शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

आरटीआई कानून बदलकर भ्रष्टाचार का रास्ता क्यों साफ किया गया?

व्यापम जैसा महाघोटाला सामने लाने वाला आरटीआई कानून कुचल दिया गया है. सरकार ने इस कानून में संशोधन करके सूचना आयोग को 'पिंजड़े का तोता' बना दिया है. गुरुवार को नये कानून के मुताबिक सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और उनके वेतन को लेकर नये नियमों की घोषणा कर दी गई. 

अब सूचना विभाग किसी लिजबिज सरकारी विभाग जैसा सरकार का कठपुतली बन जाएगा. ऐसा करके मोदी जी ने भ्रष्टाचारियों के हाथ काफी मजबूत कर दिए हैं.

एक विदेशी दौरे पर मोदी जी ने दुनिया को बताया था कि उनके पीएम बनने के पहले भारत में पैदा होने के लिए उनको शर्म आती थी. वे उस भारत में पैदा होने के लिये शर्मिन्दा थे, शास्त्रों के मुताबिक जहां देवता जन्म लेने के लिए तरसते हैं.

तो जब वे एक राज्य के मुख्यमंत्री बनकर भी भारत में पैदा होने के लिए शर्मिंदा थे, एक मछुआरे का बेटा भारत का राष्ट्रपति बन गया था. उसी राष्ट्रपति के कार्यकाल में भारत की संसद ने एक ऐसा कानून बनाया जिसकी दुनिया भर में सराहना हुई. यह था सूचना का अधिकार कानून. बीबीसी के मुताबिक, 'इस क़ानून को आज़ाद भारत में अब तक के सब से कामयाब क़ानूनों में से एक माना जाता है. इस क़ानून के तहत नागरिक हर साल 60 लाख से अधिक आवेदन देते हैं.'

व्यापम घोटाले का खुलासा आरटीआई के जरिये हुआ था. इसमें अरबों रुपये डकारे गए. यह दुनिया का अकेला घोटाला है जिसमें तमाम अधिकारी और आम लोग मारे गए.

उन्हीं काले 70 सालों के दौरान, आज से 14 साल पहले देश को सूचना अधिकार कानून मिला था, जब मोदी जी भारत में पैदा होने के लिए शर्मिंदा थे. इन 70 सालों को उन्होंने भारत के इतिहास के काले दिनों के रूप में प्रचारित किया. क्या सिर्फ देश तभी महान है जब आपको सत्ता मिले? अगर आप सत्ता में नहीं हैं तो आप भारतीय होने के लिए शर्मिंदा हैं?

ख़ैर, उस कामयाब और जनता का हाथ मजबूत करने वाले कानून में संशोधन कर दिया गया. आरटीआई कानून इस सिद्धांत पर बना था कि जनता को यह जानने का अधिकार रखती है कि देश कैसे चलता है. इसके लिए सूचना आयोग को स्वायत्तता दी गई के वह सरकारी नियंत्रण से मुक्त होगा. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, वेतन, भत्ते, और कार्यकाल यह सब सुप्रीम कोर्ट के जज और चुनाव आयुक्तों के समान होगा. यानी सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त.

अब चूंकि मोदी जी ईमानदार हैं, इसलिये उन्होंने कानून बदल दिया. अब सूचना आयोग स्वायत्त नहीं होगा. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन, भत्ते आदि सब केंद्र सरकार निर्धारित करेगी. यानी वह जब जिसे चाहे, जितने समय के लिए चाहे, रखेगी. चाहेगी तो हटा देगी. यानी आरटीआई कानून अब दुनिया के सबसे बेहतर नागरिक अधिकार कानूनों में से एक नहीं रहेगा.

नए बिल में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग संवैधानिक पद है. सूचना आयोग एक कानूनी विभाग है. दोनों की स्थिति जस्टिफाइड होनी चाहिए. यानी अब सूचना आयोग के अधिकारी का पद जज के समान अधिकार सम्पन्न नहीं होगा, तो वह कमजोर माना जायेगा. वह उच्च अधिकारियों को निर्देश दे सकने की स्थिति में नहीं होगा.

