शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभक्तों का महान संगठन?


प्रभाष जोशी 

(अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है.)

….अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के लिए वंदेमातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है. ये वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को ही स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदेमातरम् निकला है. अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रभक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो. तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ”भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान वे खुद क्या कर रहे थे? उनने खुद ही कहा है- ”मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कॉग्रेस के तौर-तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा. और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी.” संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता. लालकृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आंदोलन को छोड़कर करांची में आरम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे. पांच साल बाद देश आज़ाद हो गया. इस आज़ादी में उनके संगठन संघ- के कितने स्वयंसेवकों ने जान की क़ुरबानी दी? ज़रा बताएं.

एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वे भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बच्चे नहीं संघ कार्य करते स्वयंसेवक ही थे. एक बार बटेश्वर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए. उधम हुआ. पुलिस ने पकड़ा तो उत्पात करने वाले सेनानियों के नाम बताकर छूट गए. आज़ादी आने तक उनने भी देश पर क़ुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें क़ुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि वे भी आज़ादी के आंदोलन को राष्ट्रभक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे.

अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देशभक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्योछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक का विषय है. सन् १९२५ में संघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देशभक्त बताया जाता है. वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने १९१० में नागपुर से कोलकाता गए जो कि क्रांतिकारियों का गढ़ था. हेडगेवार वहां छह साल रहे. संघवालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वसनीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी. लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है न तब के पुलिस रेकॉर्ड में. (इतिहासकारों का छोड़े क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) खैर, हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली. वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा. १९१६ में वे वापस नागपुर आ गए.

लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे. गांधीजी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आंदोलन के वे आलोचक हो गए. वे पकड़े भी गए और सन् १९२२ में जेल से छूटे. नागपुर में सन् १९२३ के दंगों में उनने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया. अगले साल सावरकर का ”हिन्दुत्व” निकला जिसकी एक पांडुलिपी उनके पास भी थी. सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने सन् १९२५ में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन और राजनीति में रहे लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा. सारा देश जब नमक सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्टीय स्वयंसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए. वे स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने न सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाया न अहिंसक असहयोग आंदोलनों में लगने दिया. संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए क़ुरबान हो जाएंगे. सावरकर ने तब चिढ़कर बयान दिया था, ”संघ के स्वयंसेवक के समाधि लेख में लिखा होगा- वह जन्मा, संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया.”

हेडगेवार तो फिर भी क्रांतिकारियों और अहिंसक असहयोग आंदोलनकारियों में रहे दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्रनिष्ठ थे कि राष्ट्रीय आंदोलन, क्रांतिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयंसेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया. वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक द ब्रदरहुड इन सेफ़्रॉन- लिखी है उसमें कहा है, ”गोलवलकर मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए.” अंग्रेज़ों ने जब ग़ैरसरकारी संगठनों में वर्दी पहनने और सैनिक कवायद पर पाबंदी लगाई तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया. २९ अप्रैल १९४३ को गोलवलकर ने संघ के वरिष्ठ लोगों के एक दस्तीपत्र भेजा. इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था. दस्तीपत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी- ”हमने सैनिक कवायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मानकर ऐसी सब गतिविधियां छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए. ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर ये प्रशिक्षण देने लगेंगे. लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतज़ार किए बिना ये गतिविधियां और ये विभाग समाप्त ही कर दें.” (ये वो दौर था जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रांतिकारी नहीं थे. अंग्रेज़ों ने इसे ठीक से समझ लिया था.

सन् १९४३ में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रपट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है. १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंबई के गृह विभाग ने कहा था, ”संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है. खासकर अगस्त १९४२ में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है.” हेडगेवार सन् १९२५ से १९४० तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया. संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा काम था. संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले स्वयंसेवकों का संगठन बनाना. इन स्वयंसेवकों का चरित्र निर्माण करना. उनमें ऱाष्ट्रभक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना. १९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई सात हज़ार शाखाओं में छह से सात लाख स्वयंसेवक भाग ले रहे थे. आप पूछ सकते हैं कि इन एकनिष्ठ देशभक्त स्वयंसेवकों ने आज़ादी के आंदोलन में क्या किया? अगर ये सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंग्रेज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया. कितने स्वयंसेवक अंग्रेज़ों की गोलियों से मरे और कितने वंदेमातरम् कहकर फांसी पर झूल गए? हिन्दुत्ववादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया.

