रविवार, 22 जुलाई 2018

सरदार पटेल ने ‘हिंदू राज’ के विचार को ‘पागलपन’ कहा था

जिस समय नेहरू सांप्रदायिकता से लड़ते हुए लिख रहे थे कि ‘यदि इसे खुलकर खेलने दिया गया, तो सांप्रदायिकता भारत को तोड़ डालेगी.’ उसी समय सरदार पटेल 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में घोषणा कर रहे थे ‘कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो.’ 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात में देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को बेचारा बताकर वोट मांग रहे थे, तब मैं इतिहास की किताबें खंगाल रहा था कि क्या सच में सरदार पटेल की हालत वैसी ही थी जैसी वे बता रहे हैं?

क्या वास्तव में सरदार पटेल में उपेक्षित थे और उनके साथ बहुत अन्याय हुआ? दुनिया जानती है कि सरदार पटेल आजीवन कांग्रेसी रहे, न सिर्फ आजाद भारत की पहली सरकार में गृहमंत्री रहे, बल्कि राष्ट्र के निर्माताओं में शीर्ष पर विराजमान हैं. पटेल को देश की करीब 500 रियासतों को मिलाकर आधुनिक हिंदुस्तान के शिल्पी होने का गौरव प्राप्त है.

फिर क्या कारण है कि नेहरू, कांग्रेस, धर्मनिरपेक्षता, संसदीय लोकतंत्र, तिरंगा झंडा और संविधान के शासन का विरोध करने वाले लोग सरदार पटेल को अपना नेता कहना चाहते हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि वामपंथी इतिहासकारों का एक धड़ा सरदार पटेल को कांग्रेस में मौजूद दक्षिणपंथी नेता बताता रहा?

आज सुभाषचंद्र बोस द्वारा राष्ट्रपिता की उपाधि हासिल करने वाले महात्मा गांधी के राष्ट्रपिता होने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. आज जवाहरलाल नेहरू को देशविरोधी हितों का हिमायती बताया जा रहा है. लेकिन उसी समय गांधी नेहरू के अनन्य सहयोगी सरदार वल्लभभाई पटेल को नेहरू से अलग करके उन्हें हिंदुत्व की राजनीति का नायक बताया जा रहा है. ऐसे में सरदार पटेल पर विस्तार से चर्चा जरूरी है.

एक तरफ कट्टर हिंदूवादी तत्व गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवाने की बात करते हैं, दूसरी तरफ हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोग उन सरदार पटेल को अपना कहते घूम रहे हैं जिन्होंने गांधी की हत्या के बाद संघ परिवार पर प्रतिबंध लगाया था.

क्या वास्तव में सरदार पटेल आरएसएस और राजनीतिक हिंदुत्व के नायक हैं? क्या आरएसएस की हिंदू धर्म के नाम पर विभाजन की राजनीति और हिंदूराष्ट्र के सपने से पटेल का कोई तालमेल है? क्या संघ और भाजपा ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत के नाम पर उनके पास कुछ नहीं है और जब ज्यादा चर्चा होने लगती है तो इतिहास के पन्नों से वीर कहे जाने वाले वीडी सावरकर का माफीनामा निकलता है. ऐसा लगता है कि भाजपा और संघ के लोग आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की शर्म से बचने के लिए सरदार पटेल पर दावा ठोंक रहे हैं.

जिस समय नेहरू सांप्रदायिकता से लड़ते हुए लिख रहे थे कि ‘यदि इसे खुलकर खेलने दिया गया, तो सांप्रदायिकता भारत को तोड़ डालेगी.’ उसी समय सरदार पटेल 1948 में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में घोषणा कर रहे थे ‘कांग्रेस और सरकार इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र)

जब नेहरू बार-बार दोहरा रहे थे कि ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई राज्य सभ्य नहीं हो सकता’ तब पटेल नेहरू न सिर्फ पटेल के साथ खड़े थे बल्कि इसी विचार को दोहरा भी रहे थे. जब नेहरू कह रहे थे, ‘यदि कोई भी व्यक्ति धर्म के नाम पर किसी अन्य व्यक्ति पर प्रहार करने के लिए हाथ उठाने की कोशिश भी करेगा, तो मैं उससे अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक सरकार के प्रमुख और उससे बाहर दोनों ही हैसियतों से लडूंगा’ तब सांप्रदायिकता के विरुद्ध इस संघर्ष में नेहरू को पटेल, सी राजगोपालाचारी जैसे दोस्तों से संपूर्ण सहयोग प्राप्त था.

