शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

विज्ञान के सहारे फैलता अंधविश्वास
                                                                      

कई छोटे-बड़े चैनलों ने करीब एक साल से ऐसे उपकरणों का प्रचार करना शुरू किया है जो दुनिया की सभी समस्याओं को हल कर सकते हैं। ये उपकरण प्यार में धोखा खाये, परीक्षा में फेल हुए, धंधे में घाटा उठाये, दुश्मनों से मात खाये और जीवनसाथी के इमोशनल अत्याचार से परेशान लोगों के लिए ब्रहमास्त्र का काम करते हैं। चैनलों के मुताबिक ऐसी समस्याओं का कारण बुरी नजरें और उपरी हवाएं हैं। अगर आपका बच्चा ज्यादा रोता हो, घर में एक साथ कई लोगों का सर दर्द करता हो या घर के लोग बीमार रहते हों, बच्चा पढ़ता हो और पास न होता हो तो इसका मतलब है कि आप पर किसी की बुरी नजर है। इस बुरी नजर से बचने का उपाय चैनलों के पास नजर रक्षा कवच, शिवशक्ति रक्षा कवच, जीवन रक्षा कवच, शनि रक्षा कवच के रूप में मौजूद है। इनके प्रचार में चैनलों ने एक पूरी टीम लगायी है। एंकर इनकी खूबियां गिनाता है फिर इन बातों की विश्वसनीयता के लिए ज्योतिषाचार्य को पेश करता है। नागरिकों को इससे फायदा भी हो रहा है, यह दर्शाने के लिए कई गृहस्थ और गृहणियों को पेश किया जाता है जो यह बताते हैं कि हमने कवच धारण किया और चमत्कार हो गया । इनकी बिक्री के लिए देश के सभी शहरों में और विदेशों में भी ऐजेंट हैं जो आपको ये कवच उपलब्ध करा सकते हैं। प्रति कवच की कीमत मात्र 2400 से 5000 रू0 के बीच है।
इनका महात्म्य बताने के क्रम में भागम-भाग जिंदगी की रोजमर्रा की समस्याओं को शनि देव की नाराजगी से जोड़कर एंकर कहता है कि शनि देव की नाराजगी का मतलब है विनाश। अगर आप यह कवच धारण करते हैं तो शनि देव खुश होंगे और आपका कल्याण होगा। वांछित फल की प्राप्ति होगी।
गौरतलब है कि नये परिवेश की समस्याओं और अनिश्चितताओं को कथित बाबाओं और पंडितों ने भांप लिया है। मध्यवर्गीय समस्याओं को शनि आदि का प्रकोप बताकर लोगों में भय पैदा किया जा रहा है। यह भय ही अंधविश्वास का बाजार खड़ा करता है। यह साधारण सा बालसुलभ सवाल है कि अगर कोई देवता इतना शक्तिशाली और कल्याणकारी है तो वह लोगों में इस कदर आतंक क्यों फैलाता है? और भी, अगर हम चार हजार रूपये ज्योतिषी को देकर रक्षाकवच पहन लेंगे तो उस देवता को क्या मिलेगा? जाहिर है यह पोंगापंथी-षडयन्त्र है जो ऐसे आधार पर रचा जाता है जिसका किसी तरह का कोई प्रमाण ही नहीं है।
इस कवच-व्यवसाय का देश-विदेशांे में नेटवर्क होना ही इस बात का प्रमाण है कि यह विशुद्ध व्यवसायिक आयोजन है जो अंधविश्वास पर धर्म का मुलम्मा चढ़ाकर चलाया जाता है। टीवी, जिसके विकास को मार्शल मैकलूहान ने 20वीं सदी की वास्तविक क्रान्ति कहा था, का भी प्रयोग इस व्यवसाय में होने लगा है। बाबाओं ने देर से सही टीवी की ताकत को पहचान लिया है। आखिर टीवी बाजार का सबसे प्रभावशाली वाहक और प्रेरक है जिसकी पंहुच उस मध्यवर्ग तक है जो बाजार की नियामक शक्ति है। इस वर्ग मंे धर्मभीरूता को भुनाकर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है।
विज्ञान के विकास के साथ यह धारणा बननी शुरू हुई कि जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ेगा वह अंधविश्वासों से उबरकर तार्किक होता जायेगा। मगर टीवी, जो विज्ञान के उत्क्रष्टतम अविष्कारों में से एक है, का इस्तेमाल अंधविश्वास को और पुख्ता करने में किया जा रहा है। बीती सदियों में सुधार आन्दोलनो के जरिये कर्मकाण्ड और पोंगापंथी को लेकर को आवाजें भी उठायीं गयीं लेकिन वे बेहद क्षीण साबित हुईं। इसके बरक्स इन्हें फैलाने वाले ज्यादा सक्रिय रहे क्यांेकि यह उनकी रोजी-रोटी का सवाल है। दुखद तो यह है कि आम आदमी पढ़ा लिखा होकर भी इन बातों पर विश्वास कर लेता है और भयभीत हो जाता है। वह अपनी रोजमर्रा की समस्याओं को शनि और शिव के प्रकोप के तौर पर देखता है। अंधविश्वास अब समय के हिसाब से अपने को बदलकर नये स्वरूप में नुमाया हो रहा है।
कहने की जरूरत नहीं कि टीवी ऐसा माध्यम है जिसके सहारे कूड़ा भी मंहगे दामों में बेचा जा सकता है। वह आज हमारी दिनचर्या निर्धारित कर रहा है। टीवी का अपना सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव है। वह अगर नागरिकों को उपभोक्ता में बदल सकता है तो उन्हें खांटी किस्म का पोंगापंथी भी बना सकता है। यह टीवी और फिल्मों का ही प्रभाव है कि पिछली सदी में कई लोग सन्त से देवता में तब्दील होकर पूजे जाने लगे। धर्म के नाम पर चलने वाले चैनल भी अंधविश्वास और व्यक्तिपूजा को ही बढ़ावा देते हैं। इसी के चलते यह स्थिति बन रही है कि पांच रूपये की ताबीज बनाने वाला बाबा अब पांच हजार की ताबीज बनायेगा। बड़े चैनलों द्वारा ऐसी निराधार और अवैज्ञानिक बातों का प्रसार मीडिया का चरित्र दर्शाता है। इस वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से अंधविश्वास का प्रसार बेहद चिंताजनक है।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

उसके नाम पर

हत्या जरूरी है 
उस ईश्वर की जिसके नाम पर 
बिगड़ता है 
शहर का माहौल बार-बार
और वह देखता है चुपचाप 
किसने गढ़ी ऐसी खतरनाक सत्ता
कौन देता है इसे खाद पानी 
तलाशने होंगे वे स्रोत 
निकलते हैं जहां से 
ऐसे मानव विरोधी विचार

नहीं चाहिए हमें 
कोई ईश्वर 
मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारा 
इंसानियत के बदले
हम और नहीं सींच सकते 
मासूमों के खून से 
मजहब की ये नागफनी 
यह फिर-फिर चुभेगी 
हमारे ही दामन में...
 गुब्बारों का समय 


भूख गरीबी हक की बातें बंद करो
देखो दिल्ली की रंगीनी मस्त रहो

सत्तर करोड़ का गुब्बारा
आसमान में नाचा
लाखों के राकेट, फुलझड़ियां
उड़ीं, जहां ने देखा
धन्य, बहे रुपये अकूत
दुनिया ने खूब सराहा
कंडोमों से पटे टायलेट
भारत का भविष्य उज्ज्वल
विद्वानों ने फरमाया

सत्तर हजार करोड़ रकम में
तीरंदाजी, खेल-तमाशा
पीठ ठोंकता राष्ट्रसंघ
भजते सरकोजी, ओबामा

कौन सिरफिरा राग टेरता
भिखमंगों-भुक्खाड़ों का
बंद करो मुंह इनका, पकड़ो
द्रोही है, चालान करो

कालाहांडी और झाबुआ वालों से भी
ये कह दो
’शांत’ रहें, उनको भी पैकेज
इक न इक दिन पहुंचेगा
सोलह आने नहीं सही तो
पंद्रह पैसे पहुंचेगा
देश हुआ जागीर किसी की
सब्र करो
सुबह शाम धनपतियों की
उंगली पर गिनती किया करो
युवराजों के राजतिलक में
बढ़-चढ़ हिस्सा लिया करो
आये नये मसीहा
बस उनका ही वंदन किया करो