प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के साथ भी यही किया गया जो आरटीआई एक्ट के साथ हुआ. उन्हीं पिछले 70 सालों में जब मोदी जी शर्मिंदा थे, भारत की जनता ने आंदोलन करके लोकपाल पास कराया था. मोदी जी ने ऐसा लोकपाल बनाया जो सरकार की अनुमति के बिना कोई हैसियत नहीं रखता. एक और पिजड़े का तोता.

70 साल के संघर्षों में जो भी अच्छा हासिल हुआ था, उसे खराब किया जा रहा है. बस मैं जेटली जी की तरह यह सब अंग्रेजी में नहीं लिख रहा, इसलिए शायद आप इसे हल्के में लेंगे. अब इस लोकतंत्र में सारे अधिकार सिर्फ डेढ़ लोगों के हाथ में होंगे. लोकतंत्र का संघीय ढांचा अपने करम को रोएगा.

सरकार बताना चाह रही है कि भ्रष्टाचार अब बुराई नहीं है. भ्रष्टाचार सिर्फ कांग्रेस का बुरा था. अब भ्रष्टाचार के लिए संसद के भीतर कानून बनाकर रास्ता खोला जा रहा है. सड़कों पर ईमानदारी के बड़े बड़े होर्डिंग लगे हैं. सवाल उठता है कि मोदी जी के परिवार नहीं है, इसलिए वे किसके लिए बेईमानी करेंगे? आप ही सोचिए कि संसद के अंदर भ्रष्टाचार की गंगा बहाने का रास्ता साफ हो गया है, यह किनके लिए हुआ है?

द वायर ने आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज का बयान छापा है, जिसमें उन्होंने कहा है, ‘सरकार ने बिल्कुल गोपनीय तरीके से ये नियम बनाए हैं, जो कि 2014 की पूर्व-विधान परामर्श नीति में निर्धारित प्रक्रियाओं के उल्लंघन है. इस नीति के तहत सभी ड्राफ्ट नियमों को सार्वजनिक पटल पर रखा जाना चाहिए और लोगों के सुझाव/टिप्पणी मांगे जाने चाहिए... इन नियमों का बनाने से पहले जनता से कोई संवाद नहीं किया गया. ये पूरी तरह से आरटीआई कानून को कमजोर करने की कोशिश है. इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार के पास किसी भी वर्ग या व्यक्तियों के संबंध में नियमों में किसी भी तरह के बदलाव का अधिकार है. यह बेहद चिंता का विषय है कि सरकार इस आधार पर नियुक्ति के समय अलग-अलग आयुक्तों के लिए अलग-अलग कार्यकाल निर्धारित करने के लिए इन शक्तियों का संभावित रूप से इस्तेमाल कर सकती है.’


गांधी, अम्बेडकर और भगत सिंह के देश में झूठ, भ्रष्टाचार और जनता के साथ धोखा करने का कानून बनेगा, यह किसने सोचा था. ऐसी ईमानदारी पर ईमान के सारे देवता शर्मिंदा हैं.

पांच साल में एक ईमानदार पार्टी 70 साल वाली कथित भ्रष्ट पार्टी ही नहीं, देश की सभी पार्टियों की अपेक्षा 100 गुना ज्यादा संपत्ति वाली कैसे बन गई? वह भी स्वनामधन्य फकीरों की पार्टी? इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे फ्रॉड के जरिये सारा कॉरपोरेट चंदा एक ही पार्टी को कैसे जा रहा है?

आप एक नागरिक के रूप में फिलहाल उन्माद में हैं. नशा उतरेगा, तब तक देर हो चुकी होगी.

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

गांधी की हत्या के आरोप से सावरकर बरी हुए थे, उनकी विचारधारा नहीं

जिन दो राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें से एक किसानों की कब्रगाह के रूप में जाना जाता है और दूसरा देश में सर्वाधिक बेरोजगारी ​के लिए. बावजूद इसके, केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा ने इतिहास के एक विवादित पन्ने को उलटकर उसे चुनावी मुद्दा बना दिया है.

