रविवार, 11 दिसंबर 2016

नोटबंदी के दौर में फकीरी के जलवे

मैं फकीरी के नाना रूपों के आकर्षण में आजकल त्रिशंकु हो गया हूं. एक तरफ संत कवि कबीर दूसरी तरफ विश्वगुरु बनते भारत के परधानसेवक जी. एक तरफ कबीर की फकीरी खींचती है, दूसरी तरफ परधानसेवक की. गालिब चचा ने ऐसे ही त्रिशंकु हुए मुझ जैसे आदमी के लिए लिखा होगा कि'ईमां मुझे रोके है जो खीचें है मुझे कुफ्र, काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे'.

इनमें से काबा और कलीसा यानी मस्जिद और मयखाना कौन है, यह तो पक्का पता नहीं है लेकिन यह पक्का पता है कि 'होता है शबो-रोज तमाशामेरे आगे.'

बात भटक रही है, इसे भटकने नहीं देना है. मैं मोदी जी को आदर्श फकीर मानकर उन पर कॉन्सन्ट्रेट करना चाह रहा हूं. लेकिन उनकी फकीरी काफीदिलचस्प है. 25 क्विंटल फूलों की महक वाली राजशी फकीरी अपन कबीर—फैन जुलाहों, गढ़रियों पर कहां फबेगी! मैं दोनों फकीरी के बीच मेंचकरायमान हो रहा हूं.

संत कवि कबीर का बड़ा मशहूर भजन है, 'मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में...' आजकल यह अप्रसांगिक हो गया है. न हम पर सूट कर रहा है, न हमारेदेशकाल पर. इस भजन की आगे की पंक्तियां मेरे लेख से निकलकर भागना चाहती हैं.

फकीर का भजन जैसे फूलों के आकर्षण में फंस गया है. वह बहराइच जाना चाहता है. आज बहराइच में मोदी जी की परिवर्तन महारैली है. परिवर्तनयह हुआ है कि देसी रैली में 25 क्विंटल विदेशी फूल आया है. थाईलैंड, दिल्ली, कलकत्ता और नवाबों के शहर लखनउ से.

यह फकीरी का ही प्रताप है कि जिस दिल्ली से चलकर नये नोट बहराइच, गोंडा, बस्ती, लखनउ, कलकत्ता, बेंगलूर नहीं पहुंच सके, उस दिल्ली केप्रशासक के लिए तमाम शहरों से महंगे फूल खुद ही चलकर बहराइच आ गए हैं. पूरे 25 क्विंटल फूल.

फूल क्या हैं! अमीरी का प्रदर्शन. अमीरी क्या है? विनाश का द्वार. फूलों की महक मनुष्य को साधना से विरत करती है! जब तक फूलों का शबाबबरकरार है, तब तक ही उसकी महक बरकरार है और तभी तक अमीरी. शबाब यानी जवानी क्षणभंगुर है, इसलिए महक भी क्षणभंगुर है. महकअमीरी का प्रतीक है. यानी अमीरी भी क्षणभंगुर है. यही साबित करने के लिए फकीर को 25 क्विंटल फूल जुटाने पड़े हैं. विदेश से फूल इसलिए आए हैंताकि किसी को यह भ्रम न रहे कि जम्बूदीप से बाहर कुछ शाश्वत है! उस फूल की महक भी क्षणभंगुर है. हमें फकीरी की साध्ना करनी है!

भारत आध्यात्म की ताकत पर टिका है. वह हर क्षणभंगुर तत्व को नकार देता है. उसने अमीरी को नकार दिया है. सारे लोगों की जेब से, खेत से,संदूक से, बंदूक से, तिजोरी से, छिछोरी से, नौकरी से, लॉटरी से जितना पैसा निकल सकता था, सब निकाल कर बैंकों में जमा करा दिया गया है.लोग फकीर बन—बनकर कतार में खड़े हो गए हैं एटीएम के सामने. एटीएम भी किस देवता से कम है! एटीएम देवता अगर किसी को दाम-दर्शन देरहे हैं तो समझिए कि उसे सशरीर वैकुंठ प्राप्त हुआ.

दूसरी तरफ सारे देश का धन बैंकों में एकत्र हो गया है. समझ लो कि लालची लोगों के लिए नरक का द्वार खुल गया है. लुटेरों और पापियों ने चोर इसेलूटना शुरू कर दिया. उन्हें पकड़कर सजाएं दी जा रही हैं. परधान जी ने कहा है कि आठ नवंबर के बाद सोर पापों का हिसाब होगा.

सारे पापी लंदन भेजे जाएंगे. विजय माल्या नामक पापी ने सैकड़ों करोड़ हड़पने का पाप किया था, वह  लंदन नामक नरक में सज़ा काट रहा है. इसीतरह सारे पापियों को सजा मिलेगी.

मगर फकीर कवि कबीर दास मेरा ध्यान भटकाने की कोशिश कर रहे हैं-'जो सुख पावो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में.' मैं कबीर दास कोभारत का बड़ा कवि मानते हुए भी उनमें संशोधन की गुस्ताखी करना चाह रहा हूं.

मन लाग्यो मेरो यार फकीरी में...
जो सुख पावो नोटबंदी में,
सो सुख नाही करंसी में.
भला बुरा सब का सुन लीजै,
कर गुजरान इमरजेंसी में.
दिल्ली नगर में रहिनी हमारी,
रैली बहराइच झूंसी में.
दाल, भात से नरक मिलत है
मुक्ति मिलत है भूसी में.

इतिश्री फकीरी कथा.

सोमवार, 21 नवंबर 2016

क्या आपको भी उन्मादी भीड़ में तब्दील होने की जल्दी है?

कृष्णकांत

मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना...
-पाश

किसी समाज के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है कि लोग मुर्दा शांति से भर जाने के लिए बेकरार हों. समाज में सबकुछ सहन कर जाने लायक मुर्दनी छा जाना साधारण बात नहीं है. राममनोहर लोहिया कहते थे- 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करतीं.लेकिन हमारा समय मनहूस समय है. यहां पर कौमों में ​जिंदा दिखने का कोई हौसला नजर नहीं आता.
दुनिया भर में बदलाव हमेशा युवाओं के कंधे पर सवार होकर आता है. हमारे यहां का युवा अपने कंधे पर कुछ भी उठाने को तैयार नहीं है. उसने राजनीतिक मसलों को धार्मिक भावनाओं का मसला बना लिया है और आस्था में अंधे होकर अपनी रीढ़ की हड्डी गवां दी है. इसलिए जब आप सरकार के किसी फैसले या किसी कार्रवाई सवाल करते हैं तो अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े आपको गद्दार कहता हैदलाल कहता हैदेशद्रोही कहता है या पाकिस्तान का एजेंट कहता है.
भोपाल एनकाउंटर को लेकर सोशल मीडिया पर वही युद्ध शुरू हो गया हैजो हर मामले में होता है. राष्ट्रवादी बनाम देशद्रोही. सेकुलर बनाम कम्युनल. हिंदुत्ववादी अपनी सांप्रदायिकता को ऐसे पेश करते हैं जैसे कि सांप्रदायिक होना बहुत गौरव की बात हो. चाहे लेखकों की हत्या का मसला रहा होदादरी कांड होफर्जी गोरक्षा होसर्जिकल स्ट्राइक हो या भोपाल में आठ कैदियों का एनकाउंटर.
हर सवाल पर आपको गद्दार और देशद्रोही कहने वाला युवा ऐसी दुनिया में है जहां पर सरकार पर सवाल उठाना पाप है. बिना सवाल और समीक्षा केबिना आलोचना और प्रतिपक्ष के कैसा समाज ​बनेगायह उसकी कल्पना में कहीं नहीं है.
एक गैर-कानूनी सरकारी कार्रवाई पर आप यह सोच कर सवाल उठाते हैं कि कानून का शासन ही लोकतंत्र की पहली शर्त है. लेकिन भीड़ में होते युवा इस आलोचना को अपने राजनीतिक हितों पर होने वाला हमला मानते हैं. वे लोकतंत्र में भागीदारी नहीं चाहते. वे भेड़चाल में दौड़ना चाहते हैं. वे अपने आगे चलने वाली भेड़ के पीछे-पीछे सर झुका कर बस चलते रहना चा​हते हैं. धर्म की चाशनी में डूबी उनकी राजनीतिक ट्रेनिंग ही ऐसी हो रही है कि वे राजनीति को आस्था की आंख से देखते हैं. जैसे प्रजा राजा में आस्था रखती हैजैसे प्रजा राजा के लिए जान देने पर उतारू हो जाएउसी तरह वे जान दे देने या ले लेने को तैयार हैं.
हमारे देश का युवा उन्मादी भीड़ में तब्दील हो रहा है. उसे इत्मीनान से सोचने से परहेज हैउसे सवाल करने से परहेज हैउसे देश और देश की व्य​वस्था ​पर विचार करने से परहेज है. उसे गाली देने की जल्दी है. उसे किसी को गद्दारदलालदेशद्रोहीपाकिस्तानी आदि कह देने की जल्दी है. उसे भारत माता का नारा लगाने की जल्दी है. उसे ​सवाल करती महिला को वेश्या कह देने की जल्दी है. उसे सजा देने की जल्दी है. उसे जज बनकर फैसला सुनाने की जल्दी है. उसे भीड़ में तब्दील होकर किसी को मार डालने की जल्दी है.
इन युवाओं की शिक्षाजागरूकता और स्वाभिमान की कंडीशनिंग कैसे हुई होगी कि वे लोकतंत्र की मूल भावनाओं को ही गाली देते हैं. वे देशभक्ति में इतने पागल हैं कि देशभक्ति का ड्रामा करने वालों का कोई भी कारनामा बर्दाश्त करने को तैयार हैं. वे देशभक्ति के इन ड्रामों के लिए देश के ही बुनियादी नियमों का उल्लंघन सहने को तैयार हैं. उन्हें इसमें कुछ भी बुरा या असहज करने वाला नहीं लगता.
कितना अच्छा होता कि हर एनकाउंटर को कोर्ट द्वारा ​फर्जी सिद्ध किए जाने से पहले हमारे देश का युवा सरकारों से पूछता कि पुलिस को गोली मारने का अधिकार किसने दियावे पूछते कि किसी अपराधी को दंड देने के लिए भीड़ को अधिकार किसने दियाकोई संगीन अपराधों में लिप्त है तो उसे कानून और अदालतें सजा देंगीया प्रमोशन का प्यासा अफसर उसे गोली मारकर दंड देगाकाश! हमारे देश के युवा यह पूछते कि अगर हम गैरकानूनी हत्याओं को सेलिब्रेट करेंगे तो तालिबान या आईएसआईएस से अलग एक प्रतिष्ठित लोकतंत्र कैसे बनेंगे
लोकतंत्र नागरिक भागीदारी का नाम हैजिसमें आप सत्ता से लगातार सवाल करके उसे निरंकुश होने से रोकते हैं. जब आप सरकारों के पक्ष में खड़े हो जाएं और सवाल करना बंद कर देंतब समझिए कि आप मुर्दा शांति से भर गए हैं. और जैसा कि पाश कहते हैंसबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जानातड़प का न होनासब कुछ सहन कर जाना...
हर नागरिक को यह सोचना ​चाहिए कि आप क्या होना चाहते हैंसवाल करता हुआलोकतंत्र को मजबूत करता हुआ एक जागरूक नागरिक या मुर्दा शांति भरा हुआ लोकतंत्र में जनसंख्या बढ़ाने वाला मात्र एक प्राणीक्या आपको भी उन्मादी भीड़ में तब्दील होने की जल्दी है?


रविवार, 6 नवंबर 2016

सैकड़ों शहादतें कैसे रुकेंगी? मीडिया पर प्रतिबंध लगा दो

सीमा पर आज फिर दो जवान शहीद हो गए. इस साल अब तक कुल 76 जवान शहीद हो चुके हैं. पिछले तीन महीनों में 42 भारतीय जवान शहीद हो चुके हैं. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद कम से कम 100 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन हुआ है और 8 जवान शहीद हुए हैं.
1988 से सितंबर, 2016 तक कुल 6,250 भारतीय रक्षाकर्मी आतंकी वारदातों में शहीद हुए हैं. वहीं जवाबी कार्रवाई में कुल 23,084 आतंकियों को भारतीय जवानों ने मार गिराया. इन घटनाओं में करीब 15000 लोग मरे हैं.
56 इंची सीने का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद दो साल के भीतर 156 जवान शहीद हुए हैं.
यदि ये आंकड़े सही हैं तो पिछले ढाई साल में करीब ढाई सौ जवान शहीद हो चुके हैं. सरकार को इस बारे में स्पष्ट आंकड़ा जारी करके बताना चाहिए कि अब तक कुछ कितने जवान शहीद हुए.
आतंकी वारदातों में मारे गए जवानों की सालाना औसत मृत्यु दर पर नजर डालें, तो यह आंकड़ा कांग्रेस की मनमोहन सरकार से जरा भी कम नहीं है.
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाओं में वृद्धि हुई है. कश्मीर में आतंकी वारदात की संख्या वाजयेपी और मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार के दौरान बढ़ी हैं.
5 जनवरी 2015 से 15 जनवरी 2016 के बीच आतंक सम्बंधी 146 घटनाएं हुईं, जिसमें 169 लोग मारे गए. इनमे 39 सुरक्षाकर्मी और 22 नागरिक भी शामिल हैं. इसी दौरान राज्य में सीमा पर फायरिंग की 181 घटनाएं हुईं हैं जिसमें 22 लोगों की मौतें हुईं जिनमें 8 सुरक्षाकर्मी और 75 अन्य लोग मारे गए.
मोदी सरकार कहती है कि हम मुंहतोड़ जवाब दे रहे हैं तब आप कूदने लगते हैं, लेकिन पहले भी मुंहतोड़ जवाब ही दिया जाता रहा है. 2008-09 में भी युद्ध होने की कगार पर मामला पहुंच गया था. पहले की सरकारों ने सीमा पर सैनिकों के हाथ में दही नहीं जमाया था. सीमा के भीतर भी और बाहर भी सेना वह सब करती रही है जो करने की उसे जरूरत महसूस हुई. मोदी सेना को भी लेकर चुनाव प्रचार करते हैं, पहले ऐसा नहीं होता था.
प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी कहते थे कि पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए 56 इंची सीना चाहिए. एक सैनिक के सिर के बदले 10 सिर लाने की बात भी कहते थे. हालांकि, एक प्रधानमंत्री के तौर पर यह बात अहमक किस्म की है. तारीफ तो तब होगी जब वार्ता और कूट​नीति के सहारे इन घटनाओं पर रोक लगाई जाए. वे यह दोनों काम नहीं कर सके. उन्होंने यह जरूर किया कि सेना को चुनावी मंडी में ले जाकर सरे बाजार दुकान सजा बैठे हैं.
मनमोहन थे, तब भी सैनिक मर रहे थे. मोदी हैं तब भी सैनिक मर रहे हैं. सीमा पर गोलियां तब भी चलती थीं, अब भी चलती हैं. अंतर बस इतना आया कि पाकिस्तान ही आतंकी भेजता है और वही जांच दल भी भेजता है. जज, ज्यूरी और जल्लाद सब वही है.
स्पष्ट खुफिया रिपोर्ट होने के बाद भी पठानकोट हमला नहीं रोका जा सका. इस हमले को ​लेकर नियुक्त जांच समिति ने सरकार और सुरक्षा एजेंसियों पर गंभीर सवाल उठाए, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई हुई हो, ऐसा हमें मालूम नहीं है.
अब अगर एक एनडीटीवी को प्रति​बंधित करने या रवीश कुमार को काला पानी भेज देने से हमारी सुरक्षा पुख्ता होती हो तो ऐसा जरूर करना चाहिए. या ऐसा करना चाहिए कि समूचे मीडिया को प्रतिबंधित कर देना चाहिए.
'अंधेर नगरी, चौपट राजा' में भारतेंदु ​हरिश्चंद्र इसका पटाक्षेप इस पंक्ति से करते हैं कि 'जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज, ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज'.

बाकी, बागों में बहार तो हइए है...



*(सारे आंकड़े मीडिया रिपोर्ट्स से)

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

‘लोगों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हमला हो रहा है, बहस इस पर होनी चाहिए राष्ट्रवाद पर नहीं’







प्रश्न है राज्य की राजनीतिक हिंसा का, जो एक खास तरह की राजनीतिक भाषा में व्यक्त हो रही है. लेकिन पूरी संसद बैठ गई राष्ट्रवाद पर बहस करने, जैसे कि राष्ट्रवाद पर कोई सेमिनार हो रहा हो. बाहर हमले हो रहे हैं, संसद में अकादमिक सेमिनार हो रहा जैसे कि इस बहस से यह मसला निपट जाएगा


अपूर्वानंद

किसी से आप पूछेंगे कि वह किसको मानता है राष्ट्रवाद तो वह नहीं बता पाएगा. कुछ धुंधली-सी अवधारणा है लोगों के दिमाग में कि मुल्क हमेशा खतरे में रहता है, सैनिक उसकी रक्षा करते हैं, वे मारे जाते हैं, और इधर बुद्धिजीवी हैं जो तरह-तरह से सवाल उठाते रहते हैं, जबकि इत्मिनान से तनख्वाहें ले रहे हैं और जनता के पैसे पर शानदार जगहों में बैठकर पढ़ रहे हैं, जबकि हमारे सैनिक सियाचीन में बर्फ में दबकर मर जाते हैं.

अगर आप लोगों से पूछें तो कुल मिलाकर आपको जवाब यही मिलेगा जो आजकल मिल रहा है. अब आप इस अवधारणा को तोड़ेंगे कैसे? इसको तोड़ना बहुत ही मुश्किल है. लोगों को यह समझाना कि जो लोग विश्वविद्यालयों में बैठकर पढ़ रहे हैं, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, या जो सवाल कर रहे हैं, वह सवाल करना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. यह समझाना भी बहुत कठिन है कि छत्तीसगढ़ में भी जिन सैनिकों को लगा दिया जा रहा है उनको देश के ही खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है. क्योंकि उनको बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में इस्तेमाल किया जा रहा है. तो इसे कैसे समझाया जाएगा, यह एक प्रश्न है.

