शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

युवा लिख रहे हैं लोकतंत्र की नई इबारत

मेरठ में चौ. चरण सिंह विश्‍वविद्यालय के दीक्षांत समारोह कार्यक्रम के दौरान केंद्रीय चुनाव आयुक्त वीएस संपत ने कहा कि राजनेताओं के नैतिक आचरण में क्षरण व योग्यता को लेकर उठने वाले सवालों की वजह से राजनीति से युवा वर्ग का मोहभंग हो रहा है. लेकिन हाल के चुनावों में युवाओं ने ज़बर्दस्त भागीदारी की. अगर युवा मतदान में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी करते हैं तो निश्‍चित रूप से नैतिक मतदान का स्तर उठेगा. साथ ही राजनीति को अपराधीकरण से मुक्ति, राजनीतिक पार्टियों की आंतरिक प्रजातांत्रिक कार्यप्रणाली व उनकी आय के स्रोत में पारदर्शिता व धन के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने में सफलता मिलेगी.
यह झूठ के बहुत नजदीक का एक मिथक है कि देश में चुनावी राजनीति के प्रति उदासीनता गहरी होती जा रही है. राजनीतिक विश्‍लेषक योगेंद्र यादव का कहना है कि इसमें सच का अंश महज़ इतना है कि तथाकथित शहराती मध्य-वर्ग में राजनीति, राजनेता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर उदासीनता और द्वेष पनप रहा है.
राजनीति से घृणा करना मानो एक फ़ैशन बन गया है. समाज का ये तबका वोट डालने को मामूली काम मानकर महत्व नहीं देता. इसमें किसी भी क़िस्म की राजनीतिक भागीदारी से दूर रहने की प्रवृत्ति बढ़ी है. दुर्भाग्यवश हमारे देश के बुद्धिजीवी और मीडिया ख़ुद इसी वर्ग से आते हैं. इसलिए, हमलोग इस शहराती सम्पन्न वर्ग की प्रवृत्ति को पूरे समाज की प्रवृत्ति मानने की भूल करते हैं.
हक़ीक़त ये है कि अपने देश में राजनीतिक लोकतंत्र का नया दौर आया है. इस दौर में राजनीतिक उदासीनता नहीं, बल्कि राजनीतिक भागीदारी का उफ़ान देखने को मिला है. हालिया पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने यह साबित किया है कि युवा अब वह युवा नहीं रहा जो राजनीति से घृणा करता है. वह अब उसमें न स़िर्फ सक्रिय भागीदारी कर रहा है, बल्कि ब़ढ-च़ढ कर मतदान कर रहा है.
दुनिया के कई ब़डे लोकतंत्रों में मतदान प्रतिशत गिरता जा रहा है, वहीं हमारे देश में मतदान प्रतिशत धीरे-धीरे बढ़ा है. हालिया चुनावों ने यह साबित किया है.
पांच राज्यों से पहले इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में हुए छात्रसंघ चुनावों की बात करते हैं, जिससे यह समझने में मदद मिलेगी कि कैसे राजनीति के पुराने मिथक ध्वस्त हो रहे हैं. इलाहाबाद छात्रसंघ चुनाव में वे सभी उम्मीदवार हार गए, जो ब़डी-ब़डी पार्टियों के प्रतिनिधि के तौर पर चुनाव ल़डे थे. सभी महत्वपूर्ण पदों पर विश्‍वविद्यालय के छात्रों ने निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनौती दी. पांच अहम पदों में से चार के लिए निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत हुई. बताया जा रहा है कि देश के युवाओं में मोदी की हवा है, लेकिन इलाहाबादी छात्रों में उनका कोई जादू देखने को नहीं मिला.
अखिलेश यादव युवा मुख्यमंत्री हैं, युवाओं में लैपटॉप बांट रहे हैं, लेकिन विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में समाजवादी छात्रसभा से मात्र एक प्रत्याशी संस्कृति मंत्री पद के लिए चुनाव जीत सका.
यदि पांच राज्यों के चुनावों पर गौर करें तो यह स्पष्ट है कि अब राजनीति के सभी पुराने मानक ध्वस्त हो रहे हैं. युवा आगे आकर भारी संख्या में मतदान कर रहे हैं और पुराने चेहरों को नकार कर नये लोगों को मौका दे रहे हैं.