भूख गरीबी हक की बातें बंद करो
देखो दिल्ली की रंगीनी मस्त रहो.......
 गलत नीतियों का नतीजा है नक्सलवाद 
                                                                                          -प्रो. अमित भादुड़ी
स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बाद भी भारत के ज्यादातर भागों में विकास नहीं हुआ है. लोगों के कानूनी अधिकार अभी तक सुरक्षित नहीं हो सके हैं. जिन क्षेत्रों को हम नक्सल-प्रभावित मानते हैं वहां की मुख्य समस्या यही है. आदिवासी समाज के भी अपने कुछ अधिकार हैं, यह हमारी सरकारें और बहुराष्ट्रीय कंपनियां मानने को तैयार नहीं हैं. ट्राइबल राइट्स, लीगल राइट्स, कम्युनिटी राइट्स आदि की लगातार अनदेखी की जा रही है. सवाल उठता है कि जो सरकार खुद अपने संविधान की अनदेखी करती है और अपना कानून नहीं मानती, वह विकास कैसे करेगी? नक्सलवाद एक विचारधारा है जिसके मानने वाले राज्य पर अपने तरीके से नियंत्रण चाहते हैं. उनका राज्य से संघर्ष है. यह अलग मसला है. दूसरी तरफ राज्य की अपनी नीतियां हैं जो लगातार कारपोरेट घरानों को बढ़ावा दे रही हैं. हमारी चिंताएं हमारे नागरिकों के प्रति होनी चाहिए. सब बातों से ऊपर एक बात है कि नागरिकों को उनके अधिकार मिलने चाहिए. 
मैंने अपने कुछ साथियों के साथ पलामू, नंदीग्राम, दंतेवाड़ा का कई बार दौरा किया है. इस दौरान हमने पाया कि नक्सल प्रावित क्षेत्रों में ज्यादातर समस्याओं की वजह पुलिस का अत्याचार है. पुलिस के आतंक और अत्याचार से तंग आकर लोग नक्सलियों का समर्थन करते हैं क्योंकि नक्सली उन्हें पुलिस के खिलाफ सुरक्षा देते हैं. यह गौर करने की बात है कि आदिवासी वस्तुतः नक्सलियों के समर्थन में नहीं, बल्कि सरकार के विरोध में है. सरकार की नीतियां आदिवासी समाज के हित में नहीं हैं. वहां घोर गरीबी है. दिल्ली में बैठकर  नीतियां बनाने वाले वहां की स्थिति को ठीक से समझते भी नहीं. जिस आदिवासी समाज को हम पिछड़ा कहते हैं वे बहुत मामले में हमसे आगे हैं. सबसे बड़ी जरूरत उनकी आवश्यकताओं को समझने और उनके प्रति हो रहे अन्याय को रोकने की है. 
नक्सल समस्या को सरकार ला एंड आर्डर की समस्या मानती है. कैसा ला एंड आर्डर पुलिस किसी भी व्यक्ति को मुठभेड़ में मार देती है. पुलिस किसी भी व्यक्ति को रोज थाने पर हाजिर होने का फरमान सुना सकती है. पुलिस किसी के भी घर में घुस कर लोगों को प्रताड़ित करती है. पुलिस के लोग युवतियों का बलात्कार करते हैं. वे बच्चों को प्रताड़ित करते हैं. ऐसी बातों से ऊबे लोगों को बरगलाना आसान होता है. नक्सली यही करते हैं. ला एंड आर्डर मानने का अर्थ तब है, जब सरकार खुद ला एंड आर्डर का ख्याल रखे. कम से कम संविधान आदिवासियों को जो संरक्षण देता है, उन्हें सरकार सुनिश्चित करे. आदिवासियों को दोयम दर्जे का नागरिक न समझा जाए. उन्हें पर्याप्त सम्मान मिलना चाहिए. फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला बंद होना चाहिए. यह गैर-लोकतांत्रिक है. पुलिस बिना वजह कैसे किसी को मार सकती मार सकती है? आज हेमचंद्र पांडे हैं, कल हम आप या कोई और हो सकता है. 
यह एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि हम नक्सल-समर्थक नहीं हैं. हम अन्याय के विरोध में हैं. हमे नक्सली हिंसा या उनकी गतिविधियों से कोई सहानुभूति नहीं है, लेकिन वे लोग जो अपनी मजबूरी के चलते नक्सली गतिविधियों में शामिल होते हैं, उनसे सहानुभूति है. 
सरकार वहां जिस विकास की बात करती है, वह लोगों के लिए नहीं, कंपनियों के लिए हो रहा है. सैकड़ों किलोमीटर के जंगलों में हाइवे इसलिए नहीं बनाया गया है कि उस पर आदिवासी चलेंगे, बल्कि इसलिए बनाया गया है कि वे कंपनियों की व्यापारिक गतिविधियों में सहायक होंगी. असल स्थिति यह है कि अब सरकारें कारपोरेट घरानों से पैसा लेती हैं और वही करती हैं जो कंपनियां कहती हैं. 
ज्यादातर देखने में आता है कि जिन लोगों को नक्सली घोषित किया जाता है, अगर आप उनसे मिलें तो देखेंगे कि ये वे बेहद सीधे-साधे लोग हैं. वे अशिक्षित हैं. उनके यहां शिक्षा नहीं है. वहां घोर गरीबी है. लोगों के पास खाने को खाना नहीं है. लोगों ने अभी तक बसें नहीं देखी हैं. लोगों ने चीनी नहीं देखी है. कितने इलाके हैं जहां बाजारों में सिर्फ नमक और चावल मिलता है. जिन लोगों ने कभी  माओ का नाम नहीं सुना, उन्हें माओवादी कहना हास्यास्पद है. वे माओवाद के लिए नहीं बल्कि अपने अधिकारों के लिए हथियार उठाते हैं. सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जमीनों का अधिग्रहण करा लेती है लेकिन विस्थापतों के बारे में नहीं सोचती. गांव के गांव उजाड़ दिये जाते हैं लेकिन उनके पुनर्वास का कोई पुख्ता प्रबंध नहीं होता. जबकि आदिवासी ऐसे लोगे हैं जो अपने जमीन से उजड़ने के बाद भीख भी  नहीं मांग सकते. वे कुछ सालों तक इधर-उधर भटकते हैं और फिर मर जाते हैं. 
मुश्किल यह है कि सरकार की नीतियां पूरी तरह कारपोरेट को ध्यान में रखकर बनायी जा रही हैं. अगर आदिवासियों के अधिकारों का खयाल रखा जाएगा तो कारपोरेट हित प्रभावित होंगे और सरकार ऐसा करके उन्हें नाराज नहीं कर सकती. आदिवासियों की समस्याएं अलग हैं. उनकी मांगें अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को लेकर है. 
जहां तक नक्सलवादी आंदोलन का सवाल है तो वैचारिक असहमति होने के बावजूद उनके अपराध सरकारी अपराध के मुकाबले बहुत कम हैं. नक्सली हिंसा को मैं जायज नहीं मानता. हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए. रूस, चीन और विएतनाम जैसे देशों का उदाहरण हमारे सामने है. मैं उनकी विचारधारा से भी सहमत नहीं हूं. बावजूद इसके मैं मानता हूं कि नक्सलियों की लड़ाई विकास-विरोधी नहीं है. स्वास्थ्य सुविधाएं वहां न के बराबर हैं. जिन स्कूलों और अस्पतालों को नक्सलियों द्वारा गिराने की बातें होती हैं, वे ऐसी इमारते हैं जहां पुलिस फोर्स रहती है. नक्सली स्कूल इसलिए नहीं गिराते कि वहां पढ़ाई न हो, बल्कि इसलिए कि वहां पुलिस अपना डेरा न डाल सके. सरकार भले नक्सलवाद को ला एंड आर्डर की समस्या मान रही हो, मगर यह नीतिगत समस्या है. यह ला एंड आर्डर की समस्या तब होगी जब इसमें आदिवासी नागरिक न शामिल हों और यह सिर्फ एक विचारधारा पर आधारित लड़ाई रह जाए. अभी यह उस समाज और वहां के नागरिकों के अधिकारों की लड़ाई है. अगर जनता को उसका अधिकार मिले तो वह नक्सलियों को सपोर्ट नहीं करेगी और नक्सलवाद अपने आप खत्म हो जाएगा. 
आश्चर्यजनक है कि अरबपतियों की संख्या अचानक 8 से बढ़कर 56 हो गयी. स्विस बैंकों में सबसे ज्यादा पैसा भारतीयों का है. जिस देश में सबसे ज्यादा गरीब हैं, वहां सबसे ज्यादा अरबपति हैं. धन का यह केंद्रीकरण संविधान विरोधी है. ऐसा मान लिया गया है कि विकास सिर्फ मल्टीनेशनल कंपनियां कर सकती हैं. उद्योगपतियों और कंपनियों के इस गठजोड़ में स्थितियां और भी नाजुक होती जा रही हैं. आज आपको अगर चुनाव लड़ना हो, तो कम से कम आठ करोड़ रुपया चाहिए. अगर किसी बड़ी पार्टी से टिकट मिलता है, तो कम से कम 30 से 40 करोड़. ये लक्षण लोकतंत्र के तो कतई नहीं हो सकते. इन परिस्थितियों में आम आदमी की भागीदारी के अवसर ही खत्म हो जाते हैं. जो अति धनवान है, सारे अवसर भी उसी के लिए हैं. सरकार एक ओर कारपोरेट घरानों को 6 लाख करोड़ की सब्सिडी देती है, दूसरी ओर अपने नागरिकों के लिए भोजन की सुरक्षा देने से मना करती है. ऐसी नीतियों से विद्रूपताएं बढ़ेंगी. 
                                          (लेखक जन-अर्थशास्त्री हैं.  यहलेख बातचीत पर आधारित है )
  
तय हो अल्पसंख्यकों की भागीदारी
                                                                    -शमसुल इस्लाम

