गुरुवार, 21 नवंबर 2019

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाला?

इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये दानकर्ताओं ने अब तक 150 मिलियन डॉलर यानी करीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का राजनीतिक चंदा दिया है और इसमें से 95 फीसदी अकेले बीजेपी को गया है.

बीजेपी सरकार ने पिछले वर्ष चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था की थी. इसे शुरू करते हुए कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के आने से चुनावों और राजनीतिक पार्टियों को होने वाली फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी. लेकिन इसके आने के साथ विश्लेषकों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए.

आज 21 नवंबर को कांग्रेस ने संसद में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर स्थगन प्रस्ताव पेश किया. कांग्रेस के कई नेताओं ने सरकार इसे 'बड़ा घोटाला' बताते हुए सरकार से इस पर जवाब मांगा. बाद में कांग्रेस ने इस मुद्दे पर सदन से वाक आउट भी किया.

साभार: द हिंदू 
बीबीसी के मुताबिक, 'इन बॉन्ड के ज़रिए दानकर्ताओं ने अब तक 150 मिलियन डॉलर यानी करीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का चंदा दिया है और रिपोर्ट्स के मुताबिक इनमें से ज़्यादातर रक़म बीजेपी को मिली है.' कई मीडिया रिपोर्ट में कहा गया कि बॉन्ड के जरिये दी गई दान की रकम में से 95 फीसदी अकेले बीजेपी को गया है.

जब इलेक्टोरल बॉन्ड आने वाला था, उसी समय इस पर सवाल उठने लगे थे. एसोसिएशन फॉर डेमो​क्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) के जगदीप छोकर जैसे लोगों ने आशंका जताई थी कि सरकार अपारदर्शिता को बढ़ाकर पारदर्शिता लाने की बात कह रही है और लोगों को बेवकूफ बना रही है.

उनका कहना था कि '​सरकार ने ऐसे नियम बना दिए हैं कि इसके जरिये उसी दल को फायदा मिलेगा जो सत्ता में है.' अब आंकड़े दिखा रहे हैं कि उनकी आशंका सही थी. अकेले सत्तारूढ़ बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये आए चंदे का 95 फीसदी मिला है.

लोकसभा में कांग्रेस के नेता सांसद अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि "इलेक्टोरल बॉन्ड एक बहुत बड़ा घोटाला है, देश को लूटा जा रहा है."

कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने लोकसभा में इस मुद्दे पर कहा कि "2017 से पहले इस देश में एक मूलभूत ढांचा था. उसके तहत जो धनी लोग हैं उनका भारत के सियासत में जो पैसे का हस्तक्षेप था उस पर नियंत्रण था. लेकिन 1 फ़रवरी 2017 को सरकार ने जब यह प्रावधान किया कि अज्ञात इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए जाएं जिसके न तो दानकर्ता का पता है और न जितना पैसा दिया गया उसकी जानकारी है और न ही उसकी जानकारी है कि यह किसे दिया गया. उससे सरकारी भ्रष्टाचार पर अमलीजामा चढ़ाया गया है." मनीष तिवारी ने कहा कि 'चुनावी बॉन्ड जारी करके सरकारी भ्रष्टाचार को स्वीकृति दी गई है.

कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा, "इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये अमीर लोग सत्ताधारी पार्टी को चंदा देकर राजनीतिक हस्तक्षेप करेंगे...जब ये बॉन्ड पेश किए गए थे, तो हममें से कई लोगों ने गंभीर आपत्ति जताई थी लेकिन हमारी नहीं सुनी गई."

कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने भी इस पर सवाल उठाते हुए कहा, "इलेक्टोरल बॉन्ड का 95 फ़ीसदी पैसा बीजेपी को गया, क्यों गया, ये क्यों हुआ. 2017 के बजट में अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर जो रोक लगाई थी उसे ख़त्म कर दिया गया. अरुण जेटली ने यह रोक लगाई थी कि कोई भी कंपनी अपने लाभ के 15 फ़ीसदी से अधिक ज़्यादा पैसा नहीं लगा सकती. लेकिन अब उसे हटा लिया गया है. प्रधानमंत्री को इस पर जवाब देना होगा."

