शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

गांधी और भगत सिंह के नाम झूठ कौन फैला रहा है?


कुछ सालों से नई पीढ़ी के दिमाग में भरा गया है कि महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी लेकिन उन्होंने नहीं चाहा। सोशल मीडिया पर यह मूर्खता खूब चल रही है। जानबूझ कर गलत तथ्य देकर गांधी को भगत सिंह के खिलाफ खड़ा किया जाता है, जैसे पटेल को नेहरू के खिलाफ खड़ा किया जाता है। 


मजेदार है कि यह बात उस विचारधारा के लोग फैला रहे हैं जो उस समय भगत सिंह और उनके साथियों का मजाक उड़ा रहे थे। अपने मुखपत्र में इनका कहना था कि 'ताकतवर से लड़ना बुजदिली है, इसलिए अंग्रेजों से लड़ने की जगह उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। इसके लिए शम्सुल इस्लाम को पढ़ा जा सकता है जहां मुखपत्र और महान गुरुजी की लेखनी के उद्धरण मौजूद हैं।

अंग्रेजी हुक्मरानों को उस समय सफलता नहीं मिली थी, लेकिन सत्तर सालों बाद उनके षड्यंत्र की विषवेल फलफूल रही है। गांधी और भगत सिंह को एक दूसरे का दुश्मन बताया जा रहा है।

सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब "भारत का स्वाधीनता संघर्ष" में लिखा है-"महात्मा जी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने की पूरी कोशिश की। अंग्रेजों को गुप्तचर एजेंसियों से पता चला कि यदि भगत सिंह को फांसी दे दी जाये और उसके फलस्वरूप हिंसक आंदोलन उभरेगा, अहिंसक गांधी खुलकर हिंसक आंदोलन का पक्ष नहीं ले पाएंगे तो युवाओं में आक्रोश उभरेगा। वे कांग्रेस और गांधी से अलग हो जायेंगे। इसका असर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को समाप्त कर देगा।"

पर शुक्र है उस समय भारतीय जनता ने अंग्रेजी साम्राज्यवादी चाल को विफल कर दिया। कुछ नवयुवकों ने आक्रोश में आकर काले झण्डों के साथ प्रदर्शन किया लेकिन उसके बाद ही हिंसक आंदोलन का अंत हो गया। महात्मा गांधी ने अफसोस के साथ कहा, मैंने सारे प्रयत्न किए लेकिन हम सफल नहीं हुए। जो विरोध कर रहे हैं उनको गुस्सा निकालने दीजिए। भगत ने देश की आजादी के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है। बलिदान का ऐसा उदाहरण कम मिलता है।

यह सच है कि अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति- भगत सिंह की सजा कम करने के लिए कहने वाले गांधी जी की बात यदि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मान ली गई होती तो इसका सबसे अधिक लाभ गांधी जी का होता, उनकी अहिंसा की विजय होती।

अंग्रेजों की यह साजिश थी कि ऐसी रणनीति बनाई जाये कि अवाम को ऐसा लगे महात्मा के अपील पर फांसी रुक जायेगी, महात्मा ने स्वयं वाइसराय से मिलकर लिखित रूप में अपील की कि भगतसिंह की फांसी रोक दी जाये।

लेकिन अचानक समय से पहले ही भगत सिंह को फांसी दे दी गई। करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन प्रारम्भ होने से पहले ही फांसी देने का एक मात्र मकसद था गांधी के प्रति नवयुवकों में विद्रोह पैदा करना।

भगत सिंह ने स्वयं फांसी के पूर्व अपने वकील से मिलने पर कहा था- मेरा बहुत बहुत आभार पंडित नेहरू और सुभाष बोस को कहियेगा, जिन्होंने हमारी फांसी रुकवाने के लिए इतने प्रयत्न किये।

इतना ही नहीं भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह जी जिन्होंने 23 मार्च को अपना पुत्र खोया था, 26 मार्च को कांग्रेस अधिवेशन में लोगों से अपील कर रहे थे- आप लोगों को अपने जेनरल महात्माजी का और सभी कांग्रेस नेताओं का साथ जरूर देना चाहिए। सिर्फ तभी आप देश की आजादी प्राप्त करेंगे।

