शनिवार, 30 जुलाई 2016

नामवर सिंह का 'बूढ़ा बैल' हो जाना

ठाकुर नामवर सिंह वाला कार्यक्रम देखा. ठाकुर राजनाथ सिंह, महेश शर्मा और तमाम सत्ताधीश दिग्गजों की मौजूदगी
उन्होंने वादा किया है कि नामवर जी जैसे 'बूढ़े बैलों' का वे संरक्षण करेंगे. महेश शर्मा जी सही हैं. वे इंसानों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं. वे बूढ़ी जवान गायों और बैलों के संरक्षण के लिए ही प्रतिबद्ध हैं. नामवर जी वहां से संरक्षण पाने के आकांक्षी हैं तो उन्हें बूढ़ा बैल बनना पड़ेगा.
मुझे याद आया कि बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक अजित सरकार की हत्या के आरोप में सज़ा काट रहे कुख्यात बाहुबली पप्पू यादव जेल से छूटे तो जेल में लिखी गई अपनी जीवनी द्रोहकाल का पथिक का लोकार्पण कराया. किताब का विमोचन किया था वामपंथी पुरोधा नामवर सिंह ने. उन्होंने स़िर्फ किताब का विमोचन ही नहीं किया था, बल्कि पप्पू यादव की तारीफ़ में कसीदे भी प़ढे. नामवर सिंह ने पप्पू यादव को सरदार पटेल से भी बेहतर नेता बताते हुए कहा कि राजनीति में बहुत कम लोग पढ़ते-लिखते हैं. सरदार पटेल तक आत्मकथा नहीं लिख पाए. पप्पू यादव ने अपनी आत्मकथा में साहस का परिचय दिया है.
उस समय उदय प्रकाश जी ने टिप्पणी की थी कि ‘वक्त बदल गया है. खेत से हल और काग़ज़ से कलम की बेदख़ली और बंदूक के शासन का दौर है यह. जब एंटोनिन अर्ताउ ने कहा था कि अब बर्बरता के रंगमंच ने पुराने, शब्द और लेखक के ज़माने वाले शिथिल थिएटर को विस्थापित कर दिया है. शब्द और शब्दकार दोनों अब मर चुके हैं तो वह इसी बदलाव की ओर इशारा कर रहे थे. 1998 में अजित सरकार की हत्या या चंद्रशेखर की हत्या इस ‘थियेटर आफ़ क्रुएलिटी ’ के जन्म और आधिपत्य का संकेत था. जहां तक नामवर सिंह जी की बात है तो उनका एक ‘कोडेड फ़ार्मूला’ मैं आपको बताता हूं, जिसे जानते सब हैं लेकिन कोई कहता नहीं. रामबाण फ़ार्मूला यह है कि जब लेखक और प्रकाशक के बीच विवाद हो, तो प्रकाशक के साथ रहो. जब प्रशासन और स्टुडेंट के बीच विवाद हो, तो प्रशासन का साथ दो. जब अफ़सर और मातहत की बात हो, तो हमेशा अफ़सर के पक्ष में रहो. जब जातिवाद और उसके विरोध के बीच झगड़े हों, तो सवर्णवाद का साथ दो. जब उत्कृष्टता और मीडियॉकरी के बीच चुनना हो, तो दूसरे को ही चुनो. जब बंदूक और कलम के बीच बहस चले, तो बंदूक के साथ रहो. सामंतवाद और लोमड़ चतुराई यही सीख देते हैं.’
उम्र के अंतिम पड़ाव पर आकर अपने आत्मसम्मान को 'बूढ़ा बैल' बना देने नामवर सिंह जी जाने क्या सोच रहे होंगे, परंतु मैं तो यही चाहता हूं कि ऐसा स्खलन और ऐसी वैचारिकता निरीहता किसी को नसीब न हो.
पिछले साल एक पद लिखा था:
में मंत्रोच्चार के बीच ऐसा लगा जैसे हिंदी प्रगतिशीलता का पिंडदान हो रहा है. ये वही महेश शर्मा जी हैं जिनको गोमांस खाने के शक में पीटकर मारने वाले लोग 'मासूम बच्चे' दिखे थे. संस्कृति मंत्री जी ने बहुत अच्छा प्रवचन दिया. एकदम विराट हिंदू टाइप. उन्होंने नसीहत भी दी कि अभिव्यक्ति की आजादी को नियंत्रित नदी की तरह 'दो पाटों के बीच' ही बहना चाहिए तभी उसे प्रणाम किया जाएगा.
संतन को बचा सीकरी सो काम
आवत जात पनहिया चाटैं दीन्ह बिसारि अवाम
मसि कागद को झाड़ू सम लेकर घूमैं बदनाम
पूछत फिरत शाह की कोठरि कैसे पहुंचैं धाम
पूंछ हिलावत हैं ललचहिया मिलै छटाक छदाम
हत्याओं पर जश्न मनेगा खूब चलेंगे जाम
उस गिरोह से बाहर करियो इस निकृष्ट का नाम

