गुरुवार, 24 सितंबर 2020

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ हमला बोला गया है. दोनों के हित की बात कहकर कानून बनाए हैं, लेकिन दोनों कानून किसानों और मजदूरों का नुकसान पहुंचाने वाले हैं. सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि श्रम कानूनों से जुड़े बिल ऐसे समय में पास किए गए जब विपक्ष संसद की कार्यवाही का बहिष्कार कर रहा है. ये बहिष्कार भी इसलिए है कि कृषि से जुड़े विधेयकों में सरकार ने विपक्ष और किसानों के सुझावों को नहीं सुना, न उन्हें निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया.
बेंगलुरु में किसानों के प्रदर्शन की तस्वीर. 

विपक्ष के बहिष्कार के बीच जो तीन लेबर बिल राज्यसभा से पास हुए हैं, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वे कानून बन जाएगे. कृषि विधेयकों के साथ इन लेबर विधेयकों का भी विरोध शुरू हो गया है. खुद आरएसएस का संगठन भारतीय मजदूर संघ भी श्रम कानूनों में बदलाव का विरोध कर रहा है. 

कामगारों की छंटनी आसान होगी 

श्रम कानूनों में जो बदलाव किए गए हैं, उनके लागू होने के बाद किसी भी कंपनी को कभी भी बंद किया जा सकता है. 300 कर्मचारियों वाली कंपनी अब बिना सरकार की इजाजत के कर्मचारियों को निकाल सकती है. साथ ही मजदूर यूनियन को अब कंपनी में अपनी मांग को लेकर अगर हड़ताल करनी है तो 60 दिनों पहले इसका नोटिस देना होगा. बिना नोटिस हड़ताल नहीं कर सकेंगे. एक तरह से सरकार ने मजदूरों से सामाजिक सुरक्षा छीन ली है.

जिस दौर में करोड़ों नौ​करियां चली गई हों, सरकार ऐसा कानून बना रही है जिससे कामगारों की छंटनी आसान हो जाएगी. नये श्रम कानूनों को लेकर करीब 12 मजदूर संगठन विरोध में आ गए हैं, जिसमें आरएसएस से जुड़ा भारतीय मजदूर संघ भी है. भारतीय मजदूर संघ ने कहा है कि सरकार ने मजदूरों से जुड़े जो कानून बनाए हैं, वे इंडस्ट्रिलिस्ट, कारोबारी और नौकरशाह को ज्यादा फायदा पहुंचाने वाले हैं. इसमें मजदूरों का खयाल नहीं रखा गया. इसमें मजदूर संघों के सुझाव को भी तवज्जो नहीं दी गई है. 

किसानों पर कहर बढ़ेगा 

किसानों के हित में कानून लाने की बात कहकर पूंजीपतियों के लिए कानून पास कर दिया गया है. नये कृषि विधेयकों में अनाज भंडारण की सीमा हटा ली गई है और जमाखोरी को कानून बना दिया गया है. सरकार इस बात पर नजर रखना बंद कर देगी कि कौन व्यापारी कितना अनाज जमा करके रखे हुए है. जमाखोरी कौन करेगा? रिटेल में उतर रहीं कॉरपोरेट कंपनियां, जिनकी नजर अब खुदरा बाजार पर है. सरकार कह रही है कि किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकेगा. 

भारत में 86% किसान ऐसे हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर या इससे कम खेती है. क्या ये किसी दूसरी जगह या दूसरे राज्य में जाकर अपनी फसल बेच सकते हैं? तो फिर ये कानून किसके लिए है? सरकार के नये कानून से देश की मंडियां खत्म हो जाएंगी. मंडियां खत्म होने से न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा. जमाखोरी को लीगल कर देने से महंगाई बढ़ेगी. सरकार एक तरफ कह रही है कि मंडी में अलग कानून होगा और मंडी से बाहर मार्केट का अलग कानून होगा. 

उधर सरकार ये भी कह रही है कि हम 'एक देश एक बाजार' बना रहे हैं. जब कानून दो होगा तो 'एक देश एक बाजार' कैसे हुआ? जब राज्य की कृषि की प्रकृति अलग है, पैदावार अलग है, फसलें अलग हैं तो एक देश एक बाजार का क्या मतलब हुआ? देश भर के किसान कृषि से जुड़े इन तीन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं. विरोध लंबे समय से चल रहा है और कई राज्यों में है. इसे देखते हुए विपक्षी दल भी किसानों के साथ आ गए हैं. 

देश में 80 फीसदी से ज्यादा किसान छोटी जोत वाले हैं. किसान अपनी उपज से साल भर अपने खाने के लिए बचा लेता है, बाकी बेच देता है. अनाज की ये राशि दस, बीस या तीस क्विंटल हो सकती है. यूपी बिहार में जहां मंडियां नहीं हैं, वहां किसान खुले बाजार में ही बेचते हैं. औने पौने दाम पर. न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ छह फीसदी किसानों को मिल पाता है, क्योंकि पंजाब, हरियाणा और कुछ हद तक मध्य प्रदेश को छोड़कर बाकी देश में पर्याप्त मंडियां ही नहीं हैं. 

 आप कहते हैं कि हम बाजार खोल रहे हैं, देश भर में जहां चाहो, वहां बेचो. सवाल ये है कि क्या तेलंगाना का कोई किसान अपना दस क्विंटल गेहूं बेचने दिल्ली आएगा? बलिया वाला किसान अपना धान बेचने लखनऊ जाएगा? बुंदेलखंड वाला अपनी सरसों बेचने गुड़गांव जाएगा? ये बकवास है. 

सबसे बड़ा मसला ये है कि जब सरकार किसानों को आधा अधूरा संरक्षण देती है, उस हालत में देश में हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं. कृषि क्षेत्र को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिए जाने के बाद असुरक्षा और बढ़ेगी. किसानों की मुसीबतें कम होने की जगह उन पर और ज्यादा कहर टूटेगा. 

किसान संगठनों के आरोप 

किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून से कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका सीधा नुकसान किसानों को होगा. इन तीनों विधेयक किसानों को बंधुआ मजदूरी में धकेल देंगे. 

ये विधेयक मंडी सिस्टम खत्म करने वाले, न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने वाले और कॉरपोरेट ठेका खेती को बढ़ावा देने वाले हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान होगा. बाजार समितियां किसी इलाक़े तक सीमित नहीं रहेंगी. दूसरी जगहों के लोग आकर मंडी में अपना माल डाल देंगे और स्थानीय किसान को उनकी निर्धारित रकम नहीं मिल पाएगी. नये विधेयक से मंडी समितियों का निजीकरण होगा. 

नया विधेयक ठेके पर खेती की बात कहता है. जो कंपनी या व्यक्ति ठेके पर कृषि उत्पाद लेगा, उसे प्राकृतिक आपदा या कृषि में हुआ नुक़सान से कोई लेना देना नहीं होगा. इसका नुकसान सिर्फ किसान उठाएगा. अब तक किसानों पर खाद्य सामग्री जमा करके रखने पर कोई पाबंदी नहीं थी. ये पाबंदी सिर्फ़ व्यावसायिक कंपनियों पर ही थी. अब संशोधन के बाद जमाख़ोरी रोकने की कोई व्यवस्था नहीं रह जाएगी, जिससे बड़े पूंजीपतियों को तो फ़ायदा होगा, लेकिन किसानों को इसका नुक़सान झेलना पड़ेगा. 

किसानों का मानना है कि ये विधेयक "जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी की आजादी" का विधेयक है. विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है कि किसानों की उपज की खरीद कैसे सुनिश्चित होगी. किसानों की कर्जमाफी का क्या होगा? जाहिर है कि सरकार ने संसदीय मर्यादा और परंपराओं को दरकिनार करके जबरन जो कानून पास करवाए हैं, वे किसानों और मजदूरों के विरोध में और पूंजीपतियों के हित में हैं.

बुधवार, 23 सितंबर 2020

क्या गहरे अंधेरे में चला गया है दुनिया का सबसे जीवंत लोकतंत्र?

शाहीन बाग की दादी ने टाइम मैगजीन में जगह बनाई है. वे दुनिया के सौ प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल हुई हैं. जनता के ताकत की यही सुंदरता है कि वह हारकर भी जीत जाती है. दादी जिस कानून के खिलाफ धरने पर बैठी थीं, वह अभी बना हुआ है, लेकिन दुनिया यह जान गई है कि भारत लोकतंत्र के रास्ते पर जिस गति से आगे बढ़ा था, उसी गति से पीछे जा रहा है.

शाहीन बाग की प्रदर्शनकारी बिल्कीस बानो

जब देश में प्रचारित किया जा रहा था कि शाहीन बाग में बैठे लोग देश के खिलाफ षडयंत्र कर रहे हैं, तब बाकी दुनिया भी हमारी तरफ देख रही थी. एक काले कानून के विरोध का अंजाम कुछ न हुआ हो, लेकिन जिस बात से भारतीय जनता का एक वर्ग डरा हुआ है, दुनिया भी उसे वैसे ही देख रही है.

टाइम मैगजीन ने लिखा है, "लोकतंत्र के लिए मूल बात केवल स्वतंत्र चुनाव नहीं है. चुनाव केवल यही बताते हैं कि किसे सबसे ज़्यादा वोट मिले. लेकिन इससे ज़्यादा महत्व उन लोगों के अधिकारों का है, जिन्होंने विजेता के लिए वोट नहीं किया. भारत पिछले सात दशकों से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बना हुआ है. यहां की 1.3 अरब की आबादी में ईसाई, मुसलमान, सिख, बौद्ध, जैन और दूसरे धार्मिक संप्रदायों के लोग रहते हैं. ये सब भारत में रहते हैं, जिसे दलाई लामा समरसता और स्थिरता का एक उदाहरण बताकर सराहना करते हैं."

