मंगलवार, 27 मार्च 2012

'टीम अन्‍ना को फांसी दे दो'

कौओं के झुंड में एक दिन एक कौए ने कहा- हम लोग बहुत पाप करते हैं। आज से चलो संकल्‍प लेते हैं कि कभी मांस नहीं खाएंगे। उसकी बातों से कुछ प्रभावित हो गए और उसके साथ आ गए। एक एक कर अंतत: सब बोले कि आज से मांस नहीं खाएंगे। कुछ दिन बाद एक मरा हुआ जानवर दिखा। उस पर कुछ कौवे टूट पड़े। उन्‍हें देख कर एक एक कर सब चले गए। जिस कौवे ने प्रस्‍ताव किया था, वह नहीं गया। वह अकेला अलग ही बैठा रहा। थोड़ी देर में एक हंस उधर से गुजरा। उसने पूछा- भाई, सब लोग इकट़ृठे हैं तो वे जनाब अकेले क्‍यों बैठे हैं? सभी कौवों ने एक स्‍वर में कहा- उसने मांस खाया है। इसलिए हमने उसका बहिष्‍कार कर दिया है। हम लोगों ने संकल्‍प लिया है कि अब मांस नहीं खाएंगे। देश की संसद में आज कल यही चल रहा है। नेताओं के भ्रष्‍टाचार पर सवाल उठाने वाली टीम अन्‍ना अपराधी हो गई है और करोड़ों रुपये डकारने वाले नेता पवित्र गाय। 
एक कुतर्क के खिलाफ पहले से सावधान कर देना चा‍हता हूं‍ कि नेता या सांसद कहने का अर्थ पूरे 545 सदस्‍य नहीं होता। संसद में अपराधी का अर्थ सिर्फ 160 अपराधी सदस्‍यों से है, न कि पूरी संसद से। सोमवार और मंगलवार को सदन की कार्यवाही में देखने को मिला कि देश की संसद अन्‍ना हजारे और उनकी टीम के विरोध में अभूतपूर्व ढंग से उतर आई है। सभी सांसदों का एक सुर में कहना है कि ये लोग संसद का अपमान कर रहे हैं। इसके लिए अलग-अलग तर्क दिए जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि संसद की कार्रवाई पर सवाल उठ रहा है। कोई कह रहा है कि सांसदों को गाली दी जा रही है। कोई कह रहा है कि टीम अन्‍ना देश द्रोही है, इसे संसद में बतौर मुलजिम लाना चाहिए। कोई कह रहा है कि उन पर मुकदमा चलाना चाहिए। लेकिन हैरानी है कि राजनीतिक जमात में पूरी चर्चा सिर्फ संसद की गरिमा से जुड़ी है। संसद के गरिमा की यह चर्चा अब वैसी हो गई है, जैसे बेटी किसी से दिल लगा बैठै तो पूरी खाप पंचायत उसकी जान लेने पर उतारू हो जाती है। 
इस पूरी चर्चा के बीच एक भी नेता ने यह नहीं कहा कि आखिर ऐसी स्थिति क्‍यों आई कि कोई सिविल सोसाइटी का झंडाबरदार आए और कहे कि अब आरटीआई कानून लाओ। अब लोकपाल बिल लाओं। अब व्हिसलब्‍लोअर विधेयक लाओ। किसी नेता ने यह जायज सवाल क्‍यों नहीं किया कि 1968 में प्रशासनिक सुधार आयोग के बाद चौथी लोकसभा में पेश किया गया लोकपाल विधेयक 43 सालों से क्‍यों लटका है? अन्‍ना आंदोलन के समय संसद की ओर से लिखित आश्‍वासन के बाद भी। यह किसी ने क्‍यों नहीं पूछा कि देश भर में ताबड़तोड़ हो रहे घोटालों को नियंत्रित करने के लिए सरकार की भविष्‍य-योजना क्‍या है? क्‍या जनता का पैसा इसी तरह घोटालों की भेंट चढ़ता रहेगा और हम संसद की गरिमा के नाम पर खामोश रहेंगे?
वैसे भी, यह गरिमा का सवाल काफी दिलचस्‍प है। जिन शरद यादव को आज टीम अन्‍ना की बात बहुत चुभ रही है, उन्‍हीं शरद यादव ने किरण बेदी और साथियों के लिए संसद में धमकी भरे लहजे में कहा था कि इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। उस भाषण के शब्‍द और शरद यादव का लहजा मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर बहुत नागवार गुजरा था। अपने ही नागरिकों को धमकी, उनपर तरह तरह के झूठे इल्‍जाम, छल-कपट ओर निर्लज्‍जता की हद तक जाकर बयानबाजी से संसद की गरिमा नहीं आहत होती। उसे कह देने से आहत हो जाती है। आंदोलन खत्‍म होने के बाद जिस तरह पूरी टीम के खिलाफ सरकार और कांग्रेस की ओर से खेल खेला गया, उसके बाद अन्‍ना टीम के पास दो ही चारा था। या तो चुपचाप बैठते या और तीव्रता के साथ जनता के बीच जाते। उन्‍होंने और तल्‍ख होना पसंद किया। 