सोमवार, 25 जुलाई 2016

सोशल मीडिया : यौन उत्पीड़न का नया अड्डा

कृष्णकांत
सोशल मीडिया उन महिलाओं के लिए भी बेहद डरावनी जगह है जो समाज में सशक्त मानी जाती हैं. अपनी बात रखने के एवज में उन्हें गंदी गालियों से नवाजा जाता है. साथ ही मार देने और बलात्कार कर देने तक की धमकियां दी जाती हैं.

सोशल मीडिया पर अक्सर किसी महिला पत्रकार या नेता को विरोधस्वरूप हजारों की संख्या में गालियां दी जाती हैं. बरखा दत्त, सागरिका घोष, राना अयूब, कविता कृष्णन, अलका लांबा, स्मृति ईरानी, अंगूरलता डेका, यशोदा बेन आदि महिलाएं इस अभद्रता की भुक्तभोगी हैं. जो लोग किसी की बात-विचार या व्यक्तित्व को नापसंद करते हैं तो वे लोग इसका विरोध गंदी गालियों या चरित्र-हनन के रूप में करते हैं. हाल ही में बरखा दत्त के नाम के साथ गाली जोड़कर ट्विटर पर हैशटैग ट्रेंड कराया गया और यह पहली बार नहीं था.
केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह के बयान से चर्चा में आया ‘प्रेस्टीट्यूट’ शब्द का किसी भी महिला पत्रकार के लिए इस्तेमाल आम है. सागरिका घोष और उनकी बेटी का बलात्कार करने की धमकी दी गई. हाल ही में फेसबुक पर कविता कृष्णन ने कथित ‘फ्री सेक्स’ के बारे में विचार रखे तो उनके खिलाफ एक वरिष्ठ पत्रकार ने अभद्र टिप्पणी की. असम में नवनिर्वाचित भाजपा विधायक अंगूरलता डेका की फोटो शेयर करके अपमानजनक टिप्पणियां की गईं. अदाकारा अंगूरलता की इंटरनेट पर मौजूद उनकी एक्टिंग या मॉडलिंग से जुड़ी तस्वीरों को उनके चरित्र से जोड़कर पेश किया गया. राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली दमदार अभिनेत्री कंगना रनाैत भी सोशल मीडिया पर होने वाली अभद्रता का शिकार हुईं. ऋतिक रोशन के साथ विवाद, पासपोर्ट पर उम्र विवाद जैसी वजहों को लेकर कंगना पर विवाद छिड़ हुआ था. कुछ उनके पक्ष में लिख रहे थे, कुछ विपक्ष में. राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद कंगना के खिलाफ ट्विटर पर कैरेक्टरलेस कंगना, फेक फेमिनिज्म जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे. 17 से 19 मई तक फेक फेमिनिस्ट कंगना हैशटैग ट्रेंड करता रहा. इसके बाद 19 मई को एक बार फिर क्वीन ऑफ लाइफ हैशटैग ट्रेंड हुआ.
इस बारे में कविता कृष्णन कहती हैं, ‘आॅनलाइन तो यह हो ही रहा है, लेकिन ऐसे भी नेता हैं जो मीडिया के जरिए सीधे तौर पर यही व्यवहार करते हैं. उदाहरण के तौर पर, फ्री सेक्स के नाम पर जेएनयू, जादवपुर विश्वविद्यालय और मेरे जैसे कार्यकर्ताओं को हजारों हजार गालियां पड़ती हैं. वही बात सुब्रमण्यम स्वामी टेलीविजन चैनल पर मुझसे कर लेते हैं. एंकर कुछ नहीं बोलते. बंगाल भाजपा नेता दिलीप घोष ने जादवपुर की लड़कियों को कहा कि आपके साथ तो कोई यौन उत्पीड़न करेगा ही क्योंकि आप बेहया हैं. वह यौन उत्पीड़न नहीं माना जाएगा. मैंने कहा कि यह फ्री सेक्स कोई चीज नहीं होती. या तो सेक्स है या तो बलात्कार है. फ्री है तो मर्जी से ही है. फ्रीडम से क्यों डर रहे हैं. लेकिन यह कहने के बाद भाजपा समर्थक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे कहा, आप आइए इंडिया गेट पर, आप फ्री सेक्स की पैरोकार हैं, आपके साथ फ्री सेक्स किया जाए. इश्यू तो यौन उत्पीड़न है, लेकिन इश्यू बना दिया गया फ्री सेक्स को, जिसके लिए गाली दी जा रही है. मैंने जिस इंडिया गेट पर महिलाओं के आंदोलन का नेतृत्व किया, जब मेरे साथ ऐसा कर रहे हैं तो आम महिलाओं के साथ क्या करते होंगे?’