भारत में कुल अल्पसंख्यकों का नब्बे प्रतिशत दलित जीवन जी रहा है. उनकी सामाजिक, आर्थिक और सामाजिक हालत वैसी ही है जैसे हिंदू समुदाय में दलितों की है. इनमें बुनकर, धुनकर, जुलाहे, कसाई आदि जातियां हैं, जिनकी हालत बेहद दयनीय है. बनारस का पूरा साड़ी उद्योग इन्हीं जातियों के दम पर टिका था. धीरे-धीरे वह सब बंद हो गया और लाखों लोग बेरोजगार हो गये. अंग्रेजों ने हमारी दस्तकारी पर सबसे बड़ा हमला किया था जिसमें मुसलमान सबसे ज्यादा प्राभवित हुए थे. आज भी उस पर नीतिगत हमला हो रहा है. बढ़ती बेरोजगारी को नजरअंदाज किया जा रहा है. इस पर किसी का ध्यान नहीं है कि बुनकर उद्योग बंद होने से करीब दो करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं वे कहां जायेंगे? इसकी परिणति में ये लोग रिक्शा चलाने या दैनिक मजदूरी करने को मजबूर हैं.  मुसलमानों के लिए अलग से कोई योजना चलाने या विधेयक लाने की जरूरत नहीं है. जरूरत इस बात की है कि सभी दलितों और गरीबों को आगे बढ़ाने पर ध्यान दिया जाये, मुसलमानों को अपने आप फायदा होगा. हिंदुओं की तरह मुसलमान भी जातियों में बंटे हैं. जिनमें कुछ समृद्ध और कुछ गरीब हैं. यहां धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था तय होनी चाहिये. मुसलमानों की कुछ निचली जातियां तो हिंदू दलितों से भी ज्यादा बदहाल स्थिति में हैं. 
अल्पसंख्यकों के पीछे रह जाने की क्या वजहें रहीं, अगर इसकी पड़ताल करें तो हमें पिछले साठ सालों से पहले के समय पर गौर करना पड़ेगा. अल्पसंख्यक आबादी मुख्यतः हस्तशिल्प से जुड़ी थी, जिसको अंग्रजों की औद्योगिक नीतियों ने तबाह किया. दूसरे, अंग्रेजों ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया. इससे भी अल्पसंख्क समुदाय का ही नुकसान हुआ. आजादी के पहले अंग्रजों ने जो विभाजनकारी नीतियां अपनायी थीं वे आजादी के बाद भी जारी रहीं. इससे मुसलमानों की स्थिति सुधरने के बजाय जस की तस रह गयी. तमाम वजहों से अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना बढ़ती गयी है. इसके अलावा राजनीतिक तौर पर भी अल्पसंख्यकों की स्थिति निराशाजनक है. वह इसलिए कि हमारे पास बेहतर राजनीतिक विकल्प नहीं हैं. हमें दो पार्टियों में से ही एक को चुनना होता है और मैं समझता हूं कि वे दोनों ऐसे दल हैं जो सत्ता में रहकर गरीबों को राहत नहीं दे सकते. अल्पसंख्यकों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति पर गठित सच्चर कमेटी का गठन एक राजनीतिक स्टंट था. कमेटी की रिपोर्ट और सिफारिशों के बाद भी न कोई उल्लेखनीय पहल हुई न बदलाव आया. इस आयोग का कोई औचित्य इसलिए भी नहीं था क्योंकि इंदिरा गांधी के समय में ही गोपाल सिंह आयोग बन चुका था जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ. जरूरत सिर्फ समितियों और आयोगों की नहीं, बल्कि जरूरत उनकी सिफारिशों के बारे में ईमानदारी से अमल करने की है. एक अध्ययन के मुताबिक भारत में अल्पसंख्यकों से संबंधित बलात्कार आदि आपराधिक मामलों में नौ में से सात मामले दर्ज ही नहीं होते और जो दर्ज होते हैं उनमें दोषियों को सजा दिलाने का अनुपात सिर्फ दो प्रतिशत है. जब तक हर स्तर पर न्याय नहीं मिलेगा तब तक चाहे दलित हों या अल्पसंख्यक, उनकी स्थिति नहीं सुधरने वाली है. आरक्षण की बात चाहे जितनी हो, परंतु वास्तविकता इससे अलग है. विभिन्न संस्थानों में ऊंचे और संपन्न तबकों का वर्चस्व है. यह भेदभाव सिर्फ सरकारी स्तर पर नहीं है. जो इस्लामिक संस्थान हैं वे भी गरीब मुसलमानों को अपने यहां आरक्षण नहीं दे रहे हैं. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हर फ्रंट पर गौर करें तो देखेंगे कि अल्पसंख्यकों और दलितों में असुरक्षा की स्थिति है. इसकी वजह है कि हमारा समाज धार्मिक और जातीय आधार पर विभाजित है. मुसलमानों का कहना है कि उनमें जाति व्यवस्था नहीं है परंतु मैं इससे सहमत नहीं हूं. वहां भी हिदूं समुदाय में दलितों की तरह एक तबका है जिसकी पहचान कर उन्हें सुरक्षा दी जानी चाहिए. 
हाल ही में अयोध्या विवाद पर दिया गया इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला अजीबो-गरीब है. यह भारतीय संविधान के प्रजातांत्रिक व सेकुलर मूल्यों को धक्का है. न्यायालय द्वारा कानून पर आस्था को तवज्जो दिया जाना बेहद हास्यास्पद है. अगर आस्था के आधार पर किसी मामले का हल खोजा जाएगा तो उसका कोई ओर-छोर नहीं होगा क्योंकि जहां आस्था होगी वहां तर्क नहीं टिकेंगे. हालांकि, फैसला किसी के हक में नहीं है. वहां बीच का रास्ता निकाला गया और दोनों समुदायों को थोड़ी-थोड़ी जमीन दे दी गई. उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में 1949 और 1992 की घटनाओं को नजरअंदाज किया. इस मामले पर राजनीति न करके तथ्यों पर गौर करना चाहिए. अगर कोई मंदिर गिरा कर वहां मसजिद बनाई गई तो रामकथा लिखने वाले कवि तुलसीदास ने उसका जिक्र क्यों नहीं किया. अगर आस्था के आधार पर निर्णय करना हो तो राम के प्रति तुलसीदास से बड़ी कौन सी आस्था है? लेकिन इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं लिखा. अयोध्या विवाद वस्तुतः अंग्रेजों की देन है जिसे अब और हवा नहीं दी जानी चाहिए. 1857 में हनुमानगढ़ी के महंत बाबा रामचरण दास और मौलवी अमीर अली, दोनों ने साथ मिलकर अग्रेंजों से लड़ाई लड़ी थी और उन्हें गिरतार कर एक साथ फांसी दी गई थी. यह सारे झगड़े 1857 में हमारी हार का परिणाम हैं. समाज में हिंदू बहुसंख्यक हैं, वे बड़े भाई की तरह हैं. उन्हें सब्र करना चाहिए और मुसलमानों को विश्वास में लेना चाहिए. गौरतलब है कि धर्म के आधार पर लड़ी जाने वाली लड़ाइयां कहीं ख़त्म नहीं होंगी. 
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के अध्यापक हैं. यह लेख उनसे बातचीत पर आधारित है)

