सोमवार, 27 जून 2011

जान की कीमत पर सूचना का अधिकार

सूचना के अधिकार कानून ने नागरिकों को पारदर्शी प्रशासन का एक हथियार भले दे दिया हो, लेकिन नागरिकों का भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ लामबंद होना आज भी तलवार की धार पर चलने जसा है। एक ओर जहां इस नायाब हथियार का प्रयोग कर तमाम महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल हुईं तो कई जोशीले और कर्मठ नवजवानों को अपनी जानें भी गंवानी पड़ी है। और आश्चर्यजनक बात तो यह है कि आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसा के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
शुक्रवार को गुजरात के पोरबंदर में इसी तरह की एक घटना फिर घटी, जहां बाघू देवानी नाम के एक पैंसठ वर्षीय आरटीआई कार्यकर्ता पर कुछ अज्ञात लोगों ने हमला किया और चाकू घोंप कर उन्हें घायल कर दिया। देवानी पोरबंदर में हो रहे एक अवैध निर्माण के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। यह निर्माण कार्य बीजेपी नेता बाबू बोखारिया के एक रिश्तेदार द्वारा करवाया जा रहा था जो कि खनन और निर्माण के उद्योग से जुड़े हुए हैं। जाहिर है कि देवानी को इस निर्माण के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत चुकानी पड़ी है। गनीमत है कि वे गंभीर हालत में ही सही, मगर अस्पताल हैं और उनकी हालत स्थिर है।
आरटीआई कार्यकर्ताओं के खिलाफ यह कोई पहला मामला नहीं है। कई लोग तो अपनी जानें गवां चुके हैं और उनके प्राणोत्सर्ग का कोई हिसाब नहीं हुआ। अमित जेठवा और सतीश शेट्टी ऐसे ही नाम हैं जिन्होंने आरटीआई कानून जसे हथियार का व्यापक उपयोग शुरू किया तो वे लोग घबरा उठे जिनका साम्राज्य ढहने को था। पर्यावरणविद् अमित जेठवा को गुजरात हाइकोर्ट के सामने मारा गया। उन्होंने गिर जंगलों के खनन क्षेत्र में खनन माफियाओं के खिलाफ तमाम मामले दायर किए थे और एक एक कर कई काले कारनामों का भंडाफोड़ करते जा रहे थे। महाराष्ट्र के नांदेड़ में रामदास गाडेगावकर, जो कि अनाज वितरण आदि में घोटाले को उजागर कर रहे थे, को तो पत्थरों से मारा गया। वहीं, हरियाणा के फतेहाबाद जिले में पेंशन घोटाले को उजागर करने वाले कार्यकर्ता महाबीर सिंह की बहू को भारी कीमत चुकानी पड़ी। उनकी बहू को गांव के मुखिया धरमवीर मलिक की गाड़ी से कुचल दिया गया। महाराष्ट्र के कोल्हापुर में प्रशासन के खिलाफ आरटीआई कानून को हथियार बनाने वाले दत्ता पाटिल को कोल्हापुर के इचालकरंजी में तलवार घोंप कर मार दिया गया। महाराष्ट्र के बीड जिले में स्कूलों में हो रहे घोटालों को उजागर करने वाले विट्ठल गीते को भी इसी तरह मार दिया गया था।
आरटीआई कार्यकर्ताओं के मारे जाने की अब तक हमारे पास जितनी सूचनाएं हैं, उनमें से ज्यादातर महाराष्ट्र और गुजरात से हैं। ये दो राज्य ऐसे हैं जहां पर अवैध खनन, निर्माण और जमीन घोटालों के खिलाफ सूचना के अधिकार कानून का धड़ल्ले से इस्तेमाल हुआ है। नतीजतन, ऐसा करने कार्यकर्ताओं पर हमले हुए और कइयों को अपनी जानें गवांनी पड़ी तो कई पर जानलेवा हमले हुए। इसकी मूल वजह तो यह है कि नागरिकों को सूचना का अधिकार कानून तो दिया गया लेकिन भ्रष्ट और अपराधी किस्म के लोगों के खिलाफ इसे सुरक्षित ढंग से कैसे इस्तेमाल किया जाये, इस विषय में नहीं सोचा गया। व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा में कानून लाने की तैयारी भले सरकार ने कर रखी हो, लेकिन फिलहाल लोकपाल बिल का हल्ला है। इसलिए व्हिसलब्लोअर एक्ट कब पास हो पाएगा, इस विषय में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। दूसरी बात यह भी कि चाहे सूचना का अधिकार कानून हो, लोकपाल बिल हो या फिर भ्रष्ट लोगों के खिलाफ सशक्त ढंग से कार्रवाई करने की बात हो, सत्तारूढ़ पार्टियां और सरकारें हमेशा ही इस पर ढुलमुल रवैये अख्तियार करती रहीं हैं, क्योंकि दुर्भाग्य से कार्रवाई का जिम्मा जिन पर रहता है, वही लोग उन कारनामों में शामिल रहते हैं। यह समस्या चोर के ही चौकीदार होने की वजह से है। ज्यादातर बड़े मामलों में अगर सूचना के अधिकार का उपयोग किया जाये तो वह एक तरह से या तो किसी नेता के खिलाफ जाता है या फिर ऐसे व्यक्ति के खिलाफ जिसे नेता का वरदहस्त प्राप्त हो। खनन, रीयल एस्टेट आदि में बरती जा रहीं अनियमितताओं में अक्सर ही नेताओं की संलिप्तता पायी जाती है जिन्हें चुनौती देने का मतलब है जान की बाजी लगाना, क्योंकि वे अपने रास्ते में रहे हर उस अवरोध को हटाना चाहते हैं जो उन्हें मुश्किल में डाले। कर्नाटक में दो खनन माफियाओं के सामने मजबूर हुई सरकार को रिरियाते हुए हम सब जब तब देख ही रहे हैं। जब ऐसे माफियाओं के खिलाफ सरकारें तक नहीं टिकतीं तो आम आदमी तो अदना सी चीज है।
आज यह सवाल महत्वपूर्ण हो चला है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के क्या हथियार हमारे पास हों और आम नागरिक उनका कैसे इस्तेमाल कर पाये? आखिर भ्रष्टाचार कोई ब्लैकहोल तो नहीं, जिसके करीब आने पर हम सब को उसी में दहन हो जाना है।


