शनिवार, 25 जनवरी 2014

साहित्य की सियासत के नामवर

बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक अजित सरकार की हत्या के आरोप में सज़ा काट रहे कुख्यात बाहुबली पप्पू यादव जेल से छूटे तो जेल में लिखी गई अपनी जीवनी द्रोहकाल का पथिक का लोकार्पण कराया. यहां तक ठीक है. क्योंकि कोई भी यह तर्क दे सकता है कि कोई अपराधी भी किताब लिखने का हक़ रखता है और यह तर्क सही भी है कि सिद्ध अपराधी को भी अभिव्यक्ति का उतना ही अधिकार है, जितना की एक सामान्य नागरिक को. लेकिन वामपंथी नेता की हत्या के अपराधी की किताब का विमोचन किया आलोचना के शीर्ष पर विराजमान धुर वामपंथी नामवर सिंह ने. 
उन्होंने स़िर्फ किताब का विमोचन नहीं किया, बल्कि पप्पू यादव की तारीफ़ में कसीदे भी प़ढे. नामवर सिंह ने पप्पू यादव को सरदार पटेल से भी बेहतर नेता बताते हुए कहा कि राजनीति में बहुत कम लोग पढ़ते-लिखते हैं. सरदार पटेल तक आत्मकथा नहीं लिख पाए. आजकल कोई राजनीतिज्ञ आत्मकथा नहीं लिखता. सब लोग जी-हुजूरी करते हैं. किसी भी पार्टी के नेता ख़तरा नहीं उठाना चाहते, पर पप्पू यादव ने अपनी आत्मकथा में साहस का परिचय दिया है. प्रधानमंत्री तक फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं. पप्पू यादव बड़े जिगर वाले आदमी हैं. वे चींटियों के कुचले जाने के डर से अपना अगला क़दम उठाने से नहीं डरते हैं. उनकी हिम्मत की दाद दी जानी चाहिए. 
हिंदी साहित्यिक जगत में यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि विरोधी विचार वाले व्यक्ति के साथ मंच साझा करने पर ख़ासा हल्ला मचता रहा है. ख़ासकर वामपंथी रुझान वाले लेखक समुदाय में यह अवधारणा है कि दक्षिणपंथी अथवा हिंदुत्ववादी ताक़तों के समर्थक विचार वाले बुद्धिजीवियों से दूरी बनाकर रखी जाए. ऐसा कई बार हुआ भी है जब लब्ध प्रतिष्ठ लोगों पर ख़ूब हल्ला मचा है. कथाकार उदय प्रकाश ने योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार लिया था, तो उन्होंने लाख सफाई दी लेकिन उनपर बहुत हल्ला मचा और उनकी फिर-फिर भर्त्सना की गई. 
हाल ही में हंस के सालाना कार्यक्रम में अरुंधति राय, वामपंथी कवि वरवरा राव और पूर्व भाजपा नेता गोविंदाचार्य को आमंत्रित किया गया था. अरुंधति इस कार्यक्रम में आई ही नहीं और वरवरा राव दिल्ली तक आकर लौट गए. वरवरा राव के इस फैसले के साथ सभी वामपंथी मज़बूती से ख़डे हुए. लेकिन जब नामवर सिंह ने एक वामपंथी नेता की हत्या के आरोपी की किताब का विमोचन किया तो उनकी वैसी भर्त्सना नहीं हुई. पप्पू यादव की इस किताब के लोकार्पण में नामवर सिंह के अलावा कई नामचीन हस्तियां थीं, जिन्होंने पप्पू यादव की जमकर तारीफ़ की और उन्हें साहसी, विद्रोही, आने वाली पी़ढी के लिए नज़ीर, क्रांतिकारी आदि-इत्यादि के विशेषणों से नवाजा. इनमें मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, गायक अनूप जलोटा, फिल्मकार मुज़फ़्फ़र अली और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह थे, जिन्होंने पप्पू यादव को न स़िर्फ क्लीन चिट दी, बल्कि उन्हें साज़िश का शिकार, संघर्षशील, और साहसी कहा. 
सवाल है कि ऐसी क्या मजबूरी थी कि पप्पू यादव को महिमामंडित करने में
नामवर सिंह जी इन नेताओं के साथ ख़डे हुए? और उक्त कार्यक्रम में पप्पू यादव ने अपने बारे में जो कुछ कहा, वह ख़ास तौर से ग़ौरतलब है. उन्होंने कहा कि जो भी व्यक्ति मेरी तरह व्यवस्था से लड़ा, उसका यही हाल हुआ. मेरी ही तरह गुरुनानक देव, गौतम बुद्ध, मोहम्मद साहब तक को अपना घर छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया. मैंने शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो मुझे पूंजीपति व शासकवर्ग ने विद्रोही, उग्रवादी, बाहुबली, आतंकवादी घोषित कर दिया. मैं मानवता व इंसानियत का पुजारी हूं. मैं बचपन से ही क्रांतिकारी बनना चाहता था. भगत सिंह व सुभाष बनना चाहता था पर लगता है कि ज़िंदगी ने मुझे नेलसन मंडेला बनाने की ठानी है.
लोकार्पण की ख़बर के बाद कथाकार उदय प्रकाश ने टिप्पणी की कि ‘वक्त बदल गया है. खेत से हल और काग़ज़ से कलम की बेदख़ली और बंदूक के शासन का दौर है यह. जब एंटोनिन अर्ताउ ने कहा था कि अब बर्बरता के रंगमंच ने पुराने, शब्द और लेखक के ज़माने वाले शिथिल थिएटर को विस्थापित कर दिया है. शब्द और शब्दकार दोनों अब मर चुके हैं तो वह इसी बदलाव की ओर इशारा कर रहे थे. 1998 में अजित सरकार की हत्या या चंद्रशेखर की हत्या इस ‘थियेटर आफ़ क्रुएलिटी ’ के जन्म और आधिपत्य का संकेत था. जहां तक नामवर सिंह जी की बात है तो उनका एक ‘कोडेड फ़ार्मूला’ मैं आपको बताता हूं, जिसे जानते सब हैं लेकिन कोई कहता नहीं. रामबाण फ़ार्मूला यह है कि जब लेखक और प्रकाशक के बीच विवाद हो, तो प्रकाशक के साथ रहो. जब प्रशासन और स्टुडेंट के बीच विवाद हो, तो प्रशासन का साथ दो. जब अफ़सर और मातहत की बात हो, तो हमेशा अफ़सर के पक्ष में रहो. जब जातिवाद और उसके विरोध के बीच झगड़े हों, तो सवर्णवाद का साथ दो. जब उत्कृष्टता और मीडियॉकरी के बीच चुनना हो, तो दूसरे को ही चुनो. जब बंदूक और कलम के बीच बहस चले, तो बंदूक के साथ रहो. सामंतवाद और लोमड़ चतुराई यही सीख देते हैं. ’ 
नामवर जी ऐसे बुद्धिजीवी हैं, विवाद जिनका शगल है. राजनीति से उन्हें परहेज नहीं है, न ही सियासी लाभ लेने से उन्हें कोई संकोच है. किसी के विरोध करने न करने से उन्हें कोई फ़़र्क नहीं प़डता, क्योंकि साहित्य जगत में उनका जो कद है, वह छोटे-मोटे विरोध से डिगने वाला नहीं है. उन्हें तानाशाह आलोचक और साहित्य डॉन जैसे विशेषणों से नवाजा जा चुका है. उनके बारे में यह भी मशहूर है कि वे अपने ही विचारों के विरोध में बातें कहते हैं और ख़ूब तालियां बटोरते हैं. हर छोटा-बडा साहित्यकार उनकी एक नजर पाकर धन्य हो जाना चाहता है. शायद यही वजह है कि उनकी ऐसी गतिविधियों पर चुप्पी ही छाई रहती है. 