मुझे अन्‍ना हजारे की टीम से कोई सहानुभूति भी नहीं है, समर्थन दूर की बात है। लेकिन मैं उस जनभावना के साथ हूं जो रोजमर्रा के जीवन से लेकर अन्‍ना के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान आंदोलन के समय दिखी है।
इक्‍कीस मार्च को केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने एक लेख लिखा। यह लेख जागरण में छपा था। हो सकता है और भी कहीं छपा हो। उस लेख में अश्विनी कुमार ने वर्तमान भारतीय राजनीतिक तंत्र पर जो सवाल उठाए हैं, वे सारे सवाल करीब-करीब अन्‍ना टीम के सवालों से मिलते हैं और यह मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि वे सवाल करोड़ों जनता के भी है। देश का हर बच्‍चा जानना चाहेगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में 43 साल में एक विधेयक क्‍यों पारित नहीं किया जा सका। लोकपाल गठित करने की सिफारिश मोरार जी भाई देसाई के अध्‍यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने की थी, जिसे 1966 में तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डाक्‍टर राधाकृष्‍णन ने गठित किया था। 
यह सवाल उठता है कि क्‍या सांसदों और सभी राजनीतिक पार्टियों के भड़कने की वजह टीम अन्‍ना की अमर्यादित टिप्‍पणी ही है ? पिछले आंदोलन में तो इससे ज्‍यादा कड़ी बातें कही गईं। अरविंद केजरीवाल की भाषा वही है जो एक साल पहले थी। फिर राजनीतिक दलों और नेताओं के भड़कने की क्‍या वजह है। पिछले एक साल में जो बदलाव आया है, वह यह कि टीम अन्‍ना ने अपने आंदोलन का दायरा बढ़ा दिया है। लोकपाल को लेकर एक साल से चल रहा सियासी नाटक किसी को भी तल्‍ख होने को मजबूर करेगा, खासकर त‍ब, जब बुराई के खिलाफ आने वाले को ही बुरा कहा जाए। इस बार तल्‍ख होने के साथ टीम अन्‍ना दागी सांसदों की सूची के साथ सरकार और राजनीतिक पार्टियों पर हमलावर हो गई है। दागी और भ्रष्‍ट नेताओं की बात करने पर इसकी जद में सारे दल आ जाते हैं। पांच राज्‍यों के चुनावों के बाद टीम अन्‍ना ने पत्र लिखकर पार्टी प्रमुखों से पूछा था कि उनकी ऐसी क्‍या मजबूरी थी कि दागी उम्‍मीदवारों को टिकट दिए गए। फिर अब अरविंद केजरीवाल ने केंद्र में दागी मंत्रियों की सूची बना डाली। दरअसल, इस तरह का अभियान सब नेताओं और दलों पर बहुत भारी पड़ने वाला है, क्‍योंकि दबंगों और दागियों के बिना किसी पार्टी का काम नहीं चलता। 
रामलीला मैदान में अन्‍ना के अनशन के समय जब उन्‍हें अप्रत्‍याशित सर्मथन मिला तो लालकृष्‍ण आडवाणी ईमानदारी दिखाते हुए एक बात स्‍वीकारी थी कि दरअसल, अन्‍ना को इस तरह समर्थन पाने का मौका हम नेताओं ने ही दिया है। विधायन के मसले पर इस तरह सिविल सोसाइटी का मुखर होना बेशक लोकतंत्र की सेहत के लिए नुकसानदेह है, लेकिन यह मौका क्‍यों आया, इस पर सोचने को कोई तैयार नहीं है। अन्‍ना आंदोलन, भ्रष्‍टाचार, काली पूंजी और इन मसलों पर राजनीतिक उदासीनता पर सबसे हैरान करने वाला रवैया भारतीय बु्द्धिजीवियों का है। कुछ भटकी हुई कथित मार्क्‍सवादी आत्‍माओं को अन्‍ना आंदोलन से लेकर टूजी घोटाले तक में अमेरिकी हाथ दिखता है। 
जो लोग कहते हैं कि लोकपाल पर टीम अन्‍ना का मसौदा भारतीय संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है, उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उनके पास भ्रष्‍टाचार से निपटने का क्‍या मसौदा है? क्‍या संविधान का संघीय ढांचा, उसका लोकतांत्रिक स्‍वरूप भ्रष्‍टाचार और काली पूंजी के बगैर नहीं टिक सकता? क्‍या संविधान की मूल भावना अरबों के घोटालों से आहत नहीं होती? पूरी बहस में नेताओं, कुछ  बुद्धिजीवियों और मीडिया का एक हिस्‍सा (जो अब न्‍यायाधीश की भूमिका में है), का पक्ष तो यही है की अन्‍ना और उनकी टीम ही सारी समस्‍याओं की जड़ है। तो मेरी राय है कि उन्‍हीं को फांसी दे दी जाए। संसद में इस बात पर सहमति बनाने में भी आसानी होगी। 