किसी भी मसले पर महिलाओं के चरित्र हनन की कोशिश समाज में आम है. लेकिन कविता कृष्णन कहती हैं, ‘समाज तो जैसा है वैसा है ही, लेकिन चिंता की बात ये है कि जो राजनीतिक गोलबंदी के तहत हो रहा है उसे आप समाज के कंधे पर नहीं धकेल सकते. अगर ये प्लान के तहत हो रहा है तो उसका आयोजक कौन है? ऐसा करने वालों का आत्मविश्वास यहां से आ रहा है कि प्रियंका चतुर्वेदी को बलात्कार की धमकी मिलती है तो भाजपा की मंत्री (स्मृति ईरानी) कह देती हैं कि तुम लोग तो अभी-अभी असम में हारे हो. तुम क्या शिकायत करोगी? सत्ता में जो लोग बैठे हैं, वो गोलबंदी के तहत ऐसा करा रहे हैं तो यह गंभीर मामला है. केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि इसके साथ जीना होगा.’
हाल ही में केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने गृह मंत्रालय को एक पत्र लिखकर ऑनलाइन अभद्रता की शिकार होने वाली महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए कदम उठाने की बात कही है. मेनका गांधी ने कहा, ‘महिलाओं को कई बार इंटरनेट पर क्रूरता का सामना करना पड़ता है. पहले इंटरनेट प्रदाता हमसे इस बाबत बात करने को तैयार नहीं थे लेकिन बाद में उन्होंने संबंधित विस्तृत जानकारी देने की बात मान ली.’ गांधी ने गृह मंत्रालय से कहा है कि सोशल मीडिया पर महिलाओं के साथ होने वाले बर्ताव को लेकर संहिता बनाई जाए.
हालांकि, पत्रकार प्रणव राय को दिए एक इंटरव्यू में केंद्रीय वित्त और सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने कहा, ‘आॅनलाइन गाली देने वालों का पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है. ऐसा लोग निजी स्तर पर करते हैं. मैं नहीं समझता इस पर किसी तरह की सेंसरशिप संभव है. मेरे ख्याल से हमें इसके साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए. हमें उनको नजरअंदाज करना सीखना है, हमें उनको बर्दाश्त करना सीखना है, हमारी रणनीति हमें निर्धारित करनी है.’
कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी को ट्विटर पर एक व्यक्ति ने कहा, ‘आपके साथ बलात्कार करके निर्भया की तरह क्रूरता से आपकी हत्या करनी चाहिए. आप राहुल गांधी की लिव इन पार्टनर क्यों नहीं बन जातीं…’ इस पर प्रियंका चतुर्वेदी ने केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को टैग करके कहा, ‘उनके पास तो जेड सिक्योरिटी है, लेकिन मैं बलात्कार और हत्या की धमकियां झेल रही हूं.’ इस पर स्मृति ईरानी और प्रियंका चतुर्वेदी में ट्विटर वॉर भी हुआ.