नामवर जी सियासी गलियारों में चहलकदमी के आदी रहे हैं और गाहे-ब-गाहे विवादों में आते रहे हैं. जिस संघ और भाजपा को वामपंथी बुद्धिजीवी पानी पी-पीकर गालियां देते हैं, नामवर जी को उनसे परहेज नहीं है और ऐसा करके भी वे अपना वामपंथ और आलोचना की शीर्ष सत्ता बचाए रखते हैं. उन्होंने भाजपा नेता जसवंत सिंह की किताब का लोकार्पण किया. उन्होंने भाजपा और संघ के चिंतक और सांसद तरुण विजय की पुस्तक का लोकार्पण किया. वे लालू यादव के फेर में प़डकर भी अपनी फ़ज़ीहत करवा चुके हैं. एक साल पहले बिहार के ही एक और बाहुबली आनंद मोहन को जेल में काव्य प्रतिभा प्राप्त हुई. उनकी किताब राजकमल प्रकाशन से छपी और आमंत्रण कार्ड बांटा गया कि नामवर सिंह किताब का विमोचन करेंगे. हालांकि, किसी कारणवश नामवर सिंह विमोचन कार्यक्रम में नहीं गए. 
आख़िर, जो बुद्धिजीवी इस बात ऐतराज़ करते हैं कि विरोधी विचार वाले के साथ मंच साझा नहीं किया जाना चाहिए, वे नामवर की ऐसी तमाम शिरकतों पर मौन क्यों रहते हैं? यदि नामवर सिंह का किसी भी तरह के आयोजन या किसी भी व्यक्ति के साथ मंच साझा करना माफ़ है, तो बाक़ी लेखकों-बुद्धिजीवियों पर फ़तवा क्यों जारी होता है? यह जानना दिलचस्प है कि नामवर न सिर्फ़ वामपंथी हैं, बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बनारस से चुनाव लड़ चुके हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार जनयुग के संपादक भी रह चुके हैं. क्या वामपंथी बुद्धिजीवी उनके बहिष्कार या उनकी तीखी निंदा का साहस जुटा पाएंगे? यदि नहीं, तो क्या इतनी छूट हर बुद्धिजीवी को मिलेगी कि वह जहां, जिस मंच पर चाहे जा सके और विरोधी विचार वाले के साथ अपनी राय रख सके?

न्याय के नायक ही अपराधी हुए

अपनी भंडाफोड पत्रकारिता के लिए मशहूर तहलका पत्रिका के मुख्य संपादक तरुण तेजपाल पर जूनियर सहकर्मी ने यौन उत्पी़डन का आरोप लगाया तो समाज का हर वर्ग स्तब्ध रह गया. ऐसे सवाल उठे कि जो लोग राजनीतिक और सामाजिक शुचिता के लिए झंडे उठाए फिरते हैं, अगर महिलाओं के प्रति वे ही अपराध करने पर उतर आएं, तो महिलाएं क्या करें? ऐसे लोगों के प्रति कैसा सलूक किया जाए? हमने इस प्रकरण पर समाज के विभिन्न वर्ग की महिलाओं के बातचीत करके उनकी राय जानने की कोशिश की- - 

तमाम महिलावादी संगठन यह आरोप लगाते हैं कि समय और समाज बदलने के साथ महिलाओं के शोषण के तरीके भी बदल गए हैं. महिलाओं के लिए पुरुषों के बराबर ख़डे होने के अवसर तो ख़ूब दिखते हैं, लेकिन ये अवसर आभासी हैं. नई बाज़ारवादी संस्कृति में शोषण के तमाम न दिखने वाले स्तर और अदृश्य औज़ार मौजूद हैं, जिनके बहाने जो शक्तिशाली है, वो कमज़ोर का शोषण करता है. अवसर, तरक्की और विकास के माध्यम ही शोषण का साधन बनते हैं, जिसका शिकार ज्यादातर महिलाएं होती हैं. जाने-माने पत्रकार तरुण तेजपाल पर जब उनकी महिला सहकर्मी ने यौन हमले का आरोप लगाया, तो जिसने सुना वह सन्न रह गया. हमने हर वर्ग की महिलाओं से जब इस प्रकरण पर प्रतिक्रिया लेनी चाही, तो स्त्रियों की सोच इस रूप में सामने आई कि पुरुष समाज हमेशा स्त्री समाज से अलग ख़डा है और स्त्री अपने को न स़िर्फ असुरक्षित पाती है, बल्कि पुरुष के रवैये से बेतरह निराश भी है. इस मामले में तरुण तेजपाल समेत तमाम लोग ऐसे भी हैं जो ल़डकी पर ही सवाल उठा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर महिलाएं ऐसी घटनाओं के लिए स़िर्फ पुरुषों को ज़िम्मेदार मानती हैं. दिल्ली विश्वहविद्यालय (डीयू) में अंग्रेजी परास्नातक की छात्रा सृष्टि कहती हैं कि मैं तहलका प़ढती रही हूं. वे लोग इन चीज़ों का जमकर विरोध करते थे. बलात्कार पर भी मैंने तरुण तेजपाल का एक लेख प़ढा था जो बहुत अच्छा लगा था. लेकिन जब उनके बारे में ऐसा सुना, तो मुझे विश्वा स नहीं हुआ. यह बेहद स्तब्धकारी है कि आप ग़लत बातों का विरोध करते-करते ख़ुद ही ग़लत कर बैठे. जो भी ऐसा करे, उसे क़डी सज़ा मिलनी चाहिए. बीएचयू में हिंदी विभाग में शोध छात्रा और लेखिका क्षमा सिंह इस घटना के संदर्भ में कहती हैं कि नैतिकता का झंडा बुलंद करने वाले जब इस तरह का कोई काम करते हैं, तो ये समाज के लिए झटका होता है. तेजपाल के केस में भी यही हुआ. तेजपाल ने पहले तो गुपचुप तरी़के से लड़की से माफ़ी मांगी. तहलका से ख़ुद ही इस्तीफ़ा दिया. अब वे ख़ुद को ‘पॉलिटिकल विक्टिम’ बता रहे हैं. वे अपनी ग़लती को राजनीतिक रंग दे रहे हैं. लिखित माफ़ीनामे का अर्थ वे समझते होंगे. उसके बाद वे लड़की पर सवाल उठा रहे हैं. तीन दिन में अलग-अलग बयान उन्हें ही संदिग्ध बनाता है. ऐसी किसी घटना में आरोपी कितनी भी ऊंची पहुंच वाला हो, स़ख्त सज़ा मिलनी चाहिए. ताकि फिर कोई ऐसा करने की हिम्मत न कर सके. इस केस में लगता नहीं कि लड़की ने किसी लाभ के लिए ऐसा किया है. फिर भी ऐसी घटनाओं में अगर आरोप ग़लत साबित हों, तो आरोप लगाने वाले को भी स़ख्त सज़ा होनी चाहिए, जिससे क़ानून का दुरुपयोग न हो. जेएनयू में हिंदी की शोध छात्रा सुरभि त्रिपाठी कहती हैं कि जब महिलाएं घर के भीतर थीं, तब पुरुष उनपर घर में
