रविवार, 9 सितंबर 2018

क्या विदेशों में मोदी जी का डंका बजता है?

विदेशों में मोदी जी का डंका बजता है. इसे साबित करने के लिए उन्होंने कई देशों में बांसुरी और नगाड़े बजाए. विदेश में रह रहे भारतीयों से नारे लगवाए. बराक भाई के साथ फोटो खिंचवाई और जिनपिंग के साथ हिंडोला झूले. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने कहा कि हम विदेश नीति को एकदम अलग दिशा में ले जाएंगे. लेकिन जब एक साल बीता तो कभी मोदी के प्रशंसक रहे वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक का हमने एक इंटरव्यू लिया. उनका कहना था कि शोर बहुत था, लेकिन मोदी जी का सारा शोर मोर का नाच साबित हुआ है. भाजपा और नरेंद्र मोदी विदेशी मोर्चे पर बुरी तरह फेल हो चुके हैं.
http://nationalspeak.in/
सबसे बड़ा मुद्दा पाकिस्तान था लेकिन पाकिस्तान को न आप घेर सके, न कोई दबाव बना सके, न ही बातचीत शुरू कर सके. पांच साल कनफ्यूज रहे कि उसे दुश्मन मानें या दोस्त बनाएं. बस नारों में और भाषणों में पाकिस्तान जिंदा रहा. आईएसआई को बुलाकर पठानकोट हमले की जांच जरूर करवा ली. जम्मू कश्मीर में हालात और ही खराब हुए. जो मिलिटेंसी लगभग शांत थी, वह फिर से उभरी.
अमेरिका से हालिया समझौता भारत की संप्रभुता पर चोट है जिसके तहत अमेरिका आपको निर्देश दे रहा है कि आप ईरान से तेल लेना बंद करें वरना हम प्रतिबंध लगा देंगे. वह आपको रूस से हथियार खरीदने में बाधा खड़ी कर रहा.
अमेरिका पर सब कुछ लुटा देने वाली मुद्रा में भी आप न तो एनएसजी के सदस्य बन सके, न पाकिस्तान से आतंकी ला पाए. न माल्या आया, न मेहुल भाई आए. मालदीव में चीन ने अपना अड्डा जमा लिया. बांग्लादेश से भी आपका कुछ खास रिश्ता नहीं है. जबकि चीन वहां पर दक्षिणी और उत्तरी बांग्लादेश को जोड़ने वाला पुल बना रहा है. बांग्लादेश ने अपना ढाका स्टॉक एक्सचेंज का 25 फीसदी हिस्सा चीन को बेच दिया जबकि भारत के अधिकारी वहां गए थे, नाकाम होकर लौट आए.
नेपाल जो करीब करीब भारतीय ही है, जिसकी हमारी सीमाएं खुली हैं, वहां जाकर शेखी बघारकर लोगों को नाराज किया, नाकेबंदी करके और वहां हिंदू राष्ट्र का अभियान चलाकर अपनी ही जड़ खोद ली. उस नाकेबंदी से कोई फायदा नहीं हुआ, सिवाय नेपाल चीन की नजदीकी बढ़ने के. श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा पोर्ट चीन के सुपुर्द कर दिया. नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश हर देश में चीन मजबूत हुआ.
विदेश नीति विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी की मानें तो 'डोकलाम में चीन ने रणनीतिक स्तर पर जीत हासिल की है. चीन विवादित इलाक़े में निर्माण कार्य कर रहा है. इसके चलते भूटान अपनी सुरक्षा को लेकर भारत पर भरोसा करने से पहले सौ बार सोचेगा. दक्षिण एशिया और इसके क़रीब के देशों से भारत दूर हुआ है. नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान में भारत की स्थिति कमज़ोर हुई है. ऐसा भारत की दूरदर्शिता में अभाव के कारण हुआ है. शुरू में मोदी ने मज़बूत शुरुआत की थी, लेकिन आगे चलकर चीज़ें नाकाम रहीं.'
मेक इन इंडिया का नारा लगाते रहे लेकिन यह केवल मोदी जी और भगवान राम ही जानते हैं कि कितना विदेशी निवेश ला पाए. फिर इतने देशों में आप घूमे किसलिए? रंगबिरंगे कपड़े पहनकर नगाड़ा और बांसुरी बजाने के लिए? स्पष्ट है कि विदेश नीति के साथ नोटबंदी कांड हो गया.