सरदार पटेल ने ‘फरवरी, 1949 में ‘हिंदू राज’ यानी हिंदू राष्ट्र की चर्चा को ‘एक पागलपन भरा विचार’ बताया. और 1950 में उन्होंने अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है… यहां हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है. यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और अपने देश के लायक नहीं हैं.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र)

महात्मा गांधी अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर सबसे ज्यादा सांप्रदायिकता से दुखी थे. जब महात्मा गांधी भारतीय राजनीति में आए तो एक सनातन और सार्वभौम मानवतावाद के साथ आए और देश को नेतृत्व प्रदान किया. लेकिन जब देश आजादी की आधी रात का जश्न मना रहा था तब महात्मा गांधी नितांत अकेले इस सांप्रदायिकता की आग में जल रहे बिहार और बंगाल में इस पर पानी डाल रहे थे.

बिपन चंद्र के मुताबिक, 1947 में अपने जन्मदिन पर एक शुभकामना संदेश के जवाब में महात्मा गांधी ने कहा कि ‘अब वे और जीने के इच्छुक नहीं हैं और वे उस सर्वशक्तिमान की मदद मागेंगे कि उन्हें जंगली बन गए इंसानों द्वारा, चाहे वे अपने को मुसलमान कहने की जुर्रत करें या हिंदू या कुछ और, कत्लेआम किए जाने का असहाय दर्शक बनाने के बजाए आंसू के इस दरिया से उठा ले जाए.’

उन्हें परमात्मा ने तो नहीं उठाया, लेकिन एक ‘जंगली बन गए इंसान’ नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी.

देश भर में दंगों की स्थिति देखकर जब पटेल और नेहरू भी विभाजन के बारे में सोचने को विवश हो गए थे, तब एक आदमी ऐसा था जिसने नोआखली, बिहार, कलकत्ता और दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों में ‘अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था कि अहिंसा और हृदय परिवर्तन के जिन सिद्धांतों को उन्होंने जीवन भर माना है, वे झूठे नहीं हैं.’ (आधुनिक भारत, सुमित सरकार) उन्होंने नोआखली, बेलियाघाट, दिल्ली और पंजाब में अनशन करके हिंसा रोकने में सफलता हासिल की. जब यह सबसे आसान था कि गांधी सत्ता हथिया लेते, उसके प्रति तिरस्कार भाव से वे देश भर में संप्रदायवाद से लड़ रहे थे.

‘गांधी की हत्या पूना के ब्राह्मणों के एक गुट द्वारा रचे गए षडयंत्र का चरमोत्कर्ष था, जिसकी मूल प्रेरणा उन्हें वीडी सावरकर से मिली थी.’ (आधुनिक भारत, सुमित सरकार)

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सांप्रदायिकता और हिंसात्मक विचारधारा को साफ-साफ देखते हुए और जिस प्रकार की नफरत यह गांधीजी और धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध फैला रहा था, उसे देखकर यह स्पष्ट हो गया था कि यही वे असली शक्तियां हैं जिन्होंने गांधी की हत्या की है. आरएसएस ने लोगों ने कई जगहों पर खुशियां मनाईं थीं. यह सब देखते हुए सरकार ने तुरंत ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र)

गांधी की हत्या के बाद गृह मंत्री सरदार पटेल को सूचना मिली कि ‘इस समाचार के आने के बाद कई जगहों पर आरएसएस से जुड़े हलकों में मिठाइयां बांटी गई थीं.’ 4 फरवरी को एक पत्राचार में भारत सरकार, जिसके गृह मंत्री पटेल थे, ने स्पष्टीकरण दिया था:

‘देश में सक्रिय नफ़रत और हिंसा की शक्तियों को, जो देश की आज़ादी को ख़तरे में डालने का काम कर रही हैं, जड़ से उखाड़ने के लिए… भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला किया है. देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई व्यक्ति हिंसा, आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्या आदि की घटनाओं में शामिल रहे हैं और उन्होंने अवैध हथियार तथा गोला-बारूद जमा कर रखा है. वे ऐसे पर्चे बांटते पकड़े गए हैं, जिनमें लोगों को आतंकी तरीक़े से बंदूक आदि जमा करने को कहा जा रहा है…संघ की गतिविधियों से प्रभावित और प्रायोजित होनेवाले हिंसक पंथ ने कई लोगों को अपना शिकार बनाया है. उन्होंने गांधी जी, जिनका जीवन हमारे लिए अमूल्य था, को अपना सबसे नया शिकार बनाया है. इन परिस्थितियों में सरकार इस ज़िम्मेदारी से बंध गई है कि वह हिंसा को फिर से इतने ज़हरीले रूप में प्रकट होने से रोके. इस दिशा में पहले क़दम के तौर पर सरकार ने संघ को एक ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित करने का फ़ैसला किया है.’

सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने का स्पष्टीकरण देते हुए गोलवलकर को सितंबर में एक पत्र लिखा:

‘आरएसएस के भाषण सांप्रदायिक उत्तेजना से भरे हुए होते हैं… देश को इस ज़हर का अंतिम नतीजा महात्मा गांधी की बेशक़ीमती ज़िंदगी की शहादत के तौर पर भुगतना पड़ा है. इस देश की सरकार और यहां के लोगों के मन में आरएसएस के प्रति रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं बची है. हक़ीक़त यह है कि उसका विरोध बढ़ता गया. जब आरएसएस के लोगों ने गांधी जी की हत्या पर ख़ुशी का इज़हार किया और मिठाइयां बाटीं, तो यह विरोध और तेज़ हो गया. इन परिस्थितियों में सरकार के पास आरएसएस पर कार्रवाई करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.’

इसके अलावा 18 जुलाई, 1948 को पटेल ने हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक पत्र लिखा,

‘जहां तक आरएसएस और हिंदू महासभा की बात है, गांधी जी की हत्या का मामला अदालत में है और मुझे इसमें इन दोनों संगठनों की भागीदारी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए लेकिन हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संस्थाओं का, खासकर आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका. मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का एक अतिवादी भाग षडयंत्र में शामिल था. आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य व्यवस्था के अस्तित्व के लिए खतरा थीं. हमें मिली रिपोर्ट बताती है कि प्रतिबंध के बावजूद गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं. दरअसल समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही है.’

नेहरू आरएसएस को एक फासीवादी संगठन मानते थे. दिसंबर, 1947 में उन्होंने लिखा, ‘हमारे पास बहुत सारे साक्ष्य मौजूद हैं जिनसे दिखाया जा सकता है कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है जिसका चरित्र निजी सेना की तरह है और जो निश्चित रूप से नाजी आधारों पर आगे बढ़ रही है, यहां तक कि उसके संगठन की तकनीकों का पालन भी कर रही है.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र)

इस सबके बावजूद सरकार नागरिक स्वतंत्रता जैसे विचार को कमजोर नहीं करना चाहती थी. गांधी की हत्या के बावजूद सरकार दमनकारी नहीं होना चाहती थी. 29 जून, 1949 को नेहरू ने पटेल को लिखा था,

‘मौजूदा परिस्थितियों में ऐसे प्रतिबंध और गिरफ्तारियां जितनी कम हों उतना ही अच्छा है.’ आरएसएस ने सरदार पटेल की शर्तों को स्वीकार कर लिया तो जुलाई, 1949 में इस पर प्रतिबंध हटा लिया गया. ये शर्तें थीं: आरएसएस एक लिखित और प्रकाशित संविधान स्वीकार करेगा. अपने को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा. राजनीति में कोई दखलंदाजी नहीं देगा. हिंसा और गोपनीयता का त्याग करेगा. भारतीय झंडा और संविधान के प्रति आस्था प्रकट करेगा और अपने को जनवादी आधारों पर संगठित करेगा. (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र)