घुसकर, अपहरण करके या राह चलते आक्रमण करता था. अब वे उनके साथ, घर से बाहर स़डक से दफ्तर तक काम कर रही हैं. वह कभी उन्हें लालच देता है, कभी उनपर अनुचित दबाव डालता है और समझौते करने के लिए तरह-तरह से मजबूर करने की कोशिश करता है. तेजपाल के मामले में ल़डकी की कोई ग़लती नहीं दिखती. यह एक प्रबुद्ध आदमी की फिसलन है कि वह अपराध में लिप्त हो गया. क़डी सज़ा ही एकमात्र रास्ता है. इस प्रकरण पर छात्रा अनिंध्या तोग़डे कहती हैं कि  गलती किसकी थी, यह बाद की बात है. अहम यह है कि उन्होंने अपराध किया, इसलिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए. जब तक छोटे-ब़डे हर किसी को सज़ा नहीं मिलेगी, यह सब नहीं रुकने वाला. सज़ा मिलने से लोगों में संदेश जाएगा कि अपराधी कोई भी हो, बच नहीं सकता. महिलाओं के लिए काम करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन की कार्यकर्ता संध्या द्बिवेदी की राय है कि ल़डकी को क़ानूनी कार्रवाई करनी चाहिए, जो कि शुरू भी हो चुकी है, लेकिन पी़िडता की मुश्किल यह है कि वह इतने ब़डे संस्थान से ल़ड रही है, जहां हर कोई उसपर ही उंगली उठाएगा, क्योंकि लोगों के अपने-अपने हित हैं. पहले ल़डकी पर दबाव बनाया गया. अब उसी पर आरोप भी लगा रहे हैं. मामले की महिला सेल से निष्पक्ष जांच करानी चाहिए और ल़डकी को सपरिवार सुरक्षा देनी चाहिए. संध्या का कहना है कि कई बार ल़डकियों पर यह भी आरोप लगते हैं कि वे आगे ब़ढने के लिए संबंधों का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन यह सोचने की बात है कि ऐसा माहौल क्यों बनाया जाए कि एक ल़डकी को ग़लत तरीक़ों के बारे में सोचना प़डे? यह भी पुरुष की बनाई महिला विरोधी व्यवस्था का नतीजा है. हालांकि, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई ल़डकी अपने करियर के लिए इस तरह के समझौते करे. इससे उसे कुछ हासिल नहीं होता. दिल्ली विश्वौविद्यालय में एलएलबी की छात्रा स्वप्निल कहती हैं कि महिलाओं के प्रति पुरुषों की या कहें पूरे समाज की सोच अब तक बदली नहीं है. हम बदल नहीं रहे हैं. हम स़िर्फ शोर मचाते हैं लेकिन जब बदलाव की बारी आती है, तब हम ख़ुद अपराधी बन जाते हैं. स्वप्निल इसे क़डे कानूनों का अभाव और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की कमी मानती हैं. उसी विभाग की मीनाक्षी ऐसी घटनाओं को सामाजिक ढांचे से जो़डकर देखती हैं. मीनाक्षी का कहना है कि स्त्रियों की प्रता़डना समाज में पारंपरिक रूप में मौजूद है. ऐसे अपराधों को पारिवारिक स्तर पर ही ब़ढावा मिलता है. क्या कोई मां-बाप कभी अपने ल़डके को शिक्षा देता है कि घर से बाहर जाना तो किसी ल़डकी को परेशान मत करना? ऐसे अपराधों के लिए बहुत क़डे क़ानूनों की ज़रूरत है. उनकी बात पर ज़ोर देते हुए स्नातक की छात्रा अंजलि कहती हैं कि इससे फ़़र्क नहीं प़डता कि कोई व्यक्ति किस हैसियत का है. यह महिलाओं के प्रति अपराधिक सोच का परिणाम है. क़ानूनों को और क़डा किया जाना चाहिए और अपराधियों को स़ख्त सज़ा मिलनी चाहिए. डीयू में अंग्रेज़ी की छात्रा अंजलि गुप्ता कहती हैं कि तरुण तेजपाल बार-बार अपने बयान बदल रहे हैं, जबकि दफ़्तर में किसी ल़डकी के साथ ऐसी हरकत अपराध है. उन्हें क़डी सज़ा मिलनी चाहिए. ब़डे लोगों को सज़ा मिलती है तो इससे अपराध करने से पहले दस बार सोचेंगे. डीयू में हिंदी से एमए कर रही नेहा बेहद निराशा जताते हुए कहती हैं कि ऐसे मामलों में 70 प्रतिशत जानने वाले या रिश्तेदार होते हैं. पारिवारिक रिश्ते ही ज्यादातर अपराध को अंजाम देते हैं. यदि हम तरुण तेजपाल का बचाव करेंगे तो यह हर अपराधी का बचाव करना होगा. अंग्रेज़ी एमए की छात्रा सूजैन कहती हैं कि मेरी एकमात्र राय है कि तरुण तेजपाल को क़डी सज़ा मिलनी चाहिए. बीए तृतीय वर्ष की छात्रा निधि क़डी निंदा करते हुए कहती हैं कि इस प्रकरण से साफ है कि न्याय के लिए ल़डने वाले भी महिलाओं के प्रति अन्याय ही करते हैं. यह कितना शर्मनाक है. उनकी क्लासमेट कीर्ति ने कहा, यह कितना भयावह है. यह बेहद तंग करने वाली बात है कि एक ल़डकी अपने जानने वाले के पास भी सुरक्षित नहीं है. मैं ऐसे मामलों में और क़डे क़ानून और बेहद स़ख्त सज़ा की मांग करती हूं. युवा लेखिका इंदुमति सरकार कहती हैं कि पहले ऐसी हरकतें करना फिर दुनिया भर की दलीलें देना हैरान करने वाला है. आप जिन मसलों पर दूसरों को ग़लत कहते हैं, वही काम ख़ुद करके उसे सही ठहराने के कोशिश करते हैं. ऐसे में ये चीज़ें कैसे रुकेंगी? आपको स़िर्फ नारे नहीं लगाना है. आपको अपने आदर्श व्यवहार में भी उतारना होगा. महिलाओं पर हमले की प्रवृत्ति पुरुषवादी सोच से जु़डी है, जिसे बदलने की ज़रूरत है. एक तो लोगों को ऐसी शिक्षा दी जाए कि वे महिलाओं के प्रति सहानुभूति रख सकें, दूसरे ऐसा करने वालों को स़ख्त से स़ख्त सजा मिलनी चाहिए, ताकि एक नज़ीर कायम हो. जेएनयू में जर्मन सेंटर की छात्रा शिप्रा कहती हैं कि एक इंटरनल समिति बने, जैसा कि जेएनयू में भी होता है, वह सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में मामले की छानबीन करे. ताकि सारी सच्चाई सामने आ सके. कोई स्वतंत्र बॉडी ही मामले की सही जांच कर पाएगी. अगर तरुण तेजपाल ने ग़लत किया है तो उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए. जेएनयू के ही लैंग्विस्टिक इंपावर सेंटर में सहायक अध्यापक अपर्णा कहती हैं कि तरुण तेजपाल या अन्य किसी ऐसे मसले में बहस का तो कोई मुद्दा ही नहीं है. इसमें दूसरा पक्ष नहीं हो सकता. वे ल़डकी के लिए पारिवारिक सदस्य की तरह हैं, और उन्होंने जो किया, वह जघन्य अपराध है. उन्हें कठोर सज़ा मिलनी चाहिए. समाज विज्ञान केंद्र की छात्रा आस्था की भी राय कुछ ऐसी है कि ग़लत चीज़ों का कोई बचाव नहीं हो सकता. किसी जूनियर को लैंगिक प्रता़डना देना अपराध है और अपराध की सज़ा मिलनी चाहिए. जेएनयू भाषा सेंटर की छात्रा नमिता कहती हैं कि देश में हर मिनट कहीं न कहीं बलात्कार हो रहा है और कहीं कुछ नहीं होता. 