महाराष्ट्र में भाजपा हिंदुत्व की राजनीति के पितृपुरुष विनायक दामोदर सावरकर को भारत रत्न देने का वादा किया है और प्रधानमंत्री इसे लेकर मोर्चा खोल दिया है. उनका जोर सावरकर को भारत रत्न देने से ज्यादा इस बात पर है कि कांग्रेस की अगुवाई में देश ने सावरकर का अपमान किया.

आरएसएस, बीजेपी समेत हिंदूवादी संगठन सावरकर के लिए भारत रत्न जैसे सम्मान की मांग करें, यह स्वाभाविक ही है क्योंकि इस संगठन जिस उग्र हिंदुत्व की ​बुनियाद पर टिके हैं, उसके जनक सावरकर ही हैं.


कुछ लोग सावरकर को भारत रत्न देने का विरोध क्यों कर रहे हैं?

इसके पीछे कई वजहें हैं जिनमें सबसे बड़ा कारण है महात्मा गांधी की हत्या. 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी. इसके छठवें दिन सावरकर को गांधी की हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया. हालांकि सबूतों के अभाव में उन्हें फरवरी, 1949 में इस आरोप से बरी कर दिया गया.

सावरकर को भले ही इस आरोप से बरी कर दिया गया, लेकिन उस समय  देश के गृहमंत्री रहे सरदार पटेल इस बात को लेकर मुतमईन थे कि यह काम आरएसएस और उस विचारधारा का है. गांधी की हत्या के बाद गृह मंत्री सरदार पटेल को सूचना मिली कि ‘इस समाचार के आने के बाद कई जगहों पर आरएसएस से जुड़े हलकों में मिठाइयां बांटी गई थीं.’ 4 फरवरी को एक पत्राचार में भारत सरकार, जिसके गृह मंत्री पटेल थे, ने स्पष्टीकरण दिया था:

‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिए… भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है. देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है. वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है…संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है. उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है. इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके. इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है.’

निजी तौर पर सावरकर को बरी किया जाना एक बात है, लेकिन वह विचारधारा गांधी की हत्या के आरोप से बरी नहीं हुई जिसके जनक सावरकर थे और जिसने गांधी की हत्या पर मिठाइयां बांटी थीं. आरएसएस के लोगों ने ​गांधी की हत्या पर मिठाई बांटकर खुशियां मनाईं, यह बात पटेल के पत्रों से लेकर गांधी के ​सचिव प्यारेलाल तक के रिकॉर्ड में दर्ज है.

गांधीजी के निजी सचिव प्यारेलाल नैय्यर के हवाले से एजी नूरानी ने लिखा है: ‘उस दुर्भाग्यपूर्ण शुक्रवार को कुछ जगहों पर आरएसएस के सदस्यों को पहले से ही ‘अच्छी ख़बर’ के लिए अपने रेडियो सेट चालू रखने की हिदायत दी गई थी.’

इतिहासकार सुमित सरकार अपनी किताब 'आधुनिक भारत' में लिखते हैं,
‘गांधी की हत्या पूना के ब्राह्मणों के एक गुट द्वारा रचे गए षडयंत्र का चरमोत्कर्ष था, जिसकी मूल प्रेरणा उन्हें वीडी सावरकर से मिली थी.’

दूसरे इतिहासकार बिपन चंद्र अपनी किताब 'आजादी के बाद का भारत' में लिखते हैं, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांप्रदायिकता और हिंसात्मक विचारधारा को साफ-साफ देखते हुए और जिस प्रकार की नफरत यह गांधीजी और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध फैला रहा था, उसे देखकर यह स्पष्ट हो गया था कि यही वे असली शक्तियां हैं जिन्होंने गांधी की हत्या की है. आरएसएस के लोगों ने कई जगहों पर खुशियां मनाईं थीं. यह सब देखते हुए सरकार ने तुरंत ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया.’

सरदार पटेल ने आरएसएस प्रमुख गोलवलकर को आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का कारण बताते हुए पत्र लिखकर कहा था, आरएसएस के भाषण ‘‘सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते हैं… देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है. इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है. हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया. जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया. इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.’’