इस पिता के उदगार के बाद पूरा पंडाल सिसकियों में डूब गया था। नेहरू, पटेल, मालवीय जी के आंखों से आंसू गिर रहे थे।

वैसे यह झूठ फैलाने वाले दंगापंथियों से एक सवाल है कि जब भगत सिंह को फांसी हो रही थी तब आरएसएस के कई बड़े नेता जैसे हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर, मुंजे आदि क्या कर रहे थे? भगत की फांसी रुकवाने के लिए इन लोगों ने क्या किया? जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि कुछ नहीं। वे शाखा लगा रहे थे और जिन्ना के साथ हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र का खेल रहे थे। जब पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन में लाठियां और गोलियां खा रहा था, तब जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेजों के लिए कैंप लगाकर सैनिकों की भर्ती कर रहे थे, ताकि हिंदुस्तान के युवा अंग्रेजों की फौज में भर्ती होकर अंग्रेजों की तरफ से विश्वयुद्ध में भाग ले सकें.

भगत सिंह को फांसी हुई तो आरएसएस के मुखपत्र में लेख लिखकर क्रांतिकारी नौजवानों को 'बुजदिल' कहकर उनको अपमानित करने का काम इन्होंने जरूर किया था।
कहते थे कि हम शाखाओं में देश पर मर मिटने वाले युवक तैयार करेंगे। लेकिन अंग्रेजों को लिखित में दे रखा था कि आरएसएस क्रांतिकारी आंदोलन से दूर रहेगा।

संघ शाखा लगाता रहा, लाठी भांजता रहा और तबतक भारत की जांबाज जनता ने देश आजाद करा लिया। जिन मुस्लिमों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को गोलवलकर हिंदुओं का दुश्मन बता रहे थे, वे सब मिलकर लड़े और देश आजाद हो गया।

अब जिन्होंने आज़ादी आंदोलन में नाखून तक न कटवाया, उल्टा राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गद्दारी की, वे सबसे बड़े ठेकेदार बनकर सर्टिफिकेट बांटते फिर रहे हैं कि नेहरु ऐसे थे, गांधी ऐसे थे...

इनको इतिहास में जाकर सौ साल पुराना हिसाब इसीलिए करना है क्योंकि ये अपने अतीत से शर्मिंदा हैं। वरना इतिहास का सिर्फ इतना महत्व है कि उससे सबक लिया जाए। नेताओं की गलतियों से बड़ी है लाखों लोगों की कुर्बानी और उसका सम्मान! लेकिन लिंचतंत्र उसे भी अपमानित ही कर रहा है।

सौ साल पहले जो हुआ उसे आज सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन नेहरू नेहरू करने में संघ परिवार को बहुत मजा आता है क्योंकि अपना बताने को कुछ है नहीं। इसलिए झूठ फैलाते रहते हैं।


भ्रष्टाचार से लड़ाई जनता को उल्लू बनाने के लिए लड़ी जाती है

भ्रष्टाचार एक ऐसी लड़ाई है जो भारत में जनता को उल्लू बनाने के लिए लड़ी जाती है। मजे की बात है कि नरेंद्र मोदी एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद, भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री बने। वे आज भी लगभग अपने हर भाषण में भ्रष्टाचार पर जरूर बोलते हैं। लेकिन उनका पिछले छह साल का कार्यकाल यह गवाही देता है कि जनता को बहुत सफाई से उल्लू बना रहे हैं।
फोटो साभार: गूगल

पिछली बार सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने हथियार में दलाली को वैधानिक दर्जा दे दिया था। दूसरा कारनामा राफेल विमान की खरीद में हुआ। राजीव गांधी के कार्यकाल में बोफोर्स घोटाला हुआ था। उसके बाद की सरकारों ने किसी भी रक्षा खरीद के लिए बहुस्तरीय प्रणाली बनाई थी। इस प्रणाली को काफी पारदर्शी बनाते हुए सरकार ने नियम बनाए थे कि किसी भी रक्षा खरीद में सेना, संसद की सुरक्षा समिति, रक्षा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और मंत्रिमंडल की भूमिका होगी, लेकिन मोदी सरकार ने इन नियमों का पालन नहीं किया और ​राफेल की खरीद में जितने सवाल उठे, उनमें से किसी का भी जवाब नहीं दिया, न ही जांच कराई।