जिसको कहा जा रहा है कि राष्ट्रवाद क्या है, इसमें किसी को भी राष्ट्रद्रोही साबित करना बहुत आसान है. राष्ट्रवाद के घालमेल के चलते हिंदूवाद को आत्मसात करना बहुत आसान है. उसके प्रतीक चिह्न, उसके संकेत सारे ऐसे हैं जिसको आप हिंदू धर्म से जोड़कर देख सकते हैं. और एक तरह की प्रतिध्वनि है जो बहुत दिनों से लोगों के मन में चली आ रही है, अब जिसको खुलकर निकलने का मौका मिला है कि यह देश पूरी तरह से हिंदू क्यों नहीं है और क्यों नहीं इसे होने दिया जा रहा है. लंबे समय तक इसके लिए नेहरू को दोषी ठहराया गया, कि नेहरू क्योंकि आधा ईसाई थे, आधा मुसलमान थे, तो उनकी वजह से ऐसा नहीं हो पाया. वरना पटेल, राजेंद्र बाबू होते तो हिंदू राष्ट्र हो ही जाता. वह घृणा अभियान जारी है.

अब इस चीज को समझना अति आवश्यक है कि क्यों सबसे ज्यादा निशाने पर राहुल गांधी हैं. राहुल गांधी सोनिया के बेटे हैं और नेहरू से जुड़े हैं. तो वह जो पुरानी घृणा है उसे इटली से जोड़कर और ताजा किया जा सकता है. तो यह बहुत ही पेचीदा घालमेल किया गया है. अफवाहों और दूसरे तमाम माध्यमों से इसे इतना ज्यादा पकाया गया है, इसकी काट के बारे में बात करने की कभी कोई कोशिश नहीं की गई. हम लोग अगर बात करने लगेंगे समझदारी से तो उसकी तो जगह नहीं है. क्योंकि पूरा सामाजिक विचार-विमर्श है वह इस भाषा में ढल गया है.

दो-तीन चीजें जो बहुत ही असंगत मालूम पड़ती हैं, वो ये कि माओवादी कैसे राष्ट्रविरोधी हो गए? नक्सलवादी कैसे राष्ट्रविरोधी हो गए? यह प्रश्न किया जा सकता है! क्योंकि ये लोग तो सबसे गरीब लोगों के लिए लड़ रहे हैं. यह तो एक आंतरिक संघर्ष है. इनको राष्ट्रविरोधी बार-बार क्यों कहा जा रहा है? यह जो हो रहा है कि आप दोनों-तीनों चीजों का घालमेल कर रहे हैं, इससे कुछ बातें समझ में आती हैं. क्योंकि सशस्त्र माओवादियों का संघर्ष हमारे सैन्य बल से होता है. सैन्य बल राष्ट्र का सबसे बड़ा प्रतीक है. इसलिए आप माओवादियों को राष्ट्रविरोधी घोषित कर सकते हैं, बिना यह सोचे हुए कि ये सैन्य बल आदिवासियों के घर जला रहे हैं, उन पर हमला कर रहे हैं तो ये किनके हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं. ये बातें करेगा कौन?

विश्वविद्यालयों के खिलाफ घृणा का एक माहौल पहले से है. हमारे यहां एक एंटी इंटेलेक्चुअलिज्म है और एक हीनताबोध जो भाजपा-आरएसएस में है कि उनको कोई बौद्धिक मानता नहीं है. बौद्धिकता के विरुद्ध उनके मन में एक घृणा है. और बौद्धिकता मात्र को वामपंथी मान लिया गया है. यह बहुत मजेदार चीज है. लेकिन तब प्रताप भानु मेहता क्या ठहरेंगे? आंद्रे बेते क्या होंगे? पीएन मदान क्या होंगे? आशीष नंदी क्या होंगे? इसी बीच यह खबर आई जिसकी मैं आशीष नंदी से पुष्टि नहीं कर पाया. आशीष नंदी ने कहा है कि वे माफी मांगने को तैयार हैं. उन्होंने गुजरात को लेकर जो लेख वर्षों पहले लिखा था, उसके चलते उन पर देशद्रोह का मुकदमा है. यह मुकदमा उनके खिलाफ है और टाइम्स ऑफ इंडिया, अहमदाबाद के खिलाफ है, जिसने उनका लेख छापा था. यह लेख तो गुजरात सरकार की आलोचना थी. गुजरात जिस दिशा में जा रहा है, उसकी आलोचना थी. उस पर देशद्रोह का मुकदमा कैसे हो गया? वह चल रहा है और आशीष नंदी ने उस पर माफी मांगने की पेशकश की है. वे माफी मांग सकते हैं.

इससे समझा जा सकता है कि दरअसल बौद्धिकता पर हमला बहुत पहले से चल रहा था. गुजरात में वह प्रोजेक्ट पूरा हो गया. इसलिए आप कह सकते हैं अब गुजरात एक तरह का बैरेन लैंड है. अब आप देखें कि कैसे व्यवस्थित ढंग से वह हमला हो रहा है. जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय में अभी कुछ ही दिन पहले एक सेमिनार हुआ ‘कश्मीर में बहुलतावाद की संस्कृति’ विषय पर. अब यह सेमिनार कैसे राष्ट्रविरोधी है? लेकिन इस सेमिनार को लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आपत्ति जताता है और उस आपत्ति के आधार पर कुलपति नोटिस जारी करते हैं. तो यह सब क्या हो रहा है?

इसी तरह अभी एक घटना लखनऊ में घटी जो बहुत ही हास्यास्पद थी. हालांकि वह घटना थोड़ी-बहुत मुझसे जुड़ी हुई है, लेकिन हास्यास्पद है. राजेश मिश्रा जो समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं, उन्होंने फेसबुक पर मेरा लेख शेयर किया जो इंडियन एक्सप्रेस में छपा था. उसके चलते उनका पुतला जलाया गया, विरोध-प्रदर्शन किया गया, क्लास नहीं चलने दी गई और कुलपति ने उनको कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. अब देखिए कि मूर्खता किस हद तक जा रही है. वह लेख उन्होंने लिखा भी नहीं है. वह लेख उन्होंने सिर्फ शेयर किया है. उस लेख में कोई हिंसा का आह्वान नहीं है. उन्होंने कोई हिंसा का आह्वान नहीं किया है. लेकिन उनके खिलाफ हिंसा होती है और उन्हीं को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जाता है. तो हम लोग धीरे-धीरे कहां जा रहे हैं, यह तो समझ में आता है.

राष्ट्रवाद चूंकि इतनी धुंधली अवधारणा है कि कई चीजें घुल-मिल जाती हैं जैसे देशभक्ति और राष्ट्रवाद. अवधारणा में तो दोनों दो हैं, लेकिन यहां दोनों एक हो गए. राष्ट्र और राज्य दोनों एक हो गए, जबकि दोनों दो हैं. आप विरोध कर रहे हैं राज्य का लेकिन उसको कहा जा रहा है कि आप राष्ट्र का विरोध कर रहे हैं. देश की अवधारणा तो अलग है न! अपनी भाषाओं में देखें तो हम देश जाते हैं, परदेस जाते हैं. बिहार वालों का चटकल मजदूरों का परदेस कोलकाता हो गया. देश उनका अपना छपरा है, सीवान है. अगर आप पारंपरिक रूप से देखें तो उनका देश और परदेस तो इसी देश में हो जाता है. लोग अपनी मिट्टी में मरने की बात करते हैं. वे यह थोड़े कहते हैं कि मैं भारत में मरूंगा. कोई व्यक्ति जो रह रहा है दिल्ली में उसकी इच्छा होती है कि वह जाकर दफन हो वहीं पर, जहां से वह आया है. उसको आग वहीं दी जाए. तो यह एक दूसरी चीज है जिसे आप अपनी मिट्टी से प्रेम कह सकते हैं. वह राष्ट्रवाद नहीं है. क्योंकि वह तो राष्ट्र है नहीं. अगर मान लिया वह राष्ट्रवादी है तो वह क्यों दिल्ली में ही नहीं मर जाना चाहता है? क्यों वह अपने गांव जाकर ही मरना चाहता है या वहीं की मिट्टी में मिल जाना चाहता है? इसको काफी प्रगतिशील कदम माना जाता है कि अगर मैं लिखकर मर जाऊं कि मेरा शव मेरे गांव न ले जाया जाए. अगर पूरे राष्ट्र की भूमि एक ही है तो यह लगाव, यह खिंचाव क्यों होता है? यह अंतर है, इसको लोगों को समझना चाहिए. लेकिन यहां तो सब घालमेल कर दिया गया.

इसके उलट, राष्ट्रवाद तो एकदम नई अवधारणा है. जो आपका देश है, वही आपका राष्ट्र नहीं है, छपरा के व्यक्ति का देश तो छपरा या वहां का एक गांव मढ़ौरा है, जहां से वह आया है, लेकिन राष्ट्र तो भारत है. उसको यह समझाया है कि मढ़ौरा के मुकाबले भारत का इकबाल बहुत-बहुत ज्यादा है और मढ़ौरा के हितों को भारत के हित पर कुर्बान किया जा सकता है. यह जो भारत है, उसकी देश की जो समझ थी, जो पारंपरिक समझ है, उसके मुकाबले तो यह नई समझ है. इसमें भौगोलिक समझ शामिल है. यह एक भौगोलिक देश है, जिसकी एक चौहद्दी है, जिसके दक्षिण में यह है, उत्तर में यह है, पश्चिम में यह है, यह सब तो उसको बताया गया है कि यह ऐसा है. वह खुद इसका अनुभव नहीं करता है. अगर आप कहें कि मेरे अनुभव की सीमा से बाहर की चीज है. मैं इसकी कल्पना करता हूं, मुझे हर रोज यह बताया जाता है.

स्कूल में हम लोगों को जो चीज सबसे पहले याद कराई जाती थी वह भारत की चौहद्दी है. यह क्यों बताया जाता था? क्योंकि यह हमारे दिमाग में बैठ जाए. वह भारत कोई अपने आप अनुभव होने वाली चीज नहीं थी. मेरी जो मानवीय अनुभव की सीमा है, उस मानवीय की सीमा में तो भारत ही है. भारत अंतत: एक कल्पना है जिसके बारे में मुझे रोज-रोज बताकर उस कल्पना को मेरे दिमाग में बिठाकर उसको यथार्थ बना दिया जाता है, जिसका एक तिरंगा है, एक राष्ट्रगान है वगैरह-वगैरह. भारत इन्हीं के माध्यम से मेरे मन में मूर्त भी होता है और जीवित भी होता है. यह सब जो हो रहा है, वह बहुत स्पष्ट है. बीएचयू से संदीप पांडेय को तो नक्सली कहकर ही निकाला गया. नक्सली होना ही राष्ट्रविरोधी हो गया. वामपंथी होना ही राष्ट्रविरोधी होना हो गया. यह तो तय हो गया है. अब इसके बारे में बहस नहीं हो सकती. कुछ चीजें स्थापित कर दी गई हैं जिनके बारे में अब बहस की गुंजाइश नहीं है. जैसे आप यह नारा भारत में लगा सकते हैं कि नक्सलवादियों भारत छोड़ो. कैसे लगा सकते हैं यह नारा? आरएसएस वालों भारत छोड़ो यह नारा नहीं लग सकता लेकिन नक्सलवादियों भारत छोड़ो यह नारा लग सकता है. नक्सलवाद की विचारधारा से हमें आपत्ति हो सकती है, उनके तरीके से हमें असहमति हो सकती है, लेकिन नक्सलवादी जो सबसे गरीब लोगों के लिए लड़ते हैं, उनको आप कहते हैं कि भारत छोड़ो. यह बहुत विचित्र है लेकिन यह स्थापित हो चुका है.

अब रहा दलितों का प्रश्न, तो आरएसएस का कहना यह है कि एकमात्र मैं हूं, और कोई नहीं है. गांधी का भी व्याख्याता मैं हूं. आंबेडकर का भी व्याख्याता मैं हूं. मैं किसी और को व्याख्याता होने की इजाजत नहीं देता. हैदराबाद के आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन को लेकर, रोहित वेमुला जिससे जुड़ा था, उसके बारे में वेंकैया नायडू का बयान क्या है? उन्होंने कहा कि वह सिर्फ नाम का आंबेडकरवादी है. वह दरअसल, वाम का मुखौटा है. यह बात वे पहले दिन से कह रहे हैं कि आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन का दलितों से कोई लेना-देना नहीं है, वह दरअसल रेडिकल लेफ्ट का मुखौटा है जो राष्ट्र-विरोधी है, क्योंकि उसने याकूब मेमन की फांसी का विरोध किया. वे यह साबित कर रहे हैं कि इसकी इजाजत दलितों को नहीं है कि वे कौन-सी राजनीति करें और कौन-सी भाषा बोलें, क्योंकि वह हम उनको बताएंगे.

संबित पात्रा ने एक बहस में कहा कि आप दुर्गा के बारे में ऐसा नहीं बोल सकते. हमने कहा कि आप स्क्रिप्ट ताे नहीं देंगे न लिखकर कि हम क्या बोलें और क्या नहीं बोलें! आपकी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी होगी. लेकिन जो महिषासुर का शहादत दिवस मनाएंगे, वह दुर्गा के लिए क्या बोलेंगे यह तो वे ही तय करेंगे. आप तो दुर्गा को महिषासुर मर्दिनी बोले चले जा रहे हैं. आप तो यह ख्याल नहीं कर रहे हैं कि महिषासुर को देवता मानने वालों की भावना का क्या हो रहा है. उलटकर यह प्रश्न किया जाए कि उनकी भावनाओं का क्या हो रहा है. आप उनके शहादत दिवस में मत जाइए. आप अपना महिषासुर मर्दिनी दिवस मनाते रहिए. यह सब जो चल रहा है, इससे निपटना बहुत ही कठिन है. दो स्तर की लड़ाई हो गई है. एक लड़ाई है सांस्कृतिक और एक लड़ाई है राजनीतिक. अब यह पूरी लड़ाई सांस्कृतिक राजनीति में बदल गई है तो और भी कठिन हो गई है. अब देखिए कि यह कितना दिलचस्प है कि एक बहुत बड़ा तबका बिल्कुल खामोश बैठा है. वह है मुसलमानों का तबका. इस पूरी बहस में एक आवाज नहीं है. क्योंकि मान लिया गया है कि वे प्रासंगिक नहीं हैं. अब वे कैसे दावेदारी पेश करें इस भारतीय राष्ट्र पर? वे अपने को इस घोल में मिलाकर ही शामिल हो सकते हैं.

यह जो सांस्कृतिक राजनीति की लड़ाई है यह अभी और तीखी होने वाली है. इसकी तार्किक परिणति कुछ और भी हो सकती है इसके लिए लोगों को, पूरे भारत को तैयार रहना चाहिए, क्योंकि जिस दिशा में धकेल दिया गया है, उस दिशा में आप समाज के दूसरे तबकों को रोक नहीं सकते. तब वे अपनी भाषा में बात करेंगे. आज ऐसा लग रहा है कि वे चुप हैं, लेकिन वे क्यों चुप रहें और कब तक चुप रहें, कब तक अपमानित होते रहें? तो एक तो यह सांस्कृतिक स्तर की लड़ाई है. दूसरे, यह राजनीतिक स्तर की लड़ाई है, जिसमें भाजपा को काफी नुकसान होने वाला है दलितों और आदिवासियों की ओर से. यह तो बहुत स्पष्ट दिख रहा है. उन्होंने रोहित वेमुला और आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन को राष्ट्रविरोधी घोषित करने का जो दांव खेला है, वह उन्हें महंगा पड़ेगा. दलित और आदिवासी अब बेचारे नहीं हैं.

इस सबका रास्ता तो राजनीतिक संघर्ष है. लेकिन अभी जो दिख रहा है वह निराशाजनक है. अगर आज की बात करें तो. मेरी जो समझ है वह यह है कि जो कुछ चल रहा है वह बेहद अप्रसांगिक है. क्योंकि मसला क्या था? मसला राष्ट्रवाद तो है नहीं. मसला तो यह है कि राज्य ने अपनी हिंसा का प्रयोग गैर-आनुपातिक ढंग से किया. उसने आगे बढ़कर हैदराबाद और दिल्ली में छात्रों पर हिंसा का प्रयोग किया. प्रश्न है राज्य की राजनीतिक हिंसा का, जो एक खास तरह की राजनीति की भाषा में व्यक्त हो रही है. प्रश्न राष्ट्रवाद तो नहीं है, लेकिन पूरी संसद बैठ गई राष्ट्रवाद पर बहस करने, जैसे कि राष्ट्रवाद पर कोई सेमिनार हो रहा हो. बाहर हमले हो रहे हैं, लोगों को पीटा जा रहा है, लोगों को गलत ढंग से गिरफ्तार किया जा रहा है, बहस इस पर होनी चाहिए, न कि राष्ट्रवाद पर, लेकिन सब लोग वहां अकादमिक सेमिनार करने लगे. हर कोई राष्ट्रवाद की परिभाषा दे रहा है. जैसे कि इस बहस के खत्म होते ही यह मसला निपट जाएगा. आप जब संसद में बहस कर रहे हैं, उसी समय जम्मू में यह घटना हो गई, उसी समय लखनऊ में यह घटना हुई, उसी समय इलाहाबाद में प्रदर्शनकारियों पर हमला हो गया. मसला है कि लोगों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हमला हो रहा है. इस पर बहस होनी चाहिए थी. राजनाथ सिंह ने साफ झूठ बोला. वे झूठ बोलकर निकल कैसे गए और विपक्ष ने निकलने कैसे दिया? स्मृति ईरानी झूठ पर झूठ बोले जा रही हैं और निकलती जा रही हैं. अगर जवाबदेही तय करनी है तो विपक्ष इन मामलों में जवाबदेही तय करेगा, न कि राष्ट्रवाद पर बहस करने लगेगा.