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

नए चिंतन का समय

( 21 तारीख को जागरण में केंद्र में मंत्री अश्विनी कुमार का एक लेख छपा है। बिना मांगे मैं कपिल सिब्‍बल एंड कंपनी को सलाह दे रहा हूं कि वे इस लेख को पढ़ें। उन्‍हें समझ में आएगा कि मौजूदा व्‍यवस्‍था से न सिर्फ जनता, बल्कि नेताओं का भी दम घुटने लगा है। टीम अन्‍ना और सोशल मीडिया के लोगों पर शिकंजा कस देने से देश नहीं चलता। देश चलने के लिए एक प्रगतिशील व्‍यवस्‍था चाहिए होती है.......................। क्‍या इस लेख में व्‍यक्‍त अश्‍िवनी कुमार की बेचैनी लोगों की बेचैनी नहीं है। ईमानदार स्‍वीकारोक्ति के लिए मैं अश्विनी कुमार को बधाई देता हूं। 
आप भी पढ़ें। )


हमारी राजनीति की दशा से संबंधित कोई भी गहन विश्लेषण यही परिलक्षित करेगा कि संवैधानिक संस्थानों के बीच तनाव व्यवस्था को खतरे में डालने वाला साबित होता है। आज की हमारी राजनीति की पहचान टकराव-विवाद हैं, न कि विचारों के बीच संघर्ष। राजनीतिक धारा अब संभवत: विचार-विमर्श पर आधारित नहीं है। इसका परिणाम यह है कि राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने के लिए आम सहमति कायम करने की संभावनाएं कमजोर होती जा रही हैं। पहचान, विभिन्नता, बहुलवाद और संप्रदायवाद से संबंधित बहसों ने विभाजनकारी सुर अपना लिया है। अपने संघीय ढांचे से संबंधित विचार-विमर्श में क्षेत्रीय संवेदनाएं और आकांक्षाएं राष्ट्रीय उद्देश्यों पर भारी पड़ती जा रही हैं। कुल मिलाकर भारत का विचार ही एक जकड़न में नजर आ रहा है। विवादों से चलने वाली इस राजनीति में चुनाव जीतना न केवल अनिवार्य हो गया है, बल्कि इसने एक सनक-जुनून का भी रूप ले लिया है। इस क्रम में अक्सर वर्तमान के लिए भविष्य का बलिदान कर दिया जाता है। चूंकि चुनाव लोक-लुभावन राजनीति के दबावों के कारण झूठे वायदों के मुकाबले बन गए हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि राजनीति ने छल-कपट की एक प्रक्रिया का रूप ले लिया है। 
हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि क्या हमारा लोकतंत्र तर्क के शासन का सम्मान करता है, जिसमें सत्ता तक पहुंचने की कोशिश को केवल उन्हीं सिरों द्वारा न्यायोचित ठहराया जा सके जो उसके मूल में निहित हैं? विचारों की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए हम क्या कर सकते हैं? क्या हमारा कथित जीवंत लोकतंत्र विचार-विमर्श आधारित शासन के अनुकूल है? क्या हमारी पत्रकारिता समाचारों का इस्तेमाल जोर-जबरदस्ती और रेटिंग की तलाश में करके पंगु हो गई है? विपक्षी विचारों के संपूर्ण और मुक्त विश्लेषण के माध्यम से देश के मूलभूत मुद्दों के नैतिक केंद्र की खोज करने के लिए हम खेल के नियमों को किस तरह परिवर्तित करते हैं? हम एक ऐसी स्थिति का सामना कर रहे हैं जिसमें हमारे पास प्रत्येक कठिनाई का समाधान नहीं है, बल्कि प्रत्येक समाधान में हमारे सामने एक कठिनाई है। यह एकदम स्पष्ट है कि पूरी दुनिया के साथ हम इस सदी की जिन वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं उनसे एक विभाजित देश, एक विखंडित राजनीति के जरिए नहीं निपटा जा सकता। यह विडंबना है कि हम एक ऐसे राजनीति तंत्र में काम कर रहे हैं जो परिवर्तनकारी नेतृत्व नहीं पैदा करता। उत्पीड़नकारी दुष्प्रचार की विसंगति (जिसमें हाल के कुछ मीडिया ट्रायल भी शामिल हैं) ने निष्पक्ष अभियोजन और विधि के शासन के सबसे पहले सिद्धांत की ही बलि चढ़ा दी है। इस स्थिति में हमें निष्पक्ष प्रतिक्रिया की सीमाओं पर फिर से विचार करना चाहिए। क्या हम निर्वाचन प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाए बिना अपनी राजनीति को अवैध तरीके से अर्जित की गई धन-संपदा और बाहुबल से मुक्त कर सकते हैं? चुनाव में जीत हासिल करने