ऐसे समय में, जब देश भर के किसान लगातार सड़क पर हों, किसानों और मज़दूरों के क्रांतिकारी कवि पाश बरबस याद आते हैं.
जिन्होंने देखे हैं
छतों पर सूखते सुनहरे भुट्टे
और नहीं देखे
मंडी में सूखते भाव
वे कभी नहीं जान पाएंगे
कि कैसी दुश्मनी है
दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की
उस पैरों से नंगी गांव की सुंदर लड़की से...
क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू उर्फ पाश की यह कविता उस दौर में लिखी गई होगी जब दिल्ली की सत्ता पर 'एक कुलीन औरत' विराजमान थी, जिसकी हुकूमत 'गांव की नंगे पैरों वाली लड़की' के पांव की बिवाई को भरने की जगह और कुरेद रही थी.
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फोटो: कृष्णकांत
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पिछला पूरा साल किसानों के आंदोलन का साल रहा है. देश भर में एक तरफ किसान आत्महत्याएं बढ़ी हैं तो दूसरी तरफ जगह जगह किसान सड़क पर उतरे. आज की इस किसान विरोधी तवारीख़ में पाश की हत्या के 30 साल बाद उनकी कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि जैसे ये कविताएं हाल के वर्षों में जी रहे किसी आज के कवि ने रची हैं, जब भारत किसानों की कब्रगाह में तब्दील हुआ जाता है.
यहां तो सारी उम्र नहीं उतरेगा
बहनों की शादी पर उठाया क़र्ज़ा
खेतों में छिड़के हुए लहू का
हर क़तरा इकट्ठा करके भी
इतना रंग नहीं बनेगा
कि चित्रित कर लेंगे, एक शांत
मुस्कुराते हुए व्यक्ति का चेहरा...
पाश की कविताएं किसानों और मज़दूरों की ज़िदगी में पांव पसारे गुरबत से उपजी व्यथा और पीड़ा की कविताएं हैं जो बार.बार सवाल करती हैं कि हममें से कितनों का नाता है/ ज़िंदगी जैसी किसी चीज़ के साथ. वे भगत सिंह की तरह किसान और व्यापारी की असमानता पर तीखा सवाल करते हुए कहते हैं कि 'ख़ुदा की वो कैसी रहमत है/ जो गोड़ाई करते फटे हाथों और/ मंडी में तख़्तपोश पर फैली हुई मांस की उस पिलपिली ढेरी पर/ एक साथ होती है?'
आख़िर क्यों
बैलों की घंटियों
और पानी खींचते इंजनों के शोर में
घिरे हुए चेहरों पर जम गई है
एक चीख़ती ख़ामोशी?...
क्यों गिड़गिड़ाता है
मेरे गांव का किसान
एक मामूली पुलिस वाले के आगे?
ऐसे में किसान कवि चाह रहा है कि 'उड़ते हुए उन बाज़ों के पीछे चला जाए' जो 'चैन का एक पल बिता सकने की हमारी ख़्वाहिश को चोंच में लेकर उड़ गए हैं'. यह ख़्वाहिशें क्या थीं? भूखे के लिए रोटी, बेघर के लिए घर और भूमिहीन को ज़मीन.
कुछ लोग कहते हैं
अब कहने को कुछ बाक़ी नहीं
तय करने के लिए कुछ भी बचा नहीं
और मैं कहता हूं
सफ़र के इतिहास की बात मत करो
मुझे अगला क़दम रखने के लिए ज़मीन दो.
पाश को आज की तारीख़ में उपजी परिस्थिति के मद्देनज़र नये नज़रिये से पढ़े जाने का वक़्त है. ऐसे वक़्त में, जब पूरे देश में किसानों के क़र्ज़ में डूब कर आत्महत्या कर लेने की बात सामान्य हो, जब देश के हर शहर, कस्बे और राजधानियों में किसानों का बैनर पोस्टर लेकर निकल जाना आम हो चला हो, जब खेतों में उगी ज़िंदगियों को सड़ने के बाद सड़क पर फेंका जा रहा हो, जब अपना मेहनताना मांग रहे किसानों पर गोलियां चलाई जा रही हों, जब किसान सोलह आने खेत में बोकर चार आना भी न बचा पाता हो, जब मज़दूरों की हाशिए की अपनी जगह और सिकुड़ती जा रही हो, जब सरकारें नीतियां बनाकर मज़दूरों के हक़ूक छीन रही हों, तब किसानों और मजदूरों के कवि पाश को फिर से पढ़े जाने का वक़्त है.