मुझे दिख रहा है कि विपक्ष में फ्लोर मैनेजमेंट नहीं है, आपस में समन्वय भी नहीं है, और शायद स्पष्टता भी नहीं है. मसलन राहुल गांधी ने पहले दिन जेएनयू जाकर जो स्पष्टता दिखाई, या रोहित वेमुला मामले में, बाद में क्या कांग्रेस घबरा गई कि भाजपा उसे राष्ट्रवाद के मसले पर पीछे ले जाएगी? क्या कांग्रेस के जो ओल्ड गार्ड्स हैं, वे घबराए हुए हैं? जिन लोगों ने राजीव गांधी को सलाह दी होगी कि राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया जाए, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिरने दी, क्या उसी तरह के लोग राहुल को पीछे खींचकर ले गए होंगे कि संसद में मत बोलिए. क्योंकि इससे तो कुछ भी पता नहीं चला कि दरअसल आप करना क्या चाहते हैं. मुझे लगता है कि विपक्ष की तैयारी नहीं है. विपक्ष से ज्यादा स्पष्टता और तैयारी छात्रों में थी, चाहे हैदराबाद के छात्र हों या जेएनयू के. यह सब काफी दुर्भाग्यपूर्ण है. हम सब काफी लंबा खतरनाक समय झेलने को अभिशप्त हैं. यह सब पता नहीं कहां तक जाएगा.

माहौल यह है कि हम लोग आसानी से बात नहीं कर सकते. कक्षाओं में सहजता नहीं रह गई है. कोई भी चीज अब सहज नहीं रह गई है. माहौल पूरी तरह से तनावपूर्ण है और लोग कन्फ्यूज्ड हैं. मुझे लगता है कि भाजपा की रणनीति संभवत: यह थी कि लोगों के मन में बड़ा कन्फ्यूजन पैदा कर दो और टेम्प्रेचर लगातार ऊपर रखो. जितना टेम्प्रेचर ऊपर होगा, लोग सन्निपात की हालत में होंगे. समाज सन्निपात की अवस्था में होगा तो उसकी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो जाएगी. उस समय आप कुछ भी कर सकते हैं. क्योंकि तब समाज की आत्म रक्षात्मक स्थिति भी समाप्त हो जाएगी. आप उस पर कब्जा कर लेंगे. स्थितियां बहुत खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. यह लेख कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित है. यह लेख मार्च, 2016 में तहलका में छप चुका है.)

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

क्या मध्य प्रदेश पुलिस का एनकाउंटर फर्जी है?

मध्य प्रदेश में हुआ 8 लोगों का एनकाउंटर प्रथमदृष्टया फर्जी है. पुलिस की मुठभेड़ कहानी पर तमाम सवाल उठ रहे हैं.
जब कैदी जेल में थे, निहत्थे थे, सुरक्षा के अंदर थे, तब वे आराम से जेल में सेंध लगाते हैं और एकमात्र पुलिसकर्मी की हत्या करके भागने में सफल हो जाते हैं. पुलिस उन्हें भागने से नहीं रोक पाई, लेकिन एनकाउंटर तुरंत कर दिया, सफलतापूर्वक. वह भी सभी आठ कैदियों का.
ये वे कैदी हैं जो 2013 में खंडवा जेल से भी फरार हुए थे. दोबारा उन्हीं लोगों की सुरक्षा में सिर्फ एक गार्ड रखा गया था?
भागे हुए कैदियों के पास हथियार, जींस, टीशर्ट आदि चीजें कहां से आईं? सेंट्रल जेल में कैसी व्यवस्था थी कि कैदी सुरक्षाकर्मी को मारकर चलते बने और उन्हें रोकने वाला नहीं था?
कैदियों ने सेंध लगाई और सिर्फ सिमी के तथाकथित आतंकी भागे जो कि मुसलमान थे. बाकी सब कैदी  क्या वहां पर कल्पवास करने गए हैं? 8 लोग भाग रहे थे, सुरक्षाकर्मी मारा जा चुका था, लेकिन अन्य कैदियों ने भागने की क्यों नहीं सोची? क्या बाकी का हृदयपरिवर्तन हो गया था कि उन्होंने जेल में ही रहने का फैसला किया?
राज्य सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि सिमी के आरोपियों के पास गन नहीं थी. आइजी साब कह रहे हैं कि आरोपियों ने पुलिस पर फायरिंग की और जवाबी कार्रवाई यानी एनकाउंटर में मारे गए. ऐसा कैसे हुआ कि एक ही घटना के दो वर्जन हैं?
मध्य प्रदेश के पत्रकार प्रवीन दुबे ने अपनी फेसबुक वॉल पर एक लंबी पोस्ट लिखी है— ''शिवराज जी...इस सिमी के कथित आतंकवादियों के एनकाउंटर पर कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है....मैं खुद मौके पर मौजूद था..सबसे पहले 5 किलोमीटर पैदल चलकर उस पहाड़ी पर पहुंचा, जहां उनकी लाशें थीं...आपके वीर जवानों ने ऐसे मारा कि अस्पताल तक पहुँचने लायक़ भी नहीं छोड़ा...न...न आपके भक्त मुझे देशद्रोही ठहराएं, उससे पहले मैं स्पष्ट कर दूँ...मैं उनका पक्ष नहीं ले रहा....उन्हें शहीद या निर्दोष भी नहीं मान रहा हूँ लेकिन सर इनको जिंदा क्यों नहीं पकड़ा गया..? मेरी एटीएस चीफ संजीव शमी से वहीं मौके पर बात हुई और मैंने पूछा कि क्यों सरेंडर कराने के बजाय सीधे मार दिया..? उनका जवाब था कि वे भागने की कोशिश कर रहे थे और काबू में नहीं आ रहे थे, जबकि पहाड़ी के जिस छोर पर उनकी बॉडी मिली, वहां से वो एक कदम भी आगे जाते तो सैकड़ों फीट नीचे गिरकर भी मर सकते थे..मैंने खुद अपनी एक जोड़ी नंगी आँखों से आपकी फ़ोर्स को इनके मारे जाने के बाद हवाई फायर करते देखा, ताकि खाली कारतूस के खोखे कहानी के किरदार बन सकें.. उनको जिंदा पकड़ना तो आसान था फिर भी उन्हें सीधा मार दिया...और तो और जिसके शरीर में थोड़ी सी भी जुंबिश दिखी उसे फिर गोली मारी गई...एकाध को तो जिंदा पकड लेते....उनसे मोटिव तो पूछा जाना चाहिए कि वो जेल से कौन सी बड़ी वारदात को अंजाम देने के लिए भागे थे..?अब आपकी पुलिस कुछ भी कहानी गढ़ लेगी कि प्रधानमन्त्री निवास में बड़े हमले के लिए निकले थे या ओबामा के प्लेन को हाइजैक करने वाले थे, तो हमें मानना ही पड़ेगा क्यूंकि आठों तो मर गए... शिवराज जी सर्जिकल स्ट्राइक यदि आंतरिक सुरक्षा का भी फैशन बन गया तो मुश्किल होगी...फिर कहूँगा कि एकाध को जिंदा रखना था भले ही इत्तू सा...सिर्फ उसके बयान होने तक....चलिए कोई बात नहीं...मार दिया..मार दिया लेकिन इसके पीछे की कहानी ज़रूर अच्छी सुनाइयेगा, जब वक़्त मिले...कसम से दादी के गुज़रने के बाद कोई अच्छी कहानी सुने हुए सालों हो गए....आपका भक्त''
इन सवालों के बीच मीडिया अन्य मसलों की तरह इस मामले मे भी तमाशा कर रहा है. जो लोग एनकाउंटर में मारे गए, वे शायद आतंकवाद की कई घटनाओं के आरोपी थे. पुलिस अपने बयान में उन्हें आरोपी कह रही है. मुख्यमंत्री शिवराज चौहान आतंकवादी कह रहे हैं.
समाचार एजेंसी ANI उन्हें सिमी आतंकवादी लिख रही है. PTI सिमी एक्टीविस्ट लिख रही है. बीबीसी इन्हें सिमी कार्यकर्ता और कैदी लिख रहा है. पंजाब केसरी लिखता है 'सिमी के आठ खुंखार आतंकवादी'. भास्कर पर भी यही कॉपी है. दोनों में 'खुंखार' शब्द लिखा है. एक मूर्ख ने पहले कॉपी तैयार की है. दूसरे ने चांप दिया है. दोनों खबर का एंगल एक है. दैनिक जागरण, आजतक, जनसत्ता और ​हिंदुस्तान आदि के लिए वे लोग आतंकवादी थे.
नवभारत टाइम्स एक खबर में संदिग्ध आतंकवादी लिख रहा है. दूसरे में आतंकवादी लिख रहा है. लेकिन इसी खबर में कार्यकर्ता भी लिख रहा है. नवभारत टाइम्स यह भी लिख रहा है कि आतंकियों पर 5-5 लाख का इनाम घोषित किया गया है. पता नहीं जिंदा थे तब किया गया था या मुर्दों पर इनाम रखा गया है. एनडीटीवी इन्हें कैदी, सिमी के सदस्य, सिर्मी कार्यकर्ता और आतंकी सब ​लिख रहा है.
किसी आतंकवादी से किसी को कैसी सहानुभूति? वह बम दगाएगा तो हम आप में से कोई भी मर सकता है. लेकिन जब सैकड़ों युवकों को कोर्ट ने सालों बाद निर्दोष छोड़ा हो, उनके खिलाफ बिना सबूत के उनके जीवन बर्बाद किए गए हों, तब मीडिया विचाराधीन कैदियों को इतने आत्मविश्वास से आतंकवादी कैसे कह रहा है?
तो सार यह है कि बिना कानून और अदालत से दोष सिद्ध हुए भी मीडिया आपको किसी काल्पनिक या संदेहास्पद अपराध का अपराधी घोषित कर सकता है. जिस तरह अंडरट्रायल कैदी को पागल हो चुका भारतीय मीडिया आतंकवादी लिखता है, उसी तरह पागल हो चुकी सरकारें एनकाउंटर करवाती हैं.
15-20 साल जेल में सड़कर फिर कोर्ट से निर्दोष साबित हुए युवकों की कहानियां आपने नहीं सुनी हैं? सैकड़ों का जीवन बर्बाद किया जा चुका है.
हालांकि, यह जांच का विषय है कि एनकाउंटर फर्जी है या सही. लेकिन यदि नौ लोगों का एनकाउंटर हो सकता है तो कल को आपका भी हो सकता है. हर फर्जी एनकाउंटर भारतीय संविधान और कानून का भी एनकाउंटर है.

मुठभेड़ चाल


कभी कानून व्यवस्था के लिए खतरा बने कुख्यात अपराधियों से निपटने के लिए अंजाम दी जाने वाली मुठभेड़ की कार्रवाई गैर-कानूनी हत्याओं के एक ऐसे खेल में बदल गई है जो अधिकारियों के लिए पद, पैसा और प्रशंसा बटोरने का जरिया बन गई. क्या मुठभेड़ के नाम पर भारतीय कानून ऐसी हत्याओं की इजाजत देता है?

कृष्णकांत 

सीबीआई कोर्ट ने 25 साल पहले पीलीभीत में हुए 10 सिखों के फर्जी एनकाउंटर में 47 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया है. पच्चीस साल पहले पीलीभीत में पुलिस ने दस सिख युवकों को आतंकी बताकर मार डाला था. सीबीआई जांच हुई तो पता चला वे आतंकी नहीं, तीर्थयात्री थे जो सिख तीर्थस्थलों की यात्रा करके वापस घर लौट रहे थे. हाल ही में सीबीआई अदालत ने मुठभेड़ को फर्जी ठहराया और 47 पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सजा सुनाई. अदालत के अनुसार पुलिस ने प्रमोशन के लालच में इस वारदात को अंजाम दिया था.

फर्जी एनकाउंटर तो हमारे देश में आम बात है, लेकिन बहुत कम मामले ऐसे हैं जिनमें फर्जी एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों या सैन्यकर्मियों को सजा हुई हो. हो सकता है कि एनकाउंटर कभी ऐसे अपराधियों को ठिकाने लगाने का हथियार रहा हो जो कानून-व्यवस्था और जनता के लिए खतरा बने, लेकिन साथ-साथ यह विरोधियों को ठिकाने लगाने और राजनीतिक बदला लेने या अंडरवर्ल्ड के इशारे पर किसी को निपटाने का भी जरिया बना. बीहड़ों के डकैत और अंडरवर्ल्ड के लोग, जो कानून व्यवस्था के लिए मुसीबत बने हुए थे, उनके खात्मे से शुरू हुई पुलिस मुठभेड़ की कार्रवाई बहुत जल्द ही पुलिस अधिकारियों के लिए  पद-पैसे में बढ़ोतरी और प्रशंसा बटोरने का खेल बन गई. पिछले दो-तीन दशकों में कई ऐसे एनकाउंटर के मामले चर्चित हुए जो पहले पुलिस के दावे से अलग फर्जी एनकाउंटर या कहें पुलिस द्वारा की गई गैर-कानूनी हत्या साबित हुए.
इशरत जहां एनकाउंटर, जिसे बाद में हुई जांच में फर्जी पाया गया था

उत्तर प्रदेश फर्जी एनकाउंटर के मामले में सबसे अव्वल है. अगस्त 2009 में लखनऊ में ह्यूमन राइट्स वॉच ने ‘ब्रोकेन सिस्टम, डिस्फंक्शनल एब्यूज ऐंड इम्प्यूनिटी इन इंडियन पुलिस’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट की शुरुआत में एक पुलिस अधिकारी का कबूलनामा था, ‘इस हफ्ते मुझे एक एनकाउंटर करने को कहा गया है. मैं उसकी तलाश कर रहा हूं. मैं उसे मार डालूंगा. हो सकता है कि मुझे जेल भेज दिया जाए लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 से 2015 के बीच देश में सबसे ज्यादा फर्जी एनकाउंटर उत्तर प्रदेश में हुए. इस दौरान यूपी में लगभग 782 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें दर्ज कराई गईं. वहीं, दूसरे नंबर पर आंध्र प्रदेश रहा, जहां सिर्फ 87 फर्जी एनकाउंटर की शिकायतें आईं.

आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी के मुताबिक, इन 782 मामलों में से 160 मामलों में यूपी सरकार ने पीड़ित परिवार को लगभग 9.47 करोड़ रुपये मुआवजा भी दिया. वहीं, इस दौरान पूरे देश में कुल 314 शिकायतों में मुआवजे दिए गए. यूपी और आंध्र प्रदेश के बाद तीसरा नंबर बिहार और चौथा असम का रहा. जहां इस दौरान बिहार में 73 फर्जी एनकाउंटर के मामले आए तो असम में 66 मामले दर्ज हुए. इसके अलावा जुलाई 2014 में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने बताया था कि साल 2011 से 2014 के बीच 185 फर्जी मुठभेड़ के केस पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज हुए थे. इनमें सबसे ज्यादा यूपी में 42 केस और इसके बाद झारखंड में 19 केस दर्ज हुए हैं. आंकड़ों के मुताबिक, 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुईं. 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज्यादा थी. 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी. 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए.

उत्तर प्रदेश के भदोही में 2005 में हुई एक फर्जी मुठभेड़ के केस में 28 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध मामला दर्ज हुआ था. सीआईडी जांच में पाया गया कि 5000 रुपये के इनामी बदमाश विजय उर्फ लल्लू उर्फ बुद्धसेन को पुलिस ने मार गिराया था. पुलिस ने इसे मुठभेड़ दिखाया लेकिन बाद में इसे फर्जी पाया गया. जिन 28 पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया, उनमें से पांच बाद में थाना प्रभारी भी बन गए.

पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर मामले के पहले भी एनकाउंटर की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जो फर्जी साबित हुईं. दिसंबर 2015 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मेरठ के दौराला के एक जंगल में फर्जी मुठभेड़ मामले में तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. इस घटना में मेरठ कॉलेज की एक 20 साल की छात्रा स्मिता भादुड़ी की 14 जनवरी, 2000 को मेरठ के सिवाया गांव के पास फर्जी मुठभेड़ में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नवनीत कुमार ने सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक अरुण कौशिक, कांस्टेबल भगवान सहाय और सुरेंद्र कुमार को हत्या का दोषी पाया था.

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर में अप्रैल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ का मामला सामने आया था. इस मामले में सेना ने 2015 में एक कर्नल रैंक अधिकारी समेत छह जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी, लांस नायक अरुण कुमार और राइफल मैन अब्बास हुसैन ने तीन आतंकियों को मारने का दावा किया था. मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ. मरने वालों के परिजनों ने दावा किया कि वे तीनों सामान्य नागरिक थे, जिनको फर्जी मुठभेड़ में मारा गया. उनकी पहचान  बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई. इस घटना के बाद पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई. बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें 123 लोग मारे गए थे. पुलिस जांच में साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. इस मुठभेड़ का मकसद इनाम और प्रमोशन पाना था. सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया तो छह जवान दोषी पाए गए.

पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर मामले के पहले भी एनकाउंटर की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जो फर्जी साबित हुईं. दिसंबर 2015 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मेरठ के दौराला के एक जंगल में फर्जी मुठभेड़ मामले में तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. इस घटना में मेरठ कॉलेज की एक 20 साल की छात्रा स्मिता भादुड़ी की 14 जनवरी, 2000 को मेरठ के सिवाया गांव के पास फर्जी मुठभेड़ में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नवनीत कुमार ने सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक अरुण कौशिक, कांस्टेबल भगवान सहाय और सुरेंद्र कुमार को हत्या का दोषी पाया था.

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर में अप्रैल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ का मामला सामने आया था. इस मामले में सेना ने 2015 में एक कर्नल रैंक अधिकारी समेत छह जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी, लांस नायक अरुण कुमार और राइफल मैन अब्बास हुसैन ने तीन आतंकियों को मारने का दावा किया था. मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ. मरने वालों के परिजनों ने दावा किया कि वे तीनों सामान्य नागरिक थे, जिनको फर्जी मुठभेड़ में मारा गया. उनकी पहचान  बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई. इस घटना के बाद पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई. बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें 123 लोग मारे गए थे. पुलिस जांच में साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. इस मुठभेड़ का मकसद इनाम और प्रमोशन पाना था. सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया तो छह जवान दोषी पाए गए.