16 सितंबर जैसा कांड होने के बाद भी दिल्ली में यह सब लगातार जारी है. ज़रूरत है कि सरकार बदले जो क़डा स्टैंड ले. लोगों की सोच बदले जो ऐसी घटनाओं के विरोध में हो तभी बात बनेगी. मैत्रेयी कॉलेज की अध्यापिका डॉ. ममता धवन की स्पष्ट राय है कि जब शिक्षित, बौद्धिक और समाज की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति महिला की स्थिति को कमतर आंकता है, अपनी ही संस्था में कार्यरत स्त्री की दैहिक और मानसिक अवमानना करता है तो यह उस स्त्री वर्ग के भविष्य पर करारा तमाचा है जो यह सोचता है कि महिलाओं की समानता और संभावनाओं का रास्ता तभी खुलेगा, जब पुरुष शिक्षित होगा और उसकी समाज शास्त्रीय समझ उसे महिलाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाएगी. हंसराज कॉलेज में सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनीता ने कहा, महिला समाज के संदर्भ में बहुत सी चीज़ें इतनी जटिल हो चुकी हैं कि आमतौर पर लोग मुंह नहीं खोलना चाहते हैं. बहुतेरे मामलों में कभी-कभी सही व्यक्ति भी फंस जाता है और कभी-कभी दोषी इंसान भी बच जाता है. मेरे ़ख्याल से इस मामले में तह तक जाए बिन कोई भी बात कहना जल्दबाज़ी होगी. बहुत बार ऐसा होता है कि अपना हित साधने हेतु हम सब बहुतेरे हथकंडे अपनाते हैं, जब मामला गंभीर होने लगता है, तब पहलू बदल लेते हैं. हालांकि, तहलका के तरुण तेजपाल के मामले में दस्तावेज़ी सबूत हैं. बावजूद इसके निष्पक्ष जांच की ज़रूरत जान पड़ती है. जामिला मिलिया इस्लामिया में शोध छात्रा तबस्सुम जहां का कहना है कि पुरुषप्रधान समाज का सबसे बड़ा दोष है कि वह अपने ऐसी हरकतें करके महिलाओं को आगे ब़ढने से रोकना चाहता है. तरुण तेजपाल मामले से ये ज़ाहिर होता है कि वह दोषी हैं और अब वह भी मामले पर लीपापोती करना चाहते हैं. दफ़्तर में यौन प्रताड़ना जैसी स्थिति का सामना अधिकतर महिलाओं को करना पड़ता है, पर बहुत कम मामले सामने आ पाते हैं. जो आते भी हैं उन्हें रफा-दफा करने की कोशिश की जाती है, या उल्टे लड़की पर ही दोषारोपण कर दिया जाता है कि उसने कामयाबी पाने के लिए ऐसा किया है. छात्रा सैयद सना का कहना है कि तहलका जैसी सम्मानित पत्रिका के संपादक तरुण तेजपाल से तो बिल्कुल ऐसे कृत्य की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्हें स़ख्त सज़ा मिलनी चाहिए. लेकिन ये वक़्त किसी के क़िरदार पर बहस करने से ज़्यादा उस सोच पर बहस करने का है जो कहीं न कहीं आपकी प्रगतिशीलता पर सवाल खड़े कर रहा है. महिलाओं को अपनी आवाज़ बुलंद करने की ज़रूरत है, तुरंत प्रतिक्रिया आपको ऐसे अपराधों से बचा सकती है. युवा पत्रकार रिम्मी शर्मा कहती हैं कि ऐसी घटनाओं के लिए महिलाएं और पुुरुष दोनों ज़िम्मेदार हैं लेकिन अनुपात 80 और 20 का है. 80 फ़ीसद मामलों में पुरुष अपनी पॉवर और पोज़ीशन का इस्तेमाल करता है और शोषण करता है. 20 प्रतिशत मामलों में ल़डकियां इसे करियर ग्रोथ और आगे ब़ढने के नाम पर जान-बूझकर ऐसे हथकंडे इस्तेमाल करती हैं. अंतत: सब पैसे के साथ ख़डे होते हैं. तरुण तेजपाल ने पहले भी ऐसा किया होगा, लेकिन इस बार ल़डकी ने विरोध का साहस दिखाया. कवियित्री और लेखिका विपिन चौधरी का कहना है कि ज़ाहिर है यदि कोई लड़की इस तरह संबंध कायम करने की इच्छुक होगी तो कभी शिकायत नहीं करेगी. जब भी कोई पढ़ी-लिखी लड़की नौकरी के लिए अपने घर से बाहर निकलती है तो अपने आत्मविश्वा स के बूते, कोई लड़की कभी इस तरह के संबंधों के लिए तैयार नहीं होती. यदि एक दो प्रतिशत ल़डकियां अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए संबंध कायम करती हैं तो भी उन्हें देर-सवेर उसे अपने किए पर ग़ौर करना ही पड़ता है और इन सबसे बाहर निकलने के लिए वह परेशान हो उठती है. हर रोज़ यौन उत्पीड़न की शिकायतें इसलिए सामने आ रही हैं, क्योंकि लडकियां अपने आप को शिकार नहीं बनने देना चाहतीं. हाल ही में तरुण तेजपाल वाले प्रकरण में मैंने स्वयं कई पुरुषों से सुना की लड़की गई ही क्यों थी उसके साथ. अब इस मूर्खतापूर्ण बात का क्या जवाब दिया जाए. दूसरी तरफ स्त्री को ही दोषी मानने वाले पुरुषों की संख्या हमारे समाज में बहुतायत में है. हमारे यहां पुरुषों का एक बड़ा वर्ग घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर काम करने वाली स्त्रियों के प्रति दुराग्रह से ग्रस्त हैं. इस दिशा में स्त्री के प्रति एक गंभीर सामाजिक नज़रिये के साथ एक बड़े सामाजिक बदलाव की ज़रूरत है. 