जब प्रधानमंत्री सरदार पटेल का नारा लगा रहे हों और उनकी पार्टी के लोग ‘अखंड हिंदू राष्ट्र के लिए हथियार उठाने’ की घोषणा कर रहे हों, तब यह याद रखना जरूरी हो जाता है कि सभी कांग्रेसी नेताओं की निगाह में स्वतंत्र भारत की तस्वीर एक समान थी. ‘वे सभी तीव्र सामाजिक और आर्थिक रूपांतरण तथा समाज और राजनीति के जनवादीकरण के प्रति पूर्णत: समर्पित थे. राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा दिए गए आधारभूत मूल्यों के प्रति उनकी एक मौलिक सहमति थी जिसके आधार पर स्वतंत्र भारत का निर्माण किया जाना था. नेहरू के साथ-साथ सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और सी राजगोपालाचारी भी जनवाद, नागरिक स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्र आर्थिक विकास, साम्राज्यवाद विरोध, सामाजिक सुधार और गरीबी उन्मूलन की नीतियों के प्रति उतने ही समर्पित थे. नेहरू का इन नेताओं के साथ असली मतभेद समाजवाद और समाज के वर्गीय विश्लेषण को लेकर था.’ (आजादी के बाद का भारत, बिपन चंद्र)

इतिहासकार बिपन चंद्र का निष्कर्ष है कि ‘इस संदर्भ और अतीत को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रशंसकों और आलोचकों दोनों द्वारा पटेल को गलत समझा गया और गलत प्रस्तुत किया गया है. जहां दक्षिणपंथियों ने उनका इस्तेमाल नेहरू के दृष्टिकोणों और नीतियों पर आक्रमण करने लिए किया है, वहीं वामपंथियों ने उन्हें एकदम खलनायक की तरह चरम दक्षिणपंथी के सांचे में दिखाया है. हालांकि, ये दोनों गलत हैं. महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू और अन्य नेता इस बात पर एकमत थे कि देश के विकास के लिए राष्ट्रीय आम सहमति का निर्माण आवश्यक था.’

क्या ऐसे सरदार पटेल को संघ और भाजपा के लोग अपना नायक बनाकर इस बात को पचा सकते हैं? क्या नरेंद्र मोदी सरदार पटेल को अपना नेता मानते हैं? यदि हां, तो फिर उन्हें पटेल की ‘धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता’ के प्रति निष्ठा दिखाते हुए कानून पर अमल करते हुए हिंदू राष्ट्र के लिए हथियार उठाने का आह्वान करने वाले  सिरफिरे विधायक पर या गाय के नाम पर हत्या करने वालों को माला पहनाने वाले मंत्री पर कार्रवाई करनी चाहिए.

साथ ही देश का प्रमुख होने के नाते नरेंद्र मोदी को यह आश्वासन देना चाहिए कि नेहरू और पटेल की जोड़ी ने हमें जो लोकतांत्रिक भारत अता किया है, हम और हमारी पार्टी उसका गला नहीं घोंटेंगे. राजस्थान में एक क्रूरतम हत्या के आरोपी के पक्ष में कट्टर हिंदुओं का कोर्ट पर धावा बोलना यह संकेत है कि भारत का लोकतंत्र और इसकी लोकतांत्रिक विरासत खतरे में है.

(यह लेख 17/12/2017 को 'द वायर' में छप चुका है.)