की क्षमता की परवाह किए बिना क्या हम निर्वाचन प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने के लिए तैयार हैं? हमें खुद से यह भी सवाल पूछना चाहिए कि क्या संसदीय और विधानमंडलों में बहुमत महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर हमेशा समाज में बहुमत की आवाज को परिलक्षित करता है और हमें किस तरह के चुनाव सुधारों की जरूरत है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकारें देश की नैतिक और राजनीतिक चेतना को प्रदर्शित करें? अपनी अभूतपूर्व पहुंच के कारण सोशल मीडिया ने लोकतांत्रिक राजनीति के तौर-तरीकों को नए सिरे परिभाषित करने का काम किया है। हमें खुद से यह सवाल करना होगा कि क्या एक राष्ट्र के रूप में हम राजनीतिक शक्ति के नए रूपों के लिए तैयार हैं जो परंपरागत ढांचों से हटकर हो और जिसमें ज्ञान की दुनिया और मानवता का बहुमत हो। नागरिकों के लिए बुनियादी महत्व वाले मुद्दों पर जो विचलित करने वाली खामोशी नजर आ रही है वही अब हमारे शोर-शराबे वाले लोकतंत्र की पहचान बन गई है। हमें इस पर बहस करनी चाहिए कि क्या शासन को सुरक्षा के नाम पर नागरिकों की मूलभूत स्वतंत्रता की कीमत पर अधिकाधिक अधिकार अपनी झोली में भर लेने चाहिए? क्या हम अपनी बुनियादी आजादी को गंवाए बिना सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते? अगर नहीं तो हम किसके खिलाफ अपने को किस तरह सुरक्षित कर रहे हैं? अपने गणतंत्र के अक्सर टकराते, लेकिन बुनियादी मूल्यों के बीच आदर्श संतुलन क्या होना चाहिए? क्या चुनावों के बाद अलग-अलग उभरने वाले पांच वर्षीय बहुमतों के सामने क्या संवैधानिक गारंटी का सम्मान नहीं होना चाहिए? 
अरब स्पिं्रग, आक्युपाई वाल स्ट्रीट और दूसरे आंदोलनों ने विजयी मुद्रा में यह दावा किया है कि सड़क की शक्ति ने लोकतंत्रों और तानाशाहियों को समान रूप से चेताने का काम किया है। सिविल सोसाइटी और नया मीडिया जिस तरह राजनीतिक क्रियाकलापों की शर्ते नए सिरे से तय कर रहा है उसे देखते हुए हमें नागरिकों के अधिकारों को उनकी जिम्मेदारियों के साथ संतुलित करने के लिए कार्ययोजना का ब्लूप्रिंट तैयार करने की जरूरत है। हमें अपनी राजनीति में आदर्शवाद को फिर से स्थापित करना होगा और देश के बुनियादी मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जतानी होगी। हमें यह खतरा उठाते हुए भी यह काम करना होगा कि चुनाव में विपरीत परिणाम सामने आ सकता है। सवाल यह है कि यदि भारत हार गया तो कौन जीतेगा? आखिरकार प्रगति संबंधी बदलाव का मानक रहन-सहन का स्तर नहीं है, बल्कि जीवन का स्तर है। जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती ने पीढि़यों के बीच समानता का सवाल खड़ा कर दिया है। हमें खुद से यह पूछना चाहिए कि क्या हमारी राजनीति ने टिकाऊ खपत के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त प्रयास किए हैं। सवाल यह भी उभरता है कि क्या एक ऐसा देश जहां की आंतरिक राजनीति जाति, वर्ग, भाषा के समीकरणों पर निर्भर हो, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का प्रभावशाली तरीके से सामना कर सकता है। चुनौती तो कठिन बाहरी वातावरण की भी है और ऊर्जा निर्भरता की भी। चीन का उभार, अस्थिर पश्चिम एशिया और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का बढ़ता खतरा भी गंभीर चुनौतियां प्रस्तुत कर रहा है। हमारे सामने जो चुनौतियां हैं वे एक मजबूत नेतृत्व की मांग करती हैं। हमारे लोकतंत्र को अनिवार्य रूप से विचारों के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। निश्चित ही भारत का भविष्य अतीत पर टिका नहीं है, यह निर्भर है वर्तमान पर, जहां अलग-अलग चीजों को अलग-अलग तरीकों से करने की आवश्यकता है। (लेखक केंद्र में योजना, विज्ञान एवं तकनीक राज्य मंत्री हैं) 