हम तो खप गए हैं
धूल से लथपथ शामों के पेट में
हम तो छप गए हैं
उपलों पर उकरी उंगलियों के साथ
'लोकतंत्र' के पैरों में रुलते मेरे देश
हमारा फ़िक्र मत करना
प्रश्न तो ठीक बड़ा है
कि छब्बीस वर्षों के इस अभाव के समय
हम देशभक्त क्यों न बने
लेकिन मिट्टी ने खा ली है
कई करोड़ बाज़ुओं की ताक़त
और फलों ने खा ली है
किसानों के हिस्से की उर्जा...
यह संयोग नहीं है कि जिस साल मध्य प्रदेश में फ़सलों का उचित मूल्य मांग रहे किसानों पर गोली चलाई गई, उसी साल सत्ता के पायदान पर बैठे संगठन ने सिफ़ारिश की कि मिर्ज़ा ग़ालिब और रवींद्रनाथ टैगोर के साथ पाश की कविताओं को कोर्स से हटा देना चाहिए. हालांकि, इस सिफ़ारिश के ख़िलाफ़ उठे विरोध के बाद यह सलाह नहीं मानी गई.
सवाल उठता है कि किसानों, ग़रीबों और मज़दूरों के कवि से सत्ता को डर क्यों लगा? शायद इसलिए क्योंकि उन कविताओं को पढ़ने वाले बच्चे बार बार सड़कों पर उतर रहे किसानों के हक़ में सवाल पूछ सकते हैं और क्रूर सत्ता हमेशा सवालों से डरती है. सिर्फ़ क्रूर सत्ता ही नहीं, सवालों से हर आततायी डरता है. इसीलिए तो पाश को किसी क्रूर सत्ता ने नहीं, उन खालिस्तानियों ने मारा जो कथित तौर पर एक ज़्यादा बेहतर दुनिया बनाने का दावा करते थे.
जिस वक़्त सियासत के बड़े.बड़े आलोचकों की ज़बान आलोचना के दो शब्द बोलने में लरज रही हो, जिस वक़्त चौथा खंभा दरबारियों की भांति कतार में खड़े होकर ताली बजा रहा हो, उस वक़्त पाश का ज़िक्र ज़रूरी लगता है:
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है.
जिन ग़रीबों और किसानों के नाम पर आज सियासी गलियारों में सजे तंबुओं से लंबे लंबे भाषण देकर वोट बटोरे जाते हैं, उन्हीं ग़रीब और किसानों के लिए एक सुंदर देश की चाहत रखने वाले पाश जैसे आंदोलनकारी रचनाकारों को यह कहकर बदनाम भी किया जाता है कि वे देशविरोधी विचारों वाले लोग हैं. हालांकि, पाश जिस समय लिख रहे थे, उस समय जनवाद को बदनाम करने की शर्मनाक मुहिम नहीं चली थी. सत्ता तो तब भी क्रूर थी, लेकिन ज़बानों पर इतने मज़बूत ताले नहीं थे. इसीलिए तमाम अलोकतांत्रिक घटनाओं से क्षुब्ध एक युवा के भीतर का छटपटाता हुआ कवि अपने समय पर अफ़सोस ज़ाहिर करता करता है:
यह शर्मनाक हादसा हमारे ही वक़्तों में होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
बन जाना था सिंहासन के पायदान...
ये गौरव हमारे ही वक़्तों में होना है
कि उन्होंने नफ़रत निथार ली
गुज़रकर गंदले समुंदरों से...
यह गौरव हमारे ही वक़्तों का होना है.
जब हज़ारों की संख्या में भारतीय किसान सड़कों पर उतरकर सत्ताधारी पार्टी और सरकारों से कह रहे हैं कि हमसे किया गया वादा निभाया जाए, हमारी आमदनी बढ़ाई जाए, हमें मौत के मुंह में न झोंका जाए, हमें क़र्ज़, सूखा और तंगी से बचाया जाए, उस समय लगता है कि पाश उन्हीं हज़ारों किसानों के हुजूम में अपनी कविता पढ़ रहे हैं कि .
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है.
