मंगलवार, 27 सितंबर 2011

मुक्ति का सपना



रोज़ बदलता है दर्द का चेहरा 
रोज़ बदल जाते हैं रस्ते 
कायनात भी 
रोज़ बदलती है रंग 
चाँद बदल लेता है अपना जिस्म 
और मैं 
रोज़ मैं जनम लेता हूँ 
अपनी सार्थकता के लिए 
नए नए रूपों में 

बदलता है पल-पल सब कुछ 
नहीं बदलता तो बस 
मुक्ति का सपना 



रविवार, 25 सितंबर 2011

कुछ पुराने दिन


याद है डब्ल्यू!
इलाहाबाद की सड़कों के सपने
जिनको हम ढोया किये
शहर के इस छोर से उस छोर तक
खड़खड़िया साइकिल से
तमाम सपने तो बीने थे हमने
फुटपाथ से
कुछ किताबघर से
कुछ यूनिवर्सिटी की लॉन से
और उन्हें आकार दिया था
तुम मेरे एकमात्र हमसफर रहे
उस जीवन के

प्रयाग की उन सड़कों पर
हम रोज पैदा होते थे
मुट्ठी में अपना कल भींचे
और उनमें भरते थे सुर-ताल
कभी पुरानी बेसुरी हारमोनियम से
तो कभी मेज की थाप से
वे सब सपने
वे सारे पल
जिंदा हैं मेरे भीतर
जो जिये थे तुम्हारे साथ
गीतों में पिरो कर
रोक लिया था हमने समय
कभी आना तो दिखाउंगा

जानते हो दोस्त!
इन दिनों गुजर रहा हूं बड़ी पीड़ा से
मुसलसल ऐसा लगता है
कि हमने कुछ खोया है
क्या तुम्हें भी लगता है ऐसा?


क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...