पीलीभीत फर्जी एनकाउंटर मामले के पहले भी एनकाउंटर की कई ऐसी घटनाएं सामने आईं जो फर्जी साबित हुईं. दिसंबर 2015 में सीबीआई की विशेष अदालत ने मेरठ के दौराला के एक जंगल में फर्जी मुठभेड़ मामले में तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. इस घटना में मेरठ कॉलेज की एक 20 साल की छात्रा स्मिता भादुड़ी की 14 जनवरी, 2000 को मेरठ के सिवाया गांव के पास फर्जी मुठभेड़ में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश नवनीत कुमार ने सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक अरुण कौशिक, कांस्टेबल भगवान सहाय और सुरेंद्र कुमार को हत्या का दोषी पाया था.

जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के माछिल सेक्टर में अप्रैल 2010 में एक फर्जी मुठभेड़ का मामला सामने आया था. इस मामले में सेना ने 2015 में एक कर्नल रैंक अधिकारी समेत छह जवानों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी. कर्नल दिनेश पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी, लांस नायक अरुण कुमार और राइफल मैन अब्बास हुसैन ने तीन आतंकियों को मारने का दावा किया था. मरने वालों की तस्वीर सामने आने के बाद काफी विवाद हुआ. मरने वालों के परिजनों ने दावा किया कि वे तीनों सामान्य नागरिक थे, जिनको फर्जी मुठभेड़ में मारा गया. उनकी पहचान  बारामूला जिले के नदीहाल इलाके के रहने वाले मोहम्मद शाफी, शहजाद अहमद और रियाज अहमद के रूप में की गई. इस घटना के बाद पूरी कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई. बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जिसमें 123 लोग मारे गए थे. पुलिस जांच में साबित हुआ कि तीनों नागरिकों को नौकरी का झांसा देकर सीमा पर ले जाया गया जहां उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया. इस मुठभेड़ का मकसद इनाम और प्रमोशन पाना था. सेना ने जनरल कोर्ट मार्शल का आदेश दिया तो छह जवान दोषी पाए गए.

अप्रैल 2015 में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु सीमा पर तिरुपति के पास आंध्र प्रदेश के सेशाचलम के जंगल में एसटीएफ ने 20 लोगों को मार गिराया. एसटीएफ ने दावा किया कि ये सभी दुर्लभ लाल चंदन की लकड़ियों की तस्करी से जुड़े थे, लेकिन बाद में जो तस्वीरें और तथ्य सामने आए वे विरोधाभासी थे. मारे गए लोगों के परिजनों ने दावा किया कि वे सभी मजदूर थे जिनकी गलत तरीके से हत्या की गई. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस एनकाउंटर पर सवाल उठाए थे. इसी दौरान अप्रैल 2015 में तेलंगाना के वारांगल जिले में पुलिस ने पांच ऐसे लोगों को मुठभेड़ में मारने का दावा किया जो न्यायिक हिरासत में थे. पुलिस के मुताबिक वारंगल सेंट्रल जेल से हैदराबाद कोर्ट ले जाते समय कैदियों ने हथियार छीनने की कोशिश की और पुलिस कार्रवाई में मारे गए. इन पांचों पर एक स्थानीय आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप था. जिस वक्त इन्हें मारा गया, सभी कैदियों के हाथ में हथकड़ियां लगी थीं. इस एनकाउंटर पर भी सवाल उठे थे.

भारत में पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा नक्सलियों, कुख्यात अपराधियों और बीहड़ के डकैतों को फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने का इतिहास काफी पुराना है. इसका चलन साठ के दशक में शुरू हुआ जब पुलिस ने बीहड़ों के डाकुओं के खिलाफ अभियान चलाए. सीधी मुठभेड़ में कुख्यात डाकुओं के मारे जाने के बाद आॅपरेशन को अंजाम देने वाले अधिकारी को राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कार और पदोन्नति मिलती थी. बाद में सामने आया कि इन मुठभेड़ों में कुख्यात अपराधियों के अलावा कई निर्दोष लोग फर्जी तरीके से मारे गए. 20वीं सदी के आखिरी वर्षों में और नई सदी के पहले दशक में मानवाधिकार संगठनों ने इन मुठभेड़ों और गैर-कानूनी हत्याओं पर चिंताएं जाहिर करनी शुरू कीं. इसके पहले ये एनकाउंटर एक तरह से जायज माने जाते रहे. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मानना है कि राज्यों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में से ज्यादातर को पुलिस अंजाम देती है, सेना की ओर से ऐसी कार्रवाइयां कम सामने आती हैं.

मुंबई में 1990 के दशक में संगठित अपराध खत्म करने के लिए धड़ाधड़ एनकाउंटर हुए और ऐसे अधिकारियों को ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के तमगे से नवाजा गया. पुलिस का कहना था कि एनकाउंटर करके वह न्याय प्रक्रिया में तेजी ला रही है. जनवरी, 1982 में मान्या सुर्वे नामक कुख्यात गैंगस्टर को पुलिस ने वडाला इलाके में मार गिराया. इसे मुंबई पुलिस के पहले एनकाउंटर के रूप में दर्ज किया गया. इसके बाद 2003 तक मुंबई पुलिस ने करीब 1200 एनकाउंटर किए. मुंबई पुलिस के कई अधिकारी एनकाउंटर  स्पेशलिस्ट के तौर पर पहचाने गए. जैसे इंस्पेक्टर प्रदीप शर्मा के नाम 104 एनकाउंटर करने का तमगा है. उनका कहना था, ‘अपराधी गंदगी हैं और मैं सफाईकर्मी हूं.’ शर्मा को राम नारायण गुप्ता एनकाउंटर केस में 2009 में सस्पेंड किया गया था, बाद में 2013 में कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. इसी तरह सब इंस्पेक्टर दया नायक ने 83 एनकाउंटर किए, जिन पर ‘अब तक छप्पन’ फिल्म बनी थी. इंस्पेक्टर प्रफुल्ल भोंसले के नाम 77, इंस्पेक्टर रवींद्रनाथ अंग्रे के नाम 54, असिस्टेंट इंस्पेक्टर सचिन वाजे के नाम 63 और इंस्पेक्टर विजय सालस्कर के नाम 61 एनकाउंटर केस दर्ज हैं. इंस्पेक्टर विजय सालस्कर 2008 में मुंबई आतंकी हमले में मारे गए थे.

हालांकि बाद में न्याय की इस थ्योरी पर सवाल उठना शुरू हुआ. अदालतों ने इस पर नकारात्मक टिप्पणियां कीं. कुछ ऐसी घटनाएं भी सामने आईं कि पुलिसवालों ने अंडरवर्ल्ड से पैसे लेकर किसी व्यक्ति की फर्जी एनकाउंटर में हत्या की. एक मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ‘पुलिस अब जनता की रक्षक न होकर एक पेशेवर कातिल बन चुकी है.’ महाराष्ट्र में 2006 में हुए लखन भैया फर्जी मुठभेड़ मामले में 11 पुलिसकर्मियों को मुंबई सत्र अदालत ने जुलाई 2013 में दोषी करार दिया था.

हाल के वर्षों में रणवीर फर्जी एनकाउंटर मामला काफी चर्चित रहा था. जुलाई 2009 में गाजियाबाद का रणवीर, जो एमबीए का छात्र था, अपने अपने एक दोस्त के साथ नौकरी के लिए इंटरव्यू देने व घूमने के लिए देहरादून गया था. उत्तराखंड पुलिस ने उसे बदमाश बताकर देहरादून स्थित लाडपुर के जंगल में एनकाउंटर में मार गिराया. उत्तराखंड सरकार ने एनकाउंटर में शामिल पुलिसकर्मियों को सम्मानित भी किया. रणवीर के शरीर में 29 गोलियों के निशान पाए गए, जिनमें से 17 गोलियां करीब से मारी गई थीं. बहुत हंगामे के बाद में राज्य सरकार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपते हुए इसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया. सीबीआई जांच में पाया गया कि यह एनकाउंटर फर्जी था. जून 2014 में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने 17 पुलिसकर्मियों को अपहरण, हत्या की साजिश और हत्या के जुर्म में उम्रकैद और एक पुलिसकर्मी को दो साल की सजा सुनाई.

राजस्थान पुलिस की एसओजी टीम ने अक्टूबर 2006 में एक संदिग्ध डकैत दारा सिंह को मार गिराया. पुलिस ने उस पर 25 हजार का इनाम रखा था. पुलिस ने दावा किया कि हत्या और स्मगलिंग के केस में बंद दारा सिंह ने हिरासत से भागने की कोशिश की तो एनकाउंटर में मारा गया. दारा सिंह की पत्नी सुशीला की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया. सीबीआई ने 2011 में जांच पूरी करके 16 लोगों के खिलाफ चार्जशीट तैयार की. इसमें तत्कालीन एडिशनल डीजीपी, एसपी, एडिशनल एसपी, सात सब इंस्पेक्टर और तीन कॉन्स्टेबल भी शामिल थे. इस केस की सुनवाई करते हुए जस्टिस मार्कंडेय काटजू और सीके प्रसाद की बेंच ने सभी आरोपियों की गिरफ्तारी का आदेश देते हुए कहा था, ‘पुलिस को कानून का संरक्षक माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वह लोगों की जान की सुरक्षा करेगी, न कि उनकी जान ही ले लेगी. पुलिस द्वारा की जाने वाली फर्जी मुठभेड़ अमानवीय हत्या के अलावा कुछ नहीं है, जिसे रेयरेस्ट ऑफ द रेयर अपराध माना जाएगा. फर्जी मुठभेड़ों में संलिप्त पुलिसवालों को फांसी पर लटका देना चाहिए.’

गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कई एनकाउंटर हुए जो विवादों में रहे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, 2002 से 2007 के बीच गुजरात में 31 फर्जी  एनकाउंटर हुए. फर्जी एनकाउंटर को लेकर गुजरात के कुल 32 पुलिस अधिकारी जेल गए, जिनमें से ज्यादातर अभी तक जेल में हैं. इन अधिकारियों में पांच आईपीएस अफसर भी शामिल हैं. हाल ही में गुजरात के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट, 1987 बैच के आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा नौ साल बाद गुजरात पहुंचे तो उनका भव्य स्वागत किया गया. वे 2007 में गिरफ्तार किए गए थे. 2015 में जमानत मिली, लेकिन सीबीआई कोर्ट ने उनके गुजरात में प्रवेश पर रोक लगा रखी थी. बाद में कोर्ट ने यह रोक हटा ली.

वंजारा 2002 से 2005 तक अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस थे. इस दौरान राज्य में करीब बीस लोगों का एनकाउंटर हुआ. बाद में जब सीबीआई जांच हुई तो पता चला कि इनमें से कई एनकाउंटर फर्जी थे. वंजारा के बारे में कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत करीबी थे. 2007 में गुजरात सीआईडी ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल भेजा. उन पर सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसर बी, तुलसीराम प्रजापति, सादिक जमाल, इशरत जहां समेत आठ लोगों की हत्या का आरोप है. इन सभी एनकाउंटरों के बाद गुजरात क्राइम ब्रांच ने दावा किया था कि ये सभी पाकिस्तानी आतंकी थे और गुजरात के मुख्यमंत्री को मारना चाहते थे, लेकिन बाद में कोर्ट के आदेश पर सीबीआई जांच में साबित हुआ कि ये सभी एनकाउंटर फर्जी थे.

इशरत जहां एनकाउंटर केस 15 जून, 2004 को अहमदाबाद में हुआ था. इसमें 19 वर्षीय इशरत के साथ जावेद शेख उर्फ प्राणेश पिल्लै, अमजद अली, अकबर अली राणा और जीशान जौहर मारे गए थे. इस मामले में पृथ्वीपाल पांडेय (पीपी पांडेय) व जीएल सिंघल समेत सात अधिकारियों को सीबीआई ने चार्जशीट में अभियुक्त बनाया था. बाद में जीएल सिंघल ने यह कहते हुए इस्तीफा भी दिया था कि सरकार उनका बचाव नहीं कर रही, जबकि उन्होंने क्राइम ब्रांच में रहते हुए जो भी किया, वह सब सरकार के दिशा-निर्देश पर किया.

पीपी पांडेय 1982 बैच के अधिकारी हैं जो 2003 में अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया बने. उनकी अगुवाई में क्राइम ब्रांच ने 11 कथित आतंकियों को मुठभेड़ों में मार गिराया. इन मुठभेड़ों में कई के फर्जी होने के आरोप लगे. इनमें से इशरत जहां मुठभेड़ भी शामिल है. सीबीआई का दावा था कि पांडे ने इंटेलीजेंस ब्यूरो के अफसरों के साथ मिलकर इस कथित फर्जी मुठभेड़ की ‘साजिश’ रची. अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित किया. बाद में उन्होंने आत्मसमर्पण किया था. फरवरी 2016 में सीबीआई कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उन्हें फिर से बहाल करके अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) बनाया गया. अप्रैल में उन्हें गुजरात पुलिस का प्रभारी महानिदेशक बनाया गया.

हाल में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई ने एक इंटरव्यू में कहा कि इशरत मामले में दूसरा हलफनामा गृह मंत्री पी चिदंबरम के कहने पर बदला गया था. इसी बीच गृह मंत्रालय के एक मौजूदा अधिकारी आरवीएस मणि ने आरोप लगाया कि इशरत मुठभेड़ के मामले में हलफनामा बदलवाने के लिए सतीश वर्मा ने उन पर दबाव बनाया और प्रताड़ित किया. गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी सतीश वर्मा इशरत जहां एनकाउंटर की जांच करने वाली कोर्ट की गठित उस एसआईटी के सदस्य थे. वर्मा ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा, ‘ये पूरा आईबी नियंत्रित ऑपरेशन था. चार लोगों को पकड़ा गया. इनमें से दो के बारे में आईबी को जानकारी थी कि वे संभवत: लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे. इन सभी पर आईबी और गुजरात पुलिस की नजर थी और फिर ये लोग कथित मुठभेड़ में मार दिए गए. ये पूरा ऑपरेशन बड़ा कामयाब था. लेकिन साथ ही फर्जी भी था.’

26 नवंबर, 2005 को सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस हुआ. सोहराबुद्दीन शेख पर हत्या, उगाही करने और अवैध हथियारों का धंधा चलाने जैसे 60 आपराधिक मामले चल रहे थे. 23 नवंबर को वह अपनी बीवी कौसर बी के साथ हैदराबाद से महाराष्ट्र जा रहा था तभी गुजरात एटीएस ने दोनों को उठा लिया. तीन दिन बाद पुलिस हिरासत में ही सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर कर दिया गया. आरोप है कि कौसर बी को भी मारकर अधिकारी डीजी वंजारा के गांव में दफना दिया गया. इस घटना के करीब एक साल बाद सोहराबुद्दीन के सहयोगी तुलसी प्रजापति का भी एनकाउंटर हो गया. इस एनकाउंटर को लेकर भाजपा नेता और गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह पर आरोप लगे कि यह एनकाउंटर उनके कहने पर किया गया है. अमित शाह को जेल भी जाना पड़ा था. इन मुठभेड़ों में जेल जाने वाले वंजारा ने भी दावा किया था कि ‘गृहमंत्री अमित शाह ने कई लोगों के एनकाउंटर का आदेश दिया था.’ 2014 में विशेष कोर्ट ने अमित शाह के खिलाफ आरोप खारिज कर दिए.

सितंबर 2008 में दिल्ली के बाटला हाउस में पुलिस ने दो संदिग्ध आतंकियों को मारने का दावा किया. दो आतंकी पकड़े गए थे और एक भागने में सफल रहा था. इस मुठभेड़ में एक इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा भी मारे गए. जामा मस्जिद के शाही इमाम समेत मानवाधिकार संगठनों से इस एनकाउंटर को फर्जी बताया और जांच की मांग की. हालांकि, जांच के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अाैर अदालत ने फर्जी एनकाउंटर के आरोप को खाारिज कर दिया.

हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ में कई ऐसे मामले सामने आए जब पुलिस-नक्सल मुठभेड़ को लेकर सवाल उठे. पुलिस का दावा है कि उसने नक्सली मारे लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि पुलिस ग्रामीण आदिवासियों को नक्सली बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार रही है. कुछ दिनों पहले प्रदेश कांग्रेस ने जनाक्रोश रैली की जो इसी मसले पर थी. इस रैली में छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने कहा, ‘चिड़िया मारने वाली बंदूक रखने वाले आदिवासियों को 5 से 10 लाख तक का इनामी नक्सली बताकर पुलिस झूठी मुठभेड़ में उन्हें मार रही है. पुलिस को नक्सलियों को मारना ही है तो पहले ऐसे आरोपियों के नाम और पहचान की सूची उजागर करे जो सभी थानों में सहज सुलभ हो. बस्तर में फर्जी मुठभेड़ का खेल खेलकर पुलिस झूठी वाहवाही ले रही है. बेकसूर आदिवासियों को या तो जेल में ठूंसा जा रहा है या मार दिया जाता है.’

उत्तर प्रदेश पुलिस में अतिरिक्त महानिदेशक रह चुके एसआर दारापुरी कहते हैं, ‘राजनीति में अपराधी तत्वों का बढ़ता प्रभाव कथित फर्जी मुठभेड़ों के पीछे एक बड़ा कारण है. जो राजनेता सत्ता में हैं, उनके लिए काम करने वाले अपराधियों को संरक्षण मिलता है जबकि उनके विरोधियों के लिए काम करने वाले अपराधियों को खत्म करने के लिए पुलिस को औजार बनाया जाता है. कई मामलों में पुलिस सत्तारूढ़ राजनेताओं को खुश करने के लिए, पदोन्नति और शौर्य पदकों के लिए भी ऐसी कार्रवाइयां करती है.’