छत्तीसग़ढ विधानसभा चुनाव में भाजपा सरकार फिर से सत्ता में ज़रूर आई, लेकिन भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के कई ब़डे-ब़डे दिग्गज चुनाव हार गए. छत्तीसग़ढ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे, कद्दावर आदिवासी नेता बोधराम कंवर और रामपुकार सिंह भी चुनाव हार गए. कांग्रेस के कुल 27 विधायक विधानसभा नहीं पहुंच सके.
रमन सिंह के एक दर्जन मंत्रियों में से पांच मंत्री भी बुरी तरह से हारे. उनकी जगह जनता ने नये लोगों को तरजीह दी.  विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक, गृहमंत्री ननकीराम कंवर, कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू के साथ-साथ हेमचंद यादव, लता उसेंडी और रामविचार नेताम को जनता ने नकार दिया. यहां भाजपा के 37 में से 24 और कांग्रेस के 36 में से 17 नए चेहरे विधानसभा में पहुंचे हैं.
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी पहली बार चुनाव लड़े थे, जो कि 46,250 मतों के अंतर से जीत का रिकॉर्ड बनाया. मध्यप्रदेश में भी यही देखने को मिला. शिवराज सरकार के भी कई मंत्री चुनाव हार गए, जबकि यहां भाजपा ने ज़बर्दस्त जीत दर्ज की है.
सबसे दिलचस्प चुनावी नज़ारा तो दिल्ली चुनाव का रहा. यहां कुल 70 सदस्यों में से 40 बिल्कुल नए चेहरे हैं, जिनमें 11 भाजपा के और एक निर्दलीय भी है. आप के तक़रीबन सभी उम्मीदवार चुनाव क्षेत्र में नए और अति साधारण लोग थे, लेकिन भाजपा-कांग्रेस के बड़े-ब़डे दिग्गजों को उन्होंने धूल चटा दी.
ख़ुद अरविंद केजरीवाल ने 15 साल से मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को लगभग 26 हज़ार मतों से हराया. शीला दीक्षित समेत कई दिग्गज मंत्री भारी अंतर से चुनाव हार गए. हारने वाले इन नेताओं में कई ऐसे हैं, जो चार-पांच बार से लगातार चुनाव जीत रहे थे.
राजस्थान में भी अशोक गहलोत सरकार के कई मंत्री और दिग्गज विधायक चुनाव हार गए. इनमें मंत्री बीना काक, वरिष्ठ नेता उदयलाल आंजना, वरिष्ठ मंत्री हेमाराम चौधरी, दिग्गज नेता शांति धारीवाल, मंत्री मांगी लाल गरासिया, मंत्री दुर्रू मियां आदि चुनाव हार गए.
इन नतीजों पर चुनाव विश्‍लेषकों की राय रही कि अगर मतदान की बात छोड़ दें, स़िर्फ राजनीति में भागीदारी और दिलचस्पी के अन्य संकेतों पर ग़ौर करें, तब भी भारतीय लोकतंत्र अब नया अध्याय लिख रहा है.
राजनीति में लोगों की दिलचस्पी ब़ढ रही है. लोग पार्टियों की सदस्यता लेने से लेकर मतदान करने तक में उत्साह दिखा रहे हैं. भारतीय लोकतंत्र की अनूठी उपलब्धि यह है कि यहां पर जो जनता बेहद उपेक्षित है, जिसका पूरे तंत्र से कम से कम जु़डाव है, जिसकी कोई सामाजिक-आर्थिक भागीदारी नहीं है, जिसकी सामाजिक हैसियत सामान्य है, राजनीतिक दलों के भाग्य का ़फैसला वही जनता करती है, क्योंकि मतदान प्रक्रिया में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी उसी की होती है.
मध्यवर्ग की अपेक्षा निम्न-मध्य वर्ग और ग़रीब तबका अधिक मतदान करता है. अभी तक युवाओं की राजनीतिक निरपेक्षता पर लगातार निराशा जताने वाला चुनाव आयोग अब उत्साहित है, क्योंकि युवा राजनीति में दिलचस्पी लेते दिख रहे हैं. जनभागीदारी की वजह से हमारे लोकतंत्र का चरित्र बदल रहा है. किसी लोकतंत्र के मज़बूत होने के लिए यह बेहद सकारात्मक संकेत है.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...