बाद पिता का भी देहांत हो गया. प्रेमचंद के पिता डाकघर में मामूली नौकर का काम करते थे. वे भयंकर गरीबी में पले बढ़े थे. प्रेमचंद के उपन्यासों में गरीबी और जहालत का जो असीम संसार है, वह उनके अपने निजी जीवन की झलक भी है.

प्रेमचंद को अपनी आर्थिक परेशानियों से निपटने के लिए अपनी कोट और किताबें आदि बेचनी पड़ी थीं. बताते हैं कि एक बार जब वे आर्थिक रूप से परेशान थे, अपनी सारी किताबें लेकर एक किताब की दुकान पर पहुंचे. वहां उनकी मुलाकात एक स्कूल के हेडमास्टर से हुई. उन्होंने प्रेमचंद को स्कूल में अध्यापक नियुक्त करवा दिया.

लेकिन प्रेमचंद अध्यापक बनकर छात्र बन गए. वे आजीवन भारतीय समाज को अपनी बारीक निगाह से पढ़ते रहे और उसे कागज पर उतारते रहे.

1907 में प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ. देशप्रेम और आम जनता के दर्द से सराबोर इन कहानियों को अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और उनके लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बाद वे नाम बदल कर प्रेमचंद नाम से लिखने लगे.

आम जनता के जीवन और ग्रामीण भारतीय समाज को विस्तार से अपने उपन्यासों में रचने वाले प्रेमचंद ने बहुत से वैचारिक लेख लिखे और राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद पर बेबाक राय रखी. उनके वे लेख आज भी महत्वपूर्ण हैं. 

प्रेमचंद की चेतावनी को लोगों ने नहीं सुना 

आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू कह रहे थे कि 'अगर सांप्रदायिकता से कड़ाई से नहीं निपटा गया तो यह भारत को तोड़ डालेगी', तो आजादी मिलने से कुछ वर्षों पहले प्रेमचंद लिख रहे थे कि 'सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है. हालांकि, संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं.'

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, 'सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है... जब प्रेमचंद ऐसा लिख रहे थे तब वे एक चेतावनी दे रहे थे. ये चेतावनी वे नब्बे साल पहले दे रहे थे. उस चेतावनी को इस देश के लोगों ने सुना नहीं. उसका नतीजा है कि अब वह हमारी गर्दन पर चढ़ बैठी है.'

सांप्रदायिकता किस संस्कृति की दुहाई देती है? 

'सांप्रदायिकता और संस्कृति' (1934) शीर्षक से अपने लेख में संस्कृति के बहाने धर्म के झगड़ों पर चर्चा करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं, 'हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बांध रही है. वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड. शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं. यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं. हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे.'

प्रेमचंद को अल्बेयर कामू और जॉर्ज आॅरवेल के समकक्ष रखते हुए अपूर्वानंदकहते हैं, 'प्रेमचंद हों, जॉर्ज आॅरवेल हों, अल्बेयर कामू हों या हजारी प्रसाद द्विवेदी हों, उनकी प्रासंगिकता यही है कि उन्होंने इन लक्षणों को बहुत पहले पहचान लिया था. और लोगों को बहुत स्पष्ट रूप से बताया भी था. जो लोग सांप्रदायिक शक्तियों को लेकर बहुत उत्साहित रहते हैं, उन्हें प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए. अगर सांप्रदायिक सोच के लोग यह मानते हैं कि प्रेमचंद बहुत महान लेखक थे तो उन्हें प्रेमचंद के विचारों पर भी सोचने की जरूरत पड़ेगी.' 

प्रेमचंद लिखते हैं, 'इन संस्थाओं को जनता को सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें. उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना है. वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते.'

जैसा कि उनके साहित्य से इतर लेखन से स्पष्ट है कि वे सांप्रदायिकता के घोर आलोचक हैं, यह विचार उनकी रचनाओं में भी दिखता है. अपनी कहानियों और उपन्यासों में प्रेमचंद ने धार्मिक एकता की नायाब नजीरें पेश कीं.

प्रेमचंद और राष्ट्रवाद 

प्रेमचंद अपने लेखों के जरिये भारत में राष्ट्रवाद को लेकर चल रही बहस में भी शरीक हुए. रवींद्रनाथ टैगोर मानते थे कि आधुनिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में संकीर्णता की भावना निहित है. प्रेमचंद भी इसी विचार के साथ खड़े हुए. प्रेमचंद उपनिवेशवाद, आधुनिक राष्ट्र और लोकतंत्र में आम जनता की जगह न पाकर व्यथित थे. वे उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में राष्ट्रवाद की भूमिका की तरफदारी करते हुए भी पश्चिमी राष्ट्रवाद और उसके अंतर्विरोधों के आलोचक थे.