पत्रिका ने लिखा है, "नरेंद्र मोदी ने इस सबको संदेह के घेरे में ला दिया है. हालांकि, भारत में अभी तक के लगभग सारे प्रधानमंत्री 80% हिंदू आबादी से आए हैं, लेकिन मोदी अकेले हैं जिन्होंने ऐसे सरकार चलाई जैसे उन्हें किसी और की परवाह ही नहीं. उनकी हिंदू-राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी ने ना केवल कुलीनता को ख़ारिज किया बल्कि बहुलवाद को भी नकारा, ख़ासतौर पर मुसलमानों को निशाना बनाकर. महामारी उसके लिए असंतोष को दबाने का साधन बन गया. और दुनिया का सबसे जीवंत लोकतंत्र और गहरे अंधेरे में चला गया है."

कभी दुनिया इस बात के लिए भारत की तारीफ करती थी कि एक देश अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हुआ और दुनिया का सबसे सफल लोकतंत्र बना. आपातकाल और उसके बाद तक कई बार दार्शनिक लोग कहते रहे कि 'भारत में इतनी विविधता है कि ये एक देश के रूप में बना नहीं रह सकता, ये ढह जाएगा'. लेकिन आजादी के पहले से ही नेहरू कह रहे थे कि भारत की विविधता ही भारत की खूबी है और भारत ने इसे सच साबित करके दिखाया.

आज भारत दुनिया भर में बदनामी झेल रहा है. कभी हमारे प्रधानमंत्री को 'डिवाइडर इन चीफ' लिखा जाता है, कभी लिखा जाता है कि "दुनिया का सबसे जीवंत लोकतंत्र और गहरे अंधेरे में चला गया है." धर्म के आधार पर नागरिकता देने का कानून पास करने वाले देश की तारीफ भी कौन करेगा?

हम दशकों तक धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान की आलोचना करते रहे. हम निष्कर्ष निकालते रहे कि धर्म किसी राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता. जो पाकिस्तान धर्म के नाम पर बना था, वह 25 साल बाद भाषा के आधार पर टूट गया था. लेकिन फिर आरएसएस की सांप्रदायिकत नीतियां कानून तय करने लगीं. विरोध प्रदर्शनों में दर्जनों लोगों के जान गंवाने के बावजूद सरकार पीछे नहीं हटी और सीएए पास किया गया जो धर्म के आधार पर नागरिकता तय करने का कानून है. 

जिस बुनियाद पर पाकिस्तान एक असफल देश बना हुआ है, आज 75 साल बाद उसी बुनियाद हम लोकतंत्र महल नहीं बना सकते. ये न सिर्फ मौजूदा भारतीय लोकतंत्र को नष्ट करेगा, बल्कि भारत को 75 साल पीछे पहुंचा देगा. सरकार को इस कानून पर आगे नहीं बढ़ना चाहिए.

शनिवार, 4 जनवरी 2020

छात्रसंघः बंजर होती राजनीति की नर्सरी

पूरब के ऑक्सफोर्ड के नाम से मशहूर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जब ‘जय श्रीराम’ के नारे सुनाई देने लगे तो यह तय हो गया कि मौजूदा सियासत की गंदगी ने इस ऐतिहासिक परिसर में घुसपैठ कर ली है. निराला, महादेवी और बच्चन की परंपरा वाले इस विश्वविद्यालय के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता. हालिया निर्वाचित छात्रसंघ के उद्घाटन के लिए कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया तो छात्रों के एक बड़े समूह ने इसे विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक माहौल पर कट्टरता के हमले के रूप में देखा. इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों ने भी विश्वविद्यालय परिसर में हिंदूवादी नेता के प्रवेश को सर्वथा वर्जित करार दिया और योगी आदित्यनाथ को बैरंग लौटना पड़ा. जिस इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने बाबरी ध्वंस के बाद विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल को परिसर में नहीं घुसने दिया था, उसी विश्वविद्यालय के छात्रों ने वहां पर योगी आदित्यनाथ को भी नहीं आने दिया. लेकिन मसला योगी का विश्वविद्यालय में आना या न आना नहीं था, मसला यह था कि राजनीति के कट्टर और विवादित चेहरों की किसी विश्वविद्यालय परिसर को जरूरत ही क्या है? हालांकि, यह मसला यहीं नहीं खत्म हो गया. जिस भय से योगी आदित्यनाथ को विश्वविद्यालय में जाने से रोका गया था, वह सामने आया. विश्वविद्यालय परिसर योगी के समर्थन और विरोध को लेकर दो खेमों में बंट गया.

हाल ही में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव हुआ, जिसमें निर्दलीय प्रत्याशी ऋचा सिंह अध्यक्ष चुनी गईं. पैनल के बाकी पद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मिले. 20 नवंबर को छात्रसंघ उद्घाटन का कार्यक्रम रखा गया. इसके लिए भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया. यह कार्यक्रम एबीवीपी ने आयोजित किया था और योगी को छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह की असहमति के बावजूद बुलाया गया था. ऋचा सिंह के विरोध को जब नजरअंदाज किया गया तो ऋचा ने विश्वविद्यालय से लिखित में शिकायत की. ऋचा का तर्क था कि एक तो ‘मेरे अध्यक्ष होने के बावजूद योगी को बुलाने या आयोजन की निर्णय प्रक्रिया में मुझे शामिल नहीं किया गया. दूसरे, योगी लगातार धर्म और संस्कृति के नाम पर भड़काऊ बातें करते हैं. वे ऐसी शख्सियत नहीं हैं जो विश्वविद्यालय की गरिमा के अनुरूप हो. छात्रसंघ को संबोधित करने के लिए किसी अकादमिक शख्सियत को बुलाया जाना चाहिए.’

इस विरोध के बावजूद जब गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ का कार्यक्रम रद्द नहीं हुआ तो ऋचा अपने समर्थक छात्रों-छात्राओं के साथ अनशन पर बैठ गईं. इस विरोध का इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों ने भी समर्थन किया और प्रशासन से अपील की कि योगी को विश्वविद्यालय में आने देना एक गलत परंपरा की शुरुआत होगी, इसे रोका जाए. अंतत: प्रशासन ने योगी का कार्यक्रम रद्द कर दिया.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे कैंपस में 90 साल बाद किसी महिला को छात्रसंघ अध्यक्ष चुना गया है. ऋचा का आरोप है, ‘चुनाव के दौरान मुझपर लगातार जातिवादी और लैंगिक हमले हुए. यह परिसर लड़कियों के लिए बेहद डरावना है.’ अब ऋचा सिंह की अगुआई में छात्राएं दीवारों पर उनके नाम के साथ लिखी अश्लील गालियों के विरोध में आंदोलन कर रही हैं. इतने पुराने विश्वविद्यालय में भी अगर छात्राएं इस बात के लिए आंदोलन करें कि उनको गालियां न दी जाएं तो विश्वविद्यालय प्रशासन, छात्रसंघ और उस परिसर की छीजती परंपरा पर गंभीर सवाल उठते हैं.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जहां की अकादमिक परंपरा और छात्रसंघ का बेहद गौरवशाली इतिहास रहा है, वहां ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? जिस परिसर से युवा तुर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर, सामाजिक न्याय के पुरोधा वीपी सिंह समेत दर्जनों नेता निकले हों, उस परिसर की छात्र राजनीति का स्तर यहां तक कैसे पहुंच गया? छात्र हित के जरूरी मुद्दों से लेकर सामाजिक-आर्थिक सवालों पर लड़ने वाले छात्रसंघ की फिसलन उसे यहां तक कैसे ले आई कि अब वह योगी आदित्यनाथ को शैक्षिक परिसर में घुसाने पर आमादा हो गया?

इन सवालों के जवाब पिछले दो-तीन दशक की छात्र राजनीति के अवसान में छुपे हैं. देश भर के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ पर प्रतिबंध है. छात्रसंघ अब वहीं बचा है, जहां पर छात्र राजनीति की पुरानी परंपरा रही है और छात्रों ने लड़-भिड़ कर छात्रसंघ बहाल करा लिया है. आज पूरे देश में कहीं भी छात्रसंघ ऐसी हालत में नहीं हैं जो व्यापक स्तर पर सरकार, यहां तक कि विश्वविद्यालयों के किसी गलत निर्णय पर दबाव समूह की भूमिका में आएं और उस निर्णय को बदलवा सकें.

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता के बाद के सालों में जितने भी बड़े आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की सक्रिय भागीदारी रही है. स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े नेताओं के नेतृत्व में जितने भी उल्लेखनीय आंदोलन हुए, उन सभी आंदोलनों की सफलता की इबारत युवाओं ने ही लिखी. पहली बार 1905 के स्वदेशी आंदोलन में युवाओं ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की. 1920 में महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो देश भर के युवा इसमें कूद पड़े. पहले महीने में ही 90,000 छात्र स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए थे. 1922 में चौरीचौरा कांड को राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में युवाओं ने ही अंजाम दिया था. 1930-31 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी व्यापक स्तर पर युवाओं ने भागीदारी की. 1942 में गांधीजी के आह्वान पर ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन छिड़ा तो सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. यह पूरा आंदोलन युवाओं और छात्रों के हाथ में आ गया था. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, रोशन सिंह, राजेंद्र सिंह लाहिड़ी, भगत सिंह आदि शहीदों के अलावा बलिदान देने वाले ज्यादातर क्रांतिकारी युवा ही थे. 1936 में ‘आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन’ (एआईएसएफ) की स्थापना हुई जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में बेहद उल्लेखनीय योगदान रहा.

भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप सबसे पहले 1828 में कलकत्ता में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ के रूप में सामने आया. इसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र हेनरी विवियन डीरोजियो द्वारा की गई. 1840 से 1860 के मध्य ‘यंग बंगाल मूवमेंट’ के रूप में दूसरे छात्र आंदोलन का संगठित प्रयास हुआ. 1848 में दादा भाई नौरोजी की पहलकदमी पर मुंबई में ‘स्टूडेंट्स लिटरेरी एंड साइंटिफिक सोसाइटी’ की स्थापना हुई. आनंद मोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में ‘स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ की स्थापना हुई. इस संगठन ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में अहम भूमिका निभाई. 

डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अगुआई में 1906 में ‘बिहारी स्टूडेंट्स सेंट्रल एसोसिएशन’ की स्थापना हुई थी, जिसने बनारस से कलकत्ता तक अपना विस्तार किया. 1920 में नागपुर में ‘ऑल इंडिया कॉलेज स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस’ की शुरुआत हुई. इसका उद्घाटन लाला लाजपत राय ने किया था. 26 मार्च, 1931 को कराची में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें देश भर से 700 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. आजादी के बाद के वर्षों में भी देश में जो भी बड़े आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की निर्णायक या नेतृत्वकारी भूमिका रही. 1969 में तेलंगाना आंदोलन, 1974-75 में इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन और आपातकाल, 1981 में असम आंदोलन और बोफोर्स घोटाले के बाद वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्रों की ही अहम भूमिका रही.

आजादी के बाद हैदराबाद निजाम का हिस्सा रहे तेलंगाना को 1956 में नवगठित आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया था. 40 के दशक से ही कॉमरेड वासुपुन्यया की अगुवाई में वामपंथी अलग तेलंगाना राज्य की मांग के लिए अभियान चला रहे थे. तेलंगाना के छात्रों ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया. 1969 में यह हिंसक हो गया. इस आंदोलन का केंद्र उस्मानिया विश्वविद्यालय था. 6 अप्रैल, 1969 को तेलंगाना के समर्थन में उस्मानिया विश्वविद्यालय के हजारों छात्रों ने मिलकर उस मीटिंग का घेराव किया जो आंध्र प्रदेश के तेलंगाना विरोधियों ने बुलाई थी. छात्रों की जबरदस्त भीड़ पर पुलिस की ओर से फायरिंग कर दी गई. तीन छात्र मारे गए.

एक मई को एक बार फिर उस्मानिया के छात्रों और तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने बड़ी रैली निकाली. रैली पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के बावजूद हजारों की भीड़ एकत्र हो गई. इस रैली में भी पुलिस फायरिंग हुई जिसमें बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे. 1969 के पूरे तेलंगाना आंदोलन के दौरान पुलिस की गोली से 369 लोगों की जान गई थी. मारे गए लोगों में ज्यादातर उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्र थे. हालांकि, उस वक्त एम. चेन्ना रेड्डी की अगुआई वाली तेलंगाना प्रजा समिति के कांग्रेस में विलय के साथ यह आंदोलन शांत हो गया. 2000 में भाजपा सरकार ने जब तीन नए राज्यों-उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया तो तेलंगाना आंदोलन फिर से शुरू हो गया. 2001 में के. चंद्रशेखर राव अलग तेलंगाना का मुद्दा उठाते हुए तेलुगू देशम पार्टी से अलग हुए और तेलंगाना राष्ट्र समिति बना ली. लंबे संघर्ष के बाद अंतत: 2 जून, 2014 को अलग तेलंगाना राज्य का गठन हुआ.

आजादी के बाद छात्र आंदोलन की सबसे मुखर भूमिका 70 के दशक में देखने को मिली. 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लोकप्रियता की बुलंदियों पर थीं लेकिन 1973 से इंदिरा गांधी के लिए सियासत का रुख बदलने लगा. आजादी के 25 साल बाद भी जनता की आकांक्षाएं अधूरी थीं. गरीबी एवं आर्थिक विषमता के मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय काम नहीं हो सका था. जनता में अलग-अलग कारणों से असंतोष उभर रहा था. मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, आकाश छूती महंगाई और खाद्य पदार्थों की कमी ने मिलजुल कर एक गंभीर संकट खड़ा कर दिया. देश के कई हिस्सों में सूखे की वजह से दंगे होने लगे और देश भर में बड़े पैमाने पर अशांति उत्पन्न हो गई थी. हड़तालों का दौर शुरू हुआ. इस खराब होते हालात में छात्रों के आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस अक्सर हिंसक होने लगे.

संजय गांधी को मारुति कार बनाने का लाइसेंस मिलने के बाद भ्रष्टाचार से व्याप्त घोर असंतोष और बढ़ गया. देश में बढ़ता जनाक्रोश जनवरी, 1974 में गुजरात में छात्र आंदोलन के रूप में फूट पड़ा. राज्य के कई शहरों में छात्र सड़क पर उतर आए. छात्रों के इस प्रदर्शन में विपक्षी दलों ने भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया. दस सप्ताह तक लगातार गुजरात अशांत रहा और अंतत: इंदिरा गांधी ने वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया. गुजरात के नक्श-ए-कदम पर बिहार के छात्रों ने भी मार्च में आंदोलन शुरू कर दिया. बिहार विधानसभा के घेराव से शुरू हुआ यह आंदोलन बार-बार छात्रों और पुलिस की मुठभेड़ में तब्दील होने लगा. एक सप्ताह में 27 लोग मारे गए. इस आंदोलन में जयप्रकाश नारायण भी शामिल हो गए और आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. जेपी ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया जो ‘उस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष था जिसने हर व्यक्ति को भ्रष्ट बनने के लिए मजबूर कर दिया था.’ जेपी के नेतृत्व में यह आंदोलन बिहार से निकलकर पूरे देश में फैल गया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस आंदोलन के प्रति लगातार उग्र होती गईं और इसकी परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई जिसके बाद पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी.

असम छात्र आंदोलन आजादी के बाद के बड़े छात्र आंदोलनों में से एक है, जिसने सत्ता परिवर्तन का सूत्रपात किया. 50 के दशक में यहां राज्य सरकार की नौकरियों में असमिया लोगों को प्राथमिकता देने और असमिया भाषा को कामकाज की भाषा बनाने की मांग हुई. 1979 के विधानसभा चुनाव के गैर-कानूनी प्रवासियों के बड़ी संख्या में मतदाता सूची में शामिल होने की बात सामने आई. ‘ऑल असम स्टूडेंट यूनियन’ ने क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्कृतिक संगठनों के गठबंधन ‘असम गण संग्राम परिषद’ के साथ मिलकर इसके विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया. इस आंदोलन के चलते 16 में से 14 चुनाव क्षेत्रों में चुनाव नहीं कराए जा सके. इसी आंदोलन के दौरान 7 अप्रैल, 1979 को उल्फा का गठन हुआ जिसका मकसद एक समाजवादी असम राज्य की स्थापना बताया गया. बाद में यह संगठन हिंसक कार्रवाइयां करने लगा और आगे चलकर 1990 में इसे आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल दिया गया.

इस छात्र आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि 1985 में हुए चुनावों में 33 वर्षीय प्रफुल्ल महंत अपने कॉलेज से सीधे सीएम की कुर्सी पर पहुंच गए. महंत को 126 में से 67 सीटें मिली थीं. बहुत समय बाद असम में कोई ऐसी सरकार आई थी, जिसे पूर्ण बहुमत मिला था. जनता की आकांक्षाएं सातवें आसमान पर थीं. महंत की सरकार पांच साल तक चली तो लेकिन इस आंदोलन से उपजी जन आकांक्षाएं निराशा में तब्दील होती गईं. 1990 में हुए चुनावों में प्रफुल्ल महंत हार गए.

चंद्रशेखर हत्याकांडः युवा संभावनाओं की हत्या
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ में कई ऐसे युवा सक्रिय रहे हैं जिनमें बेहतर नेतृत्व की संभावनाएं मौजूद रही हैं. ऐसा ही एक नाम था चंद्रशेखर प्रसाद. चंद्रशेखर 1994-95 में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे. उन्होंने लगातार तीन साल तक छात्रसंघ चुनाव जीतकर कीर्तिमान बनाया था. उन्होंने जेएनयू में आईसा का जनाधार बढ़ाने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी पुख्ता किया था. 31 मार्च 1997 को बिहार के सिवान जिले में वे बथानी टोला नरसंहार के खिलाफ आयोजित एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे, तभी उनकी हत्या कर दी गई थी. उनके साथ दो अन्य पार्टी कार्यकर्ता श्यामनारायण यादव और भुट्टी मियां की भी गोली लगने से मौत हो गई थी. चंद्रशेखर बिहार में राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होकर अभियान चला रहे थे. आरोप लगा था कि यह हत्या बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के इशारे पर की गई थी. भारत में युवा राजनीति की संभावनाओं को बर्बरतापूर्वक खत्म करने देने का यह सबसे घातक उदाहरण है.

60 से 80 के दशक के बीच का दौर छात्र आंदोलनों का तूफानी दौर रहा. लेकिन आपातकाल के बाद छात्रों की आंदोलनकारी भूमिका को राजनीतिक दखल के जरिये नीतिगत स्तर पर लगातार हतोत्साहित किया गया. उसके बाद, खासकर पिछले दो-तीन दशकों में मंडल-मंदिर की राजनीतिक लड़ाई में युवा विभाजित हुए. उदारीकरण-भूमंडलीकरण की चमक से प्रभावित होकर जनहित के मुद्दे गायब होते गए और छात्र आंदोलन कमजोर होता गया. इसके अलावा, सत्ताधारी वर्ग ने छात्र आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया. रही सही कसर लिंगदोह समिति की सिफारिशों ने पूरी कर दी. इस सिफारिश के जरिये छात्रसंघों को कमजोर बनाने की कोशिश की गई. उदारीकरण के बाद ही विश्वविद्यालयों के अराजनीतिकरण का फैशन चला और छात्रसंघों को राजनीतिक दलों का पालतू बताया जाने लगा.

बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके आनंद प्रधान कहते हैं, ‘छात्रसंघों को सायास कमजोर करने की वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर-कांग्रेसी पार्टियों की केंद्र में सरकार रही हो या राज्य सरकारें, सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आंदोलनों से डरती रही हैं, क्योंकि 60 से 80 के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देने वाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.’ तेलंगाना आंदोलन का केंद्र उस्मानिया विश्वविद्यालय था तो 1975 के आंदोलन में भी कॉलेज और विश्वविद्यालय ही आंदोलन के केंद्र बने.

पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया के आंदोलन और बाद में जेपी आंदोलन ने युवाओं पर बहुत व्यापक प्रभाव डाला था. लोहिया की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता ने जहां युवाओं को राजनीति से जोड़कर सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर जागरूक किया तो जेपी ने व्यवस्था की चूलें हिला देने वाले आंदोलन की अगुवाई करके उसे मूर्तरूप दिया था.

इन्हीं आंदोलनों की प्रेरणा थी कि भारतीय राजनीति में लालू यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, मुलायम सिंह, सुशील मोदी जैसे समाजवादी नेताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई. भाजपा के रविशंकर प्रसाद, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और विजय गोयल छात्रसंघ से आए हुए नेता हैं. कांग्रेस के सीपी जोशी, अजय माकन, भाकपा के डी. राजा, सीताराम येचुरी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी भी छात्रसंघ की उपज हैं. जेपी आंदोलन ने न सिर्फ इंदिरा गांधी की तानाशाही को मुंहतोड़ जवाब दिया था, बल्कि भारतीय राजनीति में कई क्षेत्रीय दलों के उभार के कारण कांग्रेस का एकाधिकार खत्म हो गया.

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के रीडर संजय द्विवेदी अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘पिछली सदी के आखिरी बड़े छात्र आंदोलन की शुरुआत 1974 में गुजरात के एक विश्वविद्यालय के मेस की जली रोटियों के प्रतिरोध के रूप में हुई और उसने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक छात्र आंदोलन की भूमि तैयार की. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व संभालने के बाद यह आंदोलन युवाओं की भावनाओं का प्रतीक बन गया. किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद कुर्सी की रस्साकसी में संपूर्ण क्रांति का नारा तिरोहित हो गया. सपनों के इस बिखराव के चलते छात्र राजनीति में मूल्यों का स्थान आदर्शविहीनता ने ले लिया. आदर्शविहीनता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में तब तक संजय गांधी का उदय हो चुका था. उनके साथ विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली उद्दंड नौजवानों की एक पूरी फौज थी जो सब कुछ डंडे के बल पर नियंत्रित करना चाहती थी. जेपी आंदोलन में पैदा हुई युवा नेताओं की जमात, ‘संपूर्ण क्रांति’ की विफलता की प्रतिक्रिया में युवक कांग्रेस से जुड़ गई. इसके बाद शिक्षा मंदिरों में हिंसक राजनीति, छेड़छाड़, अध्यापकों से दुर्व्यवहार, गुंडागर्दी, नकल, अराजकता और अनुशासनहीनता का सिलसिला शुरू हुआ. छात्रसंघ चुनावों में बमों के धमाके सुनाई देने लगे. संसदीय राजनीति की सभी बुराइयां छात्रसंघ चुनावों की अनिवार्य जरूरत बन गईं.’ समय के साथ परिसरों का यह  अपराधीकरण बढ़ता गया और स्थिति यहां तक पहुंच गई कि छात्रसंघों पर प्रतिबंध लगाने के पर्याप्त बहाने मौजूद हो गए.

हाल के कुछ वर्षों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में गोली-बम चलना आम बात है. इस बार भी चुनाव पूर्व भाषण के दौरान बमबाजी हुई और फ्री में होर्डिंग न बनाने को लेकर एक छात्रनेता प्रवीण यादव ने सिविल लाइन्स में कथित दौर पर फायरिंग करके व्यापारी को धमकाया. इसी विश्वविद्यालय में 2006 के चुनाव के दौरान पोस्टर हटवाने को लेकर हुए विवाद में एक प्रत्याशी कमलेश यादव की हत्या हो गई थी. जनवरी, 2011 में मेरठ में सपा के छात्र नेता प्रसोनजीत गौतम ने कथित तौर पर एलएलबी की एक छात्रा का घर में घुसकर अपहरण कर लिया था. इस तरह के उदाहरण देश भर के छात्रसंघों में भरे पड़े हैं. तमाम ऐसे उदाहरण सामने आए जब छात्रसंघ से निकलकर युवाओं ने खनन, ठेकेदारी, अपहरण जैसे अपराधों की ओर रुख किया. लिंगदोह समिति की सिफारिशें लागू होने के पहले एक बार ऐसा दिलचस्प वाकया भी देखने को मिला जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक पचास वर्षीय शख्स ने अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ा और उसी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे उनके बेटे ने उनके लिए प्रचार किया. कैंपस में बने रहने के लिए 40-45 साल तक के छात्रनेता चुनाव मैदान में उतरने लगे. इस तरह छात्रसंघों के अपराधीकरण और बढ़ते कदाचार ने उन पर प्रतिबंध की राह प्रशस्त की.

1968-69 में इलाहाबाद छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे विनोद चंद्र दुबे कहते हैं, ‘मैंने 32 रुपये में पूरा चुनाव लड़ा था. तब छात्र राजनीति में धन, बल, गोली-बंदूक, गाड़ी, पोस्टर-होर्डिंग आदि की जरूरत नहीं थी. छात्रों के बीच काम करके पहचान बनाई जाती थी. छात्रों को बस उम्मीदवारी की सूचना देनी होती थी. लिंगदोह समिति ने जो उम्र सीमा निर्धारित की, वह हमारे समय अघोषित नियम था. आम तौर पर विश्वविद्यालय में जितने वर्ष स्वाभाविक तौर पर पढ़ाई करना होता है, उन्हीं वर्षों में विद्यार्थी चुनाव लड़ते थे. विश्वविद्यालय में बने रहने और चुनाव लड़ने के लिए कोई छात्र फर्जी एडमिशन नहीं लेता था. सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर मूल्यों में गिरावट आई तो छात्रसंघ भी उसके शिकार हुए. अब परिसर में ‘दुधमुंहे’ युवा गोलियां तक चलाते हैं.’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आज सब कुछ पहले के उलट है.

आपातकाल ने युवा शक्ति को गंभीर चोट पहुंचाई थी. इसने समय के साथ युवाशक्ति को और कमजोर किया. उसके बाद कई आंदोलन चले, लेकिन उनका हश्र बुरा हुआ. असम आंदोलन के बाद मुख्यमंत्री बने प्रफुल्ल महंत की सरकार सही मायने में पूरी तरह छात्र आंदोलन से बनी सरकार थी. यह भारत में पहली बार हुआ था. लेकिन सत्तासीन होने के बाद उस सरकार ने भी जनता को निराश किया. जेपी आंदोलन तो सफल रहा था, लेकिन जनता सरकार के गिर जाने से पूरे आंदोलन पर पानी फिर गया. जेपी आंदोलन की यह विफलता और उसके बाद असम छात्र आंदोलन की निराशाजनक परिणति ने छात्र आंदोलनों की संभावना पर गंभीर सवाल खड़े किए.

इसके बाद जब भी छात्र आंदोलन हुए, वे अपार उम्मीद के साथ शुरू हुए और पहले से अधिक निराशा छोड़ गए. विश्वनाथ प्रताप सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को भी युवाओं का देशव्यापी समर्थन मिला, लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की हड़बड़ी और उस पर जाति की राजनीति ने युवाओं को दो धड़े में बांट दिया. इसके बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन और फिर बाबरी ध्वंस ने और खराब स्थितियां उत्पन्न कीं. आनंद प्रधान कहते हैं, ‘देश में बाबरी आंदोलन और आरक्षण विरोधी आंदोलन के कारण बजरंग दल जैसे संगठनों का तेजी से उभार हुआ. प्रतिकार की राजनीति ने छात्रसंघों को बहुत नुकसान पहुंचाया. इन दोनों तथाकथित आंदोलनों से छात्र आंदोलनों को गहरी चोट पहुंची, जिसकी भरपाई नहीं हो सकी.’

छात्र आंदोलनों को कमजोर करने में राजनीतिक दलों और उनके पालतू छात्र संगठनों ने अहम भूमिका निभाई है. सत्ताधारी दलों ने छात्र संगठनों को सिर्फ गुंडागर्दी के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. उनकी भूमिका रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार करने और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ तक सीमित हो गई. इसका नतीजा यह हुआ कि छात्र राजनीति का अपराधीकरण होता गया. छात्रसंघ चुनाव धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के मकड़जाल में फंसते चले गए. इस स्थिति ने छात्र-राजनीति को आम छात्रों के असल मुद्दों से दूर कर दिया. छात्रहितों से दुराव और अपराधीकरण ने युवाओं के अराजनीतिकरण में बड़ा योगदान दिया.