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम

मई, 1928 के ‘किरती’ में यह लेख छपा। जिसमें भगत सिंह ने धर्म की समस्या पर प्रकाश डाला है।

अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कान्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कान्फ्रेंस हुई। दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई। उनमें से एक सवाल धर्म का भी था। वैसे तो धर्म का प्रश्न कोई न उठाता, किन्तु साम्प्रदायिक संगठनों के विरुद्ध प्रस्ताव पेश हुआ और धर्म की आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेने वालों ने स्वयं को बचाना चाहा। वैसे तो यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो गयी और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठा। प्रान्तीय कान्फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफर अली साहब के पाँच-सात बार खुदा-खुदा करने पर अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल ने कहा कि इस मंच पर आकर खुदा-खुदा न कहें। आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता का प्रचारक हूँ। बाद में लाहौर में भी इसी विषय पर नौजवान सभा ने एक मीटिंग की। कई भाषण हुए और धर्म के नाम का लाभ उठाने वाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जाने वाले कई सज्जनों ने कई तरह की नेक सलाहें दीं।

सबसे ज़रूरी बात जो बार-बार कही गयी और जिस पर श्रीमान भाई अमरसिंह जी झबाल ने विशेष ज़ोर दिया, वह यह थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाये। बड़ी नेक सलाह है। यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शान्ति में कोई विघ्न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की जरूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आन्दोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आज़ादी दे दी गयी। यहाँ तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मंत्र पढ़े जाने लगे। उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था। फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी। जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतंत्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गये हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं।

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गु़लामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिये, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर जो सिख ‘राज करेगा खालसा’ गायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?

धर्म तो यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को तलवार के घाट उतार देना चाहिये और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये तो परिणाम क्या होगा? हम जानते हैं कि अभी कई और बड़े ऊँचे भाव की आयतें और मंत्र पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाये? धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नज़र आता है। मान लें कि भारत में स्वतंत्रता-संग्राम छिड़ जाये। सेनाएँ आमने-सामने बन्दूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह, जैसी कि कहावत बतायी जाती है, आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, वेद-कुरान आदि चीज़ें खड़ी कर दे, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेटकर घर बैठ जायेंगे। धर्म के होते हुए हिन्दू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते। धर्म के बड़े पक्के इन्सान तो उस समय सोमनाथ के कई हजार पण्डों की तरह ठाकुरों के आगे लोटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी-काम कर जायेंगे। तो हम किस निष्कर्ष पर पहुंचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है। लेकिन यदि धर्म के पक्षवालों के तर्क भी सोचे जायें तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अँधेरा हो जायेगा, पाप पढ़ जायेगा। बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें।

रूसी महात्मा टॉल्स्टॉय ने अपनी पुस्तक (Essay and Letters) में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये किये हैं —

1. Essentials of Religion, यानी धर्म की ज़रूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरा।

2. Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।

3. Rituals of Religion, यानी रस्मो-रिवाज़ वगैरा। मतलब यह कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं। सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो। इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहा है। इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता। वरन यह कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिये। दूसरा फिलासफी का प्रश्न है। असल में कहना पड़ता है कि Philosophy is the out come of Human weakness, यानी फिलासफी आदमी की कमजोरी का फल है। जहाँ भी आदमी देख सकते हैं। वहाँ कोई झगड़ा नहीं। जहाँ कुछ नज़र न आया, वहीं दिमाग लड़ाना शुरू कर दिया और ख़ास-ख़ास निष्कर्ष निकाल लिये। वैसे तो फिलासफी बड़ी जरूरी चीज़ है, क्योंकि इसके बगैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शान्ति होनी भी बड़ी ज़रूरी है। हमारे बुजुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते। बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है। आइये, प्यार के साथ बैठकर बहस करें। एक-दूसरे के विचार जानें। लेकिन ‘मसला-ए-तनासुक’ पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियाँ चल जाती हैं। बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने-समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में खु़दा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। अपने सोचने की शक्ति, (Power of Reasoning) को छुट्टी दी हुई होती है। सो जो फिलासफी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्त्व न रखती हो तो एक ख़ास फिलासफी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है।