(यह रिपोर्ट तेजपाल प्रकरण के तुरंत बाद की है जो कि चौथी दुनिया साप्ताहिक में छप चुकी है. )

बुधवार, 22 जनवरी 2014

कॉरपोरेट के कंधे पर सवार मोदी लहर

नवंबर में अंग्रेज़ी पत्रिका ओपेन ने टीवी चैनलों पर चलने वाली कुछ ख़बरों का विश्‍लेषण करते हुए लेख छापा कि कैसे नेटवर्क-18 के सभी चैनलों में काम करने वाले पत्रकारों को निर्देश दिए गए हैं कि वे नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ नर्म रुख़ अपनाएं. नेटवर्क-18 पर उद्योगपति मुकेश अंबानी का क़ब्ज़ा है. कई पत्रकारों ने कहा कि उन्हें स्पष्ट निर्देश है कि मोदी के ख़िलाफ़ कुछ न छापें. उनका कहना है कि नेटवर्क-18 मीडिया समूह की पूरी रीति-नीति ऊपर से तय होती है. इस समूह के सभी चैनलों में काम करने वाले सभी पत्रकारों को पता है कि मोदी विरोधी ख़बरों को प्रसारित करने के बजाय ठिकाने लगाना है. इस समूह में काम कर रहे ब़डे-ब़डे पत्रकार मोदी पर स़िर्फ मीठा बोलते हैं. अन्य चैनल जैसे-आजतक, टाइम्स नाउ आदि भी किस तरह से मोदी के समर्थन में ही ख़बरें चलाते हैं, पत्रिका इसकी भी प़डताल करती है. जिन चैनलों पर कॉरपोरेट घरानों का क़ब्ज़ा है, उन्हें भी स्पष्ट निर्देश है कि मोदी के प्रति नरमी बरतें और अधिक से अधिक कवरेज दें, उनकी रैली को बिना काटे हुए सीधे प्रसारित करें. मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ कहा जाता है, वह किसी एक व्यक्ति या पार्टी के लिए काम करने लगे, तो इसके क्या निहितार्थ हैं? 

पिछले कुछ महीनों में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नरेंद्र मोदी को अभूतपूर्व जगहें मिली हैं. बहुत सारे दर्शक और पाठकों के मन में यह सवाल उठता होगा कि भारतीय राजनीति में इतने राजनीतिक दलों की मौजूदगी और सक्रिय हस्तक्षेप होने के बावजूद मोदी को ही क्यों इस तरह से दिखाया जा रहा है. आख़िर नरेंद्र मोदी ने ऐसा कौन-सा कारनामा किया है कि मीडिया, ख़ासकर टीवी चैनलों पर मोदी ही मोदी नज़र आते हैं? क्या नरेंद्र मोदी के प्रशासन में गुजरात ने समृद्ध और गरिमापूर्ण जीवन के लिए वह सबकुछ प्राप्त कर लिया है, जो एक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य होना चाहिए? क्या गुजरात देश के बाक़ी सारे राज्यों से आगे निकल चुका है? क्या स़डक, बिजली और कुछ कॉरपोरेट कंपनियों की चमक-दमक ही विकास है? इन सब सवालों के जवाब नकारात्मक ही होंगे. तो फिर नरेंद्र मोदी का ऐसा गुणगान क्यों किया जा रहा है? इन सवालों का जवाब बहुत दबे छुपे स्वरूप में मीडिया में उठने लगा है. 
ओपेन पत्रिका के नवंबर अंक में संदीप भूषण ने एक लेख लिखकर इसका जवाब दिया है. सोशल मीडिया पर भी बहुत सारे लोग इस पर चर्चा कर रहे हैं. मोदी पर कॉरपोरेट मीडिया क्यों मेहरबान है, इसके लिए आपको मीडिया की आर्थिकी की प़डताल करनी चाहिए. ज्यादातर जो ब़डे-ब़डे मीडिया समूह हैं, उनमें उद्योगपतियों का पैसा लगा है. देश के 27 टीवी समाचार और मनोरंजन चैनलों पर अंबानी समूह का नियंत्रण है. इनमें नेटवर्क-18 समूह के सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन लाइव, सीएनबीसी, आइएन-7, आइबीएन लोकमत और और लगभग हर भाषा में प्रसारित होने वाला ईटीवी समूह शामिल है. इसी तरह एक उदाहरण प्रिंट मीडिया का देखते हैं. डीबी कॉर्प समूह का हिंदी अख़बार दैनिक भास्कर है जो 13 राज्यों से चार भाषाओं में प्रकाशित होता है. इसकी पाठक संख्या 75 लाख है. यह समूह 69 अन्य कंपनियां चलाता है, जो खनन, उर्जा, रीयल एस्टेट और कप़डा उद्योग आदि से जुडी हैं. ये दोनों मात्र दो उदाहरण हैं. यही हालत बाक़ी मीडिया घरानों की भी है. ज्यादातर मीडिया घरानों के हित व्यावसायिक हैं. 
जिस मीडिया घराने पर जिन कंपनियों का नियंत्रण है, वे उनके व्यावसायिक हित के लिए काम करते हैं. अब इन मीडिया घरानों का सीधा फ़ायदा नरेंद्र मोदी का समर्थन करने में है, क्योंकि समूचे कॉरपोरेट जगत का मोदी से व्यावसायिक गठबंधन है और वे मोदी का ज़बरदस्त समर्थन कर रहे हैं. ओपेन पत्रिका ने नेटवर्क-18 समूह में काम कर रहे कई पत्रकारों के हवाले से लिखा है कि उन्हें स्पष्ट निर्देश है कि मोदी से जु़डी नकारात्मक ख़बरें न दिखाई जाएं और उनकी रैलियों का बिना व्यवधान लाइव प्रसारण किया जाए. यह हाल अन्य मीडिया समूहों का भी है. यही कारण है कि मीडिया में मोदी ही मोदी छाए हुए हैं और बाक़ी राजनीतिक दलों की अपेक्षा मोदी को ब़ढत दिलाई जा रही है. 