उधर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने ट्विटर के जरिये इलेक्टोरल बॉन्ड पर सवाल उठाए. राहुल गांधी ने लिखा, "न्यू इंडिया में रिश्वत और अवैध कमीशन को चुनावी बॉन्ड कहते हैं."

कांग्रेस के कई नेताओं ने आरोप लगाया कि रिजर्व बैंक ने इस योजना पर आपत्ति जताई थी, लेकिन सरकार ने उसकी सलाह को नजरअंदाज किया और योजना लागू कर दी. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने कहा कि, रिजर्व बैंक को दरकिनार करते हुए चुनावी बॉन्ड लाया गया ताकि कालाधन बीजेपी के पास पहुंच सके.

इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह के बैंकिंग बॉन्ड होते हैं जिसके जरिये राजनीतिक दलों को फंड मिलता है. इसे लेकर पहले भी विवाद रहा है और आरोप लगता है कि पार्टियां अपनी आय और व्यय का ईमानदार ब्योरा नहीं पेश करती हैं और पार्टियों को चंदे के नाम पर काला धन खपाया जाता है.

किसी भी सियासी पार्टी को मिलने वाले चंदे इलेक्टोरल बॉन्ड कहा जाता है. यह चंदा कोई भी दे सकता है, लेकिन आम तौर पर अमीर, पूंजीपति और कारोबारी लोग बॉन्ड के जरिये किसी पार्टी को चंदा देते हैं.

नियम है कि सभी दल चुनाव आयोग में खुद को मिले चंदे की पूरी जानकारी देंगे. पार्टियां एक हज़ार, दस हज़ार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपए तक का चुनावी बॉन्ड ले सकती हैं. चुनावी बॉन्ड की बिक्री के लिए सिर्फ सरकारी बैंक एसबीआई अधिक्रत है. ये बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध रहते हैं. 15 दिनों के अंदर इन्हें पार्टी के खाते में जमा कराना होता है. इसमें दान देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है.

हाल ही में पत्रकार नितिन सेठी ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कई रिपोर्ट लिखी हैं जो न्यूजलॉन्ड्री और हफिंगटन पोस्ट में छपी हैं. कई दस्तावेज के आधार पर इन रिपोर्टों में कहा गया है कि सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने में रिजर्व बैंक, एसबीआई और चुनाव आयोग की सलाह को नजरअंदाज किया और मनमाने तरीके से चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को प्रभाव में लाया गया.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ​वित्त मंत्रालय की कड़ी निगरानी में इस बॉन्ड सिस्टम को प्रभाव में लाया गया और विभिन्न आपत्तियों पर गौर नहीं किया गया. रिपोर्ट में दस्तावेज के सहारे कई अनियमितताएं गिनाते हुए कहा गया है कि 'चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री कार्यालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री का आदेश दिया'.

अरबों रुपये का कॉरपोरेट चंदा एकतरफा बीजेपी को गया है, इसे देखते हुए भी इस पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह केंद्रीय स्तर पर सरकारी भ्रष्टाचार का नया स्वरूप है? 

बुधवार, 20 नवंबर 2019

हम शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं

नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे तो अपने एक भाषण में कहा था कि 'चीन अपनी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है, लेकिन भारत सरकार नहीं खर्च करती.' हालांकि, यह झूठ था लेकिन यह बयान बहुत चर्चित हुआ था क्योंकि यह उनके शुरुआती झूठ में से एक था.

मोदी जिस दौरान यह बात उठा रहे थे, इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, उस दौरान यानी 2012-13 में भारत सरकार अपनी कुल जीडीपी का 3.1 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रही थी. विश्व बैंक के मुताबिक, 2013 में भारत अपनी जीडीपी का 3.8 प्रतिशत खर्च कर रहा था. मोदी जी के आने के बाद यह घट गया.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 2017-18 के आर्थिक सर्वे में यह बात सामने आई कि भारत सरकार ने शिक्षा पर खर्च घटा दिया है. 2014-15 यह 3 प्रतिशत से नीचे आकर 2.8 फीसदी रह गया. 2015-16 में यह और घटकर 2.4 फीसदी हो गया. 2016-17 में इसमें मामूली बढ़ोत्तरी की गई और यह 2.6 फीसदी हो गया.