गुरुवार, 19 जुलाई 2018

भगत सिंह का भय सच निकला

ऐसा कुछ नहीं घटा मेरे सामने 
कि कोई महिला प्रधानमंत्री की कॉलर पकड़कर पूछे- 
आज़ादी से क्या मिला?
और प्रधानमंत्री मुस्कराकर कहे-
प्रधानमंत्री की कॉलर पकड़ने की आज़ादी 


ऐसा भी नहीं हुआ कि भगत सिंह से प्रेरित बच्चों ने 
'दुर्गा' बन चुकीं प्रधानमंत्री को 
न घुसने दिया हो अपने प्रांगण में 
और उन्हें देशद्रोही भी नहीं कहा गया हो

हमारे समय में प्रधानमंत्री शोहदों का 'फॉलोवर' है 
हत्यारों को नेताओं का संरक्षण है 
एक विचारधारा है मजहबी उन्माद
इंसानों से घृणा को कहते हैं राष्ट्रवाद
विकास एक ब्लैक होल है जिसमें 
सवा अरब इंसानों को कुदाया जा रहा है 
नये भारत के सपने की खोह जाती है 
एक मंदिर के प्रांगण में 
जिसे उन्माद का सबसे पैना हथियार बना लिया गया है 
क़ानून ऐसी हंसिया है जिससे 
ताक़तवर चाहे दातून छीले 
चाहे तो काट ले किसान की गर्दन

क्या कल यही दर्ज होगा हमारे समय के बारे में?

तवारीख़ में कैसे दिखेंगे हम 
बर्बादी की पहली सीढ़ी के बारे में 
क्या दर्ज होगा किताबों में 
कोई बच्चा मुझसे पूछेगा- 
हिंदुस्तान में लिंचिंग कब शुरू हुई?
गाय के लिए पहला आदमी कौन मारा गया सरकारी निगहबानी में? 
या फिर 
हिंदुस्तान में पहली बार मुर्दे पर मुकदमा कब दर्ज हुआ?

तब क्या कहेगी मेरी लरजती बूढ़ी ज़बान 
क्या मैं अपनी आत्मा में एक कुटिल मुस्कान दबाकर 
नेहरू का नाम बताऊंगा?

अगर वह पूछ ले- 
यह नेहरू सौ साल बाद भी 
हर काम का ज़िम्मेदार कैसे हुआ 
तो क्या तवारीख़ 1955 में पैदा करेगी कोई काल्पनिक अख़लाक़ 
जिसे पाकिस्तानियों ने पीटकर मारा! 
तो क्या जैसे प्रधानसेवक ने तक्षशिला को बिहार में ला पटका, 
वैसे दादरी लाहौर में बताया जाया जाएगा, 
या सबकुछ कहा जायेगा वैसे ही 
जैसे घट रहा है!

एक बर्बर देश अचानक पैदा नहीं होता 
वह धीरे धीरे बनता है लोगों के दिमाग में 
फिर ज़मीन का वह टुकड़ा 
होता जाता है ख़ौफ़नाक 
जहां वे दिमाग चलते फिरते हैं

पहली बार ही कोई मंत्री पहनाता है हत्यारों को फूलों की माला 
पहली ही बार कोई नेता कहता है 
किसी बर्बर को भगत सिंह 
अखबार कहते हैं यह तो फ्रिंज एलिमेंट हैं 
और फ्रिंज बनाते जाते हैं मज़बूत मुख्यधारा

कितना अच्छा होता 
कि मैं 1905 में पैदा होता 
जब भगत सिंह को रही होती फांसी 
उसी दिन मेरे गांव में 
गोरों के नमक में सीझा कोई भूरा सिपाही 
मुझे भी गोली मार देता 
इंसानों के लिए कुर्बानी के दौर में 
अच्छी होती है एक गुमनाम मौत 
कम से कम यह न देखते हम
कि भगत सिंह और बिस्मिल के देश में पीट पीट कर मार दिया जाता है अखलाक़ों को 
फिर इसके बाद सरकार किसी निर्दोष के हत्यारों को
भगत सिंह का वारिस कहती हैं!

मां को लिखे पत्र में 
भगत सिंह का भय सच निकला 
भूरा साहेब गोरे से ज़्यादा क्रूर निकला।


(15 जुलाई, 2018)

सोमवार, 9 जुलाई 2018

अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगने वाले सावरकर ‘वीर’ कैसे हो गए?

सावरकर ने अंग्रेज़ों को सौंपे अपने माफ़ीनामे में लिखा था, ‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा.’