फिर इन्होंने लंबे आंदोलन के बाद बने लोकपाल को नहीं लागू होने दिया और अंततः उसमें संशोधन करके उसे कमजोर किया और फिर लागू किया। अब भारत का लोकपाल संस्था वजूद में तो है, लेकिन उसकी कानूनी स्थिति सीबीआई नामक 'पिंजरे के तोते' से अलग नहीं है, क्योंकि लोकपाल को जांच करने का अधिकार प्रिवेंशन आफ करप्शन एक्ट के तहत है और इस एक्ट में संशोधन करके सरकार ने यह व्यवस्था कर दी है कि बिना सरकार की अनुमति के कोई जांच नहीं जा सकती।

कई मामलों में जहां भ्रष्टाचार का आरोप लगा, मोदी सरकार ने ऐसे किसी भी मामले की जांच नहीं कराई। चाहे वह सहारा बिरला डायरी हो, चाहे फ्री में जमीन बांटने का मामला हो, राफेल घोटाला हो, व्यापम घोटाला हो, चावल घोटाला हो या फिर चिक्की घोटाला। किसी की न कायदे से जांच हुई न मामला अंजाम तक पहुंचा।

व्यापम शायद दुनिया का एकमात्र घोटाला होगा जिसमें दर्जनों लोग मारे गए।

पहले आडवाणी और फिर मोदी ने स्विस बैंक में काले धन को मुद्दा बनाया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद भारत से बाहर एक भी अकॉउंट चिह्नित नहीं किए गए, उल्टा कई लोग जनता का हजारों करोड़ लेकर भाग गए। जनता की जेब पर डाका डाल कर नोटबन्दी कर दी, जिसका फायदा बताया गया कि आतंकवाद और नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। नतीजा हुआ कि अर्थव्यवस्था अपने 20 साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है, कश्मीर में जो हो रहा है आप देख ही रहे हैं। नक्सलवाद का क्या बिगड़ा है वह खुद घोषणा करने वाले पीएम साब ही जानते होंगे।

अगला वार हुआ भ्रष्टाचार विरोधी कानून प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट पर। राफेल सौदे के बाद सरकार ने इस एक्ट को बदल कर कमजोर कर दिया। अब सरकार में शामिल किसी आदमी की जांच तब तक नहीं हो सकती, जब तक सरकार अनुमति न दे। अब कौन भ्रष्टाचारी इतना बड़ा महापुरुष होगा जो भ्रष्टाचार करके अपने ही खिलाफ जांच का आदेश देगा? चोर को ही कहा गया है कि तुम चौकीदारी करो।

अगला निशाना बना आरटीआई कानून, जो लंबे संघर्ष के बाद जनता को कानूनी अधिकार के रूप में मिला था। मोदी सरकार ने उस संस्था को कमजोर क्यों किया? जवाब साफ है कि भ्रष्टाचारी को बचाने के लिए। जनता सब बात को एक आवेदन से जान लेती थी, मोदी जी को यह अच्छा नहीं लगता था।

योजना आयोग को पिछली सरकार ने क्यों भंग किया था यह आजतक रहस्य ही है। उसकी जगह लेने वाले नीति आयोग ने सरकारी संपत्तियां बेचने की सिफारिश के अलावा आज तक क्या किया, कोई नहीं जानता।

सीबीआई, सीवीसी, आरटीआई, लोकपाल, प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट आदि को कमजोर करना, हथियार दलाली वैध करना और किसी भी घोटाले की जांच न होने का आपस मे गहरा संबंध है।

छह साल में ये स्पष्ट हो गया है कि एक पीएमओ के अलावा किसी मंत्रालय का कोई खास मतलब नहीं है। देश की सारी शक्तियां डेढ़ नेताओं और गुजरात कैडर के कुछ अधिकारियों द्वारा संचालित पीएमओ में एकत्र हो गई हैं। अब नया कारनामा होने जा रहा है कि तीनों सेनाओं का एक प्रमुख होगा।