मुसलमानों में खत्म हो अल्पसंख्यकबोध
                                                                                  -इम्तियाज अहमद
मुसलमान हजारों साल पुराने भारत के पारंपरिक ढांचे का हिस्सा रहा है. इसमें अकबर जैसे महान शासक भी रहे और बहादुरशाह जफर जैसे महान क्रांतिकारी  भी. परंतु इस दौरान जो सामुदायिक संवाद समाज में उत्पन्न हुआ था, वह अंग्रेजों के आने से टूट गया. दुर्भाग्य से यह टूटन आजादी के बाद  भी बरकरार रही. अंग्रेजों का पैदा किया गया फासला देश आजाद होने के बाद  भी खत्म नहीं हो पाया. गौर करने की बात है कि 1931 से पहले मुसलमान की कोई परिभाषा नहीं थी. यह काम पहली बार अंग्रेजों ने किया. इसके पहले मुसलमान हिंदू कानून के मुताबिक जमीन बांटे या इस्लामिक कानून के मुताबिक, कोई फर्क नहीं पड़ता था. इरादतन मुसलमानों का एकाकीकरण किया गया. उनकी अलग पहचान और शिनाख्त बनाने में कानून और सेंसर का इस्तेमाल हुआ. एक बार जब यह हो गया तो मुश्किलें शुरू हो गयीं. पिछले करीब सौ- सवा सौ सालों से मुसलमानों का एकमात्र तर्क रहा है कि हम सुरक्षित नहीं हैं. हमारे साथ ज्यादाती हुई है. हम पिछड़े हैं. इससे जो स्थिति उत्पन्न होती है वह सरकारों को मुसलमानों को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल का मौका देती है. मुसलमानों ने शिकायत की कि हम पिछड़े हैं, तो सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग बना दिया. उन्होंने शिकायत की हम अशिक्षित रह गये और हमारी भागीदारी पर्याप्त नहीं है तो सरकार ने उन्हें आरक्षण दे दिया.  शिकायत की कि हम आर्थिक रूप से पिछड़े हैं तो सरकार ने अल्पसंख्यक विभाग बना दिया. इससे कोई फायदा हुआ हो, मुझे तो नहीं लगता. आठ करोड़ रुपये में 20 करोड़ मुसलमानों का क्या भला होगा? आरक्षण, बैंक में कोटा, सच्चर कमेटी आदि सारी कवायदें फिजूल हैं क्योंकि आम मुसलमान की परेशानियां तो वहीं की वहीं हैं. लेकिन मुसलमान अपने लिए अलग आयोग या कोटे की बात सुनकर संतुष्ट हो जाता है. जबकि इसका फायदा एलीट क्लास को होता है. मुसलमानों में सर्वमान्य और परिपक्व नेतृत्व का न होना भी मुसलमानों को नुकसान देता है. मेरे ख्याल से सर सैय्यद अहमद खां हिंदुस्तान में मुसलमानों के आखिरी नेता थे. 150 सालों से यह खालीपन बना हुआ है. सही प्रतिनिधित्व मुसलमानों को आगे बढ़ने में मदद कर सकता है. मुसलमानों में शुरू से ही यह धारणा रही है कि उनके विकास का जिम्मा सरकार का है. यह कितना गलत है. बिना निजी स्तर पर उद्यमशील हुए कोई समाज विकसित नहीं हो सकता. सरकार योजनाएं बना सकती है, फिर अमल तो हमें ही करना होता है. समाजिक विकास को सरकार के भरोसे छोड़कर उदासीन रहना रहना समाज को और पीछे ले जाता है. जहां तक अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन का सवाल है तो हम ऐसा नहीं कह सकते कि सारे मुसलमान पिछड़े हैं. हिन्दुओं की तरह मुसलमानों में  भी एलीट और दलित वर्ग है. एलीट वर्ग आम मुसलमानों के नाम पर मुद्दों को हवा देकर खुद फायदे उठाता है. आम मुसलमान आर्थिक दृष्टिकोण से बाकी समुदायों की तुलना में पिछड़ा है. इसका कारण सरकारें हंै कि नहीं, मैं नहीं कह सकता. इसके सबसे बड़े कारण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हैं. मसलन, अगर मैं हिंदू से मुसलमान बना होता तो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता. परंतु ज्यादातर धर्मांतरण पिछड़ी जातियों से हुए. वे पिछड़े हिंदू से पिछड़े मुसलमान हो गये. उनकी आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया. दूसरे, मुसलिम समुदाय की अपनी संस्कृति भी उनके विकास में आड़े आती है. वे अपने बच्चों को स्कूल की बजाय मदरसे में भेजने को ही तवज्जो देते हैं. अब सरकार आपसे अपने बच्चे को स्कूल भेजने को कह सकती है लेकिन अगर आप नहीं भेजते तो वह इसके लिए पुलिस नहीं लगा सकती. बंदूक दिखाकर आपके बच्चे को शिक्षा नहीं दी जा सकती. समाज का सांस्कृतिक स्वरूप बदलने के साथ मुसलमान नहीं बदला इसलिए सांस्कृतिक रूप से वह पिछड़ा रह गया. इस सांस्कृतिक पिछड़ेपन को दूर करने जरूरत सबसे पहले है. इसलाम जाने-अनजाने असमानता का पक्षधर है. एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है जिसमें ईश्वर के आगे जो स्थान पुरुष का है, पुरुष के आगे वही स्थान स्त्री का है. ये स्थितियां पिछड़ेपन का कारक बनी हैं. 
जिस तरह हिंदुओं में दलित हैं उसी तरह मुसलमानों में भी दलित वर्ग हैं. जो लोग इससे इनकार करते हैं, वे गलत हैं. आर्थिक आधार पर पहचान किये बिना उनका उद्धार संभव नहीं है. मुसलमानों या अन्य किसी समुदाय को अल्पसंख्यक इस आधार पर नहीं माना जाना चाहिए कि वे संख्या में कम हैं. पिछड़े रहने से अल्पसंख्यक होने का कोई संबंध नहीं है. किसी समुदाय को अल्पसंख्यक मानने के तीन आधार होने चाहिए. पहला, नीति-निर्धारण में उसकी क्या हैसियत है. दूसरा, धार्मिक रूप से उनकी क्या स्थिति है. तीसरा, वह वंचित हैं या संपन्न. अल्पसंख्यक की परिभाषा में अर्थ बहुत महत्वपूर्ण है, जबकि हमारे यहां सिर्फ धर्म को ही महत्व दिया जाता है. कोई समुदाय संख्या में कम होकर  भी अगर आर्थिक रूप से मजबूत है तो वह हावी हो सकता है. अल्पसंख्यक होने का पैमाना वंचना और समृद्धि होनी चाहिए. अल्पसंख्यकों के पीछे रहने की एक और वजह लगातार उनका विभाजन अथवा विस्थापन भी है. जहां-जहां विकास के नाम पर विस्थापन हो रहा है, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी ही प्रभावित हो रहे हैं. कहीं  भी ऐसा नहीं है जहां बहुसंख्यक और संपन्न वर्ग को विस्थापित कर अधिग्रहण हुआ हो. अगर कोशिश भी हुई तो सफल नहीं हुई. इसके चलते अल्पसंख्यक और आदिवासी समुदायों में स्टेट के प्रति विश्वास घटा है. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि किसी समुदाय की रोजमर्रा की चेतना में यह बात नहीं होनी चाहिए कि मैं पीछे हूं. माइनाॅरिटी का उत्थान तब होता है जब वह यह मानने से इनकार कर दे कि हम माइनारिटी में नहीं हैं. समुदायों का अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक होना नीतिगत स्तर पर प्रभाव डालता है. इससे उत्पन्न स्थितियां विकास प्रक्रिया को बाधित करती हैं. क्योंकि कोई देश अपने ही एक समुदाय को पीछे छोड़कर विकास नहीं कर सकता. 
मुगलकाल में बहुसंख्यक मुसलमान हथियार बनाने में लगा हुआ था. अंग्रेजों के आने पर यह व्यवसाय प्रभावित हुआ. बादशाही के खात्मे के साथ बंदूकों की जरूरत  भी खत्म हो गई. इससे कामगार मुसलमान आटोमोबाइल की तरफ मुड़ गया. आज आप देख सकते हैं कि आटोमोबाइल में लगे हुए ज्यादातर लोग मुसलमान हैं. समय बदलने के साथ अवसर उत्पन्न हुए और मुसलमान आॅटोमोबाइल से आगे भी बढ़ने लगा है. अब वह विभिन्न क्षेत्रों में दखल दे रहा है. सिविल और उद्योग, आदि क्षेत्रों में जहां  भी अवसर हैं, मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है. आजादी के समय मुसलमान अल्पसंख्यक था और नाजुक परिस्थिति के चलते वह सहमा था. एक स्वाभाविक डर था कि वह सुरक्षित रहेगा कि नहीं. परंतु जैसे-जैसे धर्मनिरपेक्षता मजबूत हुई मुसलमानों का आत्मविश्वास बढ़ा है. उसे यह बोध हो चुका है कि हम भी अपने अधिकारों के लिए लड़ेंगे. आज मुसलमान अपने अधिकारों के प्रति हिंदुओं से ज्यादा जागरूक है. यह अलग बात है कि वह कभी सही करता है तो कभी गलत. हाल ही में अयोध्या मामले में जो फैसला आया है उससे मुसलमान निराश जरूर हैं, पर उसका आत्मविश्वास बरकरार है. वह जानता है कि अभी लड़ने का समय नहीं है. सरकार अगर उनकी हर बात मान नहीं सकती तो हर निर्णय उनके विरुद्ध भी नहीं ले सकती. हिंदुस्तान में मुसलमान का भविष्य उतना अंधकारमय नहीं है जितना कि वह समझता है. कठिनाइयां जरूर हैं. कुछ राज्य की ओर से तो कुछ खुद उसकी ओर से. अल्पसंख्यक होकर मुसलमान क्या कर सकता है, उसे जिम्मेदारी से इस पर सोचना चाहिए और कदम उठाना चाहिए.
 (लेखक समाजशास्त्री हैं और जवाहरलाल नेहरू विवि में प्रोफेसर रह चुके हैं. लेख बातचीत पर आधारित)