70 के दशक तक छात्र राजनीति में विश्वविद्यालयों के सबसे प्रतिभाशाली छात्र सक्रिय होते थे. पढ़ाई के साथ-साथ वे छात्रों के मसलों से लेकर समाज और देश के विभिन्न मसलों पर बहस-मुबाहिसों में हिस्सेदारी करते थे. यह रास्ता मुख्यधारा की राजनीति तक जाता था. अकेले इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ से शंकरदलाय शर्मा, मदनलाल खुराना, विजय बहुगुणा, जनेश्वर मिश्र, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, अर्जुन सिंह जैसे नेता और सुभाष कश्यप जैसे प्रशासक और संविधानविद निकले. सुभाष कश्यप बताते हैं, ‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मैंने एमए टॉप किया था. तब 18 साल की उम्र में मताधिकार की मांग को लेकर हमने खूब सक्रियता भी दिखाई और पढ़ाई भी की. सियासी दलों का दखल परिसरों में तब भी था, लेकिन हमने दूरी बनाए रखी, इसलिए उसकी बुराइयों से दूर रहे.’

कोई हैरानी की बात नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में अन्ना आंदोलन और निर्भया गैंग रेप के उठ खड़े हुए जनाक्रोश को छोड़ दें, तो किसी व्यापक मुद्दे पर छात्र आंदोलन नहीं हुआ. जो हुआ भी वह बेहद निष्प्रभावी और क्षेत्रीय किस्म का आंदोलन रहा. अन्ना आंदोलन भी यूपीए सरकार के अनवरत भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से की अभिव्यक्ति से ज्यादा कुछ नहीं साबित हुआ. निर्भया गैंग रेप के विरोध में भड़का जनाक्रोश इस मामले में ऐतिहासिक था कि कोई नेतृत्व न होने के बावजूद लगभग पूरे देश में प्रदर्शन हुए. इस बर्बरतापूर्ण घटना के सामने आते ही बड़ी संख्या में युवा अपना गुस्सा जताने के लिए सड़क पर आ गए. जेएनयू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आवास पर जबरदस्त प्रदर्शन किया. पुलिस ने जब इस प्रदर्शन को वाटर कैनन और लाठीचार्ज के सहारे दबाने की कोशिश की तो जनता का गुस्सा और बढ़ गया. पूरी दिल्ली के लोग रायसीना हिल्स, विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक एकत्र हो गए. इस प्रदर्शन में बिना किसी नेतृत्व के बड़ी संख्या में युवतियां शामिल थीं, जिन्होंने राजधानी के सत्ता-केंद्रों को घेर लिया. सबसे दिलचस्प यह रहा कि पुलिस की लाठीचार्ज, वाटर कैनन, आंसूगैस आदि के इस्तेमाल से युवा पीछे नहीं हटे, बल्कि पुलिस के दमन से यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया. खासकर महिलाओं में जबरदस्त नाराजगी के चलते सरकार पर दबाव बना और महिलाओं की आजादी, सम्मान और सुरक्षा का मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडे पर आ गया. हालांकि, अभी तक यह एजेंडा राजनीतिक जुमलेबाजी से आगे नहीं बढ़ सका है.

आनंद प्रधान कहते हैं, ‘छात्र आंदोलन लोकतांत्रिक राजनीति की रीढ़ हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उन पर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आंदोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं. देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के निजी मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं.’

स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘छात्रसंघ स्वतः खत्म नहीं हुए हैं, उन पर देश भर में प्रतिबंध लगा दिया गया है. हर राज्य की सरकारों ने इसे अपने-अपने स्तर पर प्रतिबंधित किया इसलिए यह राष्ट्रीय ट्रेंड के रूप में नहीं दिखा. छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर पाबंदी लगा दी गई. इसका कारण यह नहीं है कि युवा राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखता, बल्कि वह और अधिक आशाओं के साथ सामने आ रहा है. अब युवा शक्ति को जोड़ सकने वाली ताकतें निठल्ली हो गई हैं और छात्र राजनीति पर दलों का कब्जा हो गया है. छात्र राजनीति के बड़े इलाके पर विशुद्ध गुंडे काबिज हैं. चूंकि, पार्टियों में अब राजनीतिक परिवारों से लोग आ रहे हैं तो उनको छात्र राजनीति से खतरा है.’

इन हालात के बावजूद कुछ एक छात्रसंघ ऐसे बचे हैं जो अभी भी समय-समय पर विभिन्न मुद्दों पर दखल देकर युवा शक्ति के मायने बताने की कोशिश करते हैं. पिछले वर्षों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर लगातार कई छोटे-छोटे छात्र आंदोलन चल रहे हैं. सितंबर, 2014 में कोलकाता के जाधवपुर विश्वविद्यालय में एक छात्रा के यौन उत्पीड़न की घटना हुई. आरोपियों पर कार्रवाई न करने और प्रदर्शनकारी छात्रों पर पुलिस की बर्बरता के विरुद्ध छात्रों का गुस्सा भड़क उठा. इस घटना के समर्थन में पूरे देश में प्रदर्शन हुए. यह आंदोलन पांच महीने तक चला. अंतत: मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अनशनरत छात्रों से मुलाकात की और वाइस चांसलर ने इस्तीफा दिया. इसी तरह हिमाचल प्रदेश में राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) लागू करने और फीस बढ़ाने के खिलाफ लगातार आंदोलन चला, जिसे बार-बार सत्ता की ताकत से कुचलने का प्रयास किया गया. ये आंदोलन और सरकारी स्तर पर इन्हें कुचलने की कोशिशें अब भी जारी हैं. बीते नवंबर में इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी हैदराबाद के छात्रों ने छात्रसंघ चुनाव की मांग को लेकर रैली निकाली तो 12 छात्रों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई.

जेएनयू का छात्रसंघ इस मामले में सबसे ज्यादा सक्रिय है और लगातार जनहित के मुद्दे उठाता रहा है. करीब दो महीने से जेएनयू के छात्र दिल्ली में यूजीसी दफ्तर के सामने धरना दे रहे हैं. नॉन नेट फेलोशिप खत्म करने के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन अब उससे कहीं आगे पहुंच गया है. इस धरने को कई विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों का समर्थन मिल रहा है. नॉन नेट फेलोशिप के मसले पर शुरू हुआ यह आंदोलन अब शिक्षा क्षेत्र में हो रहे निजीकरण के खिलाफ आंदोलन बन गया है. छात्रों-छात्राओं का समूह लगातार यहां पर धरना दे रहा है, यूजीसी से लेकर सरकार तक ज्ञापन दिए जा चुके हैं. बीते नौ दिसंबर को कई छात्र संगठनों ने सरकार विरोधी मार्च निकाला था. शांतिपूर्ण मार्च पर पुलिस ने लाठी चार्ज की और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया जिसमें कई छात्र-छात्राओं को गंभीर चोटें आईं. प्रदर्शनकारी छात्रों का कहना है कि संभवत: दिसंबर में केन्या की राजधानी नैरोबी बैठक में सरकार शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार संगठन के लिए खोलने जा रही है. सरकार के इस कदम के बाद शिक्षा में जो विषमता प्रवेश करेगी, वह भारत की साधारण जनता के लिए शिक्षा को दुर्लभ बना देगी. इस मुद्दे पर हो रहा विरोध अब अन्य राज्यों तक पहुंच गया है. दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हिमाचल और आंध्र प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में शिक्षा क्षेत्र को विश्व व्यापार के लिए खोलने के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं. हालांकि, ये सारे विरोध-प्रदर्शन बिखरे हुए और निष्प्रभावी हैं. जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार का कहना है, ‘हमारा आंदोलन शिक्षा बचाने का है. हम इसे देशव्यापी बनाएंगे. शिक्षा का बाजारीकरण देश की गरीब जनता के खिलाफ है.’ हालांकि, इस मसले पर सियासी गलियारे में कोई बहस-मुबाहिसा अब तक शुरू नहीं हुआ है. यह सोचनीय स्थिति है कि एक जरूरी राजनीतिक मसले पर राजनीति खामोश है और जेएनयू के छात्र उसके लिए लगातार आवाज उठा रहे हैं.

जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष प्रणय कृष्ण कहते हैं,

‘जेएनयू का छात्रसंघ अनूठा है, जिसे जेएनयू के तत्कालीन छात्रों ने बगैर विश्वविद्यालय प्रशासन के सहयोग के, स्वतंत्र रूप से, जबरदस्त बहस-मुबाहिसे के बाद 1971 में कायम किया था, जिसका संविधान भी खुद छात्रों ने बनाया था और जिसका चुनाव भी 1971 से लेकर अब तक छात्र समुदाय एक चुनी हुई चुनाव संचालन समिति के माध्यम से खुद ही संचालित करता आया है. जेएनयू छात्रसंघ के इस स्वाधीन चरित्र के चलते ही इस पर आपातकाल के दौरान भी रोक नहीं लगाई जा सकी थी जबकि आपातकाल के विरोध का वह महत्वपूर्ण केंद्र बना रहा.' 

'छात्रसंघ चुनाव को लेकर बनी लिंगदोह कमेटी ने अपनी सिफारिशों में जेएनयू छात्रसंघ के मॉडल की तारीफ ही की. लिंगदोह कमेटी की सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंजूर की गई पहली ही सिफारिश यह है, ‘देशभर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को छात्रों की प्रतिनिधि संस्थाओं में नियुक्ति के लिए सामान्यतः चुनाव कराने चाहिए.’ देश के अनेक प्रांतों के तमाम विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में किसी न किसी बहाने से छात्रसंघ चुनाव कराए ही नहीं जाते. क्या यह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना नहीं है?’

विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव कराए जाएं या नहीं, इसे लेकर यूपीए सरकार ने पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया था. 2006 में लिंगदोह कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें कई तरह के दिशा-निर्देश और सिफारिशें थीं. कमेटी ने छात्रसंघ उम्मीदवारों की आयु, क्लास में उपस्थिति, शैक्षणिक रिकॉर्ड आैैर धनबल-बाहुबल के इस्तेमाल आदि की समीक्षा करते हुए कई सिफारिशें की थीं. इसकी वजह से तमाम योग्य छात्र न सिर्फ छात्रसंघ चुनाव लड़ने से वंचित हो गए, बल्कि एक तरह से छात्रसंघों की नकेल विश्वविद्यालय प्रशासन के हाथों में दे दी गई. लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का देश भर में विरोध हुआ, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने छात्रसंघ चुनावों के लिए लिंगदोह की सिफारिशों को बाध्यकारी कर दिया. कोर्ट ने निर्देश दिया कि छात्रसंघ चुनाव लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर कराए जाएं या फिर उन पर रोक लगा दी जाए. इसके बाद ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव रुक गए. यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी कई साल तक चुनाव नहीं हो सके, जबकि यह अकेला विश्वविद्यालय है जिसके छात्रसंघ को लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों में आदर्श छात्रसंघ माना गया था.

जेएनयू के छात्र रह चुके सुयश सुप्रभ कहते हैं, ‘जहां राजनीति की धार भोथरी नहीं हुई थी, वहां संघर्ष की बुलंद आवाज को दबाने के लिए लिंगदोह कमेटी का गठन किया गया. इसमें ऐसे नियम हैं जिनका पालन होने पर कैंपसों की राजनीति और प्रबंधन में कोई अंतर नहीं रह जाता. राजनीति के दायरे में केवल बिजली-पानी, हॉस्टल जैसी समस्याएं नहीं आतीं. यह देश के तमाम तबकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का साधन भी है. लिंगदोह समिति का एक नियम यह है कि आप पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई है तो आप चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. आप प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे और आपके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई नहीं हो, ऐसा कभी हो सकता है? ऐसा तो हो नहीं सकता कि लिंगदोह समिति को राजनीति और प्रबंधन में अंतर नहीं मालूम हो. हमें राजनीति को प्रबंधन बनाने के इस सचेत प्रयास को ठीक से समझना होगा. अगर कैंपस की राजनीति मजबूत रहेगी तो शासक वर्ग न तो आसानी से फेलोशिप बंद कर पाएगा न अकादमिक जगत में वंचित तबकों के प्रवेश को रोकने वाले नियमों को लागू करने की कोशिश में कामयाब हो पाएगा. यही वजह है कि अनुशासन के नाम पर ऐसी अराजनीतिक पीढ़ी तैयार करने की कोशिश की जा रही है जो हर नियम को सिर झुकाकर स्वीकार कर ले. शासक वर्ग अपनी इस योजना में एक हद तक कामयाब हो भी गया था, लेकिन फेलोशिप के मामले ने सोई हुई कैंपस राजनीति को पूरी तरह चौकस-चौकन्ना कर दिया है.’

जेएनयू एशिया का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है जहां पर छात्रसंघ चुनाव की कमान सिर्फ छात्रों के हाथ में होती है. आपातकाल के दौरान जब देश भर में खौफ का माहौल था, तब यहां के छात्रों ने इंदिरा गांधी को परिसर घुसने नहीं दिया था. यह परंपरा कायम रखते हुए छात्रों ने हमेशा ही यहां आने वाले हर नेता को अपने सवालों से असहज किया है. यह जेएनयू छात्रसंघ ही है जिसने भारत की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी को दो पोलित ब्यूरो सदस्य दिए. फिलहाल जेएनयू की छात्र रह चुकीं निर्मला सीतारमन केंद्र में मंत्री हैं. इसके अलावा भी कई छात्र राजनीति में सक्रिय हैं. आजादी के बाद की छात्र-राजनीति ने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की जिसने मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई. कांग्रेस छात्र शाखा एनएसयूआई के अध्यक्ष पद से होते हुए मुख्यधारा की राजनीति में आने वाले नेताओं में पीआर कुमारमंगलम, मुकुल वासनिक, मनीष तिवारी, अलका लांबा और मीनाक्षी नटराजन हैं. लेकिन आज छात्रसंघों की सूरत ऐसी बना दी गई है जहां से कोई नेतृत्व उभर सकेगा, इसकी संभावना करीब-करीब शून्य है.

इलाहाबाद छात्रसंघ में दिख रही अराजकता या दूसरे छात्रसंघों के निष्प्रभावी हो जाने की स्थिति अचानक नहीं आई है. वह पिछले दो-तीन दशक की राजनीतिक-सामाजिक गिरावट का हासिल है कि छात्रसंघ में चुनकर आए छात्र किसी अकादमिक शख्सियत की जगह योगी आदित्यनाथ को कैंपस में बुलाने के लिए एक अराजक लड़ाई लड़ रहे हैं. विद्यार्थी परिषद समेत हर छात्र संगठन का मुद्दा वही है, जो उसकी मातृ संस्था या पार्टी का है.

ऐसे में यह उम्मीद बेमानी है कि अब विश्वविद्यालय परिसर बहस-मुबाहिसे के अखाड़े बन सकेंगे. अब छात्रसंघों के मुद्दे, उनके आदर्श, उनके सपने मुख्यधारा का कोई राजनीतिज्ञ तय कर रहा है. वहां पर ऐसे नेताओं के इर्द-गिर्द रहने वाली अराजकता ने अब कैंपस में प्रवेश पा लिया है, इसलिए संवाद की संस्कृति का खात्मा तेजी से जारी है. जो युवा देश के नेतृत्व से सवाल पूछ सकते थे, वे राजनीतिक दलों से सबसे अराजक नेताओं के पीछे लगी कतार में भी सबसे पीछे नारे लगाने की गरज से खड़े हो गए हैं. बाजार और राजनीति ने मिलकर युवाओं को यह आदत लगा दी है कि वे फ्रेशर्स-फेयरवेल पार्टियां करें, फैशन शो आयोजित करें, रंगारंग कार्यक्रमों का मजा लें और जब राजनीतिक दलों को जरूरत पड़े, तब भीड़ बटोरकर नारे लगाएं. इस व्यवस्था को सवाल पूछने वाले ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं पसंद हैं. क्रॉनी कैपिटलिज्म के दौर में तैयार युवा पीढ़ी कॉरपोरेटी राजनीति का कल-पुरजा बनने को तैयार है, लेकिन एक स्वस्थ समाज के लिए ऐसी पीढ़ी जरूरी लड़ाइयों, बहसों, संवादों और सवालों से गुरेज करती है.

इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि जरूरी मसले उठाने के ‘अपराध’ में दिल्ली में छात्रों पर लाठियां बरसती हैं, हैदराबाद के एक विश्वविद्यालय में छात्रसंघ की मांग करने वाले 12 छात्रों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई कर दी जाती है, गलत आदमी की नियुक्ति के लिए एफटीआईआई के छात्रों को अरसे तक आंदोलन करना पड़ता है, बावजूद इसके उनकी बात नहीं सुनी जाती. अधिकांश राज्यों के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव प्रतिबंधित हो चुके हैं. बीएचयू और अलीगढ़, जहां छात्रसंघों की ऐतिहासिक भूमिका रही है, अब वे प्रतिबंधित ही नहीं हैं, बल्कि वहां पर छात्रों की सांगठनिक गतिविधियों और चर्चाओं जैसे लोकतांत्रिक आयोजनों पर भी रोक लग चुकी है. लोकतंत्र की प्राणवायु कहे जाने वाले छात्रसंघों की रीढ़ तोड़ी जा चुकी है. हालांकि, छोटे-छोटे प्रदर्शन और संघर्ष यह संकेत देते हैं कि एक व्यापक छात्र-आंदोलन के उठ खड़े होने की संभावना शून्य नहीं हैं.

(यह लेख दिसंबर 2015 में तहलका पत्रिका में 'छात्रसंघः बंजर होती राजनीति की नर्सरी' शीर्षक से छप चुका है.)

मोदीराज के घोटाले

मोदी जी के भ्रष्टाचार मुक्त भारत का मॉडल कमाल का है. वे अपने भाषणों में कहते हैं कि 'मैंने तमाम लोगों के मलाई काटने पर रोक लगाकर भ्रष्टाचार का रूट बंद कर दिया है.' बीजेपी के समर्थक कहते हैं कि बीजेपी के राज में कोई घोटाला नहीं हुआ. क्या वे सच बोल रहे हैं? जरा इस संख्या पर गौर फरमाएं...