पत्रकार पवन कुलकर्णी अपने एक लेख में लिखते हैं, 18 जुलाई, 1948 को लिखे एक और खत में पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कहा, ‘हमारी रिपोर्टों से यह बात पक्की होती है कि इन दोनों संस्थाओं (आरएसएस और हिंदू महासभा) ख़ासकर आरएसएस की गतिविधियों के नतीजे के तौर पर देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण हुआ जिसमें इतना डरावना हादसा मुमकिन हो सका.’

पवन कुलकर्णी आगे लिखते हैं कि ‘अदालत में गोडसे ने दावा किया कि उसने गांधीजी की हत्या से पहले आरएसएस छोड़ दिया था. यही दावा आरएसएस ने भी किया था. लेकिन इस दावे को सत्यापित नहीं किया जा सका, क्योंकि जैसा कि राजेंद्र प्रसाद ने पटेल को लिखी चिट्ठी में ध्यान दिलाया था, ‘आरएसएस अपनी कार्यवाहियों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखता… न ही इसमें सदस्यता का ही कोई रजिस्टर रखा जाता है.’ इन परिस्थितियों में इस बात का कोई सबूत नहीं मिल सका कि गांधी की हत्या के वक़्त गोडसे आरएसएस का सदस्य था.’

लेकिन कुछ वर्ष पहले फ्रंटलाइन मैगजीन में छपे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे के एक इंटरव्यू में उन्होंने कबूल किया कि उस समय अदालत में झूठ बोला गया था. यह झूठ सावरकर को बचाने के लिए बोला गया था. गोपाल गोडसे ने यह सच इसलिए बयान किया क्योंकि आरएसएस ने गोडसे बंधुओं के उस कथित बलिदान को भुला दिया.

जो आरएसएस आज प्रचारित कर रहा है कि सावरकर अदालत से बरी हो गए थे, उसी आरएसएस पर से सरदार पटेल ने प्रतिबंध इस शर्त पर हटाया था कि ‘आरएसएस पूरी तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति समर्पित रहेगा’ और किसी तरह की राजनीति में शामिल नहीं होगा. आरएसएस ने न सिर्फ सरदार पटेल से किया गया वादा तोड़ दिया, बल्कि अपने दामन से गांधी की हत्या का दाग धोने के लिए झूठ का पहाड़ कर चुका है.

यह सही है कि सावरकर क्रांतिकारी थे और अपनी गतिविधियों के लिए उन्हें सजा हुई, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों से लिखित में वादा किया कि वे क्रांतिकारी गतिविधियों से दूर रहेंगे और अंग्रेज सरकार के वफादार रहेंगे. इसे उन्होंने ताउम्र निभाया भी. 

अटल और आडवाणी की सियासी जोड़ी के प्रमुख रणनीतिकार रह चुके सुधींद्र कुलकर्णी ने ठीक ही कहा है कि 'सावरकर को हिंदुत्व रत्न कहा जा सकता है, लेकिन वह भारत रत्न पाने के हकदार नहीं है. वह एक देशभक्त थे, लेकिन एक आंशिक देशभक्त थे. मुस्लिमों से दुश्मनी रखने वाला एक सच्चा भारतीय नहीं हो सकता.' 

'संतन को सिर्फ सीकरी सो काम'

परसाई जी ने लिखा था कि 'धर्म जब धंधे से जुड़ जाए तो इसी को योग कहते हैं.' शास्त्रों में लिखा है 'आप्तवाक्यं प्रमाणम'. मतलब बाबा लोग जो भी कहते हैं वही प्रमाण है. अगर परसाई जी की बात को आप प्रमाण नहीं भी मानते तो कलियुग के 'कल्कि भगवान' को प्रमाण मानिए, जिनके यहां आयकर विभाग ने छापा मारा है.
स्वनामधन्य 'कल्कि भगवान' के यहां छापे में मिली 500 करोड़ की संपत्ति. 