प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, ‘यह ट्रेंड बढ़ता जा रहा है. लग रहा था कि 2014 के चुनाव के बाद कम होगा. जो पार्टी सत्ता में आने की कोशिश कर रही थी, सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर ज्यादातर लोग इनके समर्थक थे. लग रहा था कि शायद सरकार बनने के बाद यह खत्म होगा, लेकिन यह बढ़ता ही जा रहा है. सारा संवाद जो ट्विटर पर होता है, वही अब चैनल पर होने लगा है. इससे सोशल मीडिया के ट्रॉल्स को और प्रोत्साहन मिलता है. वे देखते हैं कि किसी तरह की अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. केंद्रीय मंत्री आकर कह देते हैं कि हमें उनके साथ ही रहना है. इससे उनको और प्रोत्साहन मिलता है. यह ट्रेंड खत्म होते नहीं देख रही हूं. अगर सभी दल मिलकर राजनीति से ऊपर उठकर इसका निदान ढूंढ़ पाते हैं, अगर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री यह कहते कि हमें देखना है कि क्यों इस तरह से भाषा का स्तर गिर रहा है, क्यों बहसें नहीं हो पा रही हैं, हम इस पर ध्यान देंगे. लेकिन उन्होंने इसे नकार दिया. तो मैं तो इसे उनके लिए प्रोत्साहन ही समझूंगी जो ऐसी हरकतें करते हैं.’
प्रियंका चतुर्वेदी कहती हैं, ‘हम तो 2014 से बोल रहे हैं कि भाषा का स्तर गिरता जा रहा है. महिलाओं पर अभद्र टिप्पणियां की जाती हैं. उनके साथ गाली-गलौज की जाती है. चरित्र हनन होता है. इस पर नियंत्रण जरूरी है. अब अगर सरकार निर्लज्ज-सी हो गई है, उनको लगता है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा है. हम इस मुद्दे को आगे भी उठाते रहेंगे. ऐसे प्लेटफाॅर्म पर भारत के संदर्भ में अलग से गाइडलाइन होनी चाहिए.’
सोशल मीडिया पर काफी अभद्रता और गाली-गलौज का सामना कर चुकीं आम आदमी पार्टी की नेता अलका लांबा कहती हैं, ‘यह ट्रेंड बहुत पुराना नहीं है. यह पिछले दो सालों से हो रहा है. इस बारे में मैंने साइबर क्राइम ब्रांच में करीब 40 एफआईआर करवाई हैं. मैंने स्क्रीन शॉट, फोटो सब दिए. इसे करीब दो साल होने जा रहा है, लेकिन साइबर क्राइम इस बारे में कार्रवाई करने में नाकाम रहा है. साइबर क्राइम ने हाथ खड़े कर दिए कि हम कुछ नहीं कर सकते. दो साल में चार्जशीट भी फाइल नहीं हुई. इससे लोगों के हौसले बढ़े हैं. कैसे ऐसे लोगों की पहचान की जो प्रधानमंत्री मोदी के लंच में शामिल हैं, उनसे हाथ मिलाते हुए फोटो है, वही लोग सोशल मीडिया पर गाली-गलौज कर रहे थे. उनकी पहचान होने के बाद भी भाजपा द्वारा उनके खिलाफ कार्रवाई न करना यह साबित करता है कि उन्हें खुली छूट दे दी गई है. हमारे फर्जी अकाउंट बनाकर भी ट्वीट किए गए. हमें बदनाम करने की कोशिश की गई. हमारे खिलाफ फैलाया गया कि मैं रैकेट चलाती हूं. ऐसे लोग हजारों की संख्या में हैं. सवाल उठता है कि अगर कोई व्यक्ति जिसकी पहचान हो जाती है, तब भी उस पर कार्रवाई क्यों नहीं होती.’