मनमोहन के समय में शिक्षा पर जो खर्च कुल जीडीपी का 3 प्रतिशत से ज्यादा ही रहा, मोदी जी ने उसे घटाकर 3 प्रतिशत से नीचे कर दिया.

एचआरडी मंत्री रहते हुए प्रकाश जावड़ेकर ने इसी मार्च में कहा था कि भारत सरकार का शिक्षा पर खर्च जीडीपी का 4.6 प्रतिशत हो गया है. लेकिन यह मंत्री जावड़ेकर का बयान भर है. जब बजट में शिक्षा पर आवंटन बढ़ा नहीं तो खर्च कुल जीडीपी का 2.6 प्रतिशत से 4.6 कैसे हो गया?

मानव संसाधन मंत्रालय की वेबसाइट पर आखिरी डाटा 2012 और 2013 का पड़ा है.

इन लोगों का डाटा के साथ खेल करने का ​रिकॉर्ड इतना खराब है कि जबतक विश्वसनीय आंकड़ा जारी न हो, भरोसा नहीं कर सकते. आंकड़ा दबाना और झूठ फैलाना इस सरकार का प्रिय शगल है.

अमेरिका अपनी जीडीपी का 5.8 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है. ध्यान रहे कि उसकी जनसंख्या हमसे बहुत कम है और इकोनॉमी हमसे बहुत बड़ी है. अमेरिका का शिक्षा पर पिछले 22 सालों में सबसे कम खर्च भी 4 प्रतिशत से ऊपर रहा है.

यूनीसेफ के मुताबिक, चीन 2012 से अपनी जीडीपी का 4 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है और उसने छह साल लगातार इस खर्च को बरकरार रखकर अपना नेशनल टॉरगेट पूरा कर लिया है.

विश्वबैंक के मुताबिक, कुछ देशों का कुल जीडीपी का शिक्षा पर खर्च देख लें- अफगानिस्तान- 4.1, अर्जेंटीना- 5.5, आस्ट्रेलिया- 5.3, बेल्जियम- 6.5, भूटान- 6.6, बोत्सवाना- 9.6, बोलिविया- 7.3, ब्राजील- 6.2, बुरुंडी- 4.8, कनाडा- 5.3, क्यूबा- 12.8, डेनमार्क- 7.6, फिनलैंड- 6.9, आइसलैंड- 7.5, इजराइल- 5.8, केन्या- 5.2, नेपाल- 5.2, न्यूजीलैंड- 6.4, नार्वे- 8, ओमान- 6.8, साउथ अफ्रीका- 6.2, सउदी अरब- 5.1 वगैरह-वगैरह.

कहने का मतलब है कि ज्यादातर देशों का शिक्षा पर खर्च हमसे बेहतर है. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उनके हर भाषण में एक शब्द जरूर आता था नॉलेज इकॉनमी. वे कहते थे कि यह ज्ञान का युग है, हमें नॉलेज इकॉनमी तैयार करनी है, क्योंकि यह ज्ञान का युग है. मनमोहन सरकार ने करीब 1500 नये विश्वविद्यालय खोलने की चर्चा छेड़ी थी. वे बार बार शोध को बढ़ावा देने की बात करते थे.

अभी छह साल से न तो नॉलेज इकॉनमी टर्म सुनाई दिया है, न ही नये विश्वविद्यालय खोलने की कोई चर्चा हुई है, न ही मोदी जी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर पाए जो वादा किए थे. छह साल से एक जेएनयू बंद करने का अभियान छेड़े हैं और आश्चर्य है कि वह भी अभी तक बंद नहीं करा पाए.

बीजेपी सरकार को जेएनयू से लड़ते हुए छह साल बर्बाद हो चुके हैं. अब सरकार को चाहिए कि जेएनयू के बच्चों से लड़ने की जगह अशिक्षा से लड़े. भारत वह देश है ​जहां पर अभी भी करीब 8 से 9 करोड़ बच्चे शिक्षा से बाहर हैं. सरकार को अब अपनी प्राथमिकताएं बदल देनी चाहिए. 