अब आती है तीसरी बात – रस्मो-रिवाज़। सरस्वती-पूजावाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना ज़रूरी है उसमें आगे-आगे बैण्ड-बाजा बजना भी ज़रूरी है। लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है। इस्लाम धर्म कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे। अब क्या होना चाहिये? नागरिक आज़ादी का हक (Civil rights of citizen) कहता है कि बाज़ार में बाज़ा बजाते हुए भी जाया जा सकता है। लेकिन धर्म कहता है कि नहीं। इनके धर्म में गाय का बलिदान ज़रूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है। अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अन्तर आ जाता है तो क्या किया जाये? तो यही फिलासफी व रस्मो-रिवाज़ के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर National Religion बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं। परिणाम हमारे सामने है।

सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिये। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है।

लेकिन अगल-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हमें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है। जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे।

(साभार: www.marxists.org)

बुधवार, 5 सितंबर 2018

हम सब नक्सल हैं

हमारे एक अजीज मित्र हैं. हिंदू परिवार से हैं तो संस्कार भी हिंदू हैं. बातचीत में 24 कैरेट के नहीं हैं लेकिन 24 कैरेट के तो गांधी भी नहीं थे. कोई अन्य महापुरुष भी नहीं. वे आस्तिक हैं. पूजा पाठ करते हैं. किसी पार्टी के नहीं हैं. लेकिन अपना पत्रकार धर्म निभाते हुए सरकार की आलोचना करते हैं तो कोई आकर उन्हें वामपंथी कह देता है.

यह मूर्खता की प्रचंड प्रतियोगिता का दौर है. सरकार या रूलिंग पार्टी का प्रवक्ता किसी अंबेडकरवादी को खुलकर माओवादी बोल सकता है. ऐसे अंबेडकरवादी को जिसने न सिर्फ माओवाद की, बल्कि हिंसा और संपूर्ण वाम विचारधारा की आलोचना में किताब लिखी हो.

यदि गरीब, आदिवासी, वंचित, दलित और हाशिए के लोगों की आवाज को उठाने वाला वामपंथी है, इस न्याय से हमारे संविधान को भी वामपंथी अथवा नक्सल कहना होगा. हमारा संविधान ​आदिवासियों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों और वंचितों के प्रति झुका हुआ है, तो क्या वह नक्सली दस्तावेज है? जब भी जनता की बात आएगी तो वह बात सरकार के विरोध में ही होगी. तो क्या सरकार का विरोध अथवा आलोचना नक्सलवाद, देशद्रोह अथवा आतंकवाद है? यह तो अंग्रेजी शासन की परिभाषा हुई कि जो भी सरकार के विरोध में है, सब आतंकवादी हैं. अंग्रेजों की इसी क्रूरता और अलोकतांत्रिकता के खिलाफ तो आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी. क्या हम 70 साल पीछे लौट आए हैं?

क्या कांग्रेस और भाजपा होना एक ही चीज है? क्या नाथूराम गोडसे होना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होना एक ही बात है? क्या वामपंथ और नक्सल एक ही चीज है? क्या सामाजिक कार्यकर्ता होना, मानवाधिकार कार्यकर्ता होना, दलित अधिकार कार्यकर्ता होना और देशद्रोही होना सब एक ही चीज है? क्या हम सिर्फ काला या सिर्फ सफेद ही देख पाते हैं?

जिस यलगार परिषद की रैली को नक्सली आयोजन कहा जा रहा है, उसे आयोजित करने वालों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस पीबी सावंत और हाईकोर्ट के पूर्व  जस्टिस कोलसे पाटिल भी थे. क्या हम अपने टॉप न्यायाधीशों को भी नक्सल ठहराएंगे?