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010


मुस्लिम समाज में गतिशीलता की ज़रूरत 

                                                                                                                   -     असगर वजाहत 
भारत के विभाजन के बाद से ही हमारे यहां ऐसी बहसें चलती रही हैं कि मुसलमान यहां सुरक्षित हैं या नहीं. उनके धर्म, भाषा, संस्कृति, पहचान और जीविका संबंधी उनके अधिकार स्वतंत्रता की हद तक सुरक्षित हैं या नहीं. यदि नहीं, तो इसका जिम्मेदार कौन है? यदि हां, तो इसके बाद भी मुसलमान पिछड़े  क्यों है? प्रस्तुत है इन्हीं मुद्दों पर वरिष्ठ  साहित्यकार असगर वजाहत का नजरिया-
भारत में अल्पसंख्यकों के पिछड़े होने का कारण है कि उन्होंने खुद अपने साथ बुरा किया. उन्होंने अपनी मूल समस्याओं को नजरअंदाज किया. चाहे वह पश्चिमी शिक्षा का विरोध हो, खिलाफत आंदोलन हो या फिर भारत का विभाजन. आज भी उनकी सबसे बड़ी मुश्किलें यही हैं कि वे अपनी मूल समस्याओं को समस्या मानने से इनकार करते हैं. वे यह स्वीकार नहीं करते कि हम शैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं. अपनी समस्याओं का इनकार ही अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी समस्या है. नेताओं ने धर्म के नाम पर ऐसी चाबी भर दी है कि वह एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है जिसके नाम पर मुसलमान जान देने को तैयार है. उनको आगे लाने के लिए समुचित नीतियों की जरूरत है. पिछले पचास-साठ साल मुसलिम समाज के अंतमुर्खी होने के वर्ष कहे जा सकते हैं. मुसलिम समाज कई कारणों से सिमटता चला गया है. केवल सांप्रदायिक दंगों या हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों के आतंक के कारण ही नहीं बल्कि कोई अग्रगामी एजेंडा न हो पाने के कारण मुसलमान इतना अधिक बचाव की मुद्रा में आ गये हैं कि वे भारतीय लोकतंत्र में अपनी भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं और न अपना हिस्सा ही ले पा रहे हैं. 
आरक्षण इस दिशा में एक अहम उपाय हो सकता है. जिन समुदायों को अवसर मिलता रहा है वे आगे हैं. अब जरूरत है कि जो पीछे रह गये हैं उन्हें अवसर देकर आगे लाया जाये. जो समुदाय विकास की धारा में पीछे छूट गया हो उसे साथ लिये बिना आगे चलना संभव नहीं होगा. बशर्ते इसे लेकर समुचित नीति हो और लागू करने में ईमानदारी बरती जाय. मुसलमानों के संदर्भ में स्थिति थोड़ी सी उलट है. उन्हें आरक्षण की नहीं, प्रेरणा की जरूरत है. मुसलमानों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे शिक्षा आदि विषयों में, जो उनकी स्थिति सुधारने में मदद कर सकती हैं, उसमें रुचि दिखाएं. जामिया जैसे विश्वविद्यालय में आप देख सकते हैं कि सभी प्रोफेशनल और अच्छे कोर्सेस के टापर गैर-मुस्लिम विद्यार्थी हैं. वहां तो उनको पढ़ने और आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक रहा. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का भी हाल जैसा है सब जानते हैं. आज जितनी भी मुस्लिम संस्थाएं हैं, वे सब गुणवत्ता  के मामले में सबसे निकृष्ट कोटि की हैं. सही मायने में मुसलमानों में आज समाजसुधार की सख्त जरूरत है. अन्य समुदायों की भांति मुस्लिम समाज में क्रीमी लेयर है. यह और बात है कि यह बेहद छोटा है. किसी भी तरह के आरक्षण का फायदा यही तबका उठाता है. आरक्षण आदि से गरीब मुसलमान को कोई फायदा नहीं होता. इन मसलों को लेकर कोई मुसलमान नेता आगे नहीं आता. मुसलिम समाज में कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन नहीं दिखाई पड़ता. लगता है सर सैयद के आंदोलन के बाद मुसलिम समाज में कोई आंदोलन नहीं चला. यहीं नहीं, मुसलिम समाज में धर्म, संस्कृति, भाषा, सामाजिक समस्याओं आदि को लेकर कोई विमर्श भी नहीं दिखाई पड़ता. यह जड़ समाजों का लक्षण है और मुसलमान को गतिशील होने की आवश्यकता है. यदि देखा जाये तो भारतीय अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक संरचना और उद्योग जगत में मुसलमानों की भागीदारी नगण्य है. मुसलिम बुद्घिजीवी अपने समाज और परिवेश का अध्ययन करने तथा दिशा-निर्देश तय करने में भी बहुत सफल नहीं हुए हैं. ऐसी स्थिति में धर्म और धर्म की आड़ में तथाथित ’धार्मिक मूल्यों’ ने मुसलमानों को बड़े भारतीय समाज से अलग कर दिया है. कहने को मुसलमानों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है लेकिन यह सब कवायदें मात्र राजनीतिक औपचारिकताएं हैं. देश में नीतियां ऐसी बनायी जानी चाहिए कि जो वर्ग कमजोर है उसे अपने आप फायदा हो. अगर ऐसा नहीं होता तो इसका अर्थ है कि नीतियों में खोट है. हमारे यहां इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जो पढ़ाई पूरी कर ले उसे नौकरी भी मिलेगी. नागरिकों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार की गारंटी नहीं है. अलबत्ता इन चीजों का इस्तेमाल वोट लेने के लिए होता है. 
दरअसल, मुसलमानों का इतिहास एक सामंती और पतनशील मूल्यों से निकला इतिहास है. यह सामंतशाही 1857 में खत्म हो गई. उसके पतन का कारण भी वह खुद था क्योंकि उसमें दूरर्शिता का अभाव था. उसके बाद का समय सर सैयद अहमद का था. वे मुसलमानों को शिक्षा के जरिये आगे लाना चाहते थे. सर सैयद अहमद को इस बात का अंदाजा था कि आने वाला समय अंग्रेजों का है. हालांकि, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने विभाजन में बड़ी भूमिका निभाई. अगर अलीगढ़ आंदोलन में मुसलमानों की बौद्धिक तैयारी धर्मनिरपेक्षता की रक्षा कर पाने में सक्षम होती तो शायद आम मुसलमान पाकिस्तान का समर्थन नहीं करता. अगर उस समय का मुसलमानों का बौद्धिक तबका सही भूमिका निभा पाने के लिए सक्षम होता तो खिलाफत आंदोलन नहीं चला होता, जिसकी भारत में कोई जरूरत नहीं थी. तुर्की की जनता वहां के खलीफा को हटाना चाहती थी तो भारत में इसके विरोध का औचित्य समझ से परे है. महात्मा गांधी ने इसका समर्थन किया था जो कि उनके समस्त योगदान पर काले धब्बे की तरह अंकित है. कांग्रेस की राजनीति मुसलमानों के प्रति कभी बहुत स्पष्ट नहीं रही. मतलब कांग्रेस ने  कभी तय नहीं किया कि मुसलिम समाज के केवल उसी तबके से हाथ मिलाया जायेगा जो धर्मनिरपेक्ष, उदार, सहिष्णु और लोकतंत्र की मर्यादा को समझता है. कांग्रेस ने एक ओर जहां मौलाना आजाद, डा जाकिर हुसैन, रफीक अहमद किदवई, रफीक जकारिया, प्रो. नूरुल हसन जैसे लोगों को मान्यता दी तो दूसरी ओर तब्लीगी जमात और दूसरे ऐसे मुसलिम संगठनों से भी हाथ मिलाया जो अपनी प्रकृति में कांग्रेस से भिन्न थे. इसका कारण शायद यही था कि बड़ा मुसलिम समाज इन्हीं कट्टरपंथी शक्तियों के हाथ में है और वोट लेने के लिए कांग्रेस को कट्टरपंथियों के पास जाने की आवश्यकता पड़ती है. कांग्रेस ने मुसलिम वोट  के लिए हर प्रकार की मुसलिम जड़ता को समर्थन दिया. यहां तक कि शाहबानो केस में कांग्रेस ने ’यूटर्न’ ले लिया. कांग्रेस की यह रणनीति दूसरे दलों को इतनी पसंद आयी कि मुसलिम वोटों के आधार पर मुख्यमंत्री बनते रहे पर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की वही हालत रही, जो थी. 
समस्या यह है कि मुसलमान खुद अपनी समस्याओं को लेकर चिंतित नहीं है. ऐसे में सरकारी प्रयासों से क्या होने वाला है. कहने को अल्पसंख्यक आयोग बना है, कई सारी योजनाएं भी रेवड़ी की तरह बंट रही हैं मगर इन औपचारिकताओं से अल्पसंख्यको को फायदे की जगह नुकसान ही है. सवाल है कि इसका विरोध कौन करे. क्योंकि जो मठाधीश इसका लाभ ले रहे हैं वे न इसका विरोध करेंगे और न ही करने देंगे. संख्या के आधार पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक मानने से भी क्या होगा. असल समस्या तो आर्थिक और सामाजिक है. जब तक इन बातों को आधार नहीं बनाया जाता तबतक अल्पसंख्यक समुदाय की समस्याएं बनी रहेंगी. वस्तुतः हमारा पूरा समाज यथास्थितिवादी है. समस्याओं का फौरी समाधान भी इसी यथास्थितिवाद का नतीजा है. यथास्थितिवादी नेता वर्तमान स्थिति को बदलना नहीं चाहते क्योंकि बदलाव से उन्हें मिलने वाले छोटे-छोटे फायदे बंद हो सकते हैं. 
मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साजिश अंग्रेजी हुकूमत ने तो की ही, आजादी के बाद पिछले साठ सालों से भी यह जारी है. क्योंकि अगर यह स्थिति बदल गयी तो जिन नेताओं का मुसलमानों पर प्रभुत्त्व है वह खत्म हो जायेगा. समस्या यह भी है कि आज मुसलमान केवल उन्हें अपना नेता मानता है जो उसके मत से पूरी तरह सहमत हों. किसी भी सामाजिक रीति  जैसे पर्दा आदि के बारे में कोई व्यापक बहस मुसलिम समाज के अंदर नहीं चलती. मुसलिम समाज की बड़ी समस्ययाएं तो वही हैं जो इस देश के गरीब, शोषित और पीड़ित समाज की हैं. लेकिन धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष उन्हें कुछ और जटिल बना देता है. 
                                                                                                         (लेख बातचीत पर आधारित है)










     



बुधवार, 17 नवंबर 2010

इमारत के साथ ढहे तमाम सपने
                                                                                         -कृष्णकांत 