स्वास्थ्य और शिक्षा लोगों का बुनियादी अधिकार है, जिम्मेदारी ले सरकार

दुनिया के लगभग सभी विकसित देश अपने लोगों को मुफ्त शिक्षा मुहैया कराते हैं. जिन विकसित देशों में शिक्षा मुफ्त नहीं है, वहां पर सरकारें यथासंभव अनुदान देकर शिक्षा को सुलभ बनाने की कोशिश करती हैं.

इस मामले में जर्मनी टॉप पर है जहां पर सरकारी संस्थानों में उच्च शिक्षा या तो मुफ्त है या फिर नॉमिनल चार्ज देना होता है.

नार्वे में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और डॉक्टरेट बिल्कुल मुफ्त है.

तमाम अच्छे और प्रगतिशील कानूनों को सबसे पहले लागू करने वाला देश है स्वीडन. यहां भी शिक्षा मुफ्त है. यह सिर्फ नॉन यूरापियन लोगों पर कुछ नॉमिनल चार्ज लगाता है. यहां पीएचडी करने पर आपको बाकायदा सेलरी मिलती है.

आस्ट्रिया में भी शिक्षा मुफ्त है. नॉन यूरोपियन के लिए कुछ नॉमिनल चार्ज है.

फिनलैंड में हर स्तर की शिक्षा पूरी तरह मुफ्त है, भले ही आप कहीं के भी नागरिक हों. 2017 से इसने नॉन यूरोपियन पर कुछ चार्ज लगाया है.

चेक रिपब्लिक मुफ्त शिक्षा देता है भले ही आप कहीं के भी नागरिक हों.

फ्रांस में उच्च शिक्षा पूरी तरह मुफ्त है. कुछ पब्लिक विश्वविद्यालयों में नॉमिनल चार्ज लगता है.

बेल्जियम और ग्रीस में भी नॉमिनल चार्ज पर शिक्षा मुहैया कराई जाती है.

स्पेन भी सभी यूरोपीय नागरिकों के लिए फ्री शिक्षा मुहैया कराता है.

इसके अलावा डेनमार्क, आइसलैंड, अजेंटीना, ब्राजील, क्यूबा, हंगरी, तुर्की, स्कॉटलैंड, माल्टा आदि देश स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक, सभी तरह की शिक्षा मुफ्त में मुहैया कराते हैं.

फिजी में स्कूली शिक्षा मुफ्त है. ईरान के सरकारी विश्वविद्यालयों में शिक्षा फ्री है.

रूस में मेरिट के आधार पर छात्रों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है. फिलीपींस ने 2017 में कानून बनाकर शिक्षा फ्री कर दिया है.

श्रीलंका में स्कूली शिक्षा और मेडिकल फ्री है. थाईलैंड 1996 से मुफ्त शिक्षा मुहैया करा रहा है. चीन और अमेरिका जैसे देश जहां फ्री शिक्षा नहीं है, वे भी इस तरफ आगे बढ़ रहे हैं.

जिन विकसित देशों में शिक्षा और ​स्वास्थ्य मुफ्त हैं, वहां की सरकारें और लोग इसे मुफ्तखोरी नहीं कहते. वे इसे हर नागरिक का मूलभूत अधिकार कहते हैं. सबसे बड़ी बात कि वे स्वनामधन्य विश्वगुरु भी नहीं हैं.

ऐसा इसलिए है ​क्योंकि ये विकसित देश हैं और इनके लोगों का दिमाग भी विकसित है. वे अपने ही विश्वविद्यालयों में काल्पनिक गद्दार नहीं खोजते. वे अपने विपक्षियों और आलोचकों को देश का दुश्मन नहीं समझते. वे पढ़े लिखे हैं और पढ़ाई का महत्व समझते हैं.

भारत में नेहरू भी पढ़े लिखे आदमी थे इसलिए तमाम विश्वविद्यालय और संस्थान खुलवाए. अनपढ़ों को पढ़े लिखे लोगों से तकलीफ होती है इसलिए वे नये विश्वविद्यालय और नये कॉलेज खोलने की जगह देश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय को बंद करने का अभियान चलाते हैं और कहते हैं कि हम विश्वगुरु बनेंगे.