इंटरनेट पर इस तरह के तत्व मौजूद हैं और हर महिला ऐसे बुरे अनुभव झेल चुकी है. पत्रकार सर्वप्रिया सांगवान कहती हैं, ‘औरतों को टारगेट करना बहुत आसान होता है. मेरे लिए किसी ने इसी तरह कमेंट किया तो मेरे पिता ने मुझे ही टोका कि तुम क्यों लिखती हो. आप किसी पुरुष के चरित्र पर बात करते हो तो फर्क नहीं पड़ता, लेकिन औरत के चरित्र पर उंगली उठा दो तो वह चुप हो जाएगी, डर जाएगी. रवीश कुमार के साथ भी गाली-गलौज होती है तो उनकी मां या बहन को गाली दी जाती है, उनकी पत्नी के लिए अपशब्द इस्तेमाल किया जाता है. महिला पत्रकारों को गालियां मिलती हैं, उनकी पत्रकारिता पर सवाल नहीं होते, उनके चरित्र पर सवाल होते हैं. इसने दो शादी की, उसने तीन शादी की, वह शराब पीती है. जबकि राजनीति पर लिखने वाली लड़कियां बहुत कम हैं. क्योंकि राजनीति पर बात करना बहुत कठिन है. हमारी परवरिश ऐसी है, कंडीशनिंग ऐसी है कि हम पर इस तरह हमले होते हैं तो हम बस चुप हो जाते हैं. दूसरी बात, नेता चैनल पर बैठकर भी अभद्रता कर जाते हैं तो कुछ नहीं होता. ऐसे में छिपी हुई पहचान और फेक आईडी पर कार्रवाई होनी तो और भी मुश्किल है. सब लोग इसके खिलाफ बोलेंगे तो शायद इस पर रोक लगे.’
पत्रकार आशिमा का मानना है, ‘यह कोई अनोखी बात नहीं है. महान राजनेता बयान देते हैं कि हम हेमा मालिनी के गाल जैसी सड़क बनवाना चाहते हैं. हमारे समाज की संरचना में ये चीजें मौजूद हैं कि यह महिलाओं के प्रति अपमानजनक रवैया अपनाता है. हमें एक काउंटर समाज तैयार करना चाहिए. इसके खिलाफ भी लोग बोल रहे हैं. ऐसे लोग बढ़ेंगे तो यह व्यवहार कम होगा.’
साहित्यकार सुजाता तेवतिया कहती हैं, ‘आभासी दुनिया इसी दुनिया का हिस्सा है. स्त्री के लिए जितना विरोध और घृणा बाहर है उतनी ही यहां भी. फ्री सेक्स का ही मामला नहीं है औरत के लिए फ्री स्पीच और फ्री थिंकिंग को भी बर्दाश्त नहीं करता मर्दवादी समाज. स्त्री-देह पर प्रीमियम अपने आप साबित होता है जब आप सेक्स शब्द बोलते हुए भी स्त्री को बर्दाश्त नहीं कर सकते. भीड़ का हिस्सा होते ही कोई एक पत्थर उस औरत की तरफ मारने को उतावला है जो निडर, बेखौफ होकर अपनी बात सामने रख सकती है. विवेकशील और तार्किक होना स्त्री की बनावट के साथ नहीं जाता.’
सुजाता कहती हैं, ‘टेक्नीकली, यह हतोत्सहित करने का मामला है. स्पेस पर पहला दावा पुरुषवादी सत्ता अपना मानती है, आभासी स्पेस में भी स्त्री को औकात में रखने की कोशिशें होती हैं. भाषा पुराना हथियार रही है स्त्री के खिलाफ. वही स्त्री की भी ताकत है अब. भीड़ का हिस्सा होकर जितना आसान लगता है एक पत्थर औरत की तरफ फेंक देना वैसा है नहीं… सोशल मीडिया के पास अपनी तरह से निपटने के तरीके हैं. समाज आभासी ही सही… सिर्फ साक्षर नहीं पढ़ा-लिखा, यहां मौजूद है इसलिए ‘नेम एेंड शेम’ के जरिए, स्क्रीन शॉट्स लगाकर, स्त्री-विरोधी भाषाई व्यवहार के लिए पब्लिकली शर्मिंदा करना ज्यादा कारगर तरीके साबित होते हैं.’
स्त्रियां इन तरीकों से भले ही यौन हमलों से निपट लें, या बर्दाश्त कर लें, लेकिन फिलहाल सरकार या कोई राजनीतिक पार्टी इस असामाजिक प्रवृत्ति पर रोक लगाने की पहल करती नहीं दिख रही है. इंटरनेट पर सूचनाएं रोकी नहीं जा सकतीं, लेकिन क्या सामाजिक और भाषाई रूप से अभद्र, आक्रामक और महिला विरोधी होते जा रहे समाज पर भी नियंत्रण नामुमकिन है?