आज़ादी के बाद मज़दूरों और किसानों के हक़ में शुरू हुए नक्सल आंदोलन की लहर पंजाब पहुंची तो पाश भी इससे प्रभावित हुए. पाश के समग्र कविता संग्रह 'अक्षर अक्षर' में केसर सिंह 'केसर' अपने लेख में लिखते हैं, 'पंजाब में नक्सली लहर का वर्ग आधार ग़रीब किसान था... पाश की कविता भी पंजाबी किसान, उसकी आर्थिकी, राजनीति, संस्कृति और इन सबके अनुभवों से जुड़ी रही है.'
9 सितंबर, 1950 को जालंधर के तलवंडी में जन्मे पाश ज़्यादा पढ़ लिख नहीं सके थे. लेकिन 20 साल की छोटी सी उम्र में झूठे क़त्ल के केस में गिरफ़्तार हुए और क़रीब दो साल तक जेल में रहे. तब तक कविता की दुनिया में उनका नाम होने लगा था. बहुत ही कम समय में उन्होंने धारदार कविताएं लिखकर साहित्य जगत में तहलका मचा दिया. 23 मार्च, 1988 को उनके गांव में ही उनके मित्र हंसराज समेत ने खालिस्तानियों ने उनकी हत्या कर दी. यह दुखद संयोग है कि भगत सिंह की वैचारिक सेना के बहादुर सिपाहियों की अगली कतार में खड़े पाश की हत्या भी उसी दिन की गई, जिस दिन भगत सिंह का शहादत दिवस होता है.
हमेशा प्रताड़ना के लिए पुलिस के आने का इंतज़ार करने वाले पाश 'स्वप्न.सीमा' के इधर खड़े होकर कह रहे थे कि 'अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है.' वे कह रहे थे कि 'मुझे जीने की बहुत इच्छा थी कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था.' लेकिन पाश को शायद यह मालूम था कि उनकी नियति में लिखने के लिए जान देना है, शायद इसीलिए वे लिख रहे थे कि '...सुना है मेरा क़त्ल भी आने वाले इतिहास के पन्ने पर अंकित है.'
प्रो. चमनलाल द्वारा संपादित उनके कविता संग्रह 'बीच का रास्ता नहीं होता' की भूमिका में नामवर सिंह ने 1989 में लिखा था, 'स्पेन के जनकवि लोर्का की हत्या के बारे में कहा जाता है कि जब उसकी अमर कविता 'एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत' का टेप जनरल फ्रैंको को सुनाया गया तो जनरल ने आदेश दिया था कि यह आवाज़ बंद होनी चाहिए. यह घटना पचास साल पहले की है. कविता पर. फिर वह शोकगीत ही क्यों न हो. फासिस्ट प्रतिक्रिया! पाश के रूप में पंजाब को भी एक लोर्का मिला था जिसकी आवाज़ खालिस्तानी जुनून ने बंद कर दी और वह भी संयोग से उस समय सैंतीस साल का ही जवान था लोर्का की तरह.'
पाश की कविताएं उनके ग्रामीण जीवन से निकली थीं, जिनका कवि दृष्टि ने गहन अवलोकन और विश्लेषण किया था और वह गरीबी और जहालत से बहुत क्षुब्ध था. 1973 में अपने पिता को लिखी एक चिट्ठी में पाश ख़ुद लिखते हैं: 'मैंने आज तक जितनी भी रचना की है, उसके इतनी जल्दी मक़बूल हो जाने का यही कारण है कि इस लेखन के पीछे किसी मूड की तरंग या दंभ का हाथ नहीं, बल्कि समाजी जीवन में महंगे और कठिन तजुरबे करके जो भी समझा है, लिखा है.'
उनकी सर्वाधिक पढ़ी और दोहराई गई कविताओं में से एक है सबसे ख़तरनाक, यह कविता परिवर्तन और न्याय की चाह रखने वालों की सपनीली आंखों का वह पानी है जो पुतलियों में नमी बनाए रखता है.
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना.
पाश के साथी रहे अमरजीत चंदन ने उनके क़त्ल के बाद 'पाश ज़िदाबाद' शीर्षक से लिखे एक लेख में कहा है, 'सरकारी अत्याचार बढ़ रहा था. कवियों को राजनीति गतिविधियों या हमदर्दी के कारण पुलिस यंत्रणा का शिकार बना रही थी. पाश को दिल से पुलिस की प्रतीक्षा रहती थी. मुझसे एक बार पूछने लगा कि ये हमें लेने कब आएंगे? अब शायद यह बात हास्यास्पद लगे, लेकिन आज से वर्षों पहले अठारह वर्ष के उभरते कवि पाश या मुझ जैसे पर हंसना उतना अर्थ नहीं रखता था. तब सोच की राजनीति नहीं, क़त्ल और शहादत की राजनीति चल रही थी... झूठे केस में बरी होने तक पौने दो साल वह जेल में रहा.'
