कृष्णकांत आज सुबह होते ही एक दुखद खबर आयी कि अदम जी नहीं रहे। वे कुछ समय से बीमार चल रहे थे। यह आशंका पहले से थी कि कहीं कुछ अनहोनी न हो जाये, क्योंकि वे काफी बीमार थे। जीवन भर साथ रही तंगहाली अंत तक उनके साथ रही। थोड़ी थुक्का-फजीहत के बाद जब तक मदद के लिए कुछ हाथ उठे, अदम जी का दाना-पानी इस जहां से उठ गया। शायद इस खुद्दार शायर को किसी का रहमो-करम मंजूर नहीं था। मौत के लम्हात से भी तल्खतर है जिंदगी.. लिखने वाले शायर ने आखिरश जिंदगी को अलविदा कह दिया। शायद ‘भुखमरी की धूप में कुम्हला गयी अस्मत की बेल' अब और उनसे देखी नहीं जा रहा थी। गोंडा जिले का यह चौंसठ वर्षीय खांटी देसी शायर उस धरती को तो सूना कर ही गया, हिंदी गजल भी शायद अधूरी रह गयी। उनसे कुछ और की उम्मीद थी। उनके तेवर का बिना किसी अंजाम तक पहुंचे शांत हो जाना जाने क्यों रह-रह कर कचोट रहा है। उनसे मेरी जो कुछ-एक मुलाकातें हैं, आज रह-रह कर ताजा हो रही हैं।
पहली बार एक मुशायरे में उनसे मुलाकात तब हुई थी। तब मेरी उम्र सत्रह साल की थी। गोंडा जिले के पसका क्षेत्र में, जहां बराह भगवान का मंदिर है, पूस महीने की पूर्णमासी को मेला लगता है। यहां पर सरजू और घाघरा का संगम है। शूकर क्षेत्र अथवा शूकर खेत नाम से मशहूर इस स्थान को तुलसीदास से जोड़ा जाता है। कुछ लोग इसे उनका जन्मस्थान बताते हैं, कुछ उनका गुरुस्थान। इस मेले में हर साल एक मुशायरा होता है। हम सब मंच पर पहुंचे तो संचालक ने सबका परिचय कराया। मुशायरा अदम जी की सदारत में हो रहा था। मैंने अब तक सिर्फ नाम सुन रखा था कि कोई अदम गोंडवी हैं, जो बहुत अच्छे शायर हैं। हालांकि, परस्पुर में जहां उनका घर है, उसी के बगल उनका गांव- आटा था। लेकिन तब न तो हमें उनकी ऊंचाई का गुमान था और न ही उस इलाके के लोगों को।
मैंने देखा- खादी का कुरता, धोती, कंधे पर गमछा, चमौधा जूता- एकदम सामान्य देहाती आदमी। गांव के किसी बाबा या ताऊ जसा। अब तक मुङो उनकी रचना चमारों की गली के बारे में पता चल गया था और मेरे बड़े भाई ने मुङो बता दिया था कि अदम जी अपने यहां के बहुत बड़े रचनाकार हैं। जब तक मुशायरा चलता रहा, मैं बैठा उन्हें देखता रहा। मुशायरा खत्म होने के बाद जब हम लोग इकट्ठे हुए तो उन्होंने मेरा नाम और परिचय पूछा। फिर कहा- मेहनत करो। अच्छा कर रहे हो। मैं निहाल हो गया। मैंने अवधी में एक सामान्य सी रचना पढ़ी थी, लेकिन उनकी तारीफ के बाद मुझे वाकई खुशी हुई।
आज मुझे बहुत तकलीफ हो रही है, कि अदम जी जसे शायर को उनके समय ने नजरअंदाज किया। वे ऐसे मंचों पर मुशायरा पढ़ते थे, जो एकदम सामान्य गंवई लोगों का था, जिनमें अधिकांश अनपढ़ हैं। जो पढ़े लिखे भी हैं वे उर्दू शायरी से निरे नावाकिफ हैं। तब मेरे भी समझ में उनकी शायरी नहीं आती थी। जब मैं पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गया, तो वहां उनसे और उनकी शायरी से परिचय हुआ। गोंडा के लोग अदम जी को जितना आंकते थे, वे उससे बहुत बड़े आदमी ठहरे। दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी गजल के सबसे बड़े हस्ताक्षर। उसके बाद दो बार उनसे मेरी छोटी-छोटी मुलाकातें हुईं, मगर कोई बातचीत नहीं हो सकी।
अदम जी का पूरा नाम रामनाथ सिंह था। अदम गोंडवी नाम से वे लिखते थे। इसी नाम से उनकी प्रसिद्धि है। आज अदम गोंडवी नाम का व्यक्ति हमारे बीच नहीं है, मगर शायर अदम गोंडवी जिंदा हैं। उनकी शायरी में गोंडा जिले के लोगों की पीड़ा और वहां का पूरा समाज दर्ज है। उनकी शायरी में उस भूमि के लोगों आवाज झलकती है- ‘जो उलझकर रह गयी है फाइलों के जाल में, गांव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में" अदम जी दुष्यंत की परंपरा के शायर थे। उन्हें गांव के गरीबों-मजलूमों के पक्ष में खड़े होकर उन्होंने लिखा- ‘घर में ठंढे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है। तो राजनीति के क्षरण पर उन्होंने लिखा- ‘देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं, कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गये।' उन्होंने अपनी समझ से इसका समाधान भी सुझा दिया था कि ‘जनता के पास एक ही चारा है बगावत..। आज गोंडा की धरती बगावत के लिए अपना इकलौता रहनुमा खो चुकी है।