गुरुवार, 22 मार्च 2012

पीड़ा! तू क्यों प्रिय हुई मुझे

पीड़ा! तू क्यों प्रिय हुई मुझे 
क्या सुख तुझमे जानू ना  
क्यों फिरूं खोजता, व्याधि, 
सभी की, अपने ही सर ले लूँ 
क्यों ढूँढूं आंसू के कतरे 
जो मिलें कहीं भी, पी लूँ 
यह पीड़ा ही अपनी संगी 
यह ही अब अपनी साथी है 
पीड़ा का चरम, अभी दुनिया का  
मिल पाना मुझको बाकी है 
आनंद है कैसा पीड़ा में 
पीड़ा! तू क्यों प्रिय हुई मुझे...

सोमवार, 19 मार्च 2012

राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन सकते हैं, नेता नहीं


राहुल गांधी सहित कांग्रेस को उम्‍मीद थी कि वे उत्‍तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीत लेंगे। कांग्रेस के रणनीतिकारों को जाने क्‍यों यह गलतफहमी थी कि राहुल और प्रियंका अगर मैदान में उतरेंगे तो प्रदेश की जनता उन्‍हें पलकों पर बिठा लेगी। उन्‍हें विश्‍वास था कि 'मिनी पार्लियामेंट' में उनका परचम फहराएगा। इसके लिए राहुल काफी पहले से ही सक्रिय थे। चुनाव नियराया तो राजनीति में बहुप्रतीक्षित प्रियंका गांधी भी अपने बाल-बच्‍चों समेत उतर आईं। दिग्विजय ने बाटला हाउस का जिन्‍ना बोतल से बाहर लाने की पूरी कोशिश की। सलमान खुर्शीद जी तो इस होड़ में सबसे आगे निकल गए। उन्‍होंने कहा कि वे मुसलमानों के लिए अपनी जान ही दे देना चाहते हैं। लेकिन कांग्रेस के दुर्भाग्‍य और लोकतंत्र के बेहतर भविष्‍य के सौभाग्‍य से जनता ने उनकी जान लेने से मना कर दिया। सम्‍हाल कर रखे हुए कांग्रेस के सारे हथियार फुस्‍स हो गए। इसकी तह में जाना चाहिए। कांग्रेस और राहुल गांधी को सत्‍ता पर से थोड़ी निगाह हटाकर समय की नब्‍ज पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। 
मेरी चिंता का मुख्‍य विषय राहुल गांधी और उनकी राजनीति ही है, क्‍योंकि वे लगातार परिवर्तन की बातें करते रहे हैं। गांधी जी के बाद पहली बार कोई नेता गरीबों के करीब आकर उनका हाल चाल लेने लगा। इससे उम्‍मीद जगी थी कि हो सकता है राहुल गांधी सड़ांध से अलग हट कोई नई पहल करें। लेकिन चुनाव में हमने देखा कि राहुल गांधी भी उसी हमाम में हैं और सबकी तरह वे भी निर्वस्‍त्र हैं। गांधी जी का गरीबों से मेलजोल इसलिए महत्‍वपूर्ण है कि उन्‍होंने उनकी आवाज को दुनिया की आवाज बना दिया। उन्‍होंने 'आखिरी आदमी' के लिए राजनीति की और ईमानदारी से अपना सबकुछ न्‍यौछावर किया। परंतु राहुल के मेलजोल में छल है। कलावती के घर में बैठकर पकौड़ी तो राहुल गांधी ने खाई, लेकिन केंद्र में उनकी सरकार ने कलावती के लिए कुछ भी नहीं किया, यह कलावती ने भांप लिया है। इसलिए राहुल बाबा गच्‍चा खा गए।  