जब अपराधियों को सजा देने के लिए पुलिस, कानून और अदालतें मौजूद हैं तो किसी को कानून से परे जाकर मारने की प्रक्रिया क्यों अपनाई जाती है, इसके जवाब में पूर्व अधिकारी प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘फर्जी एनकाउंटर के मामले इसलिए होते हैं कि सारा समाज चाहता है कि इस तरह के एनकाउंटर हों. आपको सुनकर अजीब लगेगा, लेकिन सारा समाज चाहता है. उसका कारण यह है कि समाज में कुछ ऐसे अराजक तत्व या जघन्य अपराधी हैं जिनको कानून नहीं पकड़ पाता है. अगर पकड़ता भी है तो जमानत हो जाती है. मुकदमे 20 साल चलते हैं. तब तक गवाह टूट जाते हैं. लोग कहते हैं कि इनको मारो और खत्म करो. नेता चुपचाप पुलिस के कान में कहता है कि मारो और खत्म करो. जनता भी कहती है कि वाह-वाह, जान छूटी. ऐसे बदमाश से छुट्टी मिली. मुख्य कारण तो यह है कि लोग चाहते हैं और खुलकर कोई नहीं कहता है. दूसरे, हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना विलंब से काम करता है, कछुए की चाल चलता है कि इस तरह की कार्रवाई को सामाजिक मान्यता मिली हुई है. अब आप कह रहे हैं कि इसकी वजह से कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं, यह भी सही है. जब आप इस तरह की छूट दीजिएगा तो जाहिर है कि पुलिस इसका दुरुपयोग करेगी और करती भी है.’

रिहाई मंच संगठन से जुड़े वकील मोहम्मद शोएब कहते हैं, ‘कानून फर्जी एनकाउंटर की इजाजत बिल्कुल नहीं देता है. पुलिस एनकाउंटर के मसले में किसी भी तरह से नियमों का पालन नहीं करती है. पुलिस को ऐसा कोई अधिकार ही नहीं है. हां, पुलिस को अगर अपनी जान का खतरा है तो वह किसी को मार सकती है. लेकिन जानबूझकर किसी को मारा जाए, तो यह कानूनन गलत है. जिस व्यक्ति से उनको जान का खतरा नहीं है, उसे भी मार देना गलत है. ज्यादातर एनकाउंटर में पुलिस लोगों को पहले से पकड़ती है, बाद में मार देती है और उसे दिखाती है कि यह एनकाउंटर में मारा गया. एनकाउंटर के बाद उस मसले की जांच तभी होती है जब कोई शिकायत आती है, वरना तो पुलिस के दावे को ही मान लिया जाता है. पुलिस कहती है कि फलां आदमी मुठभेड़ में मारा गया, और इसे ही सच मान लिया जाता है. फर्जी एनकाउंटर के बाद भी अगर कोई इस मसले को उठाता है तो उसे इतना डरा दिया जाता है कि वह चुपचाप बैठ जाए.’

प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘इसका एक ही उपाय है कि आपका क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम इतना प्रभावशाली हो कि जघन्य अपराध में भी एक आदमी को दो साल में सजा हो जाए. 20 साल न चले मुकदमा, इसका और कोई उपाय नहीं है. इसके लिए पुलिस सुधार चाहिए. न्यायिक व्यवस्था में सुधार चाहिए. जमानत के प्रावधानों में सुधार चाहिए. मामलों का जल्दी से निस्तारण हो. चार्जशीट 60 दिन में फाइल हो जाती है. दो साल में मामले का निस्तारण हो जाना चाहिए. अभी तो लोगों को सिस्टम में विश्वास ही नहीं है कि आदमी पकड़ा तो गया, लेकिन उसको सजा कहां होगी. शहाबुद्दीन ज्वलंत उदाहरण हैं. उन्होंने जेएनयू के प्रेसिडेंट चंद्रशेखर की हत्या करवा दी. अभी तक उन्हें कोई दंड नहीं मिला, उल्टा वे पार्टी की नेशनल एक्जिक्यूटिव के सदस्य हो गए. इसका मतलब उनको राजनीतिक संरक्षण हासिल है. न्यायिक तंत्र से सजा भी नहीं हो पाती है. ऐसे लोगों के लिए क्या उपाय है. हर कोई यही चाहेगा कि ऐसे लोग न रहें तो अच्छा है. समाज के पाप और व्यवस्था के निकम्मेपन की गठरी पुलिस अपने सर पर ढोती है.’
(यह लेख अप्रैल, 2016 में तहलका हिंदी में प्रकाशित हो चुका है.)


फर्जी एनकाउंटर का खेल जनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए

वीएन राय, पूर्व पुलिस ​अधिकारी 

सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय समाज में एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिली हुई है. समाज इसे स्वीकार करता है. आप इसे एक उदाहरण से समझिए कि एक मशहूर कांड; भागलपुर का अंखफोड़वा कांड, जिस पर प्रकाश झा ने फिल्म भी बनाई थी वह बहुत ही जघन्य कांड था. बिहार की जनता आम तौर पर पुलिस विरोधी जनता है और जब भी कोई बात होती है तो सड़क पर निकल आती है. लेकिन उस कांड की जांच करने जब एक दल गया तो पूरा भागलपुर बंद हो गया. भागलपुर के प्रोफेसरों से लेकर रिक्शेवालों तक सबने हड़ताल की और सबने कहा कि नहीं बहुत सही हुआ था. तो सबसे बड़ी दिक्कत है कि सामाजिक रूप से जब आप ऐसी घटनाओं को इस तरह से स्वीकार करेंगे तो पुलिसवालों को भी लगता है कि अगर कानून-कायदा और अदालतें काम नहीं कर रही हैं तो यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह सब कुछ ठीक करे और अपराधी को मार दे क्योंकि अपराधी को अदालतें सजा नहीं दे पा रहीं.
यह बड़ा खतरनाक खेल है कि एक-दो अपराधी, जो सचमुच दुर्दांत होते हैं, जिनको अदालत सजा नहीं दे पाती वे मारे जाते हैं. फिर एक चलन बन जाता है और पैसा लेकर मारना शुरू हो जाता है. इसमें यह भी होता है कि किसी राजनीतिक व्यक्ति के कहने पर उसके दुश्मन को मार दिया जाता है. जो माफिया गैंग हैं वे अपने विरोधियों को पकड़-पकड़कर पुलिस को देते रहते हैं, पैसा भी देते हैं और लोग मारे जाते हैं. तो कुल मिलाकर यह एक खराब और खतरनाक खेल होता है जिसमें पुलिस फंसती है जबकि उसे इससे बचना चाहिए.
इशरत जहां एनकाउंटर, जिसे बाद में हुई जांच में फर्जी पाया गया था
वंजारा साहब जिस इशरत जहां के केस में फंसे थे, उसमें मसला यह नहीं था कि इशरत लश्कर-ए-तैयबा की सदस्य थी कि नहीं, वह तो लश्कर की सदस्य थी. उसमें बहस यह होनी चाहिए थी कि क्या राज्य को यह अधिकार है कि आप किसी को भी पकड़कर मार देंगे. अगर वह लश्कर की सदस्य भी है तो क्या आप उसको पकड़कर मार देंगे? आपको यह मारने का ये अधिकार भारत का संविधान या कानून देता है! इस पर बहस होने लगी कि नहीं वह तो बड़ी भली महिला थी. उसे गलत तरीके से मारा गया. आप किसी को पकड़कर नहीं मार सकते. ऐसा इसलिए हुआ कि यह कांग्रेस भी इस तरह की मूर्खता करती रहती है. प्रतिस्पर्धात्मक सांप्रदायिकता पर अमल करती है और इसमें कांग्रेस से भाजपा हमेशा जीत जाएगी. यह कहने के बजाय कि वह बड़ी भली महिला थी, सज्जन थी, कहना यह था कि वह लश्कर की थी भी तो आपको यह अधिकार किसने दिया कि आप उसे पकड़कर मार दें. आप किसी को भी ऐसे नहीं मार सकते.
एनकाउंटर ऐसा खेल है जिसे जनता को स्वीकार नहीं करना चाहिए. लेकिन आपको इसी के साथ सवाल उठाना चाहिए कि 1947 के बाद पुलिस का बुनियादी स्वरूप क्यों नहीं बदला गया. ये पुलिस अंग्रेजों ने बनाई थी. 1860-61 में यह पुलिस बनाई गई थी. और यह भी पूछना चाहिए कि 60-70 देशों में अंग्रेजों ने पुलिस बनाई, लेकिन सारे देशों में अलग-अलग पुलिस क्यों बनाई. भारत में ऐसी पुलिस क्यों बनाई जो कानून विरोधी थी, जनता की दुश्मन थी? यह पुलिस भारत में क्यों बनाई, श्रीलंका, केन्या और बर्मा में ऐसी ही पुलिस क्यों नहीं बनाई? उनमें केवल रैंक एक जैसी हैं, लेकिन उनके स्वरूप अलग-अलग हैं. यह एक गंभीर मसला है जिस पर बहस होनी चाहिए.
अब फर्जी एनकाउंटर काफी हद तक कम हो गए हैं क्योंकि मीडिया बहुत सक्रिय हो गया है. न्यायपालिका का समर्थन कम हो गया है. एक जमाने में न्यायपालिका का भी समर्थन खूब मिलता था. पीलीभीत वाले मामले में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और इस एनकाउंटर को अंजाम देने वालों को इनाम दिया गया था जबकि पूरा उत्तर प्रदेश जानता था कि यह फर्जी है. उसमें एक ऐसा भी अफसर शामिल था जिसने मेरठ में मलियाना कांड किया था, जिसने 84 में सिखों को मरवाया. लेकिन उसे कभी कोई सजा नहीं मिली. उसने अपनी नौकरी पूरी की और ऊपर तक पहुंचकर रिटायर हुआ. अब इसमें सच्चाई यह है कि आपने छोटे पुलिसवाले को सजा दे दी. गुजरात का मसला अलग है जिसमें डीजी रैंक का अफसर जेल चला गया वरना छोटे स्तर के अधिकारी और कर्मचारी ही सजा पाते हैं.
यह भी बात महत्वपूर्ण है कि यह काम उन्हीं से कराया जाता है जो इसे करने को तैयार होते हैं. जो करने को नहीं तैयार होते, उनसे कोई कहता ही नहीं. हमारे साथ एक इंस्पेक्टर बनवारी हुआ करते थे, वे कभी गलत काम नहीं करते थे तो कभी उनसे कोई कहता भी नहीं था. लेकिन ज्यादातर लोग उसके लिए तैयार रहते हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक निर्मिति है कि पुलिसवाले जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह कानून और जनता के हित में है और सबसे बड़ी बात जनता इसे सपोर्ट करती है. आप जाकर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसरों से बात कीजिए तो वे भी सपोर्ट करते हैं. आप एक सामान्य चोरी के आरोपी को थाने में ले आइए तो लोगों की प्रतिक्रिया होती है कि साहब देखिए, थाने में बैठाए हुए हैं, अब तक इसे उल्टा लटकाया नहीं गया, इसे पीटा नहीं गया. लोग थर्ड डिग्री के लिए दबाव डालते हैं तो पुलिसवाला सोचता है कि वह थर्ड डिग्री करके बड़ा पवित्र काम कर रहा है.
(यह लेख बातचीत पर आधारित है और अप्रैल, 2016 में तहलका हिंदी में प्रकाशित हो चुका है.)

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

समान नागरिक संहिता : एक देश एक कानून

संविधान सभा में काफी विचार-विमर्श के बाद संविधान के नीति निदेशक तत्वों में यह प्रावधान किया गया था कि राज्य सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लाने का प्रयास करेगा. समान नागरिक संहिता का मुद्दा हमेशा चर्चा में तो खूब रहा, चुनावी घोषणा पत्रों में भी शामिल हुआ, लेकिन इसका अब तक कोई प्रारूप तक मौजूद नहीं है. अब नरेंद्र मोदी सरकार ने इस विषय पर लॉ कमीशन से रिपोर्ट सौंपने को कहा है, लेकिन क्या समान नागरिक संहिता के लिए देश तैयार है?



हाल ही में केंद्र सरकार ने विधि आयोग को पत्र लिखकर समान नागरिक संहिता (यूनीफाॅर्म/कॉमन सिविल कोड) यानी सभी के लिए एक जैसे कानून पर सुझाव मांगा है. अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार से अपना रुख साफ करने को कहा था. इसके बाद सरकार ने पहली बार विधि आयोग को पत्र लिखकर इस मुद्दे पर रिपोर्ट देने को कहा था. कुछ दिन पहले सरकार ने विधि आयोग को दोबारा पत्र लिखकर इस मसले की याद दिलाई जिसके बाद यह मसला चर्चा में है.

भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री का पद संभालने के बाद कहा, ‘समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाने से पूर्व व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत है. इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले सभी हितधारकों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया जाएगा. इस मसले पर विधि आयोग विचार कर रहा है. संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता का आदेश देता है.’

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है कि सरकार पूरे देश में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगी. हालांकि, यह अब तक लागू नहीं हो पाया है. समान नागरिक संहिता का मसला धार्मिक पेचीदगियों की वजह से हमेशा संवेदनशील रहा है, इसलिए सरकारों ने इस पर कभी कोई ठोस पहलकदमी नहीं की, हालांकि इस पर गाहे-बगाहे चर्चाएं जरूर होती रही हैं. समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी था. केंद्र में सत्ता मिलने के कुछ समय बाद भाजपा के ही सांसद योगी आदित्यनाथ ने सरकार से समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग की थी.

हाल ही में इस मुद्दे को उठाने के बाद भाजपा पर यह आरोप भी लगा कि उत्तर प्रदेश में चुनाव के मद्देनजर उसने इस मुद्दे को छेड़ा है क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विचारधारा से जुड़े जो मुद्दे हैं उनमें राम मंदिर, कश्मीर में अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता प्रमुख हैं. हालांकि भाजपा ने इस आरोप से इनकार किया और इस शुरुआत को समान नागरिक संहिता को वजूद में लाने की सामान्य प्रक्रिया बताया.

बीते अक्टूबर में ईसाई समुदाय के एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाए. याचिका में कहा गया था कि ईसाई दंपति को तलाक लेने के लिए दो वर्ष तक अलग रहने का कानून है जबकि हिंदू व अन्य कानूनों में स्थिति अलग है. इसी सिलसिले में समान नागरिक संहिता की बात उठी थी जिस पर कोर्ट ने केंद्र से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था. दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी समान नागरिक संहिता को लेकर याचिका दायर की थी. इसमें कहा गया था, ‘समान नागरिक संहिता आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र का प्रतीक है. इसे लागू करने का मतलब होगा कि देश धर्म-जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करता. देश में आर्थिक प्रगति जरूर हुई है लेकिन सामाजिक रूप से कोई तरक्की नहीं हुई है.’ समान नागरिक संहिता के पक्षधर तबके की दलील है, ‘एक धर्मनिरपेक्ष गणतांत्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए कानूनी व्यवस्थाएं समान होनी चाहिए.’

इस तरह की ज्यादातर याचिकाएं खारिज करते हुए कोर्ट का बार-बार यह तर्क रहा है कि चूंकि कानून बनाना सरकार का काम है इसलिए कोर्ट इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती, न ही वह सरकार को कानून बनाने का आदेश दे सकती है. लेकिन यदि कोई पीड़ित सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कोर्ट को उस पर सुनवाई करनी पड़ती है. पिछले एक साल में ईसाई तलाक कानून और मुस्लिम तीन तलाक कानून के खिलाफ कई मसले सुप्रीम कोर्ट में आए हैं.

सरकार की तरफ से विधि आयोग को पत्र लिखे जाने के बाद कई मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर विचार करना शुरू कर दिया है. इस मसले से जुड़े फैसलों में कोर्ट की टिप्पणियां, दस्तावेज वगैरह जुटाए जा रहे हैं. इस मसले पर आयोग वेबसाइट के जरिए व अन्य माध्यमों से जनता से राय लेकर व्यापक विचार-विमर्श के बाद सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा.

समान नागरिक संहिता की वकालत करने वालों की राय है कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, भले ही वे किसी भी धर्म से संबंध रखते हों. लेकिन धर्मावलंबी व धर्मगुरु इससे सहमत नहीं हैं. समाज का एक तबका ऐसा भी है जो विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मसलों को भी धर्म से जोड़कर देखता है. दूसरी ओर, समान नागरिक संहिता न होने की वजह से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है. राजनीतिक दल समान कानून बनाने या समान नागरिक संहिता के पक्षधर तो रहे हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की.

सवाल यह है कि क्या सरकार इस मसले पर आगे बढ़ेगी या हमेशा की तरह यह मुद्दा सिर्फ चुनावी चाल की तरह बार-बार चला जाता रहेगा? इसके साथ और भी कई अहम सवाल इस मसले से जुड़े हैं. दरअसल, कुछ समुदायों के अपने पर्सनल कानून हैं जिन्हें वे न सिर्फ धार्मिक आस्था से जोड़कर देखते हैं, बल्कि वे इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं. इसके चलते समान नागरिक संहिता का कड़ा विरोध भी हो सकता है.