(फोटो: savarkarsmarak.com)
हिंदू धर्म और हिंदू आस्था से अलग, राजनीतिक ‘हिंदुत्व’ की स्थापना करने वाले विनायक दामोदर सावरकर की आज (28 मई) को जन्मतिथि है, जिन्हें वीर सावरकर के नाम से भी जाना जाता है. केंद्र और देश के कई महत्वपूर्ण राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा हिंदुत्व की इस विचारधारा की राजनीति करती है.

हाल ही में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भाजपा ने राष्ट्रीयता को अपना सबसे प्रमुख एजेंडा बनाने की भी घोषणा की थी. भाजपा जिस हिंदुत्व के विचार के आधार पर भारत निर्माण का सपना देखती है, वह विचार सावरकर ने ही दिया था. आज भाजपा नेताओं के भाषणों से लेकर पार्टी के पोस्टरों तक में सावरकार को महत्वपूर्ण स्थान मिलता है.


एक ऐसे समय में जब उग्र हिंदू राष्ट्रवाद के एजेंडे पर चलने वाली पार्टी सत्ता में हो, हिंदुत्व और उसके प्रणेता वीडी सावरकर पर विचार करना ज़रूरी लगता है. सावरकर के विचार क्या थे? आज़ादी की लड़ाई में उनका योगदान क्या था? स्वतंत्रता आंदोलन में सावरकर की क्या भूमिका थी, जिसके चलते उन्हें वीर सावरकर की उपाधि से नवाज़ा गया, यह सवाल बेहद अहम हैं.


प्रधानमंत्री बनने से पहले मुख्यमंत्री रहने के दौरान नरेंद्र मोदी ने जुलाई, 2013 में रॉयटर्स न्यूज़ एजेंसी के दो पत्रकारों को दिए एक इंटरव्यू में ख़ुद को ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ बताया था.

भारत में राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का परस्पर अटूट संबंध है. राष्ट्रीयता भारत के स्वाधीनता आंदोलन की वह भावना थी, जो पूरे आंदोलन के मूल में थी. इसी दौरान हिंदू राष्ट्रीयता अथवा हिंदू राष्ट्रवाद का विचार गढ़ा गया.

सावरकर उस हिंदुत्व के जन्मदाता हैं जो हिंदू और मुसलमानों में फूट डालने वाला साबित हुआ. मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र के सिद्धांत की तरह ही उनके हिंदुत्व ने भी अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति में सहायता की.

राजनीति शास्त्री और प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम लिखते हैं, ‘‘हिंदू राष्ट्रवादी’ शब्द की उत्पत्ति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐतिहासिक संदर्भ में हुई. यह स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा गया था. ‘मुस्लिम राष्ट्रवादियों’ ने मुस्लिम लीग के बैनर तले और ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने ‘हिंदू महासभा’ और ‘आरएसएस’ के बैनर तले इस स्वतंत्रता संग्राम का यह कहकर विरोध किया कि हिंदू और मुस्लिम दो पृथक राष्ट्र हैं. स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के लिए इन हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने अपने औपनिवेशिक आकाओं से हाथ मिला लिया ताकि वे अपनी पसंद के धार्मिक राज्य ‘हिंदुस्थान’ या ‘हिंदू राष्ट्र’ और पाकिस्तान या इस्लामी राष्ट्र हासिल कर सकें.’

नरेंद्र मोदी के इस साक्षात्कार के बाद प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने नरेंद्र मोदी के नाम एक खुला ख़त लिखा था, जिसमें वे लिखते हैं, ‘भारत को विभाजित करने में मुस्लिम लीग की भूमिका और इसकी राजनीति के विषय में लोग अच्छी तरह परिचित हैं लेकिन मुझे लगता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने कैसा घटिया और कुटिल रोल अदा किया इसके विषय में आपकी याददाश्त को ताज़ा करना ज़रूरी है.’