पाश की प्रशंसा में अमरजीत चंदन लिखते हैं, 'पाश ने जेल में बहुत सी कविताएं लिखीं. जेल के भीतर ही पाश ने अपनी पहली पुस्तक 'लौह कथा' अपने गांव के किसी लड़के द्वारा भेजकर गुरुशरण सिंह से छपवाई थी. इसके साथ ही पाश ने पंजाबी कविता में अपना झंडा गाड़ दिया था. जेल से बाहर आकर पाश को अपनी चरम प्रसिद्धि व स्वीकृति देखकर अवश्य ही हैरानी हुई होगी. पाश थोड़े समय में ही पंजाबी कविता का चमकता लाल तारा बन गया था. पाश ने कविता की परंपरा व प्रतिमान के बिंब को एक ही ठोकर से तोड़ दिया था. अंग्रेज़ी मुहावरे की तरह, कांच के बर्तनों की दुकान में हुंकारता हुआ सांड़ आ गया था.'
तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाए...
उनकी कविताएं बेचैन आंखों में तैर रहे विराट स्वप्न जैसी हैं जो एक सुंदर और न्यायपूर्ण दुनिया का सपना देखती हैं. इन कविताओं में एक ऐसी दुनिया का स्वप्न है जिसमें वंचितों, मज़दूरों, ग़रीबों और किसानों के लिए भी भरपूर जगह हो. पाश ऐसी ख़ूबसूरत दुनिया चाहते हैं जिसमें ज़िंदगी कविताओं जैसी ख़ूबसूरत हो, इसलिए वे कुलीन वर्ग को संबोधित करते हुए लिखते हैं:
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..मेरी कल्पना उस लोहार के जगह.जगह से झुलसे मांस जैसी है
जो बेरहम आसमान पर खीझा रहे, एक हवा के झोंके के लिए...
अब मैं तुम्हारे लिए किसी हारमोनियम का पंखा नहीं हो सकता
मैं बर्तन मांजती कहारिन की उंगलियों में से रिसता राग हूं केवल.
लेकिन वे यह भी कहते हैं कि.
जिंदगी अगर कविता जैसी होती
हम ख़ामोश ही रहते
सपने अगर पत्थर के होते
गीटों से दिल बहला लेते
पानी से अगर पेट भरता
तो पीकर सो जाते
चांटनी अगर ओढ़ी जा सकती
सिलकर पहन लेते...
लेकिन यहां कुछ नज़र नहीं आता
अमन के कपोतों जैसा
गीतों के पेड़ नहीं मिलते
जिन पर झूले डाल लें.
शायद बदलाव का आह्वान करती तमाम कविताएं उन्हें निराश भी करती हों, इसलिए वे लिखते हैं कि
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही शक्तिहीन हो गई है
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों से युद्ध करना ज़रूरी हो गया है.
फिल्मी मॉस कल्चर, अंध धार्मिकता, भ्रष्टाचार, इमरजेंसी, आतंकवाद और राजनीतिक अराजकता से घबराकर पाश के भीतर का कवि गुस्सैल होता गया और लिखा:
छीन लो मुझसे भीड़ की टें.टें
जला दो मुझे मेरी नज़्मों की धूनी पर...
मुझे नहीं चाहिए अमीन सयानी के डायलॉग
संभालो आनंद बख्शी, तुम जानो लक्ष्मीकांत...
मेरे मुंह में ठूंस दो यमले जट्ट की तुंबी...
मेरी छाती पर चिपका दो गुलशन नंदा के नॉवेल...
अगर तुम्हारे पास नहीं है कोई बोल तो
मुझे बकने दो मैं क्या बकता हूं.
हालांकि, तवारीख़ ने उन्हें यूं ही बकने के लिए नहीं छोड़ दिया. परिवर्तन और बराबरी की दुनिया का सपना देखने वाले तमाम युवा आंखों को पाश ने शब्द दे दिए थे.
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े...
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है...