कहने को मोदी के पहले भाषण से लेकर आज अंतिम भाषण तक में भ्रष्टाचार से लड़ने का कड़ा संकल्प मौजूद है।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नेता में भगवान खोज रहे लोगों की नियति ही है अंत में उल्लू बनना। जो उल्लू बनकर खुश हैं उन्हें आप बधाई दे सकते हैं।

सोमवार, 12 अगस्त 2019

प्राचीन काल का परमाणु परीक्षण और पोखरियाल का घोड़ा चतुर

एक हैं रमेश पोखरियाल निशंक और वे एक ही हैं. यह भारत देश का सौभाग्य है कि इस बार शिक्षा व्यवस्था की खटिया खड़ी करने का जिम्मा इनको दिया गया है. शायद सीधे सादे आदमी हैं इसलिए पार्टी के एजेंडे पर प्रतिबद्ध होकर लंबा फेंकते तो हैं, लेकिन बारूद ज्यादा डाल देते हैं, इसलिए वार लक्ष्य के पार निकल जाता है.

झूठ बोलने की मुश्किल यह है कि हर बार याद नहीं रहता कि पिछली बार क्या बोला था. रमेश पोखरियाल निशंक इसी फेर में फंसे हैं बेचारे. पिछली बार बीजेपी की सरकार आई तो संसद में बोले कि पहली बार दूसरी सदी में महर्षि कण्व ने परमाणु परीक्षण किया था. फिर बाद में ​बोले कि ऋषि कणाद ने परमाणु परीक्षण किया था. अब आईआईटी में जाकर बोल रहे हैं कि चरक संहिता वाले चरक ऋषि ने परमाणु और अणु की खोज की थी और नासा कह रहा है कि संस्कृत की वजह से बोलने वाला कंप्युटर बनेगा.
फोटो साभार: गूगल

एक तो यह अनमोल हीरा सिर्फ भारत के पास है जिसके मुखारविंद से सिर्फ और सिर्फ विज्ञान और परमाणु तकनीक की जानकारी झरती है. लेकिन हर बार भूल जाते हैं कि​ पिछली बार क्या कहा था, इसलिए एक पे नहीं रह पाते और घोड़ा चतुर घोड़ा चतुर करते रहते हैं.

सुना है कि ये साब दर्जनों किताबों के लेखक हैं लेकिन वे किताबें रद्दी में भी आठ रुपये किलो बिक सकी हैं या दीमकों ने उन्हें अपनी माटी ​में मिला कर 'वाल्मिीकि' बना दिया है, कौन जाने? बस इतना पता है कि इनके लिखे का जिक्र आजतक इस ब्रम्हांड में नहीं हुआ.

योग्यता के हिसाब से तो शिक्षा को बर्बाद करने के लिए निशंक जी एकदम सही आदमी हैं, लेकिन झूठ बोलने की इनकी ट्रेनिंग कमजोर रह गई. इन्हें देशहित में कुछ दिन के लिए संघ की शाखा में जाना चाहिए और राजेंद्र यादव के शब्दों में एकदम 'घाघ, घुन्ना और घुटा हुआ' झुट्ठा बनना चाहिए.

सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम बात यह है कि प्राचीन भारत का ज्ञान विज्ञान उपहास का पात्र नहीं है. उसने अपना लोहा मनवाया है. भारतीय दर्शन में हर विषय में गंभीर विचार हुआ है जिसका अपना वैश्विक महत्व है. हो सकता है कि किसी युग में हम तकनीकी रूप से बेहद वि​कसित रहे हों, लेकिन आज वहां नहीं है. उलूल जुलूल बातें कहने की जगह शोध कार्यों को बढ़ाना चाहिए. क्या कम्प्युटर साइंस और संस्कृत को लेकर भारत में कोई शोध हुआ है? क्या आधुनिक परमाणु तकनीक और वैदिक ज्ञान पर कोई प्रमाणिक शोध हुआ है जो दोनों का आपस में अनन्य संबंध स्थापित करे? अगर हुआ है तो भी, अगर नहीं हुआ है तो भी, निशंक जी को तुरंत इन पर काम शुरू करवाना चाहिए. अभी वे जगहंसाई करवा रहे हैं.