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में हुये हादसे का शिकार ऐसे लोग हुये, जो बेहतर जिन्दगी के सपनों के साथ दिल्ली आये थे. इस हादसे ने कुछ सपनों को दफन कर दिया तो कुछ बिखर गये. इस ढही इमारत के बीच बिहार और पश्चिम बंगाल के कुछ ऐसे ही लोगों की त्रासदी को महसूस करती एक रिपोर्ट-
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के एक इमरजेंसी वार्ड में विद्युत सरकार खून से लथपथ अपनी पत्नी जयंती सरकार का कंधा पकड़ कर बुत की मानिंद खड़े हैं. वे रोना भू चुके हैं और बस एक बात बार-बार दोहराते हैं कि पता नहीं यह सब कैसे हो गया. वे काम करके जब घर लौटे तो देखा कि जहां वे अपने परिवार के साथ सर छुपाते थे, वहीं आशियाना उनका सब कुछ लील गया. वे कल रात से अपने दो खोये हुए बच्चों को ढूंढते-ढूंढते थक चुके हैं और अब शांत है. उनके दो बेटे, बेटे क्रांति (14) और निशांत (13) लापता हैं. विद्युत सरकार जानते हैं कि वे दोनों उसी इमारत के मलबे में होंगे, जिसमें से 67 लाशें और 130 जख्मी लोगों को निकाल कर लाया गया है. विद्युत सरकार अपनी पत्नी, जो कि खून से भीगे बिस्तर पर बेहोश लेटी हुई हैं, उनको एक टक देख रहे हैं. लक्ष्मीनगर में सब्जी की दुकान चलाने वाले सरकार अपने बच्चों को पढ़ा तो नहीं सके, लेकिन जिंदगी ने उन्हें रोजी का पाठ पढ़ा दिया था और वे अपने बाप के साथ काम में हाथ बंटाने लगे थे. सोमवार की रात  भ्रष्टाचार की उपज एक इमारत ने इस परिवार के साथ कई-कई परिवारों को उजाड़ दिया. विद्युत सरकार रोटी की तलाश में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से दिल्ली इस उम्मीद से आये थे, किसब कुछ ठीक हो जायेगा, लेकिन सब कुछ उजड़ गया.’ महानगर के इस जंगल ने उनके जीवन  के सपनों को लील लिया.
तमाम खोये हुए लोगों के परिजन लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल से लेकर लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल तक चक्कर लगा रहे हैं. वे भी अस्पताल के बाहर चस्पा क्षतविक्षत लाशों की तस्वीरों में किसी पहचानने की कोशिश करते हैं तो भी वार्ड में बिस्तरों पर लेटी लाशों में किसी पहचाने चेहरे की तलाश करते हैं.
मुर्शिदाबाद की शोभारानी के नाक पर आक्सीजन मास्क लगा है. बदन पर जगह-जगह पट्टियां बंधी हैं. वह सहमी-सहमी आंखों से इधर-उधर लाशों की भीड़ को देख रही है. उसे यह नहीं पता कि उसका पति शाहदीप और दो बच्चे अब इस दुनियां में नहीं हैं. उनके आस-पास रहने वाले जो लोग इमारत गिरने के समय बाहर थे और बच गये, उनकी देखभा कर रहे हैं. शोभा अब तक यही जानती है कि वह पांच बच्चों की मां है. शोभारानी के खिदमतदारों ने भी तक उसे यह नहीं बताया है कि वह पति के साथ अपने एक साल के बच्चे एक बच्ची को खो चुकी है. उसके चेहरे पर बस अपने बदन में उठ रहे दर्द  का एहसास है. पहाड़ टूटना तो अभी  बाकी है. दिल्ली की लाइफलाइन मेट्रो रेल कारपोरेशन में काम करने वाले शाहदीप मेट्रो में लगातार हो रहे हादसों से बच गये, तो उस आशियाने से हार गये जहां पहुंचकर सबसे सुरक्षित महसूस करते रहे होंगे.
लोकनायक अस्पताल में ही एक बेड पर दो छोटे बच्चे लेटे हैं. एक का नाम अमित है दूसरे का समित. अमित की उम्र करीब पांच साल होगी. उसके बदन  में खून से भीगी पट्टियां लिपटी हैं. वह धीरे-धीरे बोल पा रहा है. वे दोनों अब अनाथ हैं, यह अमित को भी तक पता नहीं है. एक साल पहले अपने बाप को खो चुके इन बच्चों ने अब अपनी मां को भी खो दिया. मोहल्ले की दो-एक औरतों ने उन्हें पहचान लिया, और उनके साथ हैं. उन्होंने बताया कि इन बच्चों के कुछ परिजन दिल्ली में ही रहते हैं. आज उन्हें खबर की जाएगी. गनीमत है उस बिल्डिंग में रहने वाले ज्यादातर लोग मुर्शिदाबाद के थे. सब एक दूसरे को पहचानते हैं. वे साथ मिलकर सब्जी बेचने और रिक्शा खींचने के अभ्यस्त हैं, इसलिए जो बच गये हैं, वे इस दुःख के पहाड़ को मिलजुल कर उठा रहे हैं.
मुर्शिदाबाद के जतिन हलदर 30 साल से दिल्ली में रह रहे हैं. वे अपने परिवार के साथ लक्ष्मीनगर की उसी इमारत में रहते थे जो 67 लोगों की जिंदगियां ले चुकी है. जतिन और उनकी बीवी, दोनों काम के सिलसिले में बाहर थे. उन्होंने अपने 16 साल के बेटे  सपन को खो दिया. उनका 16 साल का बेटा देर से ही सही, पढ़ने जाने लगा था. वह छठवीं में था. जतिन के बाकी दो बच्चे सलामत हैं. जतिन ने पहले कुछ सालों तक  टेंट का काम किया. जब उन्हें लगा कि मालिक उन्हें ठग रहा है तो रिक्शा चला चलाने लगे. आखिर उम्र के आखिरी पड़ाव पर आकर उन्हें इस हादसे ने ठग लिया.
मुर्शिदाबाद की ही नमिता अस्पताल के उस वार्ड के बाहर खड़ी हैं, जहां उनकी मां और तीन भाई-बहनों की लाश रखी गयी है. एक सबसे छोटा भा भी तक नहीं मिला है. अमिता की आंखों में खौफ झलक रहा है. वह अपने किसी परिजन से बार-बार कुछ पूछती है. इधर-उधर बड़ी बेचैनी से देखती है, जैसे डूबते व्यक्ति को किसी तरफ कोई सहारा नहीं दिख रहा हो. नमिता ने भी जिंदगी के मुश्किल से 18 वसंत देखे होंगे. कुछ भी पूछने उसकी आंसुओं में डूबी लाल आंखें भर भर आती हैं
इसी इमारत के एक कमरे में कटिहार का निवासी बीस वर्षीय इसकील अपने ग्यारह साथियों के साथ रहता था. उसका दोस्त, जो पिछले हते उन सबसे मिल कर आया है, ने बताया कि  वे सब के उस बिल्डिंग के साथ ही जमींदोज हो चुके हैं. ये ऐसे युवा थे, जो महाशक्ति भारत की कल्पना नहीं कर सकते थे. उनका आखिरी उद्देश्य रोटी था, जो उन्हें खींच कर उनकी माटी से दूर ले आया और अब वे अपनी जिंदगी भी गवां चुके हैं. इस हादसे की सबसे खास बात यही रही कि लक्ष्मीनगर की इस इमारत ने भी उन्हीं मेहनतकश लोगों को निशाना बनाया है, जो रोज कुआं खोदकर अपनी प्यास बुझाते हैं. मानव निर्मित हर त्रासदी का शिकार होते हैं. चाहे कामनवेल्थ खेल हों, हिंदी विरोधी दंगेहों या फिर मेट्रो लाईओवर में होने वाले हादसे. मरने वालों में कोई रिक्शा चलाता था, तो कोई ठेला लगाता था. कोई ठेके पर दैनिक मजदूरी करता था, तो कोई रोज चैराहों पर खड़े होकर किसी अन्नदाता का इंतजार करता था. हताहतों में ज्यादातर लोग पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और बिहार के कटिहार के हैं. इस इमारत में रह रहे कई लोग भी भी गायब हैं, जबकि दिल्ली सरकार, रवायत के मुताबिक मुआवजे का झुनझुना पकड़ाने की कोशिश में है. सरकार जानती है कि इन मजलूमों के मरने के बाद कोई जिम्मेदारी लेने वाला सामने आयेगा, जंतर-मंतर पर कोई धरना होगा, ही कोई कैंडिल मार्च. वे हांड़ तोड़ मेहनत करने वाले लोग थे, जिनकी जिंदगी की कीमत मात्र दो लाख लग सकती है, जो कि वह दिल्ली सरकार ने लगा दी है. वह खोये हुए बच्चों के शव अभी तक ले दे पायी हो, पर मुआवजे की राशि जरूर देगी.