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने इस मुद्दे पर सर्वे कराया था. इस सर्वे में 57 फीसदी लोगों ने विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों के लिए पृथक कानून के पक्ष में राय जाहिर की. केवल 23 फीसदी लोग समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे. 20 फीसदी लोगों ने कोई राय ही नहीं रखी. 55 फीसदी हिंदुओं ने संपत्ति और विवाह के मामले में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में राय दी, जबकि ऐसे मुस्लिम 65 फीसदी थे. अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन) ने सर्वे में इससे मिलती-जुलती या इससे थोड़ी ज्यादा संख्या में समान नागरिक संहिता का समर्थन किया. अल्पसंख्यक समुदायों का बहुमत मौजूदा व्यवस्था कायम रखने के पक्ष में है. सीएसडीएस का निष्कर्ष था कि शिक्षित वर्ग में भी समान नागरिक संहिता से असहमति रखने वालों का बहुमत है. शिक्षित तबके में समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में जोरदार दलीलें दी गईं, लेकिन झुकाव इस ओर रहा कि विभिन्न समुदायों के निजी मामले अपने-अपने कानूनों से ही संचालित होने चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता पर समय-समय पर न सिर्फ टिप्पणियां की हैं, बल्कि सरकार को इस दिशा में बढ़ने के निर्देश भी दिए हैं. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई करते हुए कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए. 11 मई, 1995 को एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था. कोर्ट का कहना था कि इससे एक ओर जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है. कोर्ट ने उस वक्त यहां तक कहा, ‘इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं. भारतीय नेताओं ने द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया. भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता.’ कोर्ट ने इस संबंध में कानून मंत्रालय को निर्देश दिया था कि वह जिम्मेदार अधिकारी द्वारा शपथ पत्र प्रस्तुत करके बताए कि समान नागरिक संहिता के लिए न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में सरकार ने क्या प्रयास किए. हालांकि, यह बात दीगर है कि आज तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई.

संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप कहते हैं, ‘विचार तो पिछले 70 साल से चल रहा है. विचार करने में कोई कठिनाई नहीं है. लेकिन मेरा निजी विचार है कि कानून लागू करने के लिए राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए, वैधानिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखा जाए तो होना यह चाहिए कि इसकी मांग उस समुदाय के अंदर से उठनी चाहिए और इसको लैंगिक न्याय के रूप में लिया जाना चाहिए. और समान नागरिक संहिता का मतलब ये नहीं है कि किसी के ऊपर हिंदू कोड बिल लागू किया जा रहा है. समान नागरिक संहिता में यह भी हो सकता है कि मुस्लिम लॉ की जो भी अच्छी बातें हों, वे सब उसमें शामिल हों. क्रिश्चियन लॉ की अच्छी बातें हैं, वे भी शामिल हों. यूनीफॉर्म सिविल कोड क्या है, अभी तो कुछ पता ही नहीं है. अभी उसका कोई प्रारूप ही नहीं है.’

वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘समान नागरिक संहिता तो चल ही रही है. लोगों को यह भ्रम है कि कॉमन सिविल कोड है ही नहीं. कॉमन सिविल कोड पहले से है और उससे 123 करोड़ लोग गवर्न हो रहे हैं. कुछ जो पुराने भ्रम बने हुए हैं उसमें से एक कॉमन सिविल कोड भी है. लेकिन दो-तीन बातें ऐसी हैं जिसको हमारी सरकारें या विभिन्न समुदाय हल नहीं कर पाए हैं. इसलिए कॉमन सिविल कोड की बात चलती रहती है. उनमें से एक मसला ये है कि विवाह का कानून कैसा हो. विवाह अगर टूटता है तो तीन तलाक के माध्यम से हो या कानून के माध्यम से. इसी तरह संपत्ति के वारिस का मामला है. ये दो-तीन बातें ऐसी हैं जिनके बारे में अभी कॉमन सिविल कोड लागू होना है और ये बहुत विवादास्पद है. कई बार सरकारें इस पर पहल नहीं करतीं. अब नई स्थिति यह है कि मामला विधि आयोग को भेजा गया है, लेकिन पहले भी विधि आयोग की रिपोर्ट आती रही है. अब फिर से मामला लॉ कमीशन के सुपुर्द किया गया है. कमीशन की जो रिपोर्ट आएगी, उस पर बातचीत होगी और संसद में यह सवाल उठेगा.’

समान नागरिक संहिता लागू हो या न हो, इसके जवाब में पूर्व मंत्री व नेता आरिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘यह प्रश्न ही नामुनासिब है क्योंकि खुद हमारा संविधान अपने अनुच्छेद 44 के द्वारा राज्य के ऊपर यह जिम्मेदारी डालता है कि वह भारत के समस्त नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा. असल में सवाल यह होना चाहिए कि संविधान लागू होने से लेकर आज तक हमारी सरकारों ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं. वास्तविकता यह है कि समान सिविल संहिता तो छोड़िए, हमने तो क्रिमिनल संहिता को भी समान नहीं रहने दिया. शाह बानो केस में क्रिमिनल संहिता के सेक्शन 125 के तहत निर्णय हुआ था. हमने उसको भी संसद के एक कानून द्वारा निरस्त किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के एक वर्ग को उस अधिकार से वंचित कर दिया जो उन्हें क्रिमिनल संहिता के द्वारा मिला हुआ था.’

सुभाष कश्यप भी राजनीतिकरण की बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं, ‘इसे लागू करने में कोई तकनीकी मुश्किल नहीं है, बल्कि राजनीतिक मुश्किल है. इस मुद्दे का राजनीतिकरण हुआ है. संविधान राज्य को निर्देश देता है कि समान नागरिक संहिता लागू की जाए. लेकिन क्यों नहीं लाया जा सका है, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक-दो सवाल किए. यह अभी तक नहीं लाया गया, इसके कारण राजनीतिक हैं, वोटबैंक पॉलिटिक्स है. जिन समुदायों के पर्सनल कानून हैं, वे समुदाय नाराज न हो जाएं, इसलिए इसे नहीं लाया जा रहा है.’

कानून की समानता का महत्व बताते हुए राम बहादुर रायकहते हैं, ‘फिलहाल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी का अपना नियम-कानून है. सब अपनी-अपनी रीति और परंपरा से संचालित हैं. इस क्षेत्र में एक समानांतर व्यवस्था चल रही है. बाकी क्षेत्र में ऐसा नहीं है. जैसे मान लिया कि कोई व्यक्ति अपराध करता है तो यह नहीं देखा जाता कि वह किस समुदाय का है. कॉमन सिविल कोड मौजूद है वहां. अगर हम आपकी मानहानि करते हैं तो आप इस आधार पर मुकदमा करते हैं कि हमने आपकी मानहानि की. इस आधार पर नहीं करते कि मैं हिंदू हूं या मुसलमान हूं. दो-तीन बातें हैं जिनका निराकरण हो जाएगा तो यह मसला सुलझ जाएगा.’

अगर मौजूदा व्यवस्था ही बनी रहे, समुदायों के पर्सनल कानून ही लागू रहें तो इसके क्या नुकसान हैं? इसके जवाब में राम बहादुर राय कहते हैं, ‘आप कैसे इस चीज को देखते हैं, इस पर निर्भर करता है. कौन व्यक्ति इसको किस रूप में देखता है, यह महत्वपूर्ण है. हमारे एक मित्र हैं, जिनका मैं बहुत आदर करता हूं. लेकिन उनका मानना है कि खाप पंचायत बहुत आदर्श व्यवस्था है. अब खाप अगर आदर्श व्यवस्था है तो खाप जो फैसला करेगी, उस समुदाय पर वही लागू होगा. किंतु अब सवाल यह है कि जो भारतीय अपराध संहिता है वह लागू होगी या खाप की व्यवस्था लागू होगी. यहां पर टकराव आता है. दूसरा उदाहरण है ट्राइबल इलाकों की पंचायतें. कोई अपराध वगैरह होता है तो वे बैठते हैं और कई-कई दिन तक उस पर बात करते हैं. वहीं खाना-पीना होता है, वहीं पर सोना होता है. वे उस पर सर्वानुमति से फैसला लेते हैं. मेरा ख्याल है कि विनोबा जी ने सर्वोदय में जो सर्वानुमति चलाई, उसकी प्रेरणा यहीं से मिली होगी. अब कोई सरकार अगर वहां सर्वानुमति से राय लेती है कि कोई कानून लागू नहीं होगा और कोई अपराध होता है तब क्या होगा? अरुणाचल प्रदेश में 1980-82 तक कोई जेल नहीं थी. अब वहां पर जेलें हैं. जो लोग इस मुद्दे को उठाते हैं उसके पीछे दो तरह की अवधारणा है. पहली अवधारणा यह है कि हमारे संविधान का जो केंद्रीय बिंदु है, जो मुख्य पात्र है, वह नागरिक है. खाप, पंचायत या दूसरी व्यवस्था मान्य नहीं है. ये व्यवस्थाएं तभी तक चल सकती हैं, जब तक उनका कानून से कोई टकराव न हो. जहां टकराव होता है तो यह मांग उठती है कि भाई सबके लिए एक कानून लागू क्यों नहीं करते. दूसरा, अगर नागरिक के स्तर पर भेदभाव होता है तो सवाल उठता है कि एक को आप कानून से संचालित करना चाहते हैं, दूसरे को आप उसकी मर्जी के कानून से संचालित करते हैं.’

इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालने वाले अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘देखिए, मुझे लगता है कि अनुच्छेद 44 हमारे संविधान की आत्मा है. कुछ ऐसे अनुच्छेद हैं, जैसे अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समता की बात करता है और अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की. अगर हम मूल अधिकार में देखें तो ये दोनों मूल अधिकारों की आत्मा हैं. ऐसे ही अगर हम नीति निदेशक तत्वों में जाकर देखें तो अनुच्छेद 44 यानी यूनीफॉर्म सिविल कोड उसकी आत्मा है. हमारे संविधान निर्माताओं ने ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ का सपना देखा था और ‘वन नेशन, वन कांस्टीट्यूशन’ में अगर यूनीफॉर्म सिविल कोड नहीं लागू होता और पर्सनल लॉ चलते हैं, तो मुझे लगता है कि हम सिर्फ संविधान का ही अपमान नहीं कर रहे, बल्कि संविधान बनाने वाले बाबा साहेब आंबेडकर, पंडित नेहरू, रफी अहमद किदवई, मौलाना कलाम और तमाम सारे लोगों का अपमान कर रहे हैं. वोटबैंक पॉलिटिक्स के चक्कर में ये अभी तक लागू नहीं किया गया. तमाम लोगों से मेरा एक सवाल है कि अगर बाबा साहेब आंबेडकर, नेहरू, किदवई और तमाम संविधान निर्माता सेक्युलर थे तो उन्हीं का बनाया अनुच्छेद 44 कैसे कम्युनल हो जाएगा. यह बहुत बेसिक बात है. आजादी के बाद संविधान बनाया गया था. उन लोगों को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि हमारी आने वाली पीढ़ी वोट के चक्कर में क्या-क्या कर देगी. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. वोट की राजनीति ने हमारा बहुत नुकसान किया है.’

समान नागरिक संहिता पर ऐतिहासिक मतभेदों और विवादों का जिक्र करते हुए रामबहादुर राय बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद में जो विवाद था वह इसी बात पर था. राजेंद्र प्रसाद यह नहीं चाहते थे कि हिंदू कोड बिल केवल हिंदुओं के लिए लागू हो. अगर आप हिंदू कोड बिल बना रहे हैं तो मुस्लिम कोड बिल भी बनाइए. और हिंदू कोड बिल, मुस्लिम कोड बिल की क्या जरूरत है, कॉमन कोड क्यों नहीं हो सकता? ये 1954-55 से चला आ रहा विवाद है. वे कहते हैं, ‘इसका व्यापक पक्ष जो है वह दूसरा है. वह इससे संबंधित है कि हमने अभी भी भारत के लोगों के लिए, जिसमें हिंदू-मुसलमान-ईसाई-पारसी का सवाल नहीं है, इस पर विचार ही नहीं किया है कि भारतीय नागरिक के लिए किन्हीं परिस्थितियों में कैसा कानून होना चाहिए. जहां कोई अड़चन आती है, वहां मौजूद कानूनों में ही हेरफेर करके काम चला लेते हैं. यह व्यापक प्रश्न है, जिस पर विचार होना चाहिए.’

समान नागरिक संहिता का महत्व और पर्सनल कानून की निरर्थकता बताते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘दुनिया के बहुत सारे इस्लामिक देशों में यूनीफॉर्म सिविल कोड है. अपने भारत में गोवा में लागू है और वहां चल रहा है. वहां हर समुदाय के लिए एक कॉमन लॉ है. जो लोग इसका विरोध करते हैं, वे महिला और गरीब विरोधी हैं. पर्सनल लॉ महिलाओं को दबाने का स्पेस है. यूनीफॉर्म सिविल कोड आएगा तो महिलाओं के शोषण पर लगाम लग जाएगी. सिर्फ महिलाओं नहीं, कई बार पुरुषों का भी शोषण होता है, वह भी रुकेगा. मेरा अपना मानना है कि हर एक पर्सनल लॉ, हिंदू हो या इस्लामिक या ईसाई, सबमें कुछ-कुछ अच्छी चीजें हैं. उन सबकी बेहतर चीजों को निकालकर एक कॉमन ड्राफ्ट बनाना चाहिए. उस ड्राफ्ट को संसद में ले आना चाहिए फिर उस पर चर्चा हो. अभी दिक्कत ये है कि इसका कोई प्रारूप नहीं है.’

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी इस मसले पर अपनी राय रखते हैं, ‘हम तो उन लोगों में हैं जिन्होंने मुल्क में सेक्युलर दस्तूर को बनवाया है. वह दस्तूर जिसके तहत अपने मजहब पर आजादी के साथ अमल करते हुए मुल्क की तरक्की के लिए, मुल्क को आगे बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. हमने मजहबी अकलियत को अपनी मजहबी निशानी के साथ दस्तूर में जिंदा रखवाया है. हमारा किरदार है वो. हम सबने गांधी-नेहरू के साथ मिलकर उस दस्तूर को बनवाया है कि जिसमें मुल्क को आगे बढ़ाने में हर आदमी, चाहे वो किसी भी मजहब का हो, मददगार बने और अपने मजहब पर कायम रहने का उसे मुकम्मल हक हो. मुल्क 70 साल से उन्हीं दस्तूरों पर चल रहा है. हम उसके मुखालिफ कैसे हो सकते हैं. हम तो जम्हूरियत और सेक्युलरिज्म की ताईद ही इस वजह से करते हैं कि मुल्क के अंदर तमाम अकलियत को जोड़कर रखने का एक ही रास्ता है और वह है सेक्युलरिज्म. सेक्युलरिज्म ही देश को और मजबूत कर सकता है. तमाम सारी अकलियत को अगर उनके मजहब से काटकर रखा जाएगा तो ये तो झगड़ा पैदा करेगा. हम उसकी ताईद नहीं करते. हम ये मानते हैं कि अपने-अपने मजहब पर अमल करते हुए तमाम लोग मुल्क की आजादी और तरक्की के लिए काम करें. यही अमन और प्यार-मोहब्बत का रास्ता है.’

दूसरी ओर अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘हमारा संविधान शुरू से सेक्युलर रहा है. लेकिन जब इसमें सेक्युलरिज्म शब्द भी जोड़ दिया गया, फिर तो ये पर्सनल हो ही नहीं सकता. किसी कीमत पर नहीं. क्योंकि सेक्युलरिज्म और पर्सनल लॉ एक नदी के दो छोर हैं. साथ-साथ नहीं चल सकते. या तो आपका देश सेक्युलर हो सकता है, या तो धार्मिक हो सकता है. अगर धार्मिक होगा तो पर्सनल लॉ चलेगा. अगर सेक्युलर है तो आपके पास कॉमन सिविल कोड ही रास्ता है.’ वे आगे कहते हैं, ‘यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू होने से ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को निकाह करना पड़ेगा और मुसलमानों को सात फेरे लेने पड़ेंगे. ऐसा नहीं होगा कि हिंदुओं को दफनाना पड़ेगा और मुसलमानों को जलाना पड़ेगा. ये उसमें कहीं आड़े नहीं आता. सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसले हैं. जस्टिस खरे का है, जस्टिस चंद्रचूड़ का है. बड़ी-बड़ी पीठों के फैसले हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार ये वस्तुत: सेक्युलरिज्म का पार्ट हैं, ये पर्सनल कानून या आस्था से नहीं चल सकते. ऐसा नहीं हो सकता कि एक महिला तलाक ले तो उसे दस रुपये मिलें और दूसरी महिला तलाक ले तो उसे एक पैसा न मिले. ऐसा नहीं चल सकता.’

महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर कहती हैं, ‘मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार इसमें इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही है कि कॉमन सिविल कोड पर अभी ही चर्चा हो और ये लागू हो. अभी बहुत सारी योजनाएं हैं जिनका चुनाव के टाइम ऐलान किया गया था. सरकार का जो लक्ष्य है 2017 का, सबका साथ सबका विकास, शिक्षा, हेल्थ और तमाम मुद्दे हैं, सरकार उन पर काम करे. जो लोग कॉमन सिविल कोड को किसी खास मकसद से लाना चाहते हैं, वे चुनाव को नजर में रखकर इसे उछाल रहे हैं, तो मेरी यही गुजारिश है मुस्लिम समाज मुस्लिम कानून और मजहब के हिसाब से ही काम करेगा. हम महिलाएं अदालत में अपने कानून को मजबूती से लागू करने की लड़ाई लड़ रही हैं.’

समान नागरिक संहिता की चर्चा में सबसे तीखा विरोध मुस्लिम समुदाय की ओर से उठता है. संविधान सभा में बाबा साहेब आंबेडकर का इस मुद्दे पर भाषण भी मुसलमानों पर ही केंद्रित है. अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘जो तथाकथित धर्मगुरु लोग विरोध करते हैं, उन्हें मालूम है कि यह महिलाओं के पक्ष में है. लेकिन ये लोग अपनी दुकान चलाने के लिए विरोध करते हैं. इससे तो धर्म का फायदा है. इस्लाम की जो बेसिक थीम पैगंबर साहेब ने दी थी, वह बराबर की थी. इस्लाम की बेसिक थीम बराबरी है कि हमारे यहां जाति, लिंग आदि का कोई भेद नहीं होगा. अगर बेसिक कॉन्सेप्ट बराबरी है तो कोई भी पर्सनल लॉ जो आर्टिकल 14 का उल्लंघन करे वह तो होना ही नहीं चाहिए. सबसे बेसिक कानून अनुच्छेद 14 और 21 है. जो लोग बाकी अनुच्छेदों की बातें करते हैं, 13, 25, 29 या 30, ये सब 14 के बाद आते हैं. यह एक आॅर्डर में है. बेसिक कानून 14 है. कानून के समक्ष बराबरी बेसिक है. ऐसा नहीं हो सकता है कि शादी के वक्त आप पूछें कि मंजूर है कि नहीं और तलाक देते वक्त नहीं पूछें कि मंजूर है कि नहीं. इसमें सबसे ज्यादा जरूरी है कि पहले कानून का ड्राफ्ट आ जाए. ड्राफ्ट आ जाएगा तो जितने विवाद हैं, वे ज्यादातर अपने आप हल हो जाएंगे.’