संघ और इन स्वयंसेवकों के लिए आज़ादी के आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयंसेवक तैयार करना था. संगठन को अंग्रेज़ों की पाबंदी से बचाना था. इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंग्रेज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था. इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पांच हज़ार साल से ही बना हुआ है. उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है. मुसलमान हिन्दू राष्ट्र के दुश्मन नंबर एक और अंग्रेज़ नंबर दो थे. सिर्फ़ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता. मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उन्हें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा. इसलिए अब उनका नारा है- वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा. सवाल यह है कि जब आज़ादी का आंदोलन- संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदेमातरम् गाना स्वैच्छिक क्यों नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है. यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है. वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं.

(साभार- जनसत्ता. प्रभाष जोशी का यह लेख 10 मार्च, 2008 को जनसत्ता में छपा था.)

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

देशभक्ति का नंगा नाच

देश अपनी भक्ति को लेकर इतना शर्मिंदा कभी नहीं था. मुसीबतें थीं, अपार थीं, हम ​सब मिलकर लड़ते रहे, संघर्ष करते रहे और आगे बढ़ते रहे. अब हम पीछे लौटने लगे हैं. जो चीजें अब तक गैर—लोकतांत्रिक मानी जा चुकी हैं, उन्हें अब लोकतंत्र का लबादा ओढ़ाया जा रहा है.
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद शुरू हुआ राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रद्रोह, धर्म और धर्मद्रोह का खेल जेएनयू के बहाने चरम पर पहुंच गया. जेएनयू प्रकरण पर सत्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का खौफनाक गठबंधन सामने आया जो अब हर उस चीज को राष्ट्रविरोधी घोषित करने पर तुला है जो उससे असहमत है. कुछ बानगी देखें:
हिंदुत्व बचाने की पूरी जिम्मेदारी अपने नाजुक कंधों पर संभाल रहीं विहिप नेता साध्वी प्राची ने कहा, ‘जेएनयू को हाफिद सईद ने फंडिंग की है और उसी के सहयोग से यूनिवर्सिटी में सम्मेलन हुआ है. राहुल गांधी राष्ट्रवाद की परिभाषा बताएं, देश उनसे जानना चाहता है. डी. राजा आतंकी गतिविधियों में शामिल है, उसे भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए.’
भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने कहा, 'राष्ट्र का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और जेएनयू के ‘देशद्रोह’ के आरोपियों के खिलाफ आजीवन कारवास की जगह फांसी मिलनी चाहिए या गोली मार देनी चाहिए.'
मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने कहा, 'क्या पाकिस्तान जिंदाबाद करने वाले देशद्रोहियों की जबान नहीं काट देनी चाहिए?'
​हरियाणा हाउसिंग बोर्ड के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के पूर्व ओएसडी जवाहर यादव ने कहा, ‘जेएनयू में जो महिलाएं राष्‍ट्रविरोधी नारे लगा रही थीं, उनके लिए मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि आप लोगों से तो वेश्‍या भी बेहतर हैं, जो अपना शरीर बेचती हैं, लेकिन देश नहीं।’
सीपीआई कार्यकर्ता की पिटाई करने वाले विधायक ओपी शर्मा ने कहा, ‘अगर बंदूक होती तो मैं गोली भी मार देता.’
यह सारे बयान किन्हीं अनपढ़ उचक्कों के नहीं हैं. ये सारे लोग चुनकर आए हैं और विभिन्न सदनों की शोभा बढ़ा रहे हैं. शायद ये अच्छे दिनों के परिणाम हैं जिनका आपसे वादा किया गया था.
जेएनयू में आपत्तिजनक नारेबाजी की खबर सही थी या गलत, नहीं मालूम. लेकिन राष्ट्रभक्ति का उन्माद फैलाने के मकसद से जीन्यूज ने एक फर्जी वीडियो चलाया था. उस आधार पर अनर्ब गोस्वामी और दीपक चौरसिया भी राष्ट्रभक्त साबित होने की दौड़ में शामिल हो गए और चीखने लगे. वे जेएनयू वालों से प्रमाण पत्र मांगने लगे. गृह मंत्रालय अपनी पूरी मशीनरी के साथ इस खेल में शामिल हो गया. जब आरोप साबित नहीं हो सके तो सबने पल्टी मार ली. संघ, बजरंग दल या एबीवीपी का एक उच्छृंखल आदमी और केंद्रीय गृह मंत्रालय एक कतार में पाए गए.
कन्हैया या दूसरा कोई छात्र दोषी तो साबित नहीं हुआ, लेकिन समाज में पर्याप्त जहर घुल चुका है. उन्माद में आए लोग अपने विरोधी से देशभक्ति का प्रमाण पत्र मांग रहे हैं. जेएनयू के आसपास के लोग अपने घरों से जेएनयू को छात्रों को निकाल रहे हैं. अब जेएनयू के छात्र ​मात्र किरायेदार छात्र नहीं हैं. अब वे पाकिस्तान के एजेंट से कम नहीं हैं.
दूसरी ओर एबीवीपी देश भर के विश्वविद्यालयों में देशभक्ति की डिटेक्टर मशीन लगाकर तैनात हो गई है. एबीवीपी के आरोपों को आधार बनाकर बीएचयू से संदीप पांडेय को नक्सली और देशद्रोही कहकर निकाल दिया गया. बीएचयू के वीसी गिरीश त्रिपाठी संघ के प्रचारक हैं.
बीएचयू में ही एक परिचर्चा में शामिल होने गए कवि व चिंतक बद्रीनारायण के साथ एबीवीपी के लोगों ने अभद्रता की.
इलाहाबाद विवि में एबीवीपी ने वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन को परिसर में घुसने न​हीं दिया. उन्हें छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह लोकतंत्र और फ्रीडम आॅफ स्पीच ​विषय पर परिचर्चा के लिए बुलाया था.
21 फरवरी को ग्वालियर में दलित मुद्दे पर एक सेमिनार में शामिल होने गए प्रो. विवेक कुमार के कार्यक्रम में एबीवीपी ने पथराव किया. माहौल तनावपूर्ण है.
रोहित वेमुला प्रकरण में एबीवीपी से लेकर केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी की भूमिका रही.
क्या यह सब देशभक्ति के नाम पर हो रहा है? किसी को भी गोली मार देने की धमकी देना, कोर्ट में विधायक का कानून हाथ में लेना, चिंतकों के साथ अभद्रता, मारपीट करना यह सब कौन सी देशभक्ति है? हत्या करने, जबान काट लेने, गोली मार देने की बात करना क्या देशभक्ति है? अपने 70वें साल में प्रवेश करने से पहले यह लोकतंत्र अचानक इतना डरावना किसने बना दिया? आपसे तो कहा गया था कि अच्छे दिन आएंगे?

