गुरुवार, 27 जनवरी 2011


रात भर की 
अपार पीड़ा और  
आंसुओं के सैलाब के बाद 
अब सुबह 
महसूस रहा हूँ 
अपने मानव को 

मुझे मुझसे मिलाती है 
मेरे भीतर की टीस
बहुत प्रिय हैं मुझे 
मेरे आंसू 
सोना! 
देखो मेरी आँखों में 
कहीं से गिरा है एक सपना 
की तुमने आकर उड़ा दी मेरी तन्हाई 
भर गयी मेरी अंगनाई 
मैंने लाकर एक चाँद आसमां से 
टीप दिया तुम्हारे माथे पर 
तुमने तान दिया है 
मेरे सर पे 
अपना आँचल 
मैंने मल दिए तुम्हारे गालों पर 
कुछ सुरमई उजाले 
तुमने भिगो दिया मुझे 
कुछ गीले ख्वाबों से 
मुझे भर के आगोश में 
तुमने जना अपनी कोख से मुझे 
और मैं पा गया हूँ 
अपनी मंजिल 
तुम्हारी छांव 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

तमाम रातों में जब 
हमने नहीं रचा कुछ भी 
उन्हीं रातों में ज़रा ज़रा सा 
रचा गया हमारे भीतर कुछ

मुद्दतों बाद 
किसी कवि ने लिखी-
एक महान प्रेम-कविता 

रविवार, 16 जनवरी 2011



मौसम 

ठण्ड से उनकी मौतों की खबर है 
जिनकी अंतड़ियाँ खाली थीं 
कई हफ़्तों से 
नहीं देखि थी उन्होंने रोटी 
कोई नहीं कहता की उनके घर 
आग नहीं पड़ी चूल्हे में 
कई रोज़ से 
अब नहीं बची थी जान
उनकी हड्डियों में 
जो मरे हैं ठण्ड से 

इसी तरह गर्मियों में 
बरसात में भी 
उडती हैं खबरें 
रोज़ मरते हैं तमाम लोग 
मौसम की मार से 
हर मौसम में आता है 
ये मौत का मौसम 
जहाँ मरते हैं तमाम भूखे लोग 

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

जिन सड़कों से हम गुज़रते हैं 
सुबह-शाम दफ्तर आते जाते 
उन्हीं सड़कों पर 
उसी सुबह-शाम 
हो रहा होता है 
जवान और खूबसूरत युवतियों का बलात्कार 
यह बात जानते हैं सभी राहगीर 
जनता जनार्दन 
हम-तुम वे सब 
बावजूद चुप रहते हैं 
बंद कर लेते हैं आँख, कान और ज़बान 
गाँधी जी के बंदरों की तरह 

हर सम्त देखते हैं तनी हुई पिस्तौलें 
कई खौफनाक चेहरे 
और बिखरे हुए लोथड़े 
इनसे हम डरते हैं 
और करते हैं 
अपनी अपनी बारी का इंतजार 

अपने जवान बेटे के रंगे हाथ देखते 
और बेटी की आँखों में खौफ को पढ़ते हुए 



बुधवार, 12 जनवरी 2011

 भोर की आवाज़ 

सुबह जब सोकर उठा 
और देखा 
नहीं है कोई कमरे में 
अख़बार भी नहीं आये थे अभी तक 
किसी और की आहट भी नहीं 
तो मैंने सोचा 
यही एक मौका है 
जब मैं चीख सकता हूँ जोर से 
और दे सकता हूँ अपने आज को अर्थ 
यहाँ मैं और मेरे कमरे की शून्यता 
दोनों हो सकते हैं एकाकार 
वह भरकर मुझे अपने में 
कर सकती है गुंजायमान 

मेरे कमरे के अन्दर 
बोलने को लेकर
नहीं है कोई कानून 
वहां नहीं तने रहते हरदम 
ज़बानों पर नेजे 
इसलिए अक्सर मुक्त कर देता हूँ 
अपनी आवाजें 
अपने कमरे के भीतर के 
खुले आसमान में 
मैं अक्सर सुबह उठकर 
चीखता हूँ जोर से.... 