हाल ही में सरकार ने संसद को बताया है कि 'देश की 70 प्रमुख प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिकों के 2911 पद रिक्त हैं.

युवाओं को सुरक्षित भविष्य चाहिए. वे नौकरी की तलाश में इधर उधर भाग रहे हैं. उन्हें शोध करने में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिखता. निशंक जी मानव संसाधन विकास मंत्री हैं. युवा शोध की तरफ जाएं, नई नई खोज करें, इसके लिए वे क्या कर रहे हैं? जवाब है कुछ नहीं. वे खुद ही इतिहासकार बन गए हैं.

भारत में दक्षिणपंथी राजनीति की यही विडंबना है कि वहां सर्वोच्च नेता से लेकर आम कार्यकर्ता तक सब इतिहासकार और वैज्ञानिक हैं. अमित शाह संसद में आजादी और कश्मीर का अनर्गल इतिहास बता रहे हैं. निशंक जी बाहर विज्ञान का गलत इतिहास बता रहे हैं. कार्यकर्ता व्हाट्सएप पर बाबर अकबर से लेकर सावरकर और नेहरू तक का इतिहास बता रहे हैं और सब मिलकर, इतिहास में लौटकर हिसाब बराबर कर लेने की तैयारी कर रहे हैं.

जिस वक्त बेरोजगार युवा यूपी में आत्महत्या कर रहे हैं, देश भर के प्रतियोगी छात्र रवीश कुमार को प्रोग्राम चलाने का मैसेज कर रहे हैं, दक्षिणपंथी चपेट में आए युवा लिंचिंग और कश्मीर में व्यस्त हैं, उस समय निशंक जी खुद ही इतिहास क्यों बता रहे हैं?

45 साल में सबसे निचले स्तर की रिकॉर्ड बेरोजगारी के दौर में निशंक का मंत्रालय शिक्षा और रोजगार को लेकर सुधार का कौन सा कदम उठाने जा रहा है? यह सब मत पूछिए. बस इतिहास पूछ लीजिए.

प्राचीन भारत का ज्ञान बहुत समृद्ध था तो यह गौरव की बात है. लेकिन आज के ज्ञान युग में आपके वैज्ञानिक या ऐतिहासिक दावों को अगर तार्किक, ऐतिहासिक व वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ पेश नहीं किया गया तो आप मूर्ख कहलाएंगे. दुनिया में जितनी महाशक्तियां हैं वे प्राचीन काल के गौरव के आधार पर महाशक्ति नहीं बनी हैं. वे अपनी आधुनिकतम आर्थिक और तकनीकी क्षमताओं के कारण महाशक्ति बनी हैं. संघ परिवार को यह बात कब समझ में आएगी?


रविवार, 4 अगस्त 2019

भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का प्रचार झूठ पर आधारित है

यह बात मीडिया आपको नहीं बताएगा कि भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का प्रचार झूठ पर आधारित है.

18 जुलाई, 2015 को आउटलुक में एक खबर छपी. अरविंद पनगढ़िया ने एक कार्यक्रम में कहा था कि '15 साल से भी कम समय में हमारी अर्थव्यवस्था में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की संभावनाएं बहुत प्रबल हैं.' यह व्याख्यान इंडियन इंस्टीट्यूट आफ बैंकिंग एंड फाइनेंस ने आयोजित किया था. इस खबर में ​कहा गया कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) सहित कई विश्लेषक यह अनुमान व्यक्त कर चुके हैं कि अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है. वर्ष 2030 तक भारत की जीडीपी 10,000 अरब डालर तक पहुंच सकती है.

अब मोदी जी का लक्ष्य है कि 2025 तक 5000 अरब डॉलर की इकोनॉमी बनाएंगे. मतलब जो स्वाभाविक प्रगति थी, उससे भी कम का लक्ष्य रखा है. मंदी की आहट देखकर यह प्रचार किया गया है कि हम 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बना देंगे.