इससे पहले अरुंधति राय को यूपीए के समय मुकदमा झेलना पड़ा था. विनायक सेन तो बाकायदा गिरफ्तार हुए और अदालत ने उनको ससम्मान बरी किया. छत्तीसगढ़ में तमाम पत्रकारों को नक्सल समर्थक बताकर प्र​ताड़ित किया जाता रहा है. भाजपा सरकार ने एक कदम और आगे जाते हुए अब सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को थोक में नक्सल कहना शुरू किया है. इस सिलसिले में कई गिरफ्तारियां भी हुई हैं.

पूर्व वायुसेना प्रमुख एल रामदास ने भी इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखकर इन गिरफ्तारियों पर चिंता जताई है कि यह हमें सिखाए गए मूल्यों के खिलाफ है. असह​मति ही लोकतंत्र है. राज्य को उसे कुचलना नहीं चाहिए.

पूर्व न्यायाधीश पीबी सावंत ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की इन गिरफ़्तारियों को "राज्य का आतंक" और "भयानक आपातकाल" बताया है. बीबीसी से उन्होंने कहा, "आज जो हो रहा है वो स्टेट टेररिज़्म है. आप विपक्ष और आलोचकों की आवाज़ कैसे दबा सकते हैं. सरकार के विरोध में अपनी बात रखना सबका अधिकार है. अगर मुझे लगता है कि ये सरकार आम लोगों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती तो सरकार की आलोचना करना मेरा अधिकार है, अगर तब मैं नक्सल बन जाता हूं तो मैं नक्सल हूँ... "ग़रीबों के पक्ष में और सरकार के विरोध में लिखना आपको नक्सल नहीं बना देता. ग़रीबों के पक्ष में लिखने पर गिरफ़्तारी संविधान और संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना है."

हमें विरोधी के विचारों को सुनने और सहने की आदत विकसित करनी है, वरना हम जाने अनजाने उस देश का नुकसान करेंगे, जिसका आजकल कुछ ज्यादा ही नारा लगाया जा रहा है. वरना तो आज तमाम ऐसे लोग भी सरकार और पार्टी की किसी नीति के विरोध में हैं जो उसे वोट दे चुके हैं. तो क्या वे भी नक्सल हैं. इस तरह से तो पूरा देश नक्सल हो जाएगा, क्योंकि हर व्यक्ति किसी न किसी चीज से असहमत होता है. हर नागरिक सरकार या पार्टियों की आलोचना करता है. अगर यह पैमाना सेट किया जाएगा तो फिर कहना होगा कि हम सब नक्सल हैं. 

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

'अगर देश उल्लू बनाने की प्रयोगशाला है तो हमें उससे ख़तरा है'

ऐसे समय में, जब देश भर के किसान लगातार सड़क पर हों, किसानों और मज़दूरों के क्रांतिकारी कवि पाश बरबस याद आते हैं.


जिन्होंने देखे हैं 
छतों पर सूखते सुनहरे भुट्टे
और नहीं देखे 
मंडी में सूखते भाव 
वे कभी नहीं जान पाएंगे 
कि कैसी दुश्मनी है 
दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की 
उस पैरों से नंगी गांव की सुंदर लड़की से...

क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू उर्फ पाश की यह कविता उस दौर में लिखी गई होगी जब दिल्ली की सत्ता पर 'एक कुलीन औरत' विराजमान थी, जिसकी हुकूमत 'गांव की नंगे पैरों वाली लड़की' के पांव की बिवाई को भरने की जगह और कुरेद रही थी.
फोटो: कृष्णकांत
पिछला पूरा साल किसानों के आंदोलन का साल रहा है. देश भर में एक तरफ किसान आत्महत्याएं बढ़ी हैं तो दूसरी तरफ जगह जगह किसान सड़क पर उतरे. आज की इस किसान विरोधी तवारीख़ में पाश की हत्या के 30 साल बाद उनकी कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि जैसे ये कविताएं हाल के वर्षों में जी रहे किसी आज के कवि ने रची हैं, जब भारत किसानों की कब्रगाह में तब्दील हुआ जाता है.