मंगलवार, 14 जून 2011

चंदू

चंदू सड़क किनारे रहता है 
बाटी चोखा और समोसा 
सिगरेट चाय बेचता है 
एक तखत, माटी की भट्टी 
तानी हुई पन्नी की चादर 
इतनी है  बस उसकी दौलत 
दो पिल्ले जैसे नवजात 
वहीं बगल में सारा दिन 
माटी में लोटते रहते हैं 
रोते कभी किलकते हैं 
कीचड़ में लिजलिज करते हैं 
चंदू की बीवी इस पर 
खुश होती है, झल्लाती है 
झाड़-पोछ कर, चूमचाट  कर 
माटी में बैठाती है 
चंदू के संग कामों में 
जुटती है हाथ बंटाती  है 

दुबला-पतला डांगर जैसा 
चंदू दिन भर हँसता है 
आने जाने वालों से वह 
खूब मसखरी करता है 
बीवी को वह मेरी प्यारी बिल्लोरानी 
कहता है 

लोकतंत्र की नज़र में चंदू 
एक अतिक्रमणकारी है 
कुछ कुछ दिन पर उसकी झुग्गी 
समतल कर दी जाती है
एक रोज़ दो रोज़ में लेकिन 
फिर से वह तन जाती है 

चंदू के सपने में अक्सर
हल्ला गाड़ी (अतिक्रमण हटाने वाला दस्ता) आती है 
मारे डर के रात में उसकी 
आँखें खुल-खुल जाती हैं 
कहता है चंदू हंसकर 
सब अपना-अपना काम करें  
वो अपना कानून चलायें 
हम रोटी का इंतजाम करें 

यही झेलते सहते बाबू!
उमर बयालीस पार गयी 
भटक भटक जीवन काटा पर 
नहीं हमारी हार हुई.





कई बरस के बाद

कई बरस के बाद लौटकर आया गांव 
कई बरस के बाद भरा अंखियन में गांव 
कई बरस के बाद मिली अपनी माटी
कई बरस के बाद महक उसकी पायी
कई बरस के बाद पिया जी भर पानी 
कई बरस के बाद भरी सीने में सांस 
कई बरस के बाद  छुआ है पेड़ों को 
कई बरस के बाद निहारा खेतों को 
कई बरस के बाद गाय को पुचकारा 
कई बरस के बाद मिली गोबर की गंध 
कई बरस के बाद भगा बछरू के संग 
कई बरस के बाद सना कीचड़ में हाथ 
कई बरस के बाद आज सूरज देखा 
कई बरस के बाद नज़र आया है चांद
कई बरस के बाद पसीना महका है 
कई बरस के बाद मिली बरगद की छांव 
कई बरस के बाद पिता ने झिडकी दी 
कई बरस के बाद फिरा सर माँ का हाथ
कई बरस के बाद मिली सोंधी रोटी 
कई बरस के बाद नमक-मिर्चा है साथ 
कई बरस के बाद आज महसूस हुआ 
मेरे भीतर अभी बचा है मेरा गांव