दिल्ली 

ऐसी रौनक 
ऐसी चकमक 
धन अकूत उडती है रंगत 
पैसा तन में पैसा मन में 
पैसा ही पैसा रग रग में 
न कोई तेरा न कोई मेरा 
न इनका न उनका कोई 
भागमभाग  अजब सी हरदम 
अराजकता की हद तक हलचल 
ढूंढे कोई यहाँ ज़िन्दगी 
किधर पड़ी वो चीख रही है 
हालत पूछे कौन किसी की 
भीड़ करोडों की है लेकिन 
भीतर तक सब 
खाली खाली
महानगर में महाशून्यता 
कुछ अशआर-


टिका है लहरों पे मेरा वजूद 
बन जा पतवार मेरे कश्ती की 
तू खुदा है तो आ दीदार दे 
मुझे ख्वाहिश है बुतपरस्ती की 
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अगर आपे में न रहे कोई
तो अपना ख्याल क्या रखे कोई 
दिल में जो दर्द का सैलाब उठे 
उसमे कैसे नहीं बहे कोई 
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समझता है ज़बां धड़कन कि मेरी दूरियां हैं मगर इतनी नहीं हैं
बैठ के दिल में मेरे कह रहा है मेरा महबूब हम तेरे नहीं हैं
मेरी हर साँस से बावस्ता तुम तुम्हारी हर अदा से वाकिफ मैं
अगर पूछे कोई रिश्ता हमारा बता देना कि दोनों अजनबी हैं

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न जाने कितने दिलों में कसक बची होगी
न जाने कितनी आरजू भी रह गयी होगी

न जाने किसकी खुलीं पलकें कि सुबह आई
न जाने किसकी हंसी नूर भर गयी होगी

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मैं खुद से बात करता हूँ खुद ही से डर भी जाता हूँ
रूठता हूँ कभी खुद से कभी खुद को मनाता हूँ
पिघल जायेगा इक दिन तू इसी उम्मीद से या रब
मैं तेरे नाम की माला उँगलियों पे फिराता हूँ

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किसी की साये से हमने जो मोहब्बत कर ली
तुम्ही कहो, गुनाह हो गया कहाँ मुझसे

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

तुम्हें लेकर मेरा उतावलापन 
बचकाने कारनामे 
मेरा अल्लहड़पन 
भले न तुमको भाया हो 
तुमने समझा चंचल मन हूँ 
नहीं हूँ वैसा स्थिर मैं 
जैसा कोई होता है भरा भरा सा 
गहरा गहरा 

पाकर तेरी छाँव ज़रा सा 
बहक गया था 
लेकिन मैंने 
अपने भीतर के बच्चे को मार दिया 
अब देखो चुप चुप रहता हूँ 
भीतर भीतर टीसता हूँ 
जिस बेचैनी के चलते मैं बच्चा था 
उसे अभी भी लिए ह्रदय में 
घूम रहा हूँ 
सब कहते हैं 
मैं कितना गंभीर हुआ हूँ...सोना!
मेरा होना उन्हें नहीं भाया
नहीं होना मुझे नहीं आया 
डूब कर मरने की तमन्ना थी
कोई कतरा मगर नहीं पाया 
मैंने इन्सान होना चाहा तो 
जीना मरना मुझे नहीं आया 
तेरी दुनिया है बहुत दूर की बात 
साथ रहता नहीं मेरा साया 
मेरे दिल में तू कहाँ रहता है 
मैनें ढूँढा बहुत, नहीं पाया 
मेरा महबूब इस जहाँ का नहीं 
तो खुदा मुझको यहाँ क्यों लाया 

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

१. कानून 

वे जो भूखे हैं
रटते हैं रोटी रोटी 
मारो उन्हें 
वरना आयेंगे हमारे शहर 
गन्दा करेंगे 
हमारे बंगलों में हिस्सा मांगेंगे 
हमारे पकवानों पे दंती रहेगी 
इनकी घाघ निगाह 
पेट के लिए चोरी करते हैं 
ये उचक्के 
कर करके आत्महत्याएं 
करवाते हैं बदनामी 

और वे जो लड़ते हैं इनके लिए 
मचाते हैं इनकी मौत पर हल्ला 
मनाते हैं मातम 
मारो उन्हें भी 
भरमाते हैं ये 
भोले भाले नागरिकों को 
उकसाते हैं उन्हें 
लड़ने को, अपना हक़ लेने को 
खतरा खड़ा कर सकते हैं ये 
देश के लिए 
इनकी पहचान करो 
ले जाओ आँख पर पट्टी वाली 
देवी के दरबार में 
दिलवा दो फांसी...

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...