शाइस्ता अंबर यह तो मानती हैं कि मुस्लिम समाज में बहुत-से सुधारों की जरूरत है, लेकिन वे इस बात की हिमायती हैं कि इनका निदान इस्लामी कानून और कुरान के मद्देनजर ही होना चाहिए. बातचीत में वे कहती हैं कि इस्लामी कानून अपने आप में मुकम्मल हैं. वे मानती हैं कि मुसलमान औरतों को न्याय कुरान की बुनियाद पर मिलना चाहिए. उन्होंने बताया कि हमने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को एक सिफारिश भेजी थी कि जिस तरह हिंदू कोड बिल है, उसी तरह एक मुस्लिम कोड बिल बनाया जाए. वे कहती हैं, ‘हम कॉमन सिविल कोड स्वीकार तब करें जब हमारे मुस्लिम पर्सनल कानून में कुछ गलत हो. जब पर्सनल लॉ में कोई कानून गलत है ही नहीं, पहले से ही सारे अधिकार मिले हुए हैं तो हमें कॉमन सिविल कोड की जरूरत ही नहीं है. हमारा विश्वास ऐसे कानून में है जो कॉमन सिविल कोड से ज्यादा मुकम्मल है.’

चूंकि भाजपा कश्मीर में धारा 370, राम मंदिर और यूनीफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाती रही है, इसलिए इस मामले में और भी भ्रम की स्थितियां बनी हैं. भाजपा की हिंदूवादी विचारधारा के कारण मुस्लिम समुदाय में यह संदेश गया है कि यह भाजपा का हिंदूवादी एजेंडा है. मौलाना अरशद मदनी कहते हैं, ‘हम समझ रहे हैं, हो सकता है कि मेरी यह बात किसी को बुरी लगे लेकिन वो जो एक आवाज उठी थी सबको घर वापस लाओ, अब तक वो आवाज जनता के बीच थी, अब सरकार उस आवाज के दरख्त को पालने के लिए पानी दे रही है और ये दूसरे रास्ते से उसी की तरफ लेकर चलना चाहते हैं. हमें तो ये मंजूर नहीं है. हम तो मरना और जीना इस्लाम और मजहब के साथ ही बावस्ता रखना चाहते हैं. हम इसकी ताईद नहीं करेंगे. हमारा अपना स्टैंड है और वह बहुत मजबूत है. हमारा इसमें कोई समर्थन और विरोध नहीं है. हम बस इतना जानते हैं कि हर आदमी मुल्क को आगे बढ़ाए और अपने मजहब पर कायम रहते हुए बढ़ाए.’

अब तक यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू न होने के लिए वोटबैंक राजनीति को जिम्मेदार ठहराते हुए अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘वोट के लालच ने देश का बहुत नुकसान किया है. राइट टू एजुकेशन को मूलाधिकार बनाकर 21 ए में रखा गया. लेकिन उसमें भी विसंगतियां हैं. हमारे देश में तीन चीजें बहुत जरूरी हैं. यूनीफॉर्म एजुकेशन, यूनीफॉर्म हेल्थकेयर और यूनीफॉर्म सिविल कोड हो. अगर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना है तो ये तीन चीजें बहुत जरूरी हैं.’

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

भगत सिंह के नाम पर सियासी भगदड़

भगत सिंह जब तक जीवित थे, उन्हें किसी राजनीतिक दल का साथ नहीं मिला. शहादत के बाद उन्हें पूरी तरह भुला दिया गया. लेकिन पिछले कुछ समय से राजनीतिक दलों को अचानक उनकी याद आने लगी है. अब सभी दलों का दावा है कि भगत सिंह उनके हीरो हैं.


कृष्णकांत


‘मां, मुझे कोई शंका नहीं है कि मेरा मुल्क एक दिन आजाद हो जाएगा, पर मुझे डर है कि गोरे साहब जिन कुर्सियों को छोड़कर जाएंगे, उन पर भूरे साहबों का कब्जा हो जाएगा.’ आजादी के तमाम नायकों में से एक शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह ने अपनी मां को लिखी चिट्ठी में यह बात कही थी. उन्हीं भगत सिंह ने शहीद होने से पहले अपनी जेल डायरी में लिखा था, ‘सरकार जेलों और राजमहलों, या कंगाली और शान-शौकत के बीच किसी समझौते के रूप में नहीं होती. यह इसलिए गठित नहीं की जाती कि जरूरतमंद से उसकी दमड़ी भी लूट ली जाए और खस्ताहालों की दुर्दशा और बढ़ा दी जाए.’ उसी डायरी में वे एक जगह लिखते हैं, ‘शासक के लिए यही उचित है कि उसके शासन में कोई भी आदमी ठंड और भूख से पीड़ित न रहे. आदमी के पास जब जीने के मामूली साधन भी नहीं रहते, तो वह अपने नैतिक स्तर को बनाए नहीं रख सकता.’ किसी के भूखे न रहने का सपना देखने वाला यह शहीद देश के शासक वर्ग के लिए सबसे लोकलुभावन हीरो है, जबकि इस देश के सरकारी आंकड़ों में इस वक्त करीब 30 करोड़ लोग भूखे सोते हैं. सवाल उठता है कि भगत सिंह तो सबके हैं लेकिन उनके विचार किसके हैं.

‘जब तक कोई निचला वर्ग है, मैं उसमें ही हूं. जब तक कोई अपराधी तत्व है, मैं उसमें ही हूं. जब तक कोई जेल में कैद है, मैं आजाद नहीं हूं.’ भगत सिंह की जेल डायरी में दर्ज ऐसी तमाम पंक्तियां उनके क्रांतिकारी सपनों का आईना हैं, जिन पर वक्त के साथ उपेक्षाओं की धूल भरी मोटी चादर बिछा दी गई है. भगत सिंह के नाम का नारा लगाने वाले ज्यादातर राजनीतिज्ञ इन सपनों के बारे में शायद ही कोई बात करते हों. अगर भगत सिंह हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं तो भूख से मर रहे लोगों, कर्ज से आत्महत्या करते किसानों और जेलों में सड़ रही लाखों जिंदगियों में क्या भगत सिंह जीवित नहीं हैं, जैसा कि उक्त पंक्तियों में दर्ज है? फिर हमारी सियासत इस बात पर क्यों उलझ गई कि कन्हैया कुमार नामक युवक में भगत सिंह है कि नहीं? भगत सिंह के दस्तावेज गवाह हैं कि उनका सपना मजदूर, किसान, वंचित, दलित और हर उस व्यक्ति के लिए लड़ना रहा जो पीड़ित है. क्या देश की कुर्सी पर ‘भूरे साहबों के कब्जे’ को लेकर भगत सिंह का डर सच साबित हुआ? अगर यह सच न होता तो भगत सिंह की राजनीतिक विरासत और उनके सपनों के हिंदुस्तान पर बहस होती, न कि इस बात पर कि भगत सिंह ‘भारत माता की जय’ बोलकर फांसी पर चढ़ने वाले ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ थे, या भगवा रंग की पगड़ी पहनने वाले सरदार? क्या भगत सिंह का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि उनके लिखे को स्वीकारते हुए उन्हें नास्तिकता, तर्कवाद और वैज्ञानिकता का झंडा बुलंद करने वाला क्रांतिकारी माना जाए और जब तक एक भी व्यक्ति शोषित है, तब तक व्यवस्था बदलने का सतत प्रयास होता रहे?

शहीद भगत सिंह इस देश की राजनीति के लिए अचानक महत्वपूर्ण हो उठे हैं. हर राजनीतिक दल उन्हें अपना साबित करने के लिए बेकरार है. सवाल उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि अचानक सियासतदानों को उनकी याद आ गई. इतिहास के पन्ने जिन लोगों को वैचारिक या राजनीतिक तौर पर भगत सिंह के खिलाफ खड़ा करते हैं, वे लोग अब उनकी विरासत के सबसे बड़े झंडाबरदार बनकर खड़े हैं. जिन लोगों ने उनके समय में उनसे दूरी बनाकर रखी, सबसे पहला दावा आज उन्हीं का है. वैचारिक निकटता या अंगीकार के चलते कोई भगत सिंह को अपना कहे तो भी गनीमत है, लेकिन भगत सिंह के सपनों की हत्या करने वाले लोग भी अगर भगत सिंह को अपना कहें तो यह भगत सिंह समेत पूरे क्रांतिकारी आंदोलन का अपमान है जो आजादी के साथ समता, बंधुता और मानव मुक्ति के उद्देश्यों के साथ लड़ा गया.

आजादी के नायकों में से दो विभूतियों को सबसे ज्यादा सेलिब्रेट किया जाता है एक गांधी और दूसरे भगत सिंह. गांधी के साथ वामपंथ और दक्षिणपंथ की घोर असहमतियां रही हैं, जो अब भी बरकरार हैं, लेकिन भगत सिंह की सभी खुले स्वर में प्रशंसा करते हैं और सभी उन्हें अपना साबित करने की कोशिश करते हैं. वामपंथी भगत सिंह को वामपंथी कहकर उनके सपनों के भारत की बात करते हैं, जबकि संघ परिवार उन्हें कट्टर राष्ट्रवादी और देश के लिए प्राणों की बलि देने वाला देशभक्त बताकर उनका महिमामंडन करता है. लेकिन भगत सिंह को लेकर मची इस छीना-झपटी में असली भगत सिंह कहां हैं? देश को लेकर उनके क्या विचार थे? वे कैसा भारत चाहते थे? वे कैसी राजनीति चाहते थे? आज के राजनीतिक दलों और उनके विचारों का भगत सिंह से कितना साम्य है? आज भगत सिंह होते तो मौजूदा राजनीति में किस तरह से हस्तक्षेप करते? इन सारे सवालों का जवाब उन लेखों और दस्तावेजों में मिल सकता है जो उन्होंने खुद लिखे हैं या जो उनसे संबंधित हैं.

राजनीतिक दलों के बीच भगत सिंह को अपनाने की इस कदर होड़ क्यों मची है, इसके जवाब में पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘जीते-जी जिस भगत सिंह की राजनीतिक दलों ने अवहेलना की, उसे अब सब अपना कहने पर आमादा हैं. भगत सिंह जब अंग्रेज सरकार के हाथ लगे तो अखबारों ने रिपोर्ट में लिखा कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ्तार हुआ है. पर भारत के वामपंथी आम तौर पर भगत सिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे. आखिर भगत सिंह वामपंथी पार्टी के सदस्य जो नहीं थे. वामपंथियों की तुलना में, कम से कम आज, भारत में कांग्रेस और भाजपा में होड़ लगी है कि किसी तरह भगत सिंह को अपना लें. जिहाद के जाल में फंसे पाकिस्तान में भी कुछ लोग भगत सिंह की याद को ताजा करने में लगे हैं. आखिर भगत सिंह की कर्म भूमि भी तो वह जमीन थी जो आज पाकिस्तान है.’

इन्हीं सवालों को लेकर लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘अपने सीमित राजनीतिक जीवन में भगत सिंह ने जो भविष्यवाणी की थी, आज खुलकर उसे सामने देख रहे हैं. आजादी के बाद कुछ चीजों को लेकर भले ही भ्रम रहा हो, लेकिन अब चाहे सांप्रदायिकता के मसले को देखें, जाति के मसले को देखें या काले अंग्रेज-भूरे अंग्रेज की उनकी जो समझदारी थी, मेरे ख्याल से वो खुलकर सामने आ रहा है. एक तो उनकी भविष्यवाणी सामने आ रही है. इसके अलावा मुझे लगता है कि जो भी संकट दिख रहा है, एक तरफ तो सांप्रदायिक ताकतें हैं, दूसरी तरफ विकल्प के तौर पर जो शक्तियां हैं वे भी संकट में हैं. वामपंथी पार्टियां और आंदोलन खुद संकट में है. ऐसे समय में समाज अपने नायकों को याद करता है. बढ़े हुए संकट के दौर में भगत सिंह लोगों को अपने करीब लगने लगे हैं.’

भगत सिंह को लेकर महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘कट्टरपंथी राष्ट्रवाद के अभियान का यह चरम है कि भगत सिंह के बारे में ज्ञात तथ्यों को भी झुठलाया जा रहा है. शशि थरूर ने कन्हैया कुमार की तुलना भगत सिंह से की तो प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता ने यह झूठ बोलकर भगत सिंह के प्रति शिष्टाचार की सारी हदें पार कर दीं कि ‘भगत सिंह भारत माता की जय बोलकर फांसी पर चढ़े थे.’ सारी दुनिया अब तक यही जानती है कि 23 मार्च, 1931 को फांसी के दौरान भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए थे. उन्होंने ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाना भी गाया था और चेहरे पर काला कपड़ा पहनने से इनकार कर दिया था. अब फर्जी राष्ट्रवादी, जिनकी पार्टी और पूर्वजों का राष्ट्र निर्माण और स्वतंत्रता संघर्ष में कोई भूमिका नहीं रही है, इतिहास को गोएबल्स की स्टाइल में उलट-पलट रहे हैं, जैसा कि हिटलर के समय किया गया था.’

इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘कई सालों तक गांधी जी भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों को गौण और असंगत बताते रहे. स्वतंत्रता के बाद के काल में देश अपनी ही समस्याओं में कुछ इस तरह उलझ गया कि स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों को भूल ही गया. बस वे ही याद रहे जिनकी याद सरकार को रही. स्वतंत्रता के उत्साह में देश तेजी से प्रगति भी कर रहा था. ऐसे माहौल में भगत सिंह की याद कम ही लोगों को आई. पर इसके बाद के समय में भी राजनीतिक दलों ने भगत सिंह को अपने से दूर ही रखा. सरकार द्वारा कभी-कभी भगत सिंह के नाम की दुहाई जरूर दी जाती रही पर उनके विचारों को समझने या लोगों तक पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं की गई. भगत सिंह को याद करना महज 26 जनवरी और 15 अगस्त को फिल्म ‘शहीद’ के गाने सुनने तक ही रह गया. जैसे-जैसे निजी रेडियो और टीवी स्टेशनों का जाल देश पर फैला, यह थोड़ी-सी याद भी खत्म कर दी गई. इसके बाद 1997 में भगत सिंह की याद आई कम्युनिस्टों को , देश की आजादी की 50वीं सालगिरह पर. कम्युनिस्टों को लगा कि देश की आजादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है.’

वे आगे कहते हैं, ‘इतिहासकार प्रोफेसर बिपन चंद्र 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए. इसके बाद कम्युनिस्टों ने भगत सिंह को अपना बताते हुए इक्के-दुक्के बयान दिए, भगत सिंह केे कुछ पर्चों के नए संस्करण छापे गए. फिर शांति छा गई. दस साल बाद, नई शताब्दी में दक्षिणपंथियों ने भगत सिंह पर अपना हक जताया. किसी ने उनको पगड़ी पहना दी. हालांकि अभी तक भगत सिंह की सबसे ज्यादा दिखने वाली तस्वीर में वे टोपी पहने दिखाए जाते रहे थे. किसी ने उन पर गेरुआ वस्त्र डाल दिए, तो किसी ने उन्हें भारत की सभ्यता का संरक्षक बना डाला.’

भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों पर महत्वपूर्ण किताबें लिखने वाले सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘शहीद भगत सिंह पर दावेदारी कोई नई बात नहीं है. यह काफी समय से जारी है. खास तौर से जब भगत सिंह की जन्म शताब्दी आई. इस वर्ष उनके सिर पर पगड़ी पहनाने का प्रयास हुआ. ये सब इसलिए ताकि भगत सिंह को जाति और धर्म के खांचे में धकेल दिया जाए ताकि उनका जो पैनापन है, जो विचार उनके पास हैं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी जो छवि उभरती है उसे खत्म किया जा सके.’ भगत सिंह की प्रतीकात्मक पहचान और विचारधारा से छेड़छाड़ पर चिंता जताते हुए विद्यार्थी कहते हैं, ‘जिस व्यक्ति ने खुद कहा हो कि अभी तो मैंने केवल बाल कटवाए हैं, मैं धर्मनिरपेक्ष होने और दिखने के लिए अपने शरीर से सिखी का एक-एक नक्श मिटा देना चाहता हूं, आप उसके सिर पर फिर पगड़ी रख रहे हैं. आप यही तो बताना चाह रहे हैं कि भगत सिंह इसलिए बहादुर थे कि सिख थे. तब कहना पड़ेगा कि राम प्रसाद बिस्मिल इसलिए बहादुर थे कि ब्राह्मण थे, रोशन सिंह इसलिए बहादुर थे कि ठाकुर थे, अशफाक उल्ला इसलिए बहादुर थे कि पठान थे. आप कितना भी प्रयास कर लें भगत सिंह के सिर पर पगड़ी रखने का, लेकिन 23 साल का वह युवा क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी अब फिट नहीं हो सकती.’