(यह स्टोरी जून, 2016 में तहलका में प्रकाशित हो चुकी है.)

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

दिल्ली का कश्मीर की जनता से कोई संवाद ही नहीं हो रहा: दिलीप पडगांवकर

कश्मीर में 2010 में जैसे हालात बने थे, अब परिस्थिति उससे ज्यादा कठिन और ज्यादा विकट हो गई है. ऐसा इसलिए हुआ है कि 2008-09 और 10 में जो घटनाएं हुई थीं, उससे न मनमोहन सरकार ने, न ही मोदी सरकार ने कोई सबक सीखा. सितंबर, 2010 में हमारी वार्ताकार समिति ने जब काम शुरू किया था, हमें एक साल के अंदर रिपोर्ट देनी थी. हम जम्मू और कश्मीर के हर जिले में गए थे. हम करीब 700 डेलीगेशन से मिलेे यानी छह हजार से ज्यादा लोग. सिर्फ हुर्रियत से हमारी बात नहीं हुई. जहां-जहां हम जाते थे, उसकी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को देते थे. पुलिस अफसरों और सीआरपीएफ के लोगों से भी हमारी बातचीत हुई थी.

इसके बाद हमने सबसे पहली जो रिपोर्ट दी थी, उसमें कहा था कि जन प्रदर्शन को रोकने के लिए न अधिकारियों की सुनवाई का तरीका सही है, न प्रदर्शन रोकने की उनकी कार्रवाई पर्याप्त है, इसके लिए कुछ कीजिए. उसके बाद थोड़ी-बहुत कार्रवाई हुई थी, लेकिन जिस तरह से अब (बुरहान वानी प्रकरण के बाद) लोग मारे गए हैं, मुझे नहीं लगता कि वहां उस सिफारिश पर अमल हुआ है. शुरुआत यहां से है कि कैसे आप जन प्रदर्शन को हैंडल करते हैं. दूसरे, जन प्रदर्शन में भी अब काफी परिवर्तन आया है. पहले सिर्फ पत्थरबाज थे, लेकिन अब प्रदर्शनकारी सुरक्षा बलों के सामने औरतों और बच्चों को भेजते हैं. उनकी हत्या करते हैं, उन पर अटैक करते हैं. पहली बार हमने देखा है कि पुलिस स्टेशन और कई सुरक्षा संस्थानों पर हमले हुए हैं. प्रदर्शन में ये बदलाव आया है. मिलिटेंसी में तो काफी बड़ा परिवर्तन आया है. एक तो ये जो 18 से 23-24 साल वाला आयुवर्ग है, ये बच्चे मध्यम वर्ग से आते हैं, स्कूलों में और कॉलेजों में पढ़ते हैं. प्रोफेशनल बनना चाहते थे. ये सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हैं, जो कि पहले नहीं था. और ये बहुत अतिवादी हुए हैं. ये जो तीन-चार फैक्टर नजर आ रहे हैं, उसका विश्लेषण ठीक से हुआ है या नहीं हुआ है. लेकिन मैं समझता हूं कि 2010 में जो स्थिति थी, अब उससे ज्यादा उलझाव आ गया है.

