शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

आरटीआई कानून बदलकर भ्रष्टाचार का रास्ता क्यों साफ किया गया?

व्यापम जैसा महाघोटाला सामने लाने वाला आरटीआई कानून कुचल दिया गया है. सरकार ने इस कानून में संशोधन करके सूचना आयोग को 'पिंजड़े का तोता' बना दिया है. गुरुवार को नये कानून के मुताबिक सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और उनके वेतन को लेकर नये नियमों की घोषणा कर दी गई. 

अब सूचना विभाग किसी लिजबिज सरकारी विभाग जैसा सरकार का कठपुतली बन जाएगा. ऐसा करके मोदी जी ने भ्रष्टाचारियों के हाथ काफी मजबूत कर दिए हैं.

एक विदेशी दौरे पर मोदी जी ने दुनिया को बताया था कि उनके पीएम बनने के पहले भारत में पैदा होने के लिए उनको शर्म आती थी. वे उस भारत में पैदा होने के लिये शर्मिन्दा थे, शास्त्रों के मुताबिक जहां देवता जन्म लेने के लिए तरसते हैं.

तो जब वे एक राज्य के मुख्यमंत्री बनकर भी भारत में पैदा होने के लिए शर्मिंदा थे, एक मछुआरे का बेटा भारत का राष्ट्रपति बन गया था. उसी राष्ट्रपति के कार्यकाल में भारत की संसद ने एक ऐसा कानून बनाया जिसकी दुनिया भर में सराहना हुई. यह था सूचना का अधिकार कानून. बीबीसी के मुताबिक, 'इस क़ानून को आज़ाद भारत में अब तक के सब से कामयाब क़ानूनों में से एक माना जाता है. इस क़ानून के तहत नागरिक हर साल 60 लाख से अधिक आवेदन देते हैं.'

व्यापम घोटाले का खुलासा आरटीआई के जरिये हुआ था. इसमें अरबों रुपये डकारे गए. यह दुनिया का अकेला घोटाला है जिसमें तमाम अधिकारी और आम लोग मारे गए.

उन्हीं काले 70 सालों के दौरान, आज से 14 साल पहले देश को सूचना अधिकार कानून मिला था, जब मोदी जी भारत में पैदा होने के लिए शर्मिंदा थे. इन 70 सालों को उन्होंने भारत के इतिहास के काले दिनों के रूप में प्रचारित किया. क्या सिर्फ देश तभी महान है जब आपको सत्ता मिले? अगर आप सत्ता में नहीं हैं तो आप भारतीय होने के लिए शर्मिंदा हैं?

ख़ैर, उस कामयाब और जनता का हाथ मजबूत करने वाले कानून में संशोधन कर दिया गया. आरटीआई कानून इस सिद्धांत पर बना था कि जनता को यह जानने का अधिकार रखती है कि देश कैसे चलता है. इसके लिए सूचना आयोग को स्वायत्तता दी गई के वह सरकारी नियंत्रण से मुक्त होगा. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, वेतन, भत्ते, और कार्यकाल यह सब सुप्रीम कोर्ट के जज और चुनाव आयुक्तों के समान होगा. यानी सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त.

अब चूंकि मोदी जी ईमानदार हैं, इसलिये उन्होंने कानून बदल दिया. अब सूचना आयोग स्वायत्त नहीं होगा. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन, भत्ते आदि सब केंद्र सरकार निर्धारित करेगी. यानी वह जब जिसे चाहे, जितने समय के लिए चाहे, रखेगी. चाहेगी तो हटा देगी. यानी आरटीआई कानून अब दुनिया के सबसे बेहतर नागरिक अधिकार कानूनों में से एक नहीं रहेगा.

नए बिल में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग संवैधानिक पद है. सूचना आयोग एक कानूनी विभाग है. दोनों की स्थिति जस्टिफाइड होनी चाहिए. यानी अब सूचना आयोग के अधिकारी का पद जज के समान अधिकार सम्पन्न नहीं होगा, तो वह कमजोर माना जायेगा. वह उच्च अधिकारियों को निर्देश दे सकने की स्थिति में नहीं होगा.

प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के साथ भी यही किया गया जो आरटीआई एक्ट के साथ हुआ. उन्हीं पिछले 70 सालों में जब मोदी जी शर्मिंदा थे, भारत की जनता ने आंदोलन करके लोकपाल पास कराया था. मोदी जी ने ऐसा लोकपाल बनाया जो सरकार की अनुमति के बिना कोई हैसियत नहीं रखता. एक और पिजड़े का तोता.

70 साल के संघर्षों में जो भी अच्छा हासिल हुआ था, उसे खराब किया जा रहा है. बस मैं जेटली जी की तरह यह सब अंग्रेजी में नहीं लिख रहा, इसलिए शायद आप इसे हल्के में लेंगे. अब इस लोकतंत्र में सारे अधिकार सिर्फ डेढ़ लोगों के हाथ में होंगे. लोकतंत्र का संघीय ढांचा अपने करम को रोएगा.

सरकार बताना चाह रही है कि भ्रष्टाचार अब बुराई नहीं है. भ्रष्टाचार सिर्फ कांग्रेस का बुरा था. अब भ्रष्टाचार के लिए संसद के भीतर कानून बनाकर रास्ता खोला जा रहा है. सड़कों पर ईमानदारी के बड़े बड़े होर्डिंग लगे हैं. सवाल उठता है कि मोदी जी के परिवार नहीं है, इसलिए वे किसके लिए बेईमानी करेंगे? आप ही सोचिए कि संसद के अंदर भ्रष्टाचार की गंगा बहाने का रास्ता साफ हो गया है, यह किनके लिए हुआ है?

द वायर ने आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज का बयान छापा है, जिसमें उन्होंने कहा है, ‘सरकार ने बिल्कुल गोपनीय तरीके से ये नियम बनाए हैं, जो कि 2014 की पूर्व-विधान परामर्श नीति में निर्धारित प्रक्रियाओं के उल्लंघन है. इस नीति के तहत सभी ड्राफ्ट नियमों को सार्वजनिक पटल पर रखा जाना चाहिए और लोगों के सुझाव/टिप्पणी मांगे जाने चाहिए... इन नियमों का बनाने से पहले जनता से कोई संवाद नहीं किया गया. ये पूरी तरह से आरटीआई कानून को कमजोर करने की कोशिश है. इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार के पास किसी भी वर्ग या व्यक्तियों के संबंध में नियमों में किसी भी तरह के बदलाव का अधिकार है. यह बेहद चिंता का विषय है कि सरकार इस आधार पर नियुक्ति के समय अलग-अलग आयुक्तों के लिए अलग-अलग कार्यकाल निर्धारित करने के लिए इन शक्तियों का संभावित रूप से इस्तेमाल कर सकती है.’


गांधी, अम्बेडकर और भगत सिंह के देश में झूठ, भ्रष्टाचार और जनता के साथ धोखा करने का कानून बनेगा, यह किसने सोचा था. ऐसी ईमानदारी पर ईमान के सारे देवता शर्मिंदा हैं.

पांच साल में एक ईमानदार पार्टी 70 साल वाली कथित भ्रष्ट पार्टी ही नहीं, देश की सभी पार्टियों की अपेक्षा 100 गुना ज्यादा संपत्ति वाली कैसे बन गई? वह भी स्वनामधन्य फकीरों की पार्टी? इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे फ्रॉड के जरिये सारा कॉरपोरेट चंदा एक ही पार्टी को कैसे जा रहा है?

आप एक नागरिक के रूप में फिलहाल उन्माद में हैं. नशा उतरेगा, तब तक देर हो चुकी होगी.

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