हाल ही में कांग्रेस पार्टी की ओर से आरोप लगाया गया कि मीडिया मोदी के पक्ष में ख़डा है और राहुल गांधी और कांग्रेस से जु़डी ख़बरें नहीं दिखाता है. कांग्रेस का यह आरोप यूं ही नहीं है. पिछले साल द न्यू यॉर्कर के एक पत्रकार को बेनेट एंड कोलमैन कंपनी के मालिक विनीत जैन ने कहा था कि हमारा अख़बार का व्यवसाय नहीं है. हमारा विज्ञापन का व्यवसाय है. ज़ाहिर है कि कॉरपोरेट समूह अपने हर उद्यमों में फ़ायदा देखते हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स अख़बार और टाइम्स नाउ चैनल इसी समूह का है. यह समूह वही बेचता है, जो बिकता है. अभी तक इनकी टीआरपी का साधन अन्ना हजारे थे. अब नरेंद्र मोदी हैं. 
कुछ महीने पहले नेटवर्क-18 समूह से बिना कारण बताए 325 पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया. इसकी वजह यही है कि मीडिया में कॉरपोरेट विरोधी आवाज़ों को दबाया जाए. जो लोग मीडिया की एजेंडा सेटिंग में समूह के वफ़ादार साबित नहीं हो सकते, उनसे मुक्ति पा ली जाए. मीडिया अब विचार अभिव्यक्ति का माध्यम न होकर शायद कॉरपोरेट हितों का पोषक है. इन समूहों को स्वतंत्र विचारों के पत्रकार नहीं, अपने व्यवसाय और पक्षधरता को मूर्तरूप देने के लिए व्यावसायिक सहयोगी चाहिए. मीडिया के एक ध़डे में यह चर्चा है कि उनके यहां काम करने वाले जो भी वाम विचार के लोग हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाए. इससे मीडिया और मोदी का गठबंधन सुचारु ढंग से चल सकेगा. 
इधर कुछ महीनों में में दुनिया के कई ब़डे मीडिया समूहों की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ख़ूब तारीफ़ की गई. वॉल स्ट्रीट जर्नल ने-‘धीमे होते भारत का उभरता सितारा’ शीर्षक से लेख छापा. विश्‍वप्रसिद्ध टाइम मैगज़ीन ने भी नरेंद्र मोदी पर कवर स्टोरी छापी-‘मोदी मतलब व्यापार’. मोदी के समर्थक इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी और गुजरात की स्वीकार्यता कहते हैं. मोदी के आलोचक कहते हैं कि ये नरेंद्र मोदी की मीडिया मशीनरी का कमाल है कि दुनिया की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं गुजरात की कथित आर्थिक प्रगति और मोदी का गुणगान कर रही हैं. इस का कारण वे कंपनियां हैं जो मोदी के लिए काम करती हैं. 
नरेंद्र मोदी के लिए क़रीब दो दर्जन कंपनियां काम कर रही हैं, जो राष्ट्रीय और अंतरराष्टीय स्तर पर मोदी और गुजरात मॉडल का प्रचार-प्रसार देखने का काम करती हैं. वरिष्ठ पत्रकार कंचन गुप्ता के निर्देशन में नीति सेंटर नाम से एक वेब पोर्टल तैयार किया गया है. इस पर मोदी और भाजपा से जु़डी खबरें, तस्वीरें, वीडियो, रेडियो कार्यक्रम और मोदी की सभी रैलियों की विस्तृत कवरेज होती हैं. कंचन गुप्ता के अलावा तवलीन सिंह, स्पप्नदास  गुप्ता, संध्या जैन, जय भट्टाचार्जी समेत दर्जनों पत्रकार और भाजपा के कई ब़डे नेता इस पोर्टल के लिए प्रमोशनल लेख लिखते हैं. इस पोर्टल पर कांग्रेस व अन्य दलों से जु़डी वही ख़बर दिखती है, जिससे उन्हें नुकसान होता हो या एक पार्टी के रूप में उसकी छवि धूमिल होती हो. पोर्टल की घोषणा है कि उसका उद्देश्य ‘परिवर्तन’ के लिए ‘सोच परिवर्तित’ करना है. इसी तरह इंडिया 272+ नाम से एक और वेबसाइट है, जो नरेंद्र मोदी के ऑनलाइन प्रचार का काम कर रही है. इस वेबसाइट का उद्देश्य है, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के मिशन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करना और दिल्ली में सरकार बनाने के लिए 272 सीट का आंक़डा जुटाना. यह वेबसाइट भारी संख्या में अभियान चलाकर स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को जो़ड रही है जो मोदी के लिए ऑनलाइन और ग्राउंड पर प्रचार करेंगे. इस पर मोदी के भाषण, उनके पार्टी नेताओं से ज़ुडी ख़बरें और मोदी का गुणगान करने वाली रिपोर्ट लगाई जाती हैं. इस तरह से और भी कई मीडिया समूह हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर मोदी के प्रचार अभियान में लगे हैं. 
ऐसे सभी पोर्टल और वेबसाइट का उद्देश्य है भाजपा कार्यकर्ताओं को मोदी के प्रचार के लिए सामग्री उपलब्ध कराना, ताकि वे सोशल मीडिया समेत अन्य जगहों पर उनका प्रचार-प्रसार कर सकें. इनके माध्यम से मोदी और गुजरात सरकार के बारे में उजले और कई बार भ्रामक आंक़डे पेश कर सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों का ब्रेनवॉश किया जाता है. इस पूरे अभियान के पीछे गोएबल्स का वह फार्मूला काम कर रहा है कि एक झूठ को सौ बार दोहराया जाए तो वह सच में तब्दील हो जाता है.
नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार-प्रसार के लिए दिल्ली की एक जनसंपर्क कंपनी म्युचुअल पीआर को लगाया है जो गुजरात की एक दूसरी जनसंपर्क कंपनी आकृति मीडिया के साथ मिलकर काम करती है. अलग-अलग स्तर पर कई टीमें बनी हुई हैं जो देश-विदेश में मोदी की छवि चमकाने के लिए काम करती हैं. म्युचुअल पीआर में मैनेजिंग पार्टनर हैं कविता दत्ता, जिनकी 18 लोगों की टीम है. इस टीम का काम है कि भारतीय मीडिया में गुजरात सरकार और मोदी के बारे सकारात्मक कवरेज हो. कविता कहती हैं कि उनका प्रयास होता है कि वे गुजरात सरकार की योजनाओं के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियां लोगों तक पहुंचाएं. मोदी भारतीय मीडिया में गुजरात दंगों के बाद से ही मौजूद रहे हैं, लेकिन हाल में उनका अचानक छा जाने की घटना का रहस्य यही कंपनियां हैं जो लगातार मोदी को प्रमोट करने के लिए काम कर रही हैं. इन कंपनियों और मोदी की प्रचार शैली का ही कमाल है कि हाल में हुए हर चुनाव और हर सर्वे रिपोर्ट में मोदी का असर ढूंढा जा रहा है. यह भी मीडिया का फैलाया गया मायाजाल है. 