हमारी राजनीति गांधी और नेहरू युग के बाद उत्‍तरोत्‍तर अधोगति को प्राप्‍त हुई है और अब इसे यहां से बाहर निकालने के लिए किसी वास्‍तविक नेता जरूरत है। वास्‍तविक नेता का मतलब, जो प्रधानमंत्री बनने के लिए राजनीति न करे, बल्कि सुधार की राजनीति करे, जो बदलाव के लिए काम करे। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह नेतृत्‍व राहुल गांधी नहीं दे सकते, क्‍योंकि उनमें वह साहस नहीं है, जो एक सच्‍चे नेता में होना चाहिए। उनके पास परिवर्तन की पहल का साहस नहीं है। उन्‍होंने परिवर्तन की बातें बार-बार की हैं, लेकिन उत्‍तर प्रदेश चुनाव में वे क्‍या अलग लेकर उतरे? अलबत्‍ता, कांग्रेस ने प्रचार किया कि जनादेश मिलने पर मुख्‍यमंत्री चाहे जो बने, कमान राहुल गांधी के ही हाथ में रहेगी। उनकी टीम ने पुरजोर तरीके से यह बताया कि राहुल गांधी इतने ताकतवर हैं कि किसी मुख्‍यमंत्री को अपने चा‍बुक से मनचाही दिशा में हांक सकते हैं। इन सबने यह प्रचारित किया कि राहुल गांधी इतने दयालु हैं कि जब चाहें तब प्रधानमंत्री बन सकते हैं, लेकिन वे मनमोहन सिंह पर मेहरबान हैं और उन्‍हें कुर्सी का कोई मोह नहीं है। वे राजा हैं, लेकिन उन्‍होंने राजदंड किसी और को दे दिया है। जनता ने इसे नकार दिया। उसे राजे-रजवाड़ नहीं चाहिए थे। उसने सब में से कम खराब पार्टी को जनादेश दे दिया। यह अलग बात है कि प्रदेश की जनता को कुख्‍यात अपराधियों के मंत्री के रूप में देखने का दुर्भाग्‍य नसीब हुआ है। 
राहुल गांधी जिस प्रदेश को बदलने की बात करते रहे, उसका मुख्‍यमंत्री बनने से इंकार कर दिया। उन्‍होंने बाकी पार्टियों से अलग कुछ नहीं किया। उन्‍होंने हिंदू-मुस्लिम और जाति समीकरणों से परे की रणनीति नहीं बनाई। खुशी की बात है कि 'सपेरों और बंजारों' के देश की जनता अब मात्र उजले चेहरों पर सम्‍मोहित नहीं होती। उस पर प्रियंका और राहुल के ग्‍लैमर ने असर नहीं किया। 
जनसभाओं में राहुल गांधी कहते थे कि उत्‍तर प्रदेश में भ्रष्‍टाचार देख कर हमे गुस्‍सा आता है, तो जनता पूछती थी कि केंद्र पर गुस्‍सा क्‍यों नहीं आता ? वहां आपकी सरकार है, आप वहां से शुरुआत क्‍यों नहीं करते? राहुल गांधी के पास इसका जवाब नहीं था। पूर्वांचल के दौरे पर अपने ही कार्यकर्ताओं के गुस्‍से को देख कर भी राहुल गांधी माहौल और जनता का मन भांप सकने में विफल रहे। भट्टा पारसौल से लेकर आजमगढ़ तक की जनता ने पूछा कि जमीन अधिग्रहण पर केंद्र से पहल क्‍यों नहीं होती, राहुल गांधी निरुत्‍तर थे। जनता ने अपना फैसला सुना दिया। 
यह भांपने की जरूरत है कि यह देश खामोशी से अपना नायक तलाश रहा है। कोई एक गांधी, कोई जयप्रकाश, कोई लोहिया। एक अदद नायक के लिए उसकी यह व्‍याकुलता अन्‍ना के आंदोलन ने सिद्ध की। अन्‍ना की अपनी सीमाएं हैं, इसलिए उनका नायकत्‍व सीमित रह गया। जनता में वह व्‍याकुलता अभी भी बनी हुई है। लेकिन नायक बनने के अपने खतरे हैं। नायकत्‍व की पहल करके संभव है आप चुनाव हार जाएं, आप सत्‍ता से वंचित रह जाएं। मगर जनता की स्‍मृतियों में आपको जगह मिलेगी। नायककत्‍व बदलाव के लिए होता है, सत्‍ता के लिए नहीं। हां, आपका नायकत्‍व सिद्ध होने की सूरत ताज आपके सर पर अनायास ही सज सकता है। राहुल गांधी को यह समझना चाहिए कि इस देश्‍ा को अपने गांधी या जयप्रकाश जैसे साहसी नेता की जरूरत है। क्‍या राहुल गांधी यह विकल्‍प दे सकते हैं?
 