उस पत्र के मुताबिक, ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ मुस्लिम लीग की तरह ही द्विराष्ट्र सिद्धांत में यक़ीन रखते हैं. हिंदुत्व के जन्मदाता, वीडी सावरकर और आरएसएस दोनों की द्विराष्ट्र सिद्धांत में साफ-साफ समझ में आने वाली आस्था रही है कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं. मुहम्मद अली जिन्नाह के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने तो उससे काफी पहले, 1937 में ही जब वे अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण कर रहे थे, तभी उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं.

शम्सुल इस्लाम उक्त पत्र में सावरकर के समग्र वांड्मय से उनके विचार उद्घृत करते हैं, ‘फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बगल रह रहे हैं. कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा. इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्र सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं. इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं. हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए. आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान.’

सावरकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वह आदि विचारक हैं जो हिंदू-मुसलमान को दो अलग-अलग राष्ट्र मानते हैं. तब से बाद के वर्षों में भी संघ अपनी हिंदू राष्ट्र की कल्पना और हिंदू राष्ट्रवाद के विचार पर टिका हुआ है. इसके उलट संघ भारत-पाकिस्तान बंटवारे के लिए कांग्रेस, महात्मा गांधी, नेहरू को कोसता भी है. मौजूदा दौर में हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए वे लोग सबसे बड़े ‘गद्दार’ हैं जो सांप्रदायिकता के विरोध में हैं, जो सेक्युलर विचार को मानने वाले हैं.

जैसा कि प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि वे ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ हैं, यदि ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ होना गर्व की बात है तो गर्व एक समस्या खड़ी करता है. इसी तरह मुस्लिम राष्ट्रवादी, सिख राष्ट्रवादी, इसाई राष्ट्रवादी होंगे. इतने सारे राष्ट्रवादी ज़ाहिर है कि भारतीय राष्ट्रवाद के मुक़ाबले कई टुकड़ियों में एक ख़तरे के रूप में खड़े होंगे. इस हिंदू राष्ट्रवाद में गर्व करने जैसा क्या है जो भारत जैसे विविधता वाले राष्ट्र को एक ही ढर्रे पर ले जाने की वकालत करता है.

हिंदू राष्ट्रवादियों ने आज़ादी की लड़ाई के वक़्त भारतीय सेनानियों का साथ देने की बजाय अंग्रेज़ों के साथ हो गए और अंग्रेज़ों की तरफ से उन पर कार्रवाई न करने का अभयदान मिला. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी और जापान की मदद से भारत को आज़ाद कराने का प्रयास किया था. इस दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मदद करने की जगह ब्रिटिश शासकों का साथ दिया. सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए भारत में सैनिकों की भर्ती में मदद की. आगे चलकर सावरकर ने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाया जो हिंदू-मुस्लिमों में भेद पैदा करने में सहायक हुआ.

वीर सावरकर समग्र वांड्मय के हवाले से शम्सुल इस्लाम लिखते हैं, ‘हिंदू राष्ट्रवादियों ने बजाय नेता जी की मदद करने के, नेताजी के मुक्ति संघर्ष को हराने में ब्रिटिश शासकों के हाथ मज़बूत किए. हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फ़ौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए. हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज़ शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है-

‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए… ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए.’

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘कई लोग मानते हैं कि सावरकर एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे. लेकिन सच क्या है? सच ये है ब्रिटिश राज के दौरान कई राष्ट्रवादी गिरफ्तार किए गए. जेल में ब्रिटिश अधिकारी उन्हें प्रलोभन देते थे कि या वे उनके साथ मिल जाएं या पूरी ज़िंदगी जेल में बिताएं. तब कई लोग ब्रिटिश शासन का सहयोगी बन जाने के लिए तैयार हो जाते थे. इसमें सावरकर भी शामिल हैं.’