वे लिखते हैं, 'वर्तमान राष्ट्र यूरोप की ईजाद है... इसी राष्ट्रवाद ने साम्राज्यवाद, व्यवसायवाद आदि को जन्म देकर संसार में तहलका मचा रखा है. व्यापारिक प्रभुत्व के लिए महान युद्ध होते हैं. यह सारे अनर्थ इसलिए हो रहे हैं कि धन और भूमि की तृष्णा ने राष्ट्रों को चक्षुहीन सा कर दिया है. प्राणि मात्र को भाई समझने वाला ऊंचा और पवित्र आदर्श इस राष्ट्रवाद के हाथों ऐसा कुचला गया कि अब उसका कहीं चिह्न भी नहीं रहा.'

अपूर्वानंद कहते हैं कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवाद को कोढ़ कहा था. वे राष्ट्रवाद के घोर आलोचक रहे. जितनी बेबाकी से उन्होंने उस समय लिखा, आज का समय ऐसा है कि कोई लेखक राष्ट्रवाद को कोढ़ बता दे तो मुमकिन है कि वह जेल में पहुंच जाए. 

प्रेमचंद्र महात्मा गांधी से प्रभावित थे और उसी तरह के राष्ट्रवाद में उनका यकीन था. वे आजादी की लड़ाई में एकजुटता के लिए राष्ट्रवाद की भूमिका को महत्व दे रहे थे, लेकिन आजाद भारत में ऐसा राष्ट्रवाद चाहते थे जो गरीबों, किसानों और मजदूरों का हिमायती हो. जो सामंतवाद का विरोधी हो. वे जाति, धर्म और संप्रदायवाद से मुक्त राष्ट्र चाहते थे.

वे लिखते हैं, 'आज भी राष्ट्रीयता का रोग उन्हीं लोगों को लगा हुआ है जो शिक्षित हैं, इतिहास के जानकार हैं. वे संसार को राष्ट्र के रूप में ही देख सकते हैं. संसार के संगठन की दूसरी कल्पना उनके मन में आ ही नहीं सकती. जैसे शिक्षा से कितनी ही अस्वाभाविकताएं हमने अंदर भर ली हैं, उसी तरह इस रोग को भी पाल लिया है.'

महात्मा गांधी यूरोपीय लोकतंत्र पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहते थे. प्रेमचंद भी गांधी की तरह स्वराज के समर्थक और लोकतंत्र के आलोचक थे. उन्होंने लिखा, 'डेमोक्रेसी केवल एक दलबंदी बन कर रह गई. जिसके पास धन था, जिनकी जबान में जादू था, जो जनता को सब्जबाग दिखा सकते थे, उन्होंने डेमोक्रेसी की आड़ में सारी शक्ति अपने हाथ में कर ली. व्यवसायवाद और साम्राज्यवाद उस सामूहिक स्वार्थपरता के भयंकर रूप थे जिन्होंने संसार को गुलाम बना डाला और निर्बल राष्ट्रों को लूट कर अपना घर भरा और आज तक वही नीति चली आ रही है. डेमोक्रेसी की इन दो सदियों में संसार में जो जो अनर्थ हुए, वह एकाधिपत्य की असंख्य सदियों में न हुए थे. अपने राष्ट्र के लिए डेमोक्रेसी चाहे जितनी मंगलमय सिद्ध हुई हो, पर संसार की दृष्टि से तो उसने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिस पर वह गर्व कर सके.'

वे चाहते थे कि 'संसार का कल्याण तभी हो सकता है जब संकुचित राष्ट्रीयता का भाव छोड़ कर व्यापक अंतर्राष्ट्रीय भाव से विचार हो.' प्रेमचंद का राष्ट्रवाद ऐसा था जो जाति भेद और धर्म के बंधनों से मुक्त हो. उन्होंने लिखा है, 'राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण व्यवस्था, ऊंच नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है.'

जेम्स की जगह नायडू के आने से क्या बदलेगा 

जैसे भगत सिंह मानते थे कि संपूर्ण समाज का परिवर्तन ही असली आजादी होगी वरना गोरे अंग्रेजों की जगह भूरे अंग्रेज काबिज हो जाएंगे और कुछ नहीं बदलेगा. उसी तरह प्रेमचंद मानते थे कि 'जेम्स की जगह मिस्टर नायडू के आ जाने से जनता का क्या उपकार होगा.'

उनके राष्ट्र की कल्पना में किसान और मजदूर थे. वे कहते हैं, 'हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें जन्मगत वर्णों की तो गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे या सभी हरिजन.'

वे भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को खत्म करने का आह्वान करते हुए लिखते हैं, 'हमारा स्वराज केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है.'

क्या भारत जाति या धर्म से मुक्त ऐसा समाज बन सका? यदि आज प्रेमचंद होते तो दिनोदिन बढ़ती असमानता और पूंजी के केंद्रीकरण के खिलाफ ही खड़े होते. प्रेमचंद के लेखन का एकमात्र पक्ष था जनता का पक्ष. इस जनपक्ष को गौर से पढ़ने और चिंतन करने की जरूरत है.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...