पहले आतंकियों के समर्थन में थोड़े-बहुत गांववाले आते थे, लेकिन अभी जिस संख्या में लोग आ रहे हैं, पचास हजार से दो लाख बताया जा रहा है. एक रिपोर्ट आई है कि सिर्फ सात हजार लोग थे. आंकड़ों के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हूं, लेकिन अचानक इतनी बड़ी तादाद में किसी आतंकी के अंतिम संस्कार में जिस तरह लोग आ रहे हैं, यह भी एक नया फैक्टर है.

कश्मीर में हालात सुधरने की जगह और बिगड़ रहे हैं, क्योंकि अभी तक जो अप्रोच रही है दिल्ली की, वह डबल अप्रोच है. हमने कहा था कि एक तो आतंकवाद को खत्म करने के लिए जितना फोर्स इस्तेमाल कर सकते हो, करो. बॉर्डर पर पाकिस्तान के जो हमले हैं उस पर जल्दी से रोक लगाओ. दूसरा, मिलिटेंसी को जल्दी से जल्दी पूरे स्टेट से हटाने का प्रयास करो. यह एक पक्ष होगा. तीसरा, विकास पर फोकस करो. ये त्रिपक्षीय कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन उसके साथ ही साथ जो भावनात्मक जुड़ाव वाले राजनीतिक मुद्दे हैं, उन पर अगर ध्यान नहीं दिया तो इस तरह के मसले खड़े होते रहेंगे. थोड़ी शांति हो जाएगी तो दोबारा कहीं न कहीं और विरोध फूट पड़ेगा. यह भी देखना चाहिए.

हमने रिपोर्ट में भी कहा था कि सबसे गंभीर परिस्थिति घाटी में है, लेकिन अगर आपको सचमुच संपूर्णता में स्थिति देखनी है तो लद्दाख और जम्मू के लोगों की भी काफी आकांक्षाएं हैं, उसकी ओर भी ध्यान देना चाहिए. यह गौर करने लायक है कि पंडितों के बारे में सालों से कहा जा रहा है कि उनके लिए कुछ करो, किसी सरकार ने थोड़ा-बहुत आवंटन बढ़ा दिया, किसी ने ये कर दिया, किसी ने वो कर दिया, लेकिन असली बात ये है कि पंडितों को भी नजरअंदाज किया गया है. सिर्फ पंडित ही नहीं, वहां से काफी सिख परिवार भी बाहर निकल गए हैं, कई मुस्लिम परिवार भी निकल गए हैं. आप जितना नजरअंदाज करोगे, वह उत्प्रेरक का काम करेगा. उसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया होगी. अगर इस पर आप ध्यान नहीं देंगे तो इस तरह की समस्या तो होगी ही.
हमारे यहां जिस तरह से लोग उग्रवाद की ओर बढ़े हैं, जिस तरह से इनके वैश्विक संपर्क सामने आ रहे हैं, पूरे मुस्लिम जगत से उग्रवादी तत्व उभर कर आ रहे हैं, इनके क्या संपर्क हैं, इन बातों का क्या असर होगा? बांग्लादेश में तो आप देख ही रहे हैं. हमारे यहां भी अलग-अलग हिस्सों में स्लीपर सेल की बात हो रही है. मैं समझता हूं कि आज मोदी जिस परिस्थिति का सामना कर रहे हैं, वह उस परिस्थिति से ज्यादा गंभीर है जिसका सामना मनमोहन ने किया था.