-अरुण जेटली सर का डीडीसीए घोटाला (2016)
-ललित मोदी घोटाला (वसुंधरा के करीबी, 2015 में लंदन भागे)
-भाजपा सांसद विजय माल्या घोटाला (2016 में लंदन भागे)
-मध्य प्रदेश का व्यापमं घोटाला. इसमें कितना पैसा खाया गया है यह आज तक नहीं पता. यह इतिहास का पहला घोटाला है जिसमें 60 के करीब हत्याएं भी हुई हैं.
-मध्य प्रदेश में ही दस हजार करोड़ का डीमैट घोटाला
-राजस्थान में 45 हजार करोड़ का खनन घोटाला
-छत्तीसगढ़ में 36 हजार करोड़ का चावल घोटाला
-महाराष्ट्र के महिला और बाल विकास मंत्रालय में 206 करोड़ का चिक्की घोटाला
-महाराष्ट्र में ही 191 करोड़ का ई-टेंडरिंग घोटाला
-25 हजार करोड़ का एलईडी घोटाला
-90 हजार करोड़ का बैंकिग घोटाला
-सृजन घोटाला
-गुजरात पेट्रोलियम कॉरपोरेशन घोटाला
-नोटबंदी घोटाला
-राफेल घोटाला
-सहारा बिरला डायरी घोटाला
-मेहुल चौकसी घोटाला
-नीरव मोदी घोटाला
-जय शाह घोटाला
-पीएमसी बैंक घोटाला
-इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाला और दाउद गिरोह से जुड़ी कंपनी से चंदा लेने का ताजा मामला सामने आया है जो न्यूजलॉन्ड्री और वायर ने छापा है.
-अप्रैल, 2018 को संसद में कैग की रिपोर्ट पेश हुई थी. जिसमें कहा गया कि मौजूदा केंद्र सरकार के 19 मंत्रालयों में अनियमितता हुई है, जिसके चलते जनता के खजाने को 11 अरब 79 करोड़ का नुकसान हुआ है. कैग को 19 मंत्रालयों में अनियमितता के 78 मामले मिले हैं.
-अडाणी की कंपनी अडाणी ग्लोेबल के खिलाफ 2300 करोड़ का फ्रॉड केस होने के बावजूद, नवंबर, 2014 में उन्हें 6000 करोड़ का सरकारी कर्ज दिया गया. मोदी सरकार के पहले साल में ही अडाणी की संपत्ति 48 प्रतिशत बढ़ गई थी. घोटाला और कैसा होता है सरकार?
-मोदी के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी की मंत्री आनंदी बेन ने अपनी बेटी को 250 एकड़ कीमती जमीन कौड़ियों के भाव में दिलवाई. 125 करोड़ की जमीन मात्र डेढ़ करोड़ में. मामला ठंडे बस्ते में.
-एककनाथ खड़से का जमीन घोटाला, जिसमें सरकार की 23 करोड़ की जमीन उनकी पत्नी और दामाद को तीन करोड़ रुपये में दी गई. इस मामले में उनका इस्तीफा भी लिया गया था.

इतने बड़े देश की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था में बड़े बड़े बैंक डूब रहे हैं. यह गिरावट क्या बिना संगठित लूट के संभव हुई?
ये सभी वे मामले हैं जिनके बारे में मीडिया में छपा है और जानकारियां सार्वजनिक हैं. पर्दे के पीछे क्या क्या है, कौन जाने. अब आप खुद तय करें कि देश के साथ क्या हो रहा है?

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाला?

इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये दानकर्ताओं ने अब तक 150 मिलियन डॉलर यानी करीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का राजनीतिक चंदा दिया है और इसमें से 95 फीसदी अकेले बीजेपी को गया है.

बीजेपी सरकार ने पिछले वर्ष चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था की थी. इसे शुरू करते हुए कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड के आने से चुनावों और राजनीतिक पार्टियों को होने वाली फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी. लेकिन इसके आने के साथ विश्लेषकों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए.

आज 21 नवंबर को कांग्रेस ने संसद में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर स्थगन प्रस्ताव पेश किया. कांग्रेस के कई नेताओं ने सरकार इसे 'बड़ा घोटाला' बताते हुए सरकार से इस पर जवाब मांगा. बाद में कांग्रेस ने इस मुद्दे पर सदन से वाक आउट भी किया.

साभार: द हिंदू 
बीबीसी के मुताबिक, 'इन बॉन्ड के ज़रिए दानकर्ताओं ने अब तक 150 मिलियन डॉलर यानी करीब 10 अरब 35 करोड़ रुपए का चंदा दिया है और रिपोर्ट्स के मुताबिक इनमें से ज़्यादातर रक़म बीजेपी को मिली है.' कई मीडिया रिपोर्ट में कहा गया कि बॉन्ड के जरिये दी गई दान की रकम में से 95 फीसदी अकेले बीजेपी को गया है.

जब इलेक्टोरल बॉन्ड आने वाला था, उसी समय इस पर सवाल उठने लगे थे. एसोसिएशन फॉर डेमो​क्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) के जगदीप छोकर जैसे लोगों ने आशंका जताई थी कि सरकार अपारदर्शिता को बढ़ाकर पारदर्शिता लाने की बात कह रही है और लोगों को बेवकूफ बना रही है.

उनका कहना था कि '​सरकार ने ऐसे नियम बना दिए हैं कि इसके जरिये उसी दल को फायदा मिलेगा जो सत्ता में है.' अब आंकड़े दिखा रहे हैं कि उनकी आशंका सही थी. अकेले सत्तारूढ़ बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये आए चंदे का 95 फीसदी मिला है.

लोकसभा में कांग्रेस के नेता सांसद अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि "इलेक्टोरल बॉन्ड एक बहुत बड़ा घोटाला है, देश को लूटा जा रहा है."

कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने लोकसभा में इस मुद्दे पर कहा कि "2017 से पहले इस देश में एक मूलभूत ढांचा था. उसके तहत जो धनी लोग हैं उनका भारत के सियासत में जो पैसे का हस्तक्षेप था उस पर नियंत्रण था. लेकिन 1 फ़रवरी 2017 को सरकार ने जब यह प्रावधान किया कि अज्ञात इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए जाएं जिसके न तो दानकर्ता का पता है और न जितना पैसा दिया गया उसकी जानकारी है और न ही उसकी जानकारी है कि यह किसे दिया गया. उससे सरकारी भ्रष्टाचार पर अमलीजामा चढ़ाया गया है." मनीष तिवारी ने कहा कि 'चुनावी बॉन्ड जारी करके सरकारी भ्रष्टाचार को स्वीकृति दी गई है.

कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा, "इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये अमीर लोग सत्ताधारी पार्टी को चंदा देकर राजनीतिक हस्तक्षेप करेंगे...जब ये बॉन्ड पेश किए गए थे, तो हममें से कई लोगों ने गंभीर आपत्ति जताई थी लेकिन हमारी नहीं सुनी गई."

कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने भी इस पर सवाल उठाते हुए कहा, "इलेक्टोरल बॉन्ड का 95 फ़ीसदी पैसा बीजेपी को गया, क्यों गया, ये क्यों हुआ. 2017 के बजट में अरुण जेटली ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर जो रोक लगाई थी उसे ख़त्म कर दिया गया. अरुण जेटली ने यह रोक लगाई थी कि कोई भी कंपनी अपने लाभ के 15 फ़ीसदी से अधिक ज़्यादा पैसा नहीं लगा सकती. लेकिन अब उसे हटा लिया गया है. प्रधानमंत्री को इस पर जवाब देना होगा."

उधर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने ट्विटर के जरिये इलेक्टोरल बॉन्ड पर सवाल उठाए. राहुल गांधी ने लिखा, "न्यू इंडिया में रिश्वत और अवैध कमीशन को चुनावी बॉन्ड कहते हैं."

कांग्रेस के कई नेताओं ने आरोप लगाया कि रिजर्व बैंक ने इस योजना पर आपत्ति जताई थी, लेकिन सरकार ने उसकी सलाह को नजरअंदाज किया और योजना लागू कर दी. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने कहा कि, रिजर्व बैंक को दरकिनार करते हुए चुनावी बॉन्ड लाया गया ताकि कालाधन बीजेपी के पास पहुंच सके.

इलेक्टोरल बॉन्ड एक तरह के बैंकिंग बॉन्ड होते हैं जिसके जरिये राजनीतिक दलों को फंड मिलता है. इसे लेकर पहले भी विवाद रहा है और आरोप लगता है कि पार्टियां अपनी आय और व्यय का ईमानदार ब्योरा नहीं पेश करती हैं और पार्टियों को चंदे के नाम पर काला धन खपाया जाता है.

किसी भी सियासी पार्टी को मिलने वाले चंदे इलेक्टोरल बॉन्ड कहा जाता है. यह चंदा कोई भी दे सकता है, लेकिन आम तौर पर अमीर, पूंजीपति और कारोबारी लोग बॉन्ड के जरिये किसी पार्टी को चंदा देते हैं.

नियम है कि सभी दल चुनाव आयोग में खुद को मिले चंदे की पूरी जानकारी देंगे. पार्टियां एक हज़ार, दस हज़ार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपए तक का चुनावी बॉन्ड ले सकती हैं. चुनावी बॉन्ड की बिक्री के लिए सिर्फ सरकारी बैंक एसबीआई अधिक्रत है. ये बॉन्ड 15 दिनों के लिए वैध रहते हैं. 15 दिनों के अंदर इन्हें पार्टी के खाते में जमा कराना होता है. इसमें दान देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है.

हाल ही में पत्रकार नितिन सेठी ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कई रिपोर्ट लिखी हैं जो न्यूजलॉन्ड्री और हफिंगटन पोस्ट में छपी हैं. कई दस्तावेज के आधार पर इन रिपोर्टों में कहा गया है कि सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने में रिजर्व बैंक, एसबीआई और चुनाव आयोग की सलाह को नजरअंदाज किया और मनमाने तरीके से चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को प्रभाव में लाया गया.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ​वित्त मंत्रालय की कड़ी निगरानी में इस बॉन्ड सिस्टम को प्रभाव में लाया गया और विभिन्न आपत्तियों पर गौर नहीं किया गया. रिपोर्ट में दस्तावेज के सहारे कई अनियमितताएं गिनाते हुए कहा गया है कि 'चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री कार्यालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री का आदेश दिया'.

अरबों रुपये का कॉरपोरेट चंदा एकतरफा बीजेपी को गया है, इसे देखते हुए भी इस पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह केंद्रीय स्तर पर सरकारी भ्रष्टाचार का नया स्वरूप है? 