यह दुखद है कि पिछले छह साल से एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के खिलाफ सरकार और सत्ता में बैठे लोगों की ओर से कुत्सित अभियान चलाया जा रहा है.

आज नहीं तो कल, यह होना है कि सभ्य देशों की तरह हमारी भी सरकार कम से कम गरीब लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी लें और बुनियादी अधिकार की तरह यह सेवाएं उन्हें मुफ्त में मुहैया कराएं.

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

सरकार देशभक्ति और सुरक्षा के नाम पर झुनझुना पकड़ा रही है: रवीश कुमार

(केंद्र सरकार ने 2016 में एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध की घोषणा की थी. इसके बाद लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रिया देखने को मिली. सोशल मीडिया पर दो दिन तक एनडीटीवी ट्रेंड करता रहा. पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और पार्टियों की ओर से इस कार्रवाई की निंदा हुई. इस प्रकरण को लेकर हमने एनडीटीवी के रवीश कुमार से बातचीत की थी जो कि 5 नवंबर, 2016 को फर्स्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित हुई थी. रवीश कुमार से हुई बातचीत यहां हूबहू रखी जा रही है- )

मेरी प्रतिक्रिया यही है कि जनता अपनी राजनीतिक पसंद रखे. लेकिन उस पसंद को वो हर जगह न ढूंढे. मीडिया का संस्थान उसकी राजनीतिक पसंद के अनुकूल क्यों होना चाहिए? दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है. आप दोनों को अलग-अलग रूप में देख सकते हैं, पसंद कर सकते हैं. लेकिन आजकल राजनीति ऐसा चाहने लगी है कि सबकुछ हमारे अनुकूल हो. उसे देशभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा नाम के दो अंतिम तर्क मिल गए हैं. राजनीति के पास अब बुद्धि नहीं रही.

कोई राजनीतिक विचारधारा, विमर्श की भाषा में जब कोई नेता बात करता था, तब बहुत सारी बातें निकलती थीं. तो अब उतनी क्षमता किसी में है नहीं. न ही धीरज बचा है नेताओं में. नेता क्या करते हैं? हमेशा वे राष्ट्रभक्ति और इन सब चीजों का सहारा लेकर बात करने लगते हैं कि इसके नाम पर हम सबकुछ कर रहे हैं. राजनीति एक अलग स्वतंत्र और बहुत ही खूबसूरत प्रक्रिया है. उसमें जनता को अलग-अलग दलों के साथ या एक दल के साथ जुड़ना चाहिए. उसमें और मीडिया की स्वतंत्रता में कोई टकराव नहीं है.

आप क्या सातों दिन एक ही कमीज पहनना चाहेंगे? क्या आप ऐसे जीवन की कल्पना करते हैं? नहीं करना चाहेंगे न. वे यही चाह रहे हैं कि राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को ऐसी ट्रेनिंग कर दी जाए कि वे एक ही वर्दी में घूमते रहें. लेकिन इससे फिर लोग तो लोग नहीं रहेंगे न! वे इतनी सी बात को समझ जाएं.

लोगों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं चाहता हूं कि समर्थन से ज्यादा लोग इस बात को समझें, अपने भीतर इस बात को लागू करें कि सवाल करने की जगह आजाद होनी चाहिए. वे ये भी देखें कि पत्रकारिता का पैमाना लागू हो रहा है कि नहीं और इस बात के प्रति वे सतर्क रहें.

चाटुकारिता जब पत्रकारिता में घुस जाती है तो इससे नुकसान जनता का होता है और फायदा एक अकेले आदमी का होता है. जो वो एंकर या पत्रकार है, सिर्फ उसका. वो किसी नेता से जनता का भरोसा बेचकर कितना कुछ कमाता है, कितना कुछ पाता है ये बात जनता को मालूम नहीं. इसलिए जनता को चाहिए कि जब भी देखे कि ये पत्रकार कुछ ज्यादा ही सरकार के प्रति समर्थन रखता है तो उसे सतर्क रहना चाहिए. इसका मतलब उस पत्रकार ने जनता के भरोसे का फायदा उठाकर नेता से कुछ बड़ा समझौता किया है. हमारा काम थोड़ी है राजनीति की दिशा तय करना. हमारा काम है हर चीज पर सवाल करना. लेकिन राजनीतिक सहनशीलता खत्म होती जा रही है.