अमेरिकी कंपनी एप्को से भी मोदी का गठबंधन है. हालांकि, आधिकारिक तौर पर एप्को कहती है कि उसे सिर्फ वाइब्रेंट गुजरात आयो​जन की जिम्मेदारी मिली थी. कालाधन विदेश न जाने का नारा लगाने वाले मोदी को बताना चाहिए कि अपने प्रचार पर करोड़ों करोड़ जो वे खर्च कर रहे हैं, वह कौन सा सफेद धन है? क्या वह जनता का या देश का पैसा नहीं है जो कारपोरेट और विदेशी प्रचार कंपनियों पर लुटा रहे हैं? 
क्योंकि मोदी के प्रचार से हालिया किसी चुनाव में कोई ख़ास फ़र्क प़डा हो, ऐसा देखने में नहीं आया. हाल में कई बड़े मीडिया हाउसेस के सर्वे के मुताबिक़, आगामी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को मिलने वाली सीटों में स़िर्फ 15 से 20 सीट का फ़ासला है. 80 के दशक से दोनों पार्टियों के वोट प्रतिशत मे मात्र दो-ढाई फ़ीसद का अंतर रहता है. इस बार भी सारे चुनावी अनुमान यही कह रहे हैं. तमाम सर्वे बता रहे हैं कि दोनों बड़ी पार्टियां यानी भाजपा और कांग्रेस 150 सीट के आसपास रहेंगी. राजग और संप्रग में से कोई गठबंधन दो-सवा दो सौ सीटों के पार जाता नहीं दिख रहा है. अब जब कोई पार्टी 543 सीटों में से 150 के आसपास ही पाएगी तो किस लहर का शोर मचाया जा रहा है. 
इससे साफ़ है कि नरेंद्र मोदी का मीडिया मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि भाजपा को 150 सीट मिलने के अनुमान के बाद भी मोदी नाम की आंधी बताई जा रही है. अगर यह मानें कि सर्वे बहुत बार ग़लत साबित होते हैं तो हालिया चुनावों ने जो संकेत दिया है, वह भी मोदी लहर की हवा निकालता दिख रहा है. चार राज्यों के चुनाव में मोदी का असर कहीं भी नहीं देखा गया. छत्तीसग़ढ में कांग्रेस ने क़डी टक्कर दी. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस-भाजपा दोनों को धूल चटा दी. राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा की ज़बरदस्त जीत की वजह वहां के भाजपा नेता और विपक्ष की कमज़ोरियां हैं. लेकिन प्रोपेगैंडा के तहत मीडिया में मोदी लहर की चर्चा की जा रही है. विभिन्न सर्वे पर ग़ौर करें तो देश का महज़ 25 प्रतिशत जनता मोदी और भाजपा को वोट देती दिखाई दे रही है. 
अब सवाल उठ रहा है कि वह कौन सी जनता है जहां मोदी की लहर चल रही है? ज़ाहिर है कि मोदी लहर का हल्ला मचाकर बहुसंख्यक जनता का वोट बटोरने का एजेंडा काम कर रहा है. पूर्वोत्तर में भाजपा का नामोनिशान नहीं है. चार दक्षिण-भारतीय राज्यों में भी भाजपा का खाता खुलने के आसार नहीं है. यूपी, बिहार, ओडिशा, पश्‍चिम बंगाल में भी क्षेत्रीय पार्टियों का ही वर्चस्व है और आगामी चुनाव में वे क़डी टक्कर में होंगी. अब सवाल उठता है कि मोदी की लहर कहां है? 
ज़ाहिर है, हक़ीक़त से परे मोदी का शानदार मीडिया मैनेजमेंट उन्हें सारे देश में लोकप्रिय बता रहा है. मोदी किस तरह मीडिया को साधते हैं, इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जैसे ही उत्तर प्रदेश की कमान मोदी के घनिष्ट सहयोगी अमित शाह को सौंपी, वे उत्तर प्रदेश में पहुंचते ही अख़बारों के दफ़्तर में भी पहुंचे. आज उत्तर प्रदेश के मीडिया में हवा बदली दिख रही है. यह मोदी के मीडिया मैनेजमेंड का ही कमाल है कि स्वतंत्रता दिवस पर मीडिया ने प्रधानमंत्री के भाषण से ज्यादा मोदी के भाषण को तवज्जो दी. दरअसल, मोदी की नीतियां कॉरपोरेट समर्थन हैं, जिसके कारण कॉरपोरेट मोदी का समर्थन कर रहा है. मोदी भी अपने को पूरी तरह कॉरपोरेट एजेंडे पर चल रहे हैं, जहां मीडिया के द्वारा निजी एजेंडे को पब्लिक एजेंडे में तब्दील करके पेश किया जाता है. 
नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों के बाद से मीडिया में चर्चा का विषय बने थे. तब से लगातार वे मीडिया में छाए रहे. मीडिया उन्हें गुजरात दंगों का दोषी ठहराता रहा. मोदी से सवाल करता रहा. लेकिन मोदी इस मामले पर लगभग चुप्पी साधे रहे. इस दौरान मोदी की जितनी चर्चा हुई थी, या कहें दंगों की वजह से जितनी कुख्याति मिली थी, उसे उन्होंने अपनी योग्यता में परिवर्तित करने का अभियान चलाया. कॉरपोरेट मीडिया और विज्ञापन कंपनियों की मदद से मोदी ने उस 12 साल की अपनी देशव्यापी आलोचना को अपने पक्ष में मोड लिया, क्योंकि राष्ट्रीय मीडिया में जितनी आलोचना हुई, उसे उन्होंने गुजरात बनाम मीडिया बनाया. अपनी आलोचना को मोदी ने गुजराती अस्मिता से जो़डकर जनता की सहानुभूति हासिल की और वहां एक के बाद एक चुनाव जीतकर सत्ता में बने रहे. 
मोदी जिस गुजरात के विकास मॉडल का ढोल पीटते हैं, उसमें तमाम मानव विकास सूचकांक और दूसरे पैमाने पर गंभीर ख़ामियां हैं, लेकिन मीडिया इस पर सवाल नहीं उठाता. मीडिया में स़िर्फ मोदी से जु़डी रैलियों और प्रचार अभियान को ही पेश किया जाता है, उनकी आलोचना नहीं. मीडिया मोदी की हर रैली की पूर्व जानकारी देता है कि वे कब, कहां रैली करेंगे. इसके चलते जितनी जनता मोदी की रैली में पहुंचती है, उससे ज्यादा जनता टीवी पर उन्हें सुनती है. चैनल और किसी भी नेता के प्रचार अभियान को इतना कवरेज नहीं दे रहे हैं. मोदी की रैलियों में जुटने वाली भी़ड मीडिया द्वारा मचाए गए शोर का अंजाम है.
