सोमवार, 28 जनवरी 2013

चाय बागान के मजदूरों के नाम


 चाय बागानों में विचरते नरकंकाल
टूटी पत्तियों जैसे सूखते
महीनों तक रोटियों के इंतजार में
पत्थर हुईं आंखें 
छटपटातीं, चीखतीं, सूखतीं आतें

उन्हें याद नहीं है
कि पिछली बार कब खाया था
उन्होंने भर पेट खाना
उन्हें याद नहीं कि उनके घर में
कब जला था चूल्हा
उन्हें घर हैं
लेकिन दरोदीवार और छत
नदारद हैं 

मांओं की सूखी छातियां
तड़फड़ाती हैं बिलखते बच्चों को देख
जो जंगली पौधों की जड़ों से
पेट भरने की नाकाम कोशिशें करते करते
चीख पड़ते हैं
वे केवल रोटी बोलते हैं
वे केवल रोटी खोजते हैं
सपने में रोटी देखते हैं


उनके कुनबे में लगातार हो रही
असंख्य मौतें भी
गणनाओं का अनोखा खेल हैं
दबी हुई सरकारी फाइलों
एनजीओ की नाकाम गणनाओं
और कोने में लगी अखबारी रिपोर्टों के

रोज होतीं हैं दस बीस मौतें
उदार व्यवस्था के निवाले हैं
जिन्हें वह रोज लील जाती है
और डकार भी नहीं लेती 

आहिस्ताआहिस्ता
माटी में मिलते जा रहे
हजारों लोगों की खामोश मौतों के बारे में
किसी ने नहीं सुना
राष्ट्रपति को बुखार होने की गर्म चचाओं के बीच
जलपाईगुड़ी के नरसंहार के बारे में
किसी नहीं सुना
लोगों ने बस यह जाना
कि जंगली मजदूरों ने
भून कर खा लिया 
चाय बागान के मालिक को
खामोश मौतों के बारे में
यकीनन किसी ने नहीं सुना 

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

एक पुरानी लालटेन


गोल बनाकर बैठे 
दो बहनें और एक मैं 
एक पुरानी लालटेन के गिर्द 
बहनों की आंखों में झांकने के दिन थे वे 
जब हम अपनी—अपनी किताबों की आड़ में 
फुसफसाकर पढ़ा करते थे 
एक दूसरे की होटों की चुप्पी हंसी 
पलकों पर बैठा पिता का भय 
माथे पर चस्पा मां की हथेली

मद्धम नीम उजाले में झांकती
बहनों की डबडबाई आंखें अब भी मेरे साथ हैं
उस पुरानी लालटेन का ढांचा
अब भी रखा है छज्जे पर
जब कभी इकट्ठे होते हैं हम
देखते हैं उस पर छपे हुए हमारे चेहरे

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

सृजन की रात


एक काली रात का अँधेरा 
दौड़ता है मेरी रगों में 
अक्सर, जब हम जन रहे होते हैं 
साथ साथ, एक चाँद 
एक बहुत सुन्दर घड़ी में 
होता हूँ मैं तुम्हारे साथ 
और इस श्याम-श्वेत, धूसर रंग से डरी हुई 
भयातुर आँखों वाली तुम 
दुबकी होती हो मेरे सीने में 
मैं एक बाजू में थामे तुम्हें 
दुसरे से लड़ रहा होता हूँ, तमाम स्याहियों से 
बिना तुम्हें खबर किये 
इस दुर्दांत संघर्ष के बावजूद 
तुम्हारी आँखों के उजाले में 
बहुत सुन्दर होती है 
सृजन की हर रात

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...