जस्टिस काटजू कहते हैं, ‘दरअसल, सावरकर केवल 1910 तक राष्ट्रवादी रहे. ये वो समय था जब वे गिरफ्तार किए गए थे और उन्हें उम्र कैद की सज़ा हुई. जेल में करीब दस साल गुजारने के बाद, ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके सामने सहयोगी बन जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया. जेल से बाहर आने के बाद सावरकर हिंदू सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम करने लगे और एक ब्रिटिश एजेंट बन गए. वह ब्रिटिश नीति ‘बांटो और राज करो’ को आगे बढ़ाने का काम करते थे.’

जस्टिस काटजू लिखते हैं, ‘दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे. उन्होंने तब इस नारे को बढ़ावा दिया, ‘राजनीति को हिंदू रूप दो और हिंदुओं का सैन्यीकरण करो’. सावरकर ने भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा युद्ध के लिए हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण देने की मांग का भी समर्थन किया. इसके बाद जब कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की तो सावरकर ने उसकी आलोचना की. उन्होंने हिंदुओं से ब्रिटिश सरकार की अवज्ञा न करने को कहा. साथ ही उन्होंने हिंदुओं से कहा कि वे सेना में भर्ती हों और युद्ध की कला सीखें. क्या सावरकर सम्मान के लायक हैं और उन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा जाना चाहिए? सावरकर के बारे में ‘वीर’ जैसी बात क्यों? वह तो 1910 के बाद ब्रिटिश एजेंट हो गए थे.’


शम्सुल इस्लाम वीर सावरकर के हिंदुत्व की चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘वास्तव में आरएसएस ‘वीर’ सावरकर द्वारा निर्धारित विचारधारा का पालन करता है. यह कोई राज़ नहीं है कि ‘वीर’ सावरकर अपने पूरे जीवन में जातिवाद और मनुस्मृति की पूजा के एक बड़े प्रस्तावक बने रहे. ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की इस प्रेरणा के अनुसार- ‘मनुस्मृति एक ऐसा धर्मग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति रीति-रिवाज, विचार तथा आचरण का आधार हो गया है. सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं दैविक अभियान को संहिताबद्ध किया है. आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन तथा आचरण में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं. आज मनुस्मृति हिंदू विधि है.’


नाथूराम गोडसे ने 1948 में महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी. पूरे महाद्वीप को हिला देने वाली इस हत्या के आठ आरोपी थे जिनमें से एक नाम वी डी सावरकर का भी था. हालांकि, उनके ख़िलाफ़ यह आरोप साबित नहीं हो सका और वे बरी हो गए.

1910-11 तक वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे. वे पकड़े गए और 1911 में उन्हें अंडमान की कुख्यात जेल में डाल दिया गया. उन्हें 50 वर्षों की सज़ा हुई थी, लेकिन सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों में ही उन्होंने अंग्रेज़ सरकार के समक्ष याचिका डाली कि उन्हें रिहा कर दिया जाए. इसके बाद उन्होंने कई याचिकाएं लगाईं. अपनी याचिका में उन्होंने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि ‘यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से ख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिट्रिश सरकार के प्रति अपनी वफ़ादारी निभाउंगा.’ अंडमान जेल से छूटने के बाद उन्होंने यह वादा निभाया भी और कभी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुए, न पकड़े गए.

वीडी सावरकर ने 1913 में एक याचिका दाख़िल की जिसमें उन्होंने अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा, ‘हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें. भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.’


अपनी याचिका में सावरकर लिखते हैं, ‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है. जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.’

याचिका के अगले हिस्से में वे और भारतीयों को भी सरकार के पक्ष में लाने का वादा करते हुए लिखते हैं, ‘इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है. जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.’

ऐसी गतिविधियों में लिप्त और दया की मांग करता हुआ ऐसा माफ़ीनामा डालने वाले सावरकर वीर कैसे कहे जा सकते हैं, जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस के उलट अंग्रेज़ी फ़ौज के लिए भारतीयों की भर्ती में मदद की? सावरकर का योगदान यही है कि उन्होंने भारत में हिंदुत्व की वह विचारधारा दी जो लोकतंत्र के उलट एक धर्म के वर्चस्व की वकालत करती है.

(यह लेख 26/02/2018 को द वायर हिंदी वेबसाइट पर छप चुका है.) 

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