स्वनामधन्य 'कल्कि भगवान' के आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापा मारकर 500 करोड़ की संपत्ति का पता लगाया है. खबर है कि 'कल्कि भगवान' के 40 ठिकानों पर छापा पड़ा है. इतने ठिकाने तो चंबल में ठाकुओं के नहीं होते, जितने कलियुग के 'कल्कि भगवान' के थे.

हमने ऐसे भगवानों की महिमा के बारे में सुना है जिनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. यहां ऐसे भगवान हैं जो अपनी मर्जी के विरुद्ध आयकर द्वारा खुद ही हिला दिए गए और उनकी अकूत संपत्ति की गाथा सुनकर उनके भक्त लोग भी हिल ही गए होंगे.

तो 'कल्कि भगवान' के ठिकानों से आयकर विभाग ने 18 करोड़ रुपये की कीमत के अमेरिकी डॉलर, 88 किलो सोना, 1271 कैरेट हीरा जब्त किया है. 'कल्कि भगवान' के ठिकानों से मिली कुल अघोषित संपत्ति को जोड़ कर 500 करोड़ बताया गया है.

इन स्वघोषित 'कल्कि भगवान' का नाम विजय कुमार है. उम्र 70 साल है. पहले एलआईसी में क्लर्क थे. फिर बाबा हो गए. देश में खूब कारोबार फैलाया. जमीनें खरीदीं, अकूत संपत्ति बनाई. पैसा हद से ज्यादा हो गया तो विदेशों में निवेश कर दिया. बाबा बहुराष्ट्रीय हो गए. अब इनका कहना है कि ये भगवान विष्णु का 10वां अवतार हैं.

उधर, वेंकैया जी नरेंद्र मोदी जी को भी विष्णु का अवतार बता चुके हैं. अब एक ही समय, एक ही भूमि पर विष्णु जी के दो अवतार हो जाएं तो यह विष्णु जी भी कैसे बर्दाश्त करेंगे. इसलिए उन्होंने आयकर विभाग को प्रेरित किया और छापा पड़ गया.

स्वनामधन्य 'कल्कि अवतार' से लेकर रामदेव तक, सबसने मिलकर यह सिद्ध किया है कि धर्म को धंधे से मिलाना ही योग है. बाबा रामदेव ने महर्षि पतंजलि का चूरण और चटनी के साथ महायोग करा दिया और अरबपति बन गए. उनके जैसे सैकड़ों बाबा हैं जिन्होंने धर्म का धंधे से योग कराने का सफल प्रयोग किया है. कई बाबा तो ऐसे महायोगी हैं जो सरकारों को अपनी जेब में रखते हैं.

हाल ही में ऋषिकेष जाना हुआ. वहां पर एक अजीज मित्र मिल गए. बोले चलिए आपको घुमाता हूं. वे मुझे एक हाहाकारी आश्रम में ले गए. आश्रम इतना बड़ा कि घूमते घूमते हांफा छूट गया. भव्य ​बिल्डिंगें बनी हैं. हजारों कमरे हैं. सब किराये पर उठाए जाते हैं. बाबा की कई करीबी शिष्याएं हैं जो विदेशी हैं. बाबा की विदेशों तक पहुंच है. वहां से विदेशी लोग आध्यात्म की खोज में आते हैं और आश्रम में दान के नाम पर भारी निवेश करके लौट जाते हैं.

गंगा किनारे बना यह आश्रम इतनी जमीन में फैला हुआ है जितने में कोई केंद्रीय यूनिवर्सिटी बन सकती है. ​उसी उत्तराखंड में तमाम इलाके हैं जहां बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं हैं. लेकिन बाबा के पास अकूत जमीन और अकूत संपत्ति है. विदेशों तक फैला हुआ धर्म का व्यवसाय है. नेता से लेकर अभिनेता तक सब उनके शरणागत आते हैं. नेता को वहां से वोट मिलता है और अभिनेता को वहां से नोट मिलता है.

अब कुटी बनाकर निर्जन में रहने और कंदमूल खाने वाले ऋषियों, संतों और साधुओं के जमाने लद गए. संत कबीर ने लिखा था, 'संतन को कहां सीकरी सो काम'. अब संतों की कटेगरी बदल गई है. अब के संत कहते हैं कि 'संतन को सिर्फ सीकरी सो काम'. उनको सीकरी में प्रवेश न मिले तो नई सीकरी बसा देते हैं और नये राजा बना देते हैं.