यहां तो सारी उम्र नहीं उतरेगा 
बहनों की शादी पर उठाया क़र्ज़ा 
खेतों में छिड़के हुए लहू का 
हर क़तरा इकट्ठा करके भी 
इतना रंग नहीं बनेगा 
कि चित्रित कर लेंगे, एक शांत 
मुस्कुराते हुए व्यक्ति का चेहरा...

पाश की कविताएं किसानों और मज़दूरों की ज़िदगी में पांव पसारे गुरबत से उपजी व्यथा और पीड़ा की कविताएं हैं जो बार.बार सवाल करती हैं कि हममें से कितनों का नाता है/ ज़िंदगी जैसी किसी चीज़ के साथ. वे भगत सिंह की तरह किसान और व्यापारी की असमानता पर तीखा सवाल करते हुए कहते हैं कि 'ख़ुदा की वो कैसी रहमत है/ जो गोड़ाई करते फटे हाथों और/ मंडी में तख़्तपोश पर फैली हुई मांस की उस पिलपिली ढेरी पर/ एक साथ होती है?'

आख़िर क्यों 
बैलों की घंटियों 
और पानी खींचते इंजनों के शोर में 
घिरे हुए चेहरों पर जम गई है 
एक चीख़ती ख़ामोशी?...
क्यों गिड़गिड़ाता है 
मेरे गांव का किसान 
एक मामूली पुलिस वाले के आगे?

ऐसे में किसान कवि चाह रहा है कि 'उड़ते हुए उन बाज़ों के पीछे चला जाए' जो 'चैन का एक पल बिता सकने की हमारी ख़्वाहिश को चोंच में लेकर उड़ गए हैं'. यह ख़्वाहिशें क्या थीं? भूखे के लिए रोटी, बेघर के लिए घर और भूमिहीन को ज़मीन.

कुछ लोग कहते हैं 
अब कहने को कुछ बाक़ी नहीं 
तय करने के लिए कुछ भी बचा नहीं 
और मैं कहता हूं 
सफ़र के इतिहास की बात मत करो 
मुझे अगला क़दम रखने के लिए ज़मीन दो.

पाश को आज की तारीख़ में उपजी परिस्थिति के मद्देनज़र नये नज़रिये से पढ़े जाने का वक़्त है. ऐसे वक़्त में, जब पूरे देश में किसानों के क़र्ज़ में डूब कर आत्महत्या कर लेने की बात सामान्य हो, जब देश के हर शहर, कस्बे और राजधानियों में किसानों का बैनर पोस्टर लेकर निकल जाना आम हो चला हो, जब खेतों में उगी ज़िंदगियों को सड़ने के बाद सड़क पर फेंका जा रहा हो, जब अपना मेहनताना मांग रहे किसानों पर गोलियां चलाई जा रही हों, जब किसान सोलह आने खेत में बोकर चार आना भी न बचा पाता हो, जब मज़दूरों की हाशिए की अपनी जगह और सिकुड़ती जा रही हो, जब सरकारें नीतियां बनाकर मज़दूरों के हक़ूक छीन रही हों, तब किसानों और मजदूरों के कवि पाश को फिर से पढ़े जाने का वक़्त है.

हम तो खप गए हैं 
धूल से लथपथ शामों के पेट में 
हम तो छप गए हैं 
उपलों पर उकरी उंगलियों के साथ 
'लोकतंत्र' के पैरों में रुलते मेरे देश 
हमारा फ़िक्र मत करना
प्रश्न तो ठीक बड़ा है 
कि छब्बीस वर्षों के इस अभाव के समय 
हम देशभक्त क्यों न बने
लेकिन मिट्टी ने खा ली है 
कई करोड़ बाज़ुओं की ताक़त 
और फलों ने खा ली है 
किसानों के हिस्से की उर्जा...

यह संयोग नहीं है कि जिस साल मध्य प्रदेश में फ़सलों का उचित मूल्य मांग रहे किसानों पर गोली चलाई गई, उसी साल सत्ता के पायदान पर बैठे संगठन ने सिफ़ारिश की कि मिर्ज़ा ग़ालिब और रवींद्रनाथ टैगोर के साथ पाश की कविताओं को कोर्स से हटा देना चाहिए. हालांकि, इस सिफ़ारिश के ख़िलाफ़ उठे विरोध के बाद यह सलाह नहीं मानी गई.