 

गुरुवार, 15 मार्च 2012

सौदा

आज का सौदा बहुत अच्‍छा रहा
जिस घड़ी वह तौलने मुझको लगा
मैंने सब नजरें बचाकर 
आत्‍मा का एक टुकड़ा 
अनछुआ ही, पाक बिल्‍कुल 
झट उठाकर जेब के अंदर किया
दाम भी लाया खरा
खुद को बचा लाया, अहा...!
 

मैं कविताएं लिखता हूं


मैं कविताएं लिखता हूं

और जाने क्‍यूं लिखता हूं

मैं कविताएं लिखता नहीं चाहता

पर लिखता हूं

जानता हूं कि इन्‍हें कोई नहीं पूछेगा

लिखकर कागज का टुकड़ा

डाल दूंगा बिस्‍तर के नीचे

जैसे मुरगी अंडा रख लेती है

मेरे कविता से कोई उत्‍पादन हो सकता है

यह भी कोई नहीं मानेगा

हालांकि, मै ऐसा मानता हूं

मेरी कविता पर कइयों को उबकाई आती है

कई आलोचकगण लरजने लगने हैं भीतर से

पाठक भी मुंह बिचकाते हैं

नाक सिकोड़ते हैं

यह कैसी कविता है

इसमें माटी की गंध है

गोबर की बू है

गंदला सा दुआर है

इक अनपढ़ा दरबार है

कंडौरे का ठीहा है

गुबरैला, तितली

कोयल है पपीहा है

खेत हैं खलिहान हैं

मेहनतकशों के राग हैं

देह से उनके टपकते

पसीने की गंध है

कपड़े हैं सुथने से

कि जिनपर दर्जनों पैबंद है

कुछ रात के सुनसान हैं

कुछ गूंजते श्‍मशान हैं

सूखे से कुछ बागान हैं

कुछ मुर्दनी सी रहती है

कविता के मेरे गांव में

बस इ‍सलिए कविता मेरी

अच्‍छी नहीं लगती उन्‍हें

रविवार, 4 मार्च 2012

मेरे भीतर

मेरे भीतर बचे हैं अभी 
कम से कम एक निगाह भर आसमान 
दो गज ज़मीन 
एक टुकड़ा चाँद 
और कम  से कम इतने सितारे 
जो रात को सजा सकते हैं अपनी शर्त पर 
कम से कम इतने फूल 
जो महका सकते हैं धरती को 
कम से कम इतना पानी 
जो नम रख सकता है धरती की सतह 
कम से कम इतनी हवा 
जो बदल सकती है  ज़माने का रुख 

मेरे भीतर बचा हुआ इतना कुछ 

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...