मोदी पर मीडिया इस तरह से मेहरबान इसलिए है, क्योंकि मोदी ने कॉरपोरेट जगत को गुजरात में काफ़ी स्थान दिया है, जहां पर वे बिना किसी व्यवधान के फल-फूल सकते हैं. प्रधानमंत्री बनने पर वे देश भर में कॉरपोरेट को अधिक स्पेस देने का वादा भी कर रहे हैं. वे बाज़ारवादी नीतियों को और ज्यादा खोलना चाहते हैं. उनके इस वादे पर कॉरपोरेट बाग-बाग है और वह मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहता है. यह खेल जनता शायद नहीं समझती. अब देखने वाली बात है कि कॉरपोरेट-मोदी और मीडिया का यह गठबंधन कितना रंग लाएगा और जनता के लिए कितना फ़ायदेमंद साबित होगा? 
(चौथी दुनिया में प्रकाशित)

रविवार, 19 जनवरी 2014

मोदी के विकास मॉडल का सच—1

यदि कोई यह कहता है कि मुझे मौका दीजिए, मैं देश का भाग्य बदल दूंगा तो आप इस पर कैसे विश्वास करेंगे? जाहिर है कि आप उसके अतीत खंगालेंगे कि उसने आखिर अबतक क्या किया है. मोदी का भाषण तथ्यों पर गौर किए बगैर सुनिए, तो आप खुशफहमी से सराबोर हो सकते हैं. बहुत से साथियों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं. आइए, उनके दावों के बरअक्स एक नजर डालते हैं गुजरात के विकास पर...

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि पे प्रधानमंत्री बनकर दुनिया भर में शिक्षा, शिक्षक और ज्ञान का निर्यात करेंगे. क्या गुजरात की शिक्षा के उन्होंने बेहतर बनाया है? बीती 12 जनवरी को अहमदाबाद में एक सेमिनार के दौरान ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉड्र्स के सदस्य लॉर्ड भीखू परीख ने गुजरात में उच्च शिक्षा की स्थिति पर कहा कि अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात में उच्च शिक्षा का स्तर काफी नीचा है.
दूसरी ओर,पिछले हफ्ते National University Education Planning and Administration की रिपोर्ट जारी हुई है, जिसमें प्राथमिक शिक्षा के मामले में गुजरात की रैंक 28वीं है. अपर प्राइमरी शिक्षा के मामले गुजरात 14वें स्थान पर है.
गुजरात सरकार ने मई 2012 में उच्च न्यायालय से कहा था कि सामाजिक–आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के छात्रों की प्राथमिक शिक्षा के लिए उसके पास पर्याप्त पैसा नहीं है. हालांकि, गुजरात सरकार का बजट 1.14 लाख करोड़ का है. लेकिन गरीबों को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं है. 
2011 में गुजरात सरकार ने एक आदेश के जरिये निजी शिक्षा संस्थानों को प्रवेश प्रक्रिया और मनमानी फीस वसूलने की खुली छूट दी. गुजरात में 1999–2000 में सरकारी स्कूलों में 81.34 लाख बच्चे पढ़ते थे. 
2011–12 में उनकी संख्या घटकर 60.32 लाख रह गई. बाकी गरीब बच्चों को पढ़ाई छोड़ने या मध्यवर्ग के बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए बाध्य कर दिया गया. निजी स्कूलों में उनके अभिभावकों को ऊँची फीस भरनी पड़ती है. 
2003 में 16.80 लाख बच्चों ने पहली कक्षा में प्रवेश लिया था जबकि 2013 तक दसवीं कक्षा में मात्र 10.30 लाख बच्चे रह गए. इस तरह बच्चों को स्कूल में रोके रखने की दर के मामले में देशभर में गुजरात का 18वां स्थान है. 
प्राथमिक विद्यालयों की उपेक्षा का आलम यह है कि जहां 2005–06 में अहमदाबाद नगर निगम के पास 541 प्राथमिक विद्यालय थे, वहां 2011–12 में घटकर 464 रह गए. ये आंकड़े खुद गुजरात सरकार के हैं. गुजरात में निजी शिक्षा इतनी महंगी है कि आम आदमी के बच्चे उसमें पढ़ नहीं सकते.
आंकड़े बताते है कि गुजरात में एनीमिया से पीड़ित बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है. 1998–99 में यह अनुपात 74.5 प्रतिशत था जो 2005–06 में 80.1 प्रतिशत हो गया. इसी अवधि में एनीमिया से पीड़ित गर्भवती महिलाओं की संख्या 47.4 प्रतिशत से बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गई.
बाल विकास सेवा योजना के बारे में कैग की रिपोर्ट कहती है कि जिन आठ राज्यों में एक लाख से अधिक बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं, उनमें गुजरात भी शामिल है. इस राज्य में 44.6 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
बेरोजगारी का आलम यह है कि (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘पिछले 12 सालों में यहाँ रोजगार वृद्धि दर शून्य के करीब पहुंच चुकी है. सहज ही समझा जा सकता है कि अगर गुजरात में बेरोजगारी की समस्या हल कर ली गई होती तो देशभर से बेरोजगारों का पलायन गुजरात की ओर होता.
2001 से 2011 के बीच राष्ट्रीय साक्षरता दर 9.2 प्रतिशत के हिसाब से ब़ढी है, लेकिन गुजरात में दशक के हिसाब से साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से नीचे, मात्र 8.89 प्रतिशत है. यही हाल उच्च शिक्षा है. 
गुजरात में व्यावसायिक और उच्च शिक्षा का निजीकरण हो गया है. प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूल में महिलाओं, पिछ़डे, दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की पहुंच गुजरात में राष्ट्रीय स्तर से कम रही. निजीकरण के चलते गुजरात में शिक्षा पर सरकारी ख़र्च में राष्ट्रीय अनुपात की तुलना में भारी कटौती की गई. 
इसी दौरान शिक्षा के लिए सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों पर निर्भरता या तो ब़ढी या उतनी ही बनी रही. ऐसा ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में हुआ. ऐसा इसलिए क्योंकि निजी क्षेत्र के महंगे प्राइवेट स्कूल लोगों की पहुंच से बाहर हैं. 
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में गरीबों को शिक्षा प्राथमिकता में नहीं है क्योंकि शिक्षा क्षेत्र बाकी कई क्षेत्रों की तरह मालदार बाजार है. मकसद मुनाफ़ा कमाना है. जनविरोधी नीतियों को लेकर कहा जा रहा है कि जनता में इनकी लहर है. यह शिक्षा क्षेत्र की हकीकत है. बाकी मसलों पर बातें बाद में.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...