राज्यों में भी एक तरह के मीडिया का नियंत्रण है, केबल पर प्रोग्राम ऑफ कर दिए जा रहे हैं. यह क्या है? क्या कभी प्रोग्राम इसके लिए ऑफ हुआ है कि अर्धसैनिक बलों को सैलरी नहीं मिल रही है, उनको पेंशन नहीं मिल रहा है. उनको शहीद का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. पुलिस के लोग ड्यूटी पे मारे जाते हैं उनको शहीद का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. उनको पेट्रोल पंप नहीं दिया जा रहा है जबकि वे भी ड्यूटी पर मर रहे हैं. वो लोग अपनी मांग तो कर रहे हैं. इन मांगों को लेकर कोई झगड़ा क्यों नहीं है? क्यों स्कूलों में ठेके के शिक्षक पढ़ा रहे हैं जबकि वैकेंसी है? क्यों हर राज्य में वैकेंसी खाली है? अभी जो कैदी भाग गए या भगाए गए तो अखबारों में रिपोर्ट आई कि हर राज्य में जेलों में जो नियुक्ति होनी चाहिए वो मंजूर पदों से आधी से भी कम है. इसका मतलब है कि ये सरकारें जानबूझ कर बेरोजगारी पैदा कर रही हैं. वे लोगों को बेरोजगार रख रही हैं.

लोग सवाल न करें इसलिए देशभक्ति और देश की सुरक्षा के नाम पर झुनझुना पकड़ा के चली जा रही है. ऐसा क्या हो गया है हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को? ये प्रक्रिया धीरे धीरे चली आ रही है और हम इससे भी बुरे दिन देखने वाले हैं. इससे भी बुरी स्थिती देखने वाले हैं. जनता को सोचना चाहिए. हुकूमत चाहे तो एक पत्रकार की नौकरी कभी भी ले सकती है लेकिन जनता को सोचना चाहिए कि उसके बदले में सरकार कितने लोगों का हक गायब कर देगी. सोचना चाहिए जनता को.

अगर हर किसी को लगता है कि लोकतंत्र की रक्षा होनी चाहिए तो हर किसी को इसके समर्थन में आना चाहिए. क्या उनकी राजनीतिक विचारधारा ने दुनिया का अंतिम सत्य देख लिया है? क्या अब उसके बाद कोई सत्य नहीं है? क्या कोई दावे के साथ कह सकता है ऐसा? दुनिया की कोई विचारधारा ऐसा कह सकती है क्या? इसीलिए सवाल जवाब के दौर होते हैं. आपकी विचारधारा अपनी जगह है. इससे टेस्टिंग होती है, आप अपने को चेक करते हैं. इतने की भूमिका होती है.

आप पूछ कह रहे हैं कि क्या आपातकाल जैसी स्थिति है? मैं कह रहा हूं कि उससे भी बदतर स्थिति है. जब लोग फोन पर बात करने से डरने लगें, जब वो इस बात से डरने लगें कि दो बयान अगर गलत हो जाएगा तो पता नहीं 50 आदमी आकर क्या करेगा. जब आप कोई बात कहें और 500 वकील लगाकर आपके खिलाफ कोर्ट केस होने लगे तो ये आपातकाल की स्थिति है. और इससे ज्यादा हम क्या देखना चाहते हैं? इससे बदतर क्या होगा? या ठीक है हम ये भी देख लेंगे. लेकिन इसके बदले में आपने जनता को क्या दिया?

वो पंजाब का किसान जसवंत था. पांच साल के अपने बच्चे को सीने से चिपका कर नहर में कूद कर मर गया. दस लाख रुपया कर्जा था. क्या आप उसके आंसू पोंछ पाए? पोंछ सकते हैं आप? हम बंद कर देते हैं, अखबार, टीवी सब बंद करवा दीजिए आप. इसकी जरूरत ही नहीं है. क्या आप ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं? भाषण कुछ, काम कुछ. भाषण दीजिए लोकतंत्र का और काम कीजिए ठीक उसके खिलाफ. यह स्थिति खतरनाक है.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...