सोमवार, 15 नवंबर 2010

पीछे नहीं हैं मुसलमान: मौलाना वहीदुद्दीन खान

मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि कोई समुदाय अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक है. संख्या के आधार पर अगर ऐसा है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. माइनारिटी और मेजारिटी कुछ नहीं होता. इस बारे में मेरी राय बिल्कुल अलग है. कुछ लोगों या कुछ समुदायों का आगे हो जाना या पीछे होना दुनिया भर में हर कहीं है. मैं नहीं मानता कि भारत में मुसलमान पिछड़े हैं. हमारे देश में करोड़ों की संख्या में हिंदू भी गरीबी से जूझ रहे हैं. ऐसे में यह कहना गलत है कि मुसलमान पीछे हैं या उसके साथ बड़ा अन्याय हो रहा है. अन्याय तब होता जब बाकी समुदायों में गरीब तबका नहीं होता. मैं आजमगढ़ में जन्मा हूं. आज के चालीस साल पहले वहां ज्यादातर लोग अनपढ़ थे. कोई शिक्षण संस्थान नहीं था. लेकिन पिछले दिनों मैं वहां गया था तो देखा कि अब स्थिति बदल गयी है. शिक्षा और पिछड़ेपन  के सवाल पर मेरे भाइयों ने कहा कि अब वे स्थितियां नहीं रहीं. अब गांव-गांव में स्कूल खुल गये हैं. मेरे ही परिवार के लोगों ने एक बड़ा सा स्कूल खोल लिया है. सभी पढ़-लिख रहे हैं. कोई कम्युनिटी अगर पीछे है तो उसे सरकार आगे नहीं बढ़ाती. लोग खुद आगे बढ़ते हैं. मैं अलग से किसी समुदाय पर विचार करना ठीक नहीं मानता. हम एक देश के नागरिक हैं और हमें सामूहिकता में सोचना चाहिए. दूसरे, सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत में मुसलमान पिछड़े नहीं हैं. उनके लिए भी उतने अवसर हैं जितने में वे अपने को काफी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं. इस सिलसिले में एक घटना उल्लेखनीय है. कुछ साल पहले की घटना है जब मैं हवाई जहाज में सफर कर रहा था. कुछ लोगों के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि भारतीय अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों से यदि अब्दुल कलाम का नाम हटा दिया जाये तो वह कुछ नहीं बचेगा. जिस समुदाय से इतने महत्वपूर्ण और विद्वान लोग निकले हों वह पिछड़ी कहां है? और उनका आगे होना यह सिद्ध करता है कि आम मुसलमाना सहित हर नागरिक के लिए यहां अवसर है. मैं नहीं मानता कि सच्चर कमेटी आदि की कोई प्रासंगिकता है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट अखबारी तथ्यों पर आधारित है. सच्चर कमेटी ने गांवों के दौरे नहीं किये. उसने जमीनी हकीकत जाने बिना अपनी बातें रखीं. उसकी रिपोर्ट वैसी ही है जैसी मीडिया में रोजमर्रा की खबरें होती हैं. उनमें कितनी सच्चाई है यह सब जानते हैं.
               जहां तक लोगों मुसलमानों के पक्ष में उठने वाली आवाजों की बात है तो यह सिर्फ और सिर्फ राजनीति है. अयोध्या में बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि को लेकर जो विवाद है वह पूरी तरह राजनीतिक है. अगर वह आम मुसलमान या आम हिंदू का मसला होता तो वे लाखों-करोड़ों की संख्या में सड़क पर होते. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. न आम हिंदू जनता ने इस पर कोई प्रतिक्रिया दी और न ही मुसलमानों ने. दोनों ने अदालत के फैसले को स्वीकारा. किसी समुदाय की ओर से कोई अप्रिय घटना को अंजाम न दिया जाना इस बात का सबूत है कि यह आम जनता का मसला नहीं है. यह नेताओं की कसरत है. इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला मुसलमानों को मंजूर है. फैसला आने से पहले सरकारों ने स्थिति को काफी तनावपूर्ण बना दिया था. मैंने तब भी कहा था कि मसला ऐसा नहीं है जैसा पेश किया जा रहा है. सरकारों ने खामखां पैसा बरबाद किया. हमारी नयी पीढ़ी के सामने तमाम ऐसे सवाल हैं जहां ये सब बातें महत्व की नहीं हैं. हाल ही में मैं दिल्ली में था. एक महिला अध्यापक ने कहा कि मंदिर-मस्जिद हमारी चिंता के विषय बिल्कुल नहीं हैं. हम हिंदू या मुसलमान की निगाह से कुछ नहीं सोच सकते. हमें अपना ध्यान शिक्षा और इस तरह के अन्य जरूरी मसलों पर केंद्रित करना चाहिए. अगर जनता की सोच उदारवादी है, अगर वह विकास चाहती है तो ऐसे नेताओं की कोई कीमत नहीं है जो धर्म या जाति के आधार पर झंडा बुलंद करते हैं.
अयोध्या में मस्जिद के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई इस्लाम के मुताबिक जायज नहीं है. जो दावा किया जा रहा है कि मस्जिद की जगह को बांटा नहीं जा सकता या मस्जिद की जगह मंदिर नहीं बन सकता, ऐसी बातें कुरान में कहीं नहीं हैं. बल्कि, कुरान में कहा गया है कि दो धर्मस्थल अगल-बगल नहीं होने चाहिए. इस लिहाज से वहां मस्जिद जायज नहीं है क्योंकि वह हिंदुओं का धर्मस्थल है. मीर बाकी ने वहां मस्जिद बनवा कर समस्या खड़ी की. अब हमें इस गलती को सुधार लेना चाहिए. सऊदी अरब, सीरिया और मिश्र में मस्जिदों को रिबिल्ट किया गया तो हिंदुस्तान में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? हिंदू समुदायों का अलग जमीन देने का प्रस्ताव मुसलमानों को मान लेना चाहिए. मेरे ख्याल से दो बातें हो सकती हैं. या तो जो स्थिति है उसे स्वीकार कर लिया जाये या फिर मस्जिद के लिए कोई दूसरी जगह चुन ली जाये.
मुसलमानों को लेकर जो बातें प्रचारित की जाती हैं और की जा रही हैं, वे सही नहीं हैं. इन बातों से भ्रांतियां फैलती हैं. मुसलमानों को राजनीतिक और धार्मिक दोनों लिहाज से और ऊपर उठने की जरूरत है. मैं पहले भी यह बातें कहता रहा हूं और फिर कह रहा हूं कि मुसलमानों को नगेटिव वोटिंग न करके पाजीटिव वोटिंग करनी चाहिए. ऐसा सोच कर वोट नहीं चाहिए कि कोई पार्टी हमारी दुश्मन है और उसके खिलाफ वोटिंग करके उसे हराना है. यह अगर हमें नुकसान नहीं तो फायदा तो कतई नहीं पहुंचाएगा. वोट देने का आधार यह होना चाहिए कि कौन सी पार्टी को वोट देना हमारे हित मे या देश हित में हो सकता है. मुस्लिम समुदाय को यह समझने की सख्त जरूरत है कि कोई पार्टी या कोई सरकार किसी का कल्याण नहीं कर सकती. हर समुदाय अपनी मेहनत से आगे बढ़ता है. मेरे ख्याल से भारत में इतने अवसर हैं कि हर व्यक्ति आगे बढ़ सकता है. मुसलमानों को अपना ध्यान शिक्षा, उपलब्ध अवसरों का उपयोग और अपने विकास पर केंद्रित करना चाहिए.
(लेखक मुस्लिम विद्वान हैं. यह लेख बातचीत पर आधारित है.  प्रस्तुति- कृष्णकांत )


इस लेख में ये कुछ तथ्य ऐसे थे, जिस पर मुसलिम समाज के कुछ पाठकों ने  बहसतलब की. मसलन,
1- मौलाना वहीदुद्दीन खान ने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा को मानने से इंकार कर दिया है.  वे अल्पसंख्क और बहुसंख्यक में फर्क नहीं मानते जबकि स्वयं भारतीय संविधान के कई अनुच्छेदों में इसका उल्लेख है. जैसे अनुच्छेद (29) व अनुच्छेद (30) अल्पसंख्यकों में मुसलमान सहित सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध एवं पारसी भी सम्मिलित हैं. क्या इस अल्पसंख्या की अवधारणा पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है?
2- मौलाना वहीदुद्दीन खान, सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमेटी और उनकी रिपोर्टों को सिरे से नकारते हैं. क्या विभिन्न समितियों और रिपोर्टो की वास्तव में कोई प्रासंगिकता नहीं?
3- जहां तक मुसलमानों की नगेटिव और पाजिटिव वोटिंग का प्रश्न है तो हर व्यक्ति या समुदाय किसी न किसी  प्रकार की मनोवृत्ति से प्रेरित रहता है.  वह सकारात्मक हो सकती है या नकारात्मक. गुजरात दंगों के बाद मुसलमानों द्वारा नगेटित वोटिंग किया जाना क्या उस घटना से उपजी नकारात्मक मनोवृत्ति का परिणाम नहीं था?
4- मौलाना वहीदुद्दीन खान ने यह भी लिखा है कि कुरान के अनुसार दो धर्मस्थल अगल-बगल में नहीं होना चाहिए. कुरान में मसजिदों के बारे में कई उल्लेख जैसे सुरा (9) अल तांबा, आयत (18) सूरा (72) अल जिन्न, आयत (18) एवं सूरा (10), यूनूस आयत (87) आदि. मसजिद मुसलमानों के लिए ईमान का मामला है. इसीलिए मसजिद विवाद से जुड़ा मुसलिम पक्ष उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी कर रहा है. यह उनका संवैधानिक अधिकार है. मौलाना वहीदुद्दीन खान को यह स्पष्ट करना चाहिए कि कुरान में कहां उल्लेख है कि दो धर्मस्थल अगल-बगल में नहीं होना चाहिए, ताकि समाज गुमराह होने से बच सके.   