सवाल उठता है कि किसानों, ग़रीबों और मज़दूरों के कवि से सत्ता को डर क्यों लगा? शायद इसलिए क्योंकि उन कविताओं को पढ़ने वाले बच्चे बार बार सड़कों पर उतर रहे किसानों के हक़ में सवाल पूछ सकते हैं और क्रूर सत्ता हमेशा सवालों से डरती है. सिर्फ़ क्रूर सत्ता ही नहीं, सवालों से हर आततायी डरता है. इसीलिए तो पाश को किसी क्रूर सत्ता ने नहीं, उन खालिस्तानियों ने मारा जो कथित तौर पर एक ज़्यादा बेहतर दुनिया बनाने का दावा करते थे.

जिस वक़्त सियासत के बड़े.बड़े आलोचकों की ज़बान आलोचना के दो शब्द बोलने में लरज रही हो, जिस वक़्त चौथा खंभा दरबारियों की भांति कतार में खड़े होकर ताली बजा रहा हो, उस वक़्त पाश का ज़िक्र ज़रूरी लगता है:

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है.

जिन ग़रीबों और किसानों के नाम पर आज सियासी गलियारों में सजे तंबुओं से लंबे लंबे भाषण देकर वोट बटोरे जाते हैं, उन्हीं ग़रीब और किसानों के लिए एक सुंदर देश की चाहत रखने वाले पाश जैसे आंदोलनकारी रचनाकारों को यह कहकर बदनाम भी किया जाता है कि वे देशविरोधी विचारों वाले लोग हैं. हालांकि, पाश जिस समय लिख रहे थे, उस समय जनवाद को बदनाम करने की शर्मनाक मुहिम नहीं चली थी. सत्ता तो तब भी क्रूर थी, लेकिन ज़बानों पर इतने मज़बूत ताले नहीं थे. इसीलिए तमाम अलोकतांत्रिक घटनाओं से क्षुब्ध एक युवा के भीतर का छटपटाता हुआ कवि अपने समय पर अफ़सोस ज़ाहिर करता करता है:

यह शर्मनाक हादसा हमारे ही वक़्तों में होना था 
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने 
बन जाना था सिंहासन के पायदान...

ये गौरव हमारे ही वक़्तों में होना है 
कि उन्होंने नफ़रत निथार ली 
गुज़रकर गंदले समुंदरों से...

यह गौरव हमारे ही वक़्तों का होना है.

जब हज़ारों की संख्या में भारतीय किसान सड़कों पर उतरकर सत्ताधारी पार्टी और सरकारों से कह रहे हैं कि हमसे किया गया वादा निभाया जाए, हमारी आमदनी बढ़ाई जाए, हमें मौत के मुंह में न झोंका जाए, हमें क़र्ज़, सूखा और तंगी से बचाया जाए, उस समय लगता है कि पाश उन्हीं हज़ारों किसानों के हुजूम में अपनी कविता पढ़ रहे हैं कि .

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है.

आज़ादी के बाद मज़दूरों और किसानों के हक़ में शुरू हुए नक्सल आंदोलन की लहर पंजाब पहुंची तो पाश भी इससे प्रभावित हुए. पाश के समग्र कविता संग्रह 'अक्षर अक्षर' में केसर सिंह 'केसर' अपने लेख में लिखते हैं, 'पंजाब में नक्सली लहर का वर्ग आधार ग़रीब किसान था... पाश की कविता भी पंजाबी किसान, उसकी आर्थिकी, राजनीति, संस्कृति और इन सबके अनुभवों से जुड़ी रही है.'