इस तरह 'आप्तवाक्यं प्रमाणम' के न्याय से परसाई जी की बात सच साबित होती है कि धर्म ​कलियुग में सबसे चोखा धंधा है और धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को योग कहते हैं. 

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

जिसका सूरज नहीं डूबता था, वह गांधी के प्रति नफरत के गंदले में डूब गया

विंस्टन चर्चिल एक ऐसे साम्राज्य का शासक था जिसके बारे में कहते हैं कि उसका सूरज कभी नहीं डूबता था. लेकिन चर्चिल महात्मा गांधी से नफरत करता था. उसकी गांधी के प्रति यह नफरत भारतीयों के प्रति नफरत का प्रतिबिंब थी. उसने गांधी को हिकारत से “भूखा नंगा फकीर” कहा. कैबिनेट में उसके सीनियर रह चुके Leo Amery के मुताबिक, एक बार उसने भारतीयों को “पाशविक धर्म के अनुयायी पाशविक लोग” कहा था.

महात्मा गांधी ने जब भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की और 'करो या मरो' जैसा निर्णायक नारा दिया तो गांधी को हिंसा फैलाने के आरोप में जेल में डाल दिया गया.

इसके बाद चर्चिल ने Leo Amery को पत्र लिखा, “भारत सरकार के दस्तावेज खंगालो और गांधी के खिलाफ ऐसे सबूत एकत्र करो कि वह जापान के साथ मिलकर षडयंत्र कर रहा है.” Leo Amery ने जवाब दिया, “ऐसे कोई सबूत मौजूद नहीं है. सिवाय इसके कि दो जापानी बौद्ध भिक्षु एक बार उनके वर्धा आश्रम में आए थे.”

गांधी पर हिंसा फैलाने का आरोप झूठा था, जिसके विरोध में गांधी ने जेल में ही अनशन शुरू कर दिया. इस पर चर्चिल को संदेह था कि यह गांधी असल में अनशन नहीं करता, यह चोरी से कोई सप्लीमेंट लेता है. इसमें तथ्य नहीं था, यह उसकी नफरत थी.

उसने ​वायसराय लिनलिथगो को तार भेजा, “हमने सुना है कि गांधी अनशन के दौरान ग्लोकोज लेते हैं. क्या इसकी पुष्टि की जा सकती है?”

दो दिन बाद वायसराय का जवाब आया कि यह संभव नहीं है. “गांधी पिछले फास्ट के दौरान खुद सतर्क थे कि कहीं उनके पानी में ग्लोकोज न मिलाया हो. उनकी देखरेख करने वाले डॉक्टर ने उन्हें मनाने की कोशिश भी की लेकिन उन्होंने ग्लूकोज लेने से मना कर दिया.”

गांधी के अनशन को तीसरा हफ्ता शुरू हो गया. चर्चिल ने फिर तार भेजा कि “गांधी 15 दिन तक जिंदा कैसे है. यह एक फ्रॉड है, जिसका खुलासा होना चाहिए. कांग्रेस के हिंदू डॉक्टर चुपके से उसे ग्लूकोज दे रहे होंगे.”

वायसराय ने अपना घोड़ा खोल दिया लेकिन कोई सबूत नहीं मिला. वायसराय ने फिर ​चर्चिल को लिखा, 'यह आदमी दुनिया का सबसे बड़ा फ्रॉड है'. लेकिन हमें कोई सबूत नहीं मिला. चर्चिल का साम्राज्य साबित नहीं कर पाया कि गांधी का अनशन एक धोखा है.

जो ​चर्चिल कहता था कि गांधी से कोई बातचीत सिर्फ मेरी लाश की कीमत पर हो सकती है, वह गांधी को ज्यादा समय कैद में भी नहीं रख पाया. भारत आजाद हो गया.