23 अक्तूबर को हमने भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति-परिस्थिति पर मौलाना वहीदुद्दीन खान का एक लेख छापा था, जिस पर कई उलेमा सहित तमाम पाठकों ने अपनी असहमति जताते हुए पत्र लिखकर कुछ सवाल किये थे. इसी सिलसिले में रांची से डा. शाहिद हसन ने एक पत्र लिख कर मौलाना वहीदुद्दीन खान से कुछ सवाल किये थे. हमने उस पत्र को मौलाना साहब के समक्ष फिर पेश किया. उन्होंने डा शाहिद हसन के सवालों का क्रमवार जवाब दिया है. प्रस्तुत है मौलाना वहीदुद्दीन खान का जवाब-
रांची से डा शाहिद हसन साहब का पत्र प्रभात खबर को 25 अक्तूबर को छपा है. इस पत्र में जो बातें कही गयी हैं, उसकी वजाहत के लिए मैं जरूरी बातें यहां लिख रहा हूं- 
1- भारत में माइनारिटी और मेजारिटी शब्द पहली बार ब्रिटिश राज में इस्तेमाल हुआ. यही शब्द आजादी के बाद भी लिखा और बोला जाने लगा. मगर इस शब्द को मैं इस्लाम की आत्मा (स्पिरिट) के खिलाफ समझता हूं. इस्लाम के मुताबिक सारे इंसान एक हैं. कुरान में तमाम लोगों के लिए एक ही शब्द इंसान का इस्तेमाल हुआ है. इंसान को माइनारिटी और मेजारिटी में बांटना इस्लाम में नहीं है.
इस्लाम के पैगंबर ने अपना मिशन 610 ईस्वी में अरब में शुरू किया. पहले 13 साल वे मक्का शहर में रहे, फिर 10 साल मदीना शहर में. मक्का के 13 सालों में वहां मुसलमान माइनाॅरिटी में थे और गैर-मुस्लिम मेजारिटी में थे, लेकिन कुरान में सबके लिए एक ही शब्द इस्तेमाल हुआ और वह ‘इंसान‘ था.
इसके बाद पैगंबर साहब 10 साल मदीने में रहे और मदीने में ही 632 ई. में आपका देहांत हुआ. मदीना के शुरू के सालों में भी वहां मुस्लिम माइनाॅरिटी में और गैर-मुस्लिम मेजारिटी में थे, लेकिन दोबारा आपने इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया. बल्कि, सबके लिए एक ही शब्द इंसान का इस्तेमाल किया.
इसलिए इस्लाम की तालीम के मुताबिक, मैं ये कहूंगा कि मुसलमान सब को यकसां तौर पर इंसान समझें. वह लोगों को माइनारिटी और मेजारिटी में न बाटें. इंडिया के अंदर और इंडिया के बाहर भी. इससे मुसलमानों के दरमियान यूनीवर्सल सोच पैदा होगी. सबको यकसां तौर पर देखने का मिजाज पैदा होगा. जब ऐसा होगा तो इसके बाद मुसलमानों के लिए हर किस्म की तरक्की के तमाम दरवाजे खुल जाएंगे.
2- 1947 के बाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की सामाजिक  और आर्थिक हालत क्या है, उसको जानने का जरिया सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट नहीं, बल्कि मुसलमानों की खुद अपनी हालत है. मैंने किसी रिपोर्ट का असर लिए बगैर मुस्लिम समुदाय का एक सदस्य होने की वजह से खुद अपने सर्वे की बुनियाद पर निष्कर्ष निकाला है और अपनी एक किताब में छापा है. यह किताब उर्दू और अंग्रेजी दोनों जबानों में है. उर्दू में उसका नाम है- हिंदुस्तानी मुसलमान. अंग्रेजी में है- इंडियन मुस्लिम अ पाजिटिव आउटलुक.
मैंने कई बार ऐसा किया है कि मुख्तलिफ मकामात पर मुसलमानों के जलसे में स्टेज से यह सवाल किया कि 1947 के बाद हर मुसलमान और उसके परिवार ने तरक्की की है. आप में से इसको कोई न मानता हो तो वह बताये कि उसका परिवार 1947 से पहले तरक्की पर था और बाद में वह तरक्की पर नहीं है. पर किसी मुसलमान ने यह खड़े होकर नहीं कहा कि मैं या मेरा खानदान 1947 से पहले आगे था और बाद में वह पीछे हो गया.
कोई शख्स मुस्लिम आबादियों में जाकर सर्वे करे तो वह सच्चाई को पा लेगा. सर्वे की बुनियाद सिर्फ यह होनी चाहिए कि 1947 से पहले हिंदुस्तान में मुसलमानों की हालत क्या थी और 1947 के बाद उनकी हालत क्या है. मिसाल के तौर पर मैं दिल्ली में निजामुद्दीन वेस्ट में रहता हूं. यह कालोनी 1947 के बाद बसायी गयी. शुरू में इस कालोनी के तमाम मकानात हिंदुओं के थे. आज इस कालोनी में करीब 80 फीसदी मकानात मुसलमानों के कब्जे में हैं. ऐसा कैसे हुआ? वह इस तरह हुआ कि मुसलमानों ने नये हिंदुस्तान के अवसरों को इस्तेमाल करते हुए पैसा कमाया और यहां के हिंदुओं के मकानों को खरीदकर वे यहां रहने लगे. इसी तरह मेरा गृह जनपद आजमगढ़ है. आजादी से पहले आजमगढ़ जिले में मुसलमानों का सिर्फ एक अंग्रेजी स्कूल था- शिबली नेशनल स्कूल. आज यह हाल है कि आजमगढ़ में गांव-गांव में स्कूल खुल गये हैं. खुद मेरे अपने गांव (बड़हरिया) में अंग्रेजी का बहुत अच्छा स्कूल चल रहा है. उसकी तकरीबन दस बसें हैं जो रोजाना आसपास के गांवों से बच्चों को लाती हैं और ले जाती हैं. इन मामलों में एक गलती यह की जाती है कि मुसलमानों की तुलना हिंदुओं से की जाती है. असल सवाल यह है कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में मुसलमानों ने खुद तरक्की की है या नहीं. इसलिए सही तरीका यह है कि मुसलमानों की 1947 से पहले की हालत और 1947 से बाद की हालत की तुलना की जाय, न कि दूसरों से.
इस मामले का एक पहलू यह है कि हिंदुओं ने राजा राममोहन राय के जमाने से अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया जो कि बहादुरशाह जफर के जमाने के आदमी थे. जबकि, मुसलमान सर सैयद के बाद अंग्रेजी शिक्षा के मैदान में आये. इस ऐतबार से हिंदू और मुसलमानों के दरमियान लगभग सौ साल का फासला है. इस बिना पर दोनों के दरमियान फर्क होना जरूरी है.
इसी तरह अंगे्रज जब हिंदुस्तान में नयी इंडस्ट्री लेकर आये तो हिंदुओं ने तेजी से अपनी इंडस्ट्री लगाना शुरू कर दिया. मिसाल के तौर पर गुजरात का टैक्सटाइल उद्योग. मगर मुसलमान माडर्न इंडस्ट्री के मैदान में दाखिल नहीं हुआ. इसका कारण यह था कि माडर्न इंडस्ट्री में बहुत पैसा लगाना पड़ता था और वो सिर्फ बैंक लोन के जरिये हो सकता था, जिसमें ब्याज शामिल था. मगर मुसलमान उलेमा ने फतवा दे दिया कि बैंक लोन हराम है क्योंकि उसमें ब्याज देना पड़ता है. इसलिए मुसलमान माडर्न इंडस्ट्री में शामिल नहीं हुआ. जबकि, माडर्न इंडस्ट्री इस जमाने में आर्थिक विकास का सबसे बड़ा स्रोत है. ऐसी हालत में अगर मुसलमान माडर्न इकोनामी में पीछे है तो इसका दोष खुद मुसलमानों पर आता है, न कि दूसरों पर. मैं कहूंगा कि इस मामले में मुसलमान किसी दूसरे के बताये हुए आंकड़ों या तैयार की हुई रिपोर्टों को न देखें, बल्कि वो खुद अपना सर्वे करके अपनी हालत जानें. ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि इस तरह मुसलमान अपने आप को नकारात्मक सोच से बचा सकते हैं और अपने अंदर सकारात्मक सोच पैदा कर सकते हैं. ऐसा न करने की सूरत में मुसलमान का हाल उस रवायती कहानी जैसा हो जायेगा, जबकि एक शख्स ने किसी से कहा कि देखो कौवा तुम्हारा कान ले गया तो वह आदमी कौवे के पीछे दौड़ने लगा. हालांकि, उसे खुद अपने हाथों से देखना चाहिए था कि उसका कान उसके सर पर है या नहीं.
3- यह बात दुरुस्त है कि हर आदमी किसी न किसी मनो (वैचारिक रुझान) से प्रभावित रहता है और इस बिना पर वो नगेटिव वोटिंग या पाजिटिव वोटिंग करता है. मुसलमानों का हाल यह है कि चुनाव में वे नगेटिव वोटिंग करते हैं और बाद में शिकायत करते हैं कि हमको देश की राजनीति में जो हिस्सा मिलना चाहिए, वो नहीं मिला. हालांकि, दूसरी बात पहली बात ही का रिजल्ट है. जब मुसलमान नगेटिव वोटिंग करेंगे तो नतीजा भी नगेटिव होगा. वे देश की राजनीतिक व्यवस्था में अपना हिस्सा नहीं पायेंगे. मुसलमानों को यह करना है कि वे अपनी जाती भावनाओं को अलग करके देश के हित को देखें. वे देशहित को लेकर अपनी राय बनायें. इसका फायदा यह होगा कि उनके अंदर सही नेशनल स्प्रिट जागेगी. वे देश की तरक्की में अपना वो हिस्सा पायेंगे जो उन्हें मिलना चाहिए. इस तरह वो दूसरों के खैरख्वाह बन जायेंगे और दूसरे उनके खैरख्वाह बन जायेंगे. अगर मुसलमान ऐसा करें तो उनके लिए इस देश में भविष्य का नया अध्याय खुल जायेगा.
4- एक और बात अयोध्या के बाबरी मस्जिद से ताल्लुक रखती है. यह मस्जिद 1528 में बाबर के गवर्नर मीर बाकी ने बनवायी थी. इस मस्जिद के बनाने में मीर बाकी ने एक इस्लामी उसूल के खिलाफ काम किया था, जिसका नतीजा बाद के मुसलमानों को भुगतना पड़ा.
कुरान की सूरा ‘अलहज‘ में मुसलमानों को यह हुक्म दिया गया है कि तुम लोगों को मामले में नजाअ का मौका न दो.
कुरान की इस आयत में एक नियम बताया गया है वो यह कि मुसलमान ऐसा काम न करें जो अपने नतीजे के ऐतबार से दो फरीकों के दरमियान झगड़े का कारण बनने वाला हो.
मैंने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को खुद 1942 में देखा है. वहां मस्जिद बनने से पहले हिंदुओं का एक पवित्र स्थान था जिसे वे सीता का रसोईघर या राम चबूतरा कहते थे. मीर बाकी ने ये गलती की कि हिंदुओं के इस पवित्र स्थान से सटाकर वहां मस्जिद बना दी. इस तरह यहां एक झगड़े की बुनियाद कायम हो गयी. सही तरीका यह था कि मस्जिद को राम चबूतरे से दूर बनाया जाता फिर कोई झगड़ा पैदा न होता.
कुरान के इस नियम की अमली मिसाल यह है कि इस्लामी तारीख के दूसरे खलीफा उमर फारुक के जमाने में मुसलमान फलीस्तीन (इजराइल) में दाखिल हुए. वहां के बिशप के बुलाने पर उमर फारुक (638 ईस्वी में) खुद वहां गये. यरुशलम के चर्च आफ रिजरेक्शन में मुसलमानों और ईसाइयों के दरमियान समझौता हुआ. जब ये बातचीत हो रही थी उस वक्त अस्र की नमाज का वक्त आ गया. खलीफा उमर ने कहा कि मुझे नमाज पढ़ना है. ईसाइयों के मजहबी सरदार ने कहा कि आप यहीं चर्च के अंदर नमाज पढ़ लें. खलीफा उमर ने कहा कि नहीं, मैं पत्थर फेंकने की दूरी पर जाकर नमाज पढ़ूंगा, क्योंकि अगर मैंने चर्च के अंदर या उसके पास नमाज पढ़ ली तो बाद के मुसलमान यह कहेंगे कि हम यहां मस्जिद बनायेंगे क्योंकि हमारे खलीफा ने यहां नमाज पढ़ी है. इस तरह यहां चर्च और मस्जिद में झगड़ा खड़ा हो जायेगा.
मीर बाकी ने कुरान के बताये हुए नियम और खलीफा उमर की अमली मिसाल से सबक नहीं लिया. उन्होंने हिंदुओं के अकीदा (आस्था) के मुताबिक, उनके पवित्र स्थान से सटाकर मस्जिद बना दी. इसके बाद जो हो सकता था, वही हुआ.  बाद के मुसलमानों को मीर बाकी की इस गलती की कीमत चुकानी पड़ी.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...