रविवार, 12 जून 2011

सवाल व्यवस्था परिवर्तन का है



  बुधवार को राजघाट पर अन्ना के समर्थन में एकत्र हुई, भजनों पर झूमती जनता को देखकर दिग्विजय सिंह कह सकते हैं कि यह नचनियों और गवैयों का जमावड़ा है, लेकिन यह बात दिग्विजय सिंह सहित हर पार्टी का नेता जानता है कि तो वे नाचने-गाने वाले लोग हैं और ही वे कोई ऐसा काम कर रहे हैं जिसे उच्छृंखल कह कर आंखें मूंद ली जाये। वे जानते हैं कि स्थितियां आंख मूंदने वाली नहीं, नींद उड़ाने वाली हैं। वरना, रामलीला मैदान में आधी रात को सोते हुए लोगों पर पुलिसिया कार्रवाई की जाती। सरकार के लोग यह पूछ सकते हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कौन होते हैं यह बताने वाले कि सरकार कैसे काम करे, लेकिन क्या जंतर-मंतर, रामलीला मैदान और राजघाट पर उमड़ी जनता के लिए भी वे ऐसा ही बोल सकते हैं? क्या वे बूढ़े-बच्चे और महिलाएं, जो हाथों में तिरंगा लेकर  ‘भारत माता की जयज् का नारा लगाते हुए धूप-छांव की परवाह किए बिना चले रहे हैं, वे भी अवांछित लोग हैं? क्या लगातार भ्रष्टाचार से आक्रोशित जनता का सड़क पर उतरना अवांछनीय है? इसका जवाब सापेक्षिक है। सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी उसे गैर-जरूरी कह सकती है, लेकिन जनता की निगाह में वह अनिवार्य है। जनता अगर सरकार चुन सकती है तो उससे हिसाब भी मांग सकती है। चुनी हुई सरकार को निरंकुश नहीं होने दिया जा सकता। जनता ने किसी को प्रतिनिधि इसलिए नहीं चुना है कि वह उसके हक में हो रहे अन्याय पर आंखें मूंदे रहे।
जो परिदृश्य सामने है उसे लेकर नेताओं की घबराहट स्वाभाविक है। क्योंकि जहां नेताओं की सभाओं में नारे लगाने वालों का प्राय: टोटा रहता है, वहीं बाबा रामदेव के आह्वान पर 50 हजार लोग आसानी से जुट सकते हैं। यह रामदेव की लोकप्रियता हो हो, पर सरकार की नाकामी जरूर है। सरकार की साठ साल की मुसलसल नाकामी पर जनता ने ही अन्ना हजारे को यह मौका दिया है कि वे राजघाट से दूसरी आजादी की घोषणा कर रहे हैं।
बुधवार को राजघाट पर अनशन कर रहे अन्ना और उनके समर्थकों ने पांच जून की रात रामदेव की अनशन सभा पर पुलिसिया की कार्रवाई की घोर निंदा की। उनका सवाल, जिससे असहमत होने का कोई कारण नहीं दिखता, कि शांतिपूर्ण जनसभा पर आधी रात को लाठी चलाने का क्या औचित्य था? अगर सरकार इसे जरूरी समझती है तो लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। एकत्र होना और शांतिपूर्ण जनसभाएं करना तो नागरिकों का अधिकार है, जब तक की इससे राष्ट्र को कोई खतरा हो। आश्चर्यजनक है कि सरकार सत्तारूढ़ पार्टी पर आये खतरे को देश पर आया खतरा प्रचारित करने की हिमाकत करती है। जो कि 1975 में भी हो चुका है। लगता है कांग्रेस पार्टी 1975 के सबक भूल गयी। बुधवार को एकदिवसीय अनशन के दौरान जब अन्ना हजारे ने दूसरी आजादी की घोषणा कर रहे थे तो साफ दिख रहा था कि वे और उनके सहयोगी गुस्से में हैं और चिंतित भी। वरिष्ठ वकील शांतिभूषण ने कहा कि यह अनशन लोकतंत्र को बचाने की कोशिश है। अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल का कहना है कि असल उद्देश्य तो व्यवस्था में परिवर्तन लाना है। यह एक ऐसा सवाल है जिस पर जनता उनके साथ जा खड़ी होती है और वे नागरिक समाज के प्रतिनिधि बन बैठते हैं। यह प्रतिनिधित्व उन्हें सरकार की अकर्यमण्ता और भ्रष्टचारियों कि अतिसक्रियता ने दिया है। दिग्विजय सिंह या कपिल सिब्बल का यह सवाल निहायत गैर-जरूरी है कि हम जनता तो जनता के प्रतिनिधि हैं। आपको किसने चुना जो हम आपकी बात मानें? यह नब्ज को पकड़ कर उपाय खोजने की बजाय पैर पर कुल्हाड़ी मारने जसा है। यह समझने की जरूरत है कि अन्ना हजारे की दूसरी आजादी की घोषणा करने के पीछे जनसमर्थन से उपजा हौसला काम कर रहा है। जंतर-मंतर से राजघाट तक उमड़ रहे लोग ही अपने आप में  जनता का बयान है कि असल सवाल व्यवस्था में परिवर्तन का है।

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...