9 सितंबर, 1950 को जालंधर के तलवंडी में जन्मे पाश ज़्यादा पढ़ लिख नहीं सके थे. लेकिन 20 साल की छोटी सी उम्र में झूठे क़त्ल के केस में गिरफ़्तार हुए और क़रीब दो साल तक जेल में रहे. तब तक कविता की दुनिया में उनका नाम होने लगा था. बहुत ही कम समय में उन्होंने धारदार कविताएं लिखकर साहित्य जगत में तहलका मचा दिया. 23 मार्च, 1988 को उनके गांव में ही उनके मित्र हंसराज समेत ने खालिस्तानियों ने उनकी हत्या कर दी. यह दुखद संयोग है कि भगत सिंह की वैचारिक सेना के बहादुर सिपाहियों की अगली कतार में खड़े पाश की हत्या भी उसी दिन की गई, जिस दिन भगत सिंह का शहादत दिवस होता है.

हमेशा प्रताड़ना के लिए पुलिस के आने का इंतज़ार करने वाले पाश 'स्वप्न.सीमा' के इधर खड़े होकर कह रहे थे कि 'अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है.' वे कह रहे थे कि 'मुझे जीने की बहुत इच्छा थी कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था.' लेकिन पाश को शायद यह मालूम था कि उनकी नियति में लिखने के लिए जान देना है, शायद इसीलिए वे लिख रहे थे कि '...सुना है मेरा क़त्ल भी आने वाले इतिहास के पन्ने पर अंकित है.'

प्रो. चमनलाल द्वारा संपादित उनके कविता संग्रह 'बीच का रास्ता नहीं होता' की भूमिका में नामवर सिंह ने 1989 में लिखा था, 'स्पेन के जनकवि लोर्का की हत्या के बारे में कहा जाता है कि जब उसकी अमर कविता 'एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत' का टेप जनरल फ्रैंको को सुनाया गया तो जनरल ने आदेश दिया था कि यह आवाज़ बंद होनी चाहिए. यह घटना पचास साल पहले की है. कविता पर. फिर वह शोकगीत ही क्यों न हो. फासिस्ट प्रतिक्रिया! पाश के रूप में पंजाब को भी एक लोर्का मिला था जिसकी आवाज़ खालिस्तानी जुनून ने बंद कर दी और वह भी संयोग से उस समय सैंतीस साल का ही जवान था लोर्का की तरह.'

पाश की कविताएं उनके ग्रामीण जीवन से निकली थीं, जिनका कवि दृष्टि ने गहन अवलोकन और विश्लेषण किया था और वह गरीबी और जहालत से बहुत क्षुब्ध था. 1973 में अपने पिता को लिखी एक चिट्ठी में पाश ख़ुद लिखते हैं: 'मैंने आज तक जितनी भी रचना की है, उसके इतनी जल्दी मक़बूल हो जाने का यही कारण है कि इस लेखन के पीछे किसी मूड की तरंग या दंभ का हाथ नहीं, बल्कि समाजी जीवन में महंगे और कठिन तजुरबे करके जो भी समझा है, लिखा है.'

उनकी सर्वाधिक पढ़ी और दोहराई गई कविताओं में से एक है सबसे ख़तरनाक, यह कविता परिवर्तन और न्याय की चाह रखने वालों की सपनीली आंखों का वह पानी है जो पुतलियों में नमी बनाए रखता है.

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना.

पाश के साथी रहे अमरजीत चंदन ने उनके क़त्ल के बाद 'पाश ज़िदाबाद' शीर्षक से लिखे एक लेख में कहा है, 'सरकारी अत्याचार बढ़ रहा था. कवियों को राजनीति गतिविधियों या हमदर्दी के कारण पुलिस यंत्रणा का शिकार बना रही थी. पाश को दिल से पुलिस की प्रतीक्षा रहती थी. मुझसे एक बार पूछने लगा कि ये हमें लेने कब आएंगे? अब शायद यह बात हास्यास्पद लगे, लेकिन आज से वर्षों पहले अठारह वर्ष के उभरते कवि पाश या मुझ जैसे पर हंसना उतना अर्थ नहीं रखता था. तब सोच की राजनीति नहीं, क़त्ल और शहादत की राजनीति चल रही थी... झूठे केस में बरी होने तक पौने दो साल वह जेल में रहा.'