कश्मीर की असली समस्याएं दो हैं. यह बंटवारे की विरासत है. पाकिस्तान कभी नहीं मानेगा कि एक मुस्लिम बहुल राज्य भारत का हिस्सा हो सकता है. दूसरा, कोई रास्ता नहीं है कि भारत की कोई भी सरकार स्थिति में बदलाव के लिए यथास्थिति बनी रहने देना चाहेगी. यह हो ही नहीं सकता. तो मूलत: ये समस्या है. वहां पहुंच बनाने की जरूरत है. आज (14 जुलाई को) छह दिन हो चुके हैं लेकिन कोई विधायक अपने क्षेत्र में जाकर लोगों से बात नहीं कर रहा. कोई राजनीतिक दल वहां नहीं जा रहा है. सिविल सोसाइटी, बिजनेस कम्युनिटी, छात्रों का समूह कोई वहां जा ही नहीं रहा है. राजनीतिक संस्थाओं का लोगों के साथ जुड़ाव होना चाहिए, लेकिन वो नहीं हो रहा है. दिल्ली में और कश्मीर में भी, वहां के लोगों से क्या जुड़ाव है, उनसे क्या संवाद हो रहा है, किसी को पता नहीं है. वहां स्थिति मुश्किल है यह सब मानते हैं, लेकिन आप कहीं से शुरुआत तो कीजिए.

कश्मीर पर सिर्फ हमारी रिपोर्ट नहीं थी. मनमोहन सिंह ने छह और वर्किंग ग्रुप बनाए थे. उनकी रिपोर्ट है सरकार के पास और उनमें बड़े-बड़े लोग थे. सी रंगराजन, एमएम अंसारी जैसे लोगों की भी रिपोर्ट है. लेकिन उन रिपोर्टों पर कोई कार्यान्वयन नहीं हुआ. मुझे पता नहीं है कि उन्हें किसी ने देखा भी है कि नहीं. एक नेता का मुझे फोन आया कि आपकी रिपोर्ट कहां मिलेगी. हमने कहा आप ही के मंत्रालय में मिल जाएगी. आप वहां पर देखिए. बहुत सारी रिपोर्टें इंटरनेट पर भी हैं. मेरी पूरी रिपोर्ट पीडीएफ फॉर्म में इंटरनेट पर पड़ी हुई है.

असली स्थिति तो यह है. हम सबने जो सिफारिशें की थीं, उन पर कुछ भी नहीं हुआ. पी चिदंबरम ने मुझसे कहा था कि इस रिपोर्ट पर कैबिनेट में बात की जाएगी, उसके बाद वह रिपोर्ट संसद में पेश की जाएगी. सभी पार्टियां उस पर बहस करेंगी. हमने उनसे कहा था कि भाई सिफारिशें हमारी हैं लेकिन आपको जो बातें उनमें से ठीक लगें, वह ले लीजिए. जो अच्छा न लगे, उसे हटा दीजिएगा. न उस रिपोर्ट पर कोई बात हुई, न वह संसद में पेश ही की गई. अब कश्मीर के अलगाववादी और आतंकवादी कह रहे हैं कि हमें पता है कि आपको क्यों नियुक्त किया गया था. सरकार का मकसद सिर्फ मसला टालना था, इसलिए आपको नियुक्त किया गया था. मेरी धारणा यह है कि अगर आपने कुछ किया ही नहीं तो उनका आरोप सच हो जाता है. मैं नहीं मानता कि यह सच है, लेकिन उनकी राय ऐसी बनी है, वह भी एक तथ्य है.

(लेखक जम्मू कश्मीर पर मनमोहन सरकार द्वारा 2010 में नियुक्त वार्ताकार समिति के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...