भारत अर्थव्यवस्था के आकार के मामले में पांचवें नंबर से फिसल कर सातवें पर पहुंच गया है. मौजूदा विकास दर 5.8 प्रतिशत है और 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कम से कम आठ प्रतिशत की विकास दर चाहिए, जबकि बाजार में मचा हाहाकार बता रहा है कि आने वाला समय और मुश्किल होगा.

पनगढ़िया ने उक्त कार्यक्रम में कहा था, 'वर्ष 2003-04 से 2012-13 के दशक के दौरान रपये में आई वास्तविक मजबूती पर यदि गौर किया जाये तो डालर के लिहाज से हमने सालाना 10 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की. इस रफ्तार से हम 2014-15 के दाम पर मौजूदा 2,000 अरब डालर की अर्थव्यवस्था को अगले 15 साल अथवा इससे भी कम समय में 8,000 अरब डालर तक पहुंचा सकते हैं, इसके साथ ही हम दुनिया की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था जापान से आगे निकल सकते हैं.'

2003-04 से लेकर 2012-13 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था 8.3 प्रतिशत की अच्छी रफ्तार से आगे बढ़ी थी. यही वह दौर था जब गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या में सबसे अधिक कमी आई. आज भारत की विकास दर 5.8 फीसदी पर अटकी हुई है और बाजार में जिस तरह की भगदड़ है, यह और नीचे जाएगी.

बेरोजगारी का प्रकोप शुरू हो गया है.

मारुति सुजुकी इंडिया ने 1,000 से ज्यादा अस्थायी कर्मचारियों की छंटनी कर दी है और नई भर्तियां रोक दी है. कंपनी अपने को मंदी से बचाने के लिए अन्य लागत कटौती उपायों की योजना बना रही है.

अनुमान है कि माह-दर-माह बिक्री गिरने और डीलरशिप पर इनवेंट्री बढ़ने के चलते आटो सेक्टर की हालत खस्ता हो चुकी है. वाहन कंपनियों की बिक्री निचले स्तर पर है. आने वाले महीनों में आटो सेक्टर से 10 लाख नौकरियां जा सकती हैं.

हुंडई, महिंद्रा, टाटा, बजाज आदि सबकी हालत खराब है. अर्थव्यवस्था की सुस्ती बढ़ रही है, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में नकदी का संकट बना हुआ है. मानसून की देरी से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी तेजी नहीं आ पाई.

बेरोजगारी अपने 45 साल के निचले स्तर पर पहुंच गई है. नोटबंदी ने सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले कुटीर, लघु और मझोले उद्योगों की रीढ़ तोड़ दी थी. वहां पर हालत और खराब ही हुए हैं. कारखाने बंद होने का सिलसिला जारी है और उत्पादन सिकुड़ रहा है जिसके चलते रोजगार छिन रहे हैं. देश में हस्तकला और छोटे छोटे पारंपरिक उद्योगों के लिए मशहूर इलाकों में मुर्दनी छा गई है.

जुलाई महीना भारतीय शेयर बाजार के लिए पिछले 17 साल का सबसे खराब महीना था.
5 जुलाई को आम बजट पेश होने के बाद शेयर बाजार धड़ाम हो गया और सरकार के 50 दिन पूरे होने तक शेयर बाजार में निवेशकों के 12 लाख करोड़ डूब गए.

एसबीआई के चेयरमैन रजनीश कुमार कह रहे हैं कि अब 'SBI की वित्तीय हालत को सुधारने के लिए केवल भगवान का सहारा ही बचा है.'

एचडीएफसी के दीपक पारेख कह रहे हैं कि 'मंदी साफ दिख रही है' आरबीआई गवर्नर कह रहे हैं कि 'अर्थव्यवस्था अनिश्चित दौर की ओर जा रही है.'

दर्जनों उद्योगपति ढहती अर्थव्यवस्था पर खुलकर चिंता जाहिर कर रहे हैं. अर्थशास्त्री सरकार को आगाह कर रहे हैं लेकिन सरकार ने इसका उपाय ढूंढने की तरह आपको 5 ट्रिलियन डॉलर का झुनझुना पकड़ा दिया है.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...