पाश की प्रशंसा में अमरजीत चंदन लिखते हैं, 'पाश ने जेल में बहुत सी कविताएं लिखीं. जेल के भीतर ही पाश ने अपनी पहली पुस्तक 'लौह कथा' अपने गांव के किसी लड़के द्वारा भेजकर गुरुशरण सिंह से छपवाई थी. इसके साथ ही पाश ने पंजाबी कविता में अपना झंडा गाड़ दिया था. जेल से बाहर आकर पाश को अपनी चरम प्रसिद्धि व स्वीकृति देखकर अवश्य ही हैरानी हुई होगी. पाश थोड़े समय में ही पंजाबी कविता का चमकता लाल तारा बन गया था. पाश ने कविता की परंपरा व प्रतिमान के बिंब को एक ही ठोकर से तोड़ दिया था. अंग्रेज़ी मुहावरे की तरह, कांच के बर्तनों की दुकान में हुंकारता हुआ सांड़ आ गया था.'

तुम्हें पता नहीं 
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं 
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में 
कोई आवारा कुत्ता आ जाए...

उनकी कविताएं बेचैन आंखों में तैर रहे विराट स्वप्न जैसी हैं जो एक सुंदर और न्यायपूर्ण दुनिया का सपना देखती हैं. इन कविताओं में एक ऐसी दुनिया का स्वप्न है जिसमें वंचितों, मज़दूरों, ग़रीबों और किसानों के लिए भी भरपूर जगह हो. पाश ऐसी ख़ूबसूरत दुनिया चाहते हैं जिसमें ज़िंदगी कविताओं जैसी ख़ूबसूरत हो, इसलिए वे कुलीन वर्ग को संबोधित करते हुए लिखते हैं:

...मेरी कल्पना उस लोहार के जगह.जगह से झुलसे मांस जैसी है 
जो बेरहम आसमान पर खीझा रहे, एक हवा के झोंके के लिए... 
अब मैं तुम्हारे लिए किसी हारमोनियम का पंखा नहीं हो सकता 
मैं बर्तन मांजती कहारिन की उंगलियों में से रिसता राग हूं केवल.

लेकिन वे यह भी कहते हैं कि.

जिंदगी अगर कविता जैसी होती 
हम ख़ामोश ही रहते
सपने अगर पत्थर के होते 
गीटों से दिल बहला लेते 
पानी से अगर पेट भरता 
तो पीकर सो जाते 
चांटनी अगर ओढ़ी जा सकती 
सिलकर पहन लेते...

लेकिन यहां कुछ नज़र नहीं आता 
अमन के कपोतों जैसा 
गीतों के पेड़ नहीं मिलते 
जिन पर झूले डाल लें.

शायद बदलाव का आह्वान करती तमाम कविताएं उन्हें निराश भी करती हों, इसलिए वे लिखते हैं कि

मेरी दोस्त, कविता बहुत ही शक्तिहीन हो गई है 
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं 
और अब हर तरह की कविता से पहले 
हथियारों से युद्ध करना ज़रूरी हो गया है.

फिल्मी मॉस कल्चर, अंध धार्मिकता, भ्रष्टाचार, इमरजेंसी, आतंकवाद और राजनीतिक अराजकता से घबराकर पाश के भीतर का कवि गुस्सैल होता गया और लिखा:

छीन लो मुझसे भीड़ की टें.टें
जला दो मुझे मेरी नज़्मों की धूनी पर... 
मुझे नहीं चाहिए अमीन सयानी के डायलॉग 
संभालो आनंद बख्शी, तुम जानो लक्ष्मीकांत...
मेरे मुंह में ठूंस दो यमले जट्ट की तुंबी...
मेरी छाती पर चिपका दो गुलशन नंदा के नॉवेल... 
अगर तुम्हारे पास नहीं है कोई बोल तो 
मुझे बकने दो मैं क्या बकता हूं.

हालांकि, तवारीख़ ने उन्हें यूं ही बकने के लिए नहीं छोड़ दिया. परिवर्तन और बराबरी की दुनिया का सपना देखने वाले तमाम युवा आंखों को पाश ने शब्द दे दिए थे.

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए 
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए 
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े...

हम लड़ेंगे जब तक 
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है...

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...