1951 में चर्चिल की वॉर मेमोरी The Hinge of Fate प्रकाशित हुई. उन्होंने इसमें गांधी पर ग्लूकोज लेकर अनशन करने का आरोप फिर दोहराया. इस बार आजाद भारत ने उन्हें जवाब दिया कि ​चर्चिल की औकात नहीं है कि वे गांधी को पहचान पाएं.

चूंकि विंस्टन चर्चिल भारतीयों को तुच्छ समझता था, इसलिए गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के प्रति उसकी नफरत वक्त बेवक्त बाहर आती रहती थी.

1945 में लंदन में संयुक्त राष्ट्र की असेंबली का पहला सत्र आयोजित हुआ. इंडियन डेलीगेशन की अगुआई कर रही थीं नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित. सत्र के दौरान चर्चिल उनके बगल बैठे थे. अचानक चर्चिल ने विजयलक्ष्मी पंडित से पूछा, 'क्या आपके पति को हमने नहीं मारा? सच में हमने नहीं मारा?'

विजयलक्ष्मी पंडित के पति रणजीत सीताराम पंडित की जेल में मौत हो गई थी. चर्चिल इसी बारे में बात कर रहा था. विजयलक्ष्मी पंडित सकपका गईं, लेकिन थोड़ा सोचकर बोलीं, 'नहीं, हर आदमी अपने निर्धारित वक्त तक जिंदा रहता है.'

हालांकि, इस जवाब के बाद दोनों में मित्रवत व्यवहार हुआ. बाद में चर्चिल ने विजयलक्ष्मी पंडित से कहा, 'तुम्हारे भाई जवाहर लाल ने मनुष्य के दो दुश्मनों पर विजय पा ली है, नफरत और डर, जो कि मनुष्य के बीच सर्वोच्च सभ्य दृष्टिकोण है और आज के माहौल से गायब है.'

इसके कुछ समय बाद नेहरू महारानी के राज्याभिषेक में शामिल होने लंदन गए. समारोह खत्म हुआ तो संयोग से वहां नेहरू और च​र्चिल ही बचे, बाकी लोग चले गए. चर्चिल नेहरू की तरफ घूमे और कहा, 'मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, यह अजीब नहीं है कि दो लोग जिन्होंने एक दूसरे से बेहद नफरत की हो, उन्हें इस तरह से एक साथ फेंक दिया जाए?'

नेहरू ने जवाब दिया, 'लेकिन मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, मैंने आपसे कभी नफरत नहीं की.'

चर्चिल ने फिर कहा, 'लेकिन मैंने की, मैंने की.'

फिर उसी शाम डिनर पर चर्चिल ने नेहरू के लिए कहा, 'यहां एक ऐसा आदमी बैठा है जिसने नफरत और डर को जीत लिया है.'

1945 में चर्चिल को ब्रिटेन की जनता से सत्ता से उखाड़ फेंका. 47 में भारत आजाद हो गया.

Judith Brown किताब Nehru: A Political Life कहती है कि आजादी के बाद 1948 में जब चर्चिल की नेहरू से मुलाकात हुई तो ​चर्चिल ने भारत की आजादी का विरोध करने के लिए नेहरू से माफी मांगी थी.

जब तक ​चर्चिल को समझ में आया कि भारत की आजादी की लड़ाई की अगुआई करने वाले गांधी और नेहरू क्या चीज हैं, तब तक देर हो चुकी थी.

भारत के लोगों और गांधी से नफरत करने वाला चर्चिल हार गया. नफरत से भरे एक पिद्दी के हाथों जान गंवा कर भी गांधी जीत गया. गांधी के हत्यारे को दुनिया हत्यारे के रूप में ही जानेगी. भारत गांधी के देश के रूप में जाना जाएगा.

इसलिए गांधी से नफरत करने वालों से अपील है कि गांधी से नफरत मत करो, हार जाओगे. गांधी के प्रति अपने अंदर नफरत भर तो लोगे, लेकिन गांधी के बराबर आत्मबल कहां से लाओगे?

भारत के राष्ट्रपिता को नमन!

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(संदर्भ: इतिहासकार रामचंद्र गुहा, बिपनचंद्र, प्रोफेसर विश्वनाथ टंडन, टेलीग्राफ)

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...