भगत सिंह को लेकर आजकल ज्यादा शोर इसलिए सुनाई दे रहा है कि भगत सिंह को अपनाने की होड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल हो गया है. संघ पर यह भी आरोप लगता है कि उसके प्रयासों से भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर उन्हें धार्मिक दिखाने की कोशिश की गई. सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘आरएसएस इस मामले में दिलचस्प है. जिस गांधी की हत्या में उनका या उनकी विचारधारा का हाथ था, जब उन पर दावा कर सकती है, तो और क्या कहा जाए. आंबेडकर जिनके विचारों से उनकी ताउम्र दुश्मनी रही, आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई, ब्राह्मणवाद का विरोध किया, आरएसएस उनको भी क्लेम करता है. आरएसएस को इसमें सलाहियत हासिल है. बस एक ही व्यक्ति बचते हैैं वो हैं नेहरू, क्योंकि उनकी जगह वह सरदार पटेल को अपनाता है. दूसरा, क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर आम जनमानस में जो एक छवि है कि वे पिस्तौल और बम वाले लोग थे, बड़े बहादुर थे, उसके साथ जोड़कर खुद को पेश करते हैं. वे भगत सिंह की टोपी वाली इमेज नहीं दिखाते हैं, उनको सरदार टाइप दिखाते हैं. पगड़ी पहनाकर. आरएसएस और भाजपा आंबेडकर व भगत सिंह को चुनिंदा ढंग से अपनाते हैं. इसमें प्रगतिशील लोगों की कमजोरी है कि आरएसएस नायकों को अपनाने की कोशिश कर पा रहा है.’

इतिहासकार राजीव लोचन कुछ नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं, ‘जब भगत सिंह सक्रिय थे, उस समय राजनीतिक दल उनसे बिल्कुल परे हट कर रहते थे. भगत सिंह का जो सीधा संवाद होता था, वो गांधी के साथ होता था. बाकी हमारे जितने नेतागण थे, भगत सिंह की जब मौत हुई तो फट से पल्ला झाड़ा और उसके बाद उन्हें कभी याद नहीं किया. 1980 के बाद भगत सिंह की याद सबको आनी शुरू हुई, जब नेताओं की एनिवर्सरीज आनी शुरू हुईं. अगर आपको याद हो तो 80 और 90 के दशक में रेडियो और टीवी पर जो गाने भगत सिंह को लेकर हुआ करते थे, वे गाने बजने बंद हो गए. उस वक्त कुछ टीवी वालों ने चर्चा में मुझसे कहा था कि अब इसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता, इसलिए अब इसकी कोई जरूरत नहीं है. एनिवर्सरीज नजदीक आईं तो लोगों को भगत सिंह की याद आई. एक तो याद आई हमारे कम्युनिस्ट साथियों को जो कि उस वक्त भगत सिंह का पूरी तरह विरोध करते थे. अभी तो कहने भी लगे हैं कि भगत सिंह हमारे हैं, लेकिन उस वक्त सख्त खिलाफ थे. ये बेचारे इसलिए भी याद करने लगे क्योंकि 60 साल से जूते पड़ रहे थे कि तुम तो गद्दार हो, 1942 में अंग्रेजों का साथ दिया. तो उनको अचानक समझ में आया कि भगत सिंह को इस्तेमाल करके हम भी अपने को राष्ट्रवादी साबित कर सकते हैं. कम्युनिस्ट इस्तेमाल करने लगे तो जो बाकी लोग थे वे भी भगत सिंह पर टूट पड़े और भगत सिंह को सर आंखों पर उठाया. इस पूरे माहौल में बीजेपी एक पार्टी थी जो कि पीछे रही क्योंकि बीजेपी का भगत सिंह के साथ कोई भी संबंध नहीं है. अब बीजेपी ने उनको याद करना शुरू किया और बीजेपी ने जिस तरह याद किया वो हमें दिख ही रहा है.’

भगत सिंह पर असली दावेदारी किसकी है, इस सवाल पर प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘भगत सिंह भारत के कामगार, मजदूर, किसान, दलित और निचले वर्ग के साथ थे. 1929 से 1931 के दौरान जब भगत सिंह के केस का ट्रायल चल रहा था, उस वक्त सभी अखबार वामपंथी और ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ लिख रहे थे. 24 जनवरी, 1930 को वे कोर्ट में ‘लाल स्कार्फ’ पहनकर पहुंचे थे और जज से अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए सोवियत यूनियन को शुभकामना भेजने का अनुरोध किया था.’

वे आगे कहते हैं, ‘एक वक्त पर भगत सिंह, चंद्रशेखर और उनके साथियों ने ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाया था, लेकिन सितंबर, 1928 में अपने संगठन के नाम में सोशलिस्ट शब्द जोड़ने के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे को अपनाया. 2 फरवरी, 1931 को लिखे उनके ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पत्र’ में स्पष्ट रूप से ‘समाजवादी सिद्धांत’ को भारतीय स्वतंत्रता का रास्ता बताया है. कोई भी व्यक्ति जिसने ऐतिहासिक दस्तावेज पढ़े हैं, वह भगत सिंह के मार्क्सवादी सिद्धांत पर आधारित ‘समाजवादी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी’ होने से इनकार नहीं कर सकता.’

बिपन चंद्र लिखते हैं, ‘वे मार्क्सवादी हो चले थे और इस बात में विश्वास करने लगे थे कि व्यापक जनांदोलन से ही क्रांति लाई जा सकती है. दूसरे शब्दों में जनता ही जनता के लिए क्रांति कर सकती है. अदालत में और अदालत के बाहर भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने जो बयान दिए, उनका सार यह है कि क्रांति का अर्थ है क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के शोषित, दलित व गरीब तबकों के जनांदोलन का विकास. भगत सिंह एक जागरूक, धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी होने के नाते राष्ट्र और राष्ट्रीय आंदोलन के सम्मुख मौजूद सांप्रदायिकता के खतरे को पहचानते थे. अपने साथियों, श्रोताओं से वे बराबर कहा करते थे कि सांप्रदायिकता उतनी ही खतरनाक है जितना उपनिवेशवाद. नौजवान भारत सभा के छह नियम, जिन्हें भगत सिंह ने तैयार करवाए थे, में से दो इस तरह थे- ‘ऐसी किसी भी संस्था, संगठन या पार्टी से किसी तरह का संपर्क न रखना जो सांप्रदायिकता का प्रचार करती हो’ और ‘धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते हुए जनता के बीच एक-दूसरे के प्रति सहनशीलता की भावना पैदा करना और इस पर दृढ़ता से काम करना.’

लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘भगत सिंह ने ‘वंदे मातरम’ या ‘भारत माता की जय’ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा दिया. जाहिर है वे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सिर्फ इसलिए नहीं थे कि यह एक विदेशी हुकूमत थी. वे साम्राज्यवाद के खिलाफ थे और इसके विकल्प के रूप में समाजवाद के समर्थक. भगत सिंह निश्चित तौर पर भारत की आधिकारिक कम्युनिस्ट पार्टियों का हिस्सा नहीं थे, लेकिन अपने विचारों में वे वैज्ञानिक समाजवाद के बेहद करीब थे. आजाद हिंदुस्तान को लेकर उनके स्वप्न एक शोषण विहीन और समानता आधारित समाज के थे जिसमें सत्ता का संचालन कामगार वर्ग के हाथ में हो. वह लड़ाई उपनिवेशवाद की मुक्ति तक तो पहुंची लेकिन उसके आगे जाकर वंचित जनों के हाथ में सत्ता देकर एक समतावादी समाज की स्थापना अब भी एक स्वप्न ही है.’

भगत सिंह और उनके साथियों के उद्देश्यों को लेकर इतिहासकार बिपन चंद्र लिखते हैं, ‘भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने पहली बार क्रांतिकारियों के समक्ष एक क्रांतिकारी दर्शन रखा. उन्हें बताया कि क्रांति का लक्ष्य क्या होना चाहिए. 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के घोषणापत्र में कहा गया कि हमारा उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है. क्रांतिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन या विचारधारा की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, इस बात को जनता तक पहुंचाने के लिए भगत सिंह ने लाहौर कोर्ट के सामने कहा था, ‘क्रांति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से आती है.’

भगत सिंह आज कितने प्रासंगिक हैं, इस सवाल पर लेखक अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, ‘हमने जो आर्थिक व्यवस्था चुनी वह समतावादी होने की जगह लगातार विषमता बढ़ाने वाली साबित हुई और आज आजादी के सात दशकों बाद भी हम अपनी जनता के बड़े हिस्से को जरूरी सुविधाएं भी मुहैया नहीं करा पा रहे. सामाजिक ताना-बाना भी बुरी तरह उलझा और ध्वस्त हुआ है. एक अपेक्षाकृत बराबरी वाला संविधान अपनाने के बावजूद समाज के भीतर जातीय, धार्मिक और इलाकाई भेदभाव लगातार बढ़ता गया है. दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत हुई हैं और धर्म का स्पेस राजनीति में घटने की जगह भयावह रूप से विस्तारित होता चला जा रहा है. कश्मीर और उत्तर-पूर्व में जिस तरह उत्पीिड़त राष्ट्रीयताओं का प्रतिरोध और दमन देखा जा रहा है वह देश के रूप में हमारी परिकल्पना को ही प्रश्नांकित कर रहा है. ऐसे में भगत सिंह को याद करना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की क्रांतिकारी तथा जनपक्षधर धारा को याद करना है.’

सबके अपने-अपने पक्ष हैं और सब पार्टियां और विचारक अपने तरीके से भगत को पेश करते हैं. राजीव लोचन कहते हैं, ‘पार्टियां ऐसा क्यों करती हैं? क्योंकि युवा वर्ग भगत सिंह से बहुत प्रभावित होता है. पंजाब में आप देखेंगे कि भिंडरावाले और भगत सिंह के पोस्टर एक साथ लगे. दोनों एक साथ लोगों का दिल जीतते हैं. युवाओं को लगता है बम और पिस्तौल लेकर सारी समस्या का हल खोज सकते हैं. बाकी लोग तो बेवकूफ की माफिक चर्चाएं कर रहे हैं, सॉल्यूशन तो बंदूक में है. उसे भगत सिंह भी अच्छा लग जाता है, भिंडरावाले भी अच्छा लग जाता है. भाजपा को लग रहा है कि अगर भगत सिंह उसके हो गए तो उसकी बल्ले-बल्ले. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा. भगत सिंह के सब दस्तावेज मौजूद हैं. उन्हें इंटरनेट पर भी कोई भी देख सकता है. जब आप कहते हैं कि भगत सिंह भारत माता की जय बोलता था, तब लोगों को इसकी हकीकत आसानी से पता चल सकती है. भाजपा के लिए सबसे अच्छा ये रहेगा कि वह पहले अपना रवैया बदले, फिर भगत सिंह का नारा लगाए.’

राजीव लोचन आगे कहते हैं, ‘भगत सिंह पूरी तरह वामपंथी थे. उस समय के लोगों का भी मानना था कि वे वामपंथी हैं. असेंबली में बम फेंकने के बाद अगले दिन की खबर में यह नहीं था कि भगत सिंह ने बम फोड़ा, अखबारों ने लिखा था सोशलिस्टों ने बम फोड़ा.’

भगत सिंह के सहयोगी रहे कॉमरेड शिव वर्मा ने ‘शहीद भगत सिंह की चुनी हुईं कृतियां’ शीर्षक से एक किताब संपादित की, जो 1987 में कानपुर से छपी. इसकी भूमिका में वे लिखते हैं, ‘आम जनता यह बात नहीं जानती कि भगत सिंह वास्तव में थे क्या. वह इतना ही जानती है कि वे एक बहादुर इंसान थे जिन्होंने सांडर्स को मारकर लाला जी की हत्या का बदला लिया और सेंट्रल असेंबली में बम फेंका. यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह एक उच्च कोटि के बुद्धिजीवी भी थे. इस कारण से स्वार्थी व्यक्तियों के लिए क्रांतिकारी आंदोलन और खासकर भगत सिंह के वैचारिक पक्ष को विकृ​त करना आसान हो जाता है.’

भगत सिंह और उनके साथियों को करीब से जानने वाले शिव वर्मा आगे लिखते हैं, ‘एक बुद्धिजीवी के रूप में भगत सिंह हम सबसे बहुत ऊंचे थे. जिस समय जल्लाद ने उनको जीवन के अधिकार से वंचित किया, वे मुश्किल से 23 साल के थे. इतनी कम आयु में उन्होंने बड़े अधिकार के साथ कई विषयों पर लिखा. राजनीति, ईश्वर, धर्म, भाषा, कला, साहित्य, संस्कृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्महत्या, फौरी समस्याओं और कई दूसरे विषयों पर उन्होंने विचार व्यक्त किए थे. क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास का, उसके वैचारिक संघर्ष और विकास का गहरा अध्ययन-मनन उन्होंने किया था और उससे समुचित निष्कर्ष निकाले थे. इसलिए अगर हमें भगत सिंह को ठीक तरह से समझना है तो हमें उनकी इस पृष्ठभूमि की भी कुछ जानकारी होनी चाहिए.’

यह सच है कि राजनीतिक दावेदारी के शोर में भगत सिंह के सपनों की कोई चर्चा नहीं है. भगत सिंह के लेखों और पत्रों से गुजरते हुए आप पाएंगे कि भगत सिंह गरीब, मजदूर, शोषित, वंचित के पक्ष में साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और शोषण के विरुद्ध युद्ध की बार-बार घोषणा कर रहे थे. लाहौर षड्यंत्र केस के तीन अभियुक्तों को फांसी हुई तो इन अभियुक्तों ने मांग की कि उन्हें युद्धबंदी माना जाए और फांसी न देकर गोली से उड़ा दिया जाए. उस समय युद्धबंदियों को गोली से उड़ाया जाता था. लाहौर षड्यंत्र केस के साथियों का साथ देते हुए भगत सिंह और उनके दोनों साथियों ने भी अंग्रेज सरकार से यही मांग रखते हुए पत्र लिखा. उस पत्र में लिखा गया, ‘हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों ने मेहनत-मजदूरी करने वाले भारतीयों और जनसाधारण के प्राकृतिक साधनों पर अपने स्वार्थसाधन के लिए अधिकार जमा रखा है. इस प्रकार से स्वार्थ साधने वाले चाहे अंग्रेज पूंजीपति हों, चाहे हिंदुस्तानी, उन्होंने आपस में मिलकर लूट जारी कर रखी हो या युद्ध, भारतीय पूंजी के द्वारा ही गरीब का खून चूसा जा रहा हो, इन बातों से अवस्था में कोई अंतर नहीं आता.’

भगत सिंह का नारा लगाकर उन पर दावा ठोंकने वाली सियासत ने इन प्रश्नों पर कब विचार किया है, जो भगत सिंह के लिए मौत के पहले के प्रश्न थे कि ‘मुट्ठी भर शक्तिशाली लोगों ने मेहनत-मजदूरी करने वाले भारतीयों और जनसाधारण के प्राकृतिक साधनों पर अपने स्वार्थसाधन के लिए अधिकार जमा रखा है.’

निचली अदालत में भगत सिंह से पूछा गया था कि क्रांति से उनका क्या मतलब है, इसके जवाब में भगत सिंह ने कहा था, ‘क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं हैं. और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है. वो बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय है अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन… मजदूरों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए तरस जाते हैं… यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है. यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती. स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरेलियां मना रहा है…’ भगत सिंह ने जिन सवालों को ताल ठोंककर अंग्रेज सरकार के सामने उठाया था, वही सवाल अब भारतीय संसद में तीन लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या के बाद भी नहीं उठते. क्या भगत सिंह का ‘व्यवस्था पर भूरे साहबों’ द्वारा कब्जा कर लेने से जुड़ा शक सही नहीं हो गया है?

भगत सिंह के पास सिर्फ स्वप्न नहीं थे. उनकी निगाह में हिंसा एक ‘विवशता का हथियार’ भर थी. बाकी पूरी व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, इसका स्पष्ट दर्शन बार-बार वे पेश करते रहे. लेकिन उन्होंने शहादत इसलिए दी कि उनकी शहादत ‘युवाओं को मदहोश करेगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे.’ वे ‘बम और पिस्तौल का रास्ता’ अपनाकर खून बहाने की जगह युवाओं को सलाह देते हैं कि ‘करोड़ों लोगों को जागरूक करना’ हमारा कर्तव्य है. वे अदालत में स्वीकार करते हैं कि ‘हम मानव जीवन को अ​कथनीय पवित्रता प्रदान करते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के बजाय हम मानव-सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे.’ इंसानियत के बचाव और शोषण के विरुद्ध उनके बलिदान की चर्चाएं करने की जगह सिर्फ उनकी विरासत पर कब्जे की कोशिश क्या भगत सिंह को दोबारा फांसी देने के समान नहीं है?

भगत सिंह ने अपनी जेल डायरी में पृष्ठ 24 पर एक स्पेनी शिक्षक फ्रांसिस्को फेरेर, जिन्हें षड्यंत्र के तहत फांसी दी गई थी, की वसीयत लिखी. इसमें कहा गया है, ‘मैं अपने दोस्तों से यह भी कहना चाहूंगा कि वे मेरे बारे में कम से कम चर्चा करेंगे या बिल्कुल ही चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि जब आदमी की तारीफ होने लगती है तो उसे इंसान के बजाय देवप्रतिमा-सा बना दिया जाता है और यह मानव जाति के भविष्य के लिए बहुत बुरी बात है. सिर्फ कर्मों पर ही गौर करना चाहिए, उन्हीं की तारीफ या निंदा होनी चाहिए, चाहे वे किसी के द्वारा किए गए हों. अगर लोगों को इनसे सार्वजनिक हित के लिए प्रेरणा मिलती दिखाई दे तो वे इनकी तारीफ कर सकते हैं, लेकिन अगर ये सामान्य हित के लिए हानिकारक लगें तो वे इनकी निंदा भी कर सकते हैं, ताकि फिर इनकी पुनरावृत्ति न हो सके… मरे हुए के लिए खर्च किए जाने वाले समय का बेहतर इस्तेमाल उन लोगों की जीवन दशाओं को सुधारने में किया जा सकता है जिनमें से बहुतेरों को इसकी भारी आवश्यकता है.’ क्या भगत सिंह के नाम पर नारा लगाकर शोर मचाने वाले सत्ताधारी उनकी इस विरासत पर अमल करेंगे?

(यह लेख अप्रैल, 2016 में तहलका पत्रिका में छप चुका है.)

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