बुधवार, 20 नवंबर 2019

हम शिक्षा का लक्ष्य पूरा करने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं

नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे तो अपने एक भाषण में कहा था कि 'चीन अपनी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है, लेकिन भारत सरकार नहीं खर्च करती.' हालांकि, यह झूठ था लेकिन यह बयान बहुत चर्चित हुआ था क्योंकि यह उनके शुरुआती झूठ में से एक था.

मोदी जिस दौरान यह बात उठा रहे थे, इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, उस दौरान यानी 2012-13 में भारत सरकार अपनी कुल जीडीपी का 3.1 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रही थी. विश्व बैंक के मुताबिक, 2013 में भारत अपनी जीडीपी का 3.8 प्रतिशत खर्च कर रहा था. मोदी जी के आने के बाद यह घट गया.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 2017-18 के आर्थिक सर्वे में यह बात सामने आई कि भारत सरकार ने शिक्षा पर खर्च घटा दिया है. 2014-15 यह 3 प्रतिशत से नीचे आकर 2.8 फीसदी रह गया. 2015-16 में यह और घटकर 2.4 फीसदी हो गया. 2016-17 में इसमें मामूली बढ़ोत्तरी की गई और यह 2.6 फीसदी हो गया.

मनमोहन के समय में शिक्षा पर जो खर्च कुल जीडीपी का 3 प्रतिशत से ज्यादा ही रहा, मोदी जी ने उसे घटाकर 3 प्रतिशत से नीचे कर दिया.

एचआरडी मंत्री रहते हुए प्रकाश जावड़ेकर ने इसी मार्च में कहा था कि भारत सरकार का शिक्षा पर खर्च जीडीपी का 4.6 प्रतिशत हो गया है. लेकिन यह मंत्री जावड़ेकर का बयान भर है. जब बजट में शिक्षा पर आवंटन बढ़ा नहीं तो खर्च कुल जीडीपी का 2.6 प्रतिशत से 4.6 कैसे हो गया?

मानव संसाधन मंत्रालय की वेबसाइट पर आखिरी डाटा 2012 और 2013 का पड़ा है.

इन लोगों का डाटा के साथ खेल करने का ​रिकॉर्ड इतना खराब है कि जबतक विश्वसनीय आंकड़ा जारी न हो, भरोसा नहीं कर सकते. आंकड़ा दबाना और झूठ फैलाना इस सरकार का प्रिय शगल है.

अमेरिका अपनी जीडीपी का 5.8 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है. ध्यान रहे कि उसकी जनसंख्या हमसे बहुत कम है और इकोनॉमी हमसे बहुत बड़ी है. अमेरिका का शिक्षा पर पिछले 22 सालों में सबसे कम खर्च भी 4 प्रतिशत से ऊपर रहा है.

यूनीसेफ के मुताबिक, चीन 2012 से अपनी जीडीपी का 4 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है और उसने छह साल लगातार इस खर्च को बरकरार रखकर अपना नेशनल टॉरगेट पूरा कर लिया है.

विश्वबैंक के मुताबिक, कुछ देशों का कुल जीडीपी का शिक्षा पर खर्च देख लें- अफगानिस्तान- 4.1, अर्जेंटीना- 5.5, आस्ट्रेलिया- 5.3, बेल्जियम- 6.5, भूटान- 6.6, बोत्सवाना- 9.6, बोलिविया- 7.3, ब्राजील- 6.2, बुरुंडी- 4.8, कनाडा- 5.3, क्यूबा- 12.8, डेनमार्क- 7.6, फिनलैंड- 6.9, आइसलैंड- 7.5, इजराइल- 5.8, केन्या- 5.2, नेपाल- 5.2, न्यूजीलैंड- 6.4, नार्वे- 8, ओमान- 6.8, साउथ अफ्रीका- 6.2, सउदी अरब- 5.1 वगैरह-वगैरह.

कहने का मतलब है कि ज्यादातर देशों का शिक्षा पर खर्च हमसे बेहतर है. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे तो उनके हर भाषण में एक शब्द जरूर आता था नॉलेज इकॉनमी. वे कहते थे कि यह ज्ञान का युग है, हमें नॉलेज इकॉनमी तैयार करनी है, क्योंकि यह ज्ञान का युग है. मनमोहन सरकार ने करीब 1500 नये विश्वविद्यालय खोलने की चर्चा छेड़ी थी. वे बार बार शोध को बढ़ावा देने की बात करते थे.

अभी छह साल से न तो नॉलेज इकॉनमी टर्म सुनाई दिया है, न ही नये विश्वविद्यालय खोलने की कोई चर्चा हुई है, न ही मोदी जी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर पाए जो वादा किए थे. छह साल से एक जेएनयू बंद करने का अभियान छेड़े हैं और आश्चर्य है कि वह भी अभी तक बंद नहीं करा पाए.

बीजेपी सरकार को जेएनयू से लड़ते हुए छह साल बर्बाद हो चुके हैं. अब सरकार को चाहिए कि जेएनयू के बच्चों से लड़ने की जगह अशिक्षा से लड़े. भारत वह देश है ​जहां पर अभी भी करीब 8 से 9 करोड़ बच्चे शिक्षा से बाहर हैं. सरकार को अब अपनी प्राथमिकताएं बदल देनी चाहिए. 

स्वास्थ्य और शिक्षा लोगों का बुनियादी अधिकार है, जिम्मेदारी ले सरकार

दुनिया के लगभग सभी विकसित देश अपने लोगों को मुफ्त शिक्षा मुहैया कराते हैं. जिन विकसित देशों में शिक्षा मुफ्त नहीं है, वहां पर सरकारें यथासंभव अनुदान देकर शिक्षा को सुलभ बनाने की कोशिश करती हैं.

इस मामले में जर्मनी टॉप पर है जहां पर सरकारी संस्थानों में उच्च शिक्षा या तो मुफ्त है या फिर नॉमिनल चार्ज देना होता है.

नार्वे में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और डॉक्टरेट बिल्कुल मुफ्त है.

तमाम अच्छे और प्रगतिशील कानूनों को सबसे पहले लागू करने वाला देश है स्वीडन. यहां भी शिक्षा मुफ्त है. यह सिर्फ नॉन यूरापियन लोगों पर कुछ नॉमिनल चार्ज लगाता है. यहां पीएचडी करने पर आपको बाकायदा सेलरी मिलती है.

आस्ट्रिया में भी शिक्षा मुफ्त है. नॉन यूरोपियन के लिए कुछ नॉमिनल चार्ज है.

फिनलैंड में हर स्तर की शिक्षा पूरी तरह मुफ्त है, भले ही आप कहीं के भी नागरिक हों. 2017 से इसने नॉन यूरोपियन पर कुछ चार्ज लगाया है.

चेक रिपब्लिक मुफ्त शिक्षा देता है भले ही आप कहीं के भी नागरिक हों.

फ्रांस में उच्च शिक्षा पूरी तरह मुफ्त है. कुछ पब्लिक विश्वविद्यालयों में नॉमिनल चार्ज लगता है.

बेल्जियम और ग्रीस में भी नॉमिनल चार्ज पर शिक्षा मुहैया कराई जाती है.

स्पेन भी सभी यूरोपीय नागरिकों के लिए फ्री शिक्षा मुहैया कराता है.

इसके अलावा डेनमार्क, आइसलैंड, अजेंटीना, ब्राजील, क्यूबा, हंगरी, तुर्की, स्कॉटलैंड, माल्टा आदि देश स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक, सभी तरह की शिक्षा मुफ्त में मुहैया कराते हैं.

फिजी में स्कूली शिक्षा मुफ्त है. ईरान के सरकारी विश्वविद्यालयों में शिक्षा फ्री है.

रूस में मेरिट के आधार पर छात्रों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है. फिलीपींस ने 2017 में कानून बनाकर शिक्षा फ्री कर दिया है.

श्रीलंका में स्कूली शिक्षा और मेडिकल फ्री है. थाईलैंड 1996 से मुफ्त शिक्षा मुहैया करा रहा है. चीन और अमेरिका जैसे देश जहां फ्री शिक्षा नहीं है, वे भी इस तरफ आगे बढ़ रहे हैं.

जिन विकसित देशों में शिक्षा और ​स्वास्थ्य मुफ्त हैं, वहां की सरकारें और लोग इसे मुफ्तखोरी नहीं कहते. वे इसे हर नागरिक का मूलभूत अधिकार कहते हैं. सबसे बड़ी बात कि वे स्वनामधन्य विश्वगुरु भी नहीं हैं.

ऐसा इसलिए है ​क्योंकि ये विकसित देश हैं और इनके लोगों का दिमाग भी विकसित है. वे अपने ही विश्वविद्यालयों में काल्पनिक गद्दार नहीं खोजते. वे अपने विपक्षियों और आलोचकों को देश का दुश्मन नहीं समझते. वे पढ़े लिखे हैं और पढ़ाई का महत्व समझते हैं.

भारत में नेहरू भी पढ़े लिखे आदमी थे इसलिए तमाम विश्वविद्यालय और संस्थान खुलवाए. अनपढ़ों को पढ़े लिखे लोगों से तकलीफ होती है इसलिए वे नये विश्वविद्यालय और नये कॉलेज खोलने की जगह देश के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय को बंद करने का अभियान चलाते हैं और कहते हैं कि हम विश्वगुरु बनेंगे.

यह दुखद है कि पिछले छह साल से एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के खिलाफ सरकार और सत्ता में बैठे लोगों की ओर से कुत्सित अभियान चलाया जा रहा है.

आज नहीं तो कल, यह होना है कि सभ्य देशों की तरह हमारी भी सरकार कम से कम गरीब लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी लें और बुनियादी अधिकार की तरह यह सेवाएं उन्हें मुफ्त में मुहैया कराएं.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...