पत्रकारिता का अंधयुग

अब सवाल लेफ्ट राइट के समर्थन का नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा कर पाना ही बहुत बड़ी चुनौती है. जो बात मैं दो ढाई साल से अलग-अलग न्यूज रूम में महसूस कर रहा हूं, जीन्यूज के पत्रकार विश्वदीपक ने उसका चरम देखा. क्योंकि जीन्यूज ने राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा और मालदार ठेका ले रखा है. जेएनयू की घटना के बाद दो दिन का मीडियाई उन्माद डराने वाला था. लेकिन पत्रकारों की पिटाई के बाद हालात ​बदल गए. फिर पत्रकारों ने सच तलाशना शुरू कर दिया. इस डरावनी घटना ने कई बड़े बड़े नामधारियों की कलई खोल दी. खैर, जीन्यूज से इस्तीफा देने वाले विश्वदीपक का यह इस्तीफा मौजूदा पत्रकारिता का का दस्तावेज है.


प्रिय जी न्यूज,
एक साल 4 महीने और 4 दिन बाद अब वक्त आ गया है कि मैं अब आपसे अलग हो जाऊं. हालांकि ऐसा पहले करना चाहिए था लेकिन अब भी नहीं किया तो खुद को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगा.
आगे जो मैं कहने जा रहा हूं वो किसी भावावेश, गुस्से या खीझ का नतीज़ा नहीं है, बल्कि एक सुचिंतित बयान है. मैं पत्रकार होने से साथ-साथ उसी देश का एक नागरिक भी हूं जिसके नाम अंध ‘राष्ट्रवाद’ का ज़हर फैलाया जा रहा है और इस देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है. मेरा नागरिक दायित्व और पेशेवर जिम्मेदारी कहती है कि मैं इस ज़हर को फैलने से रोकूं. मैं जानता हूं कि मेरी कोशिश नाव के सहारे समुद्र पार करने जैसी है लेकिन फिर भी मैं शुरुआत करना चहता हूं. इसी सोच के तहत JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार के बहाने शुरू किए गए अंध राष्ट्रवादी अभियान और उसे बढ़ाने में हमारी भूमिका के विरोध में मैं अपने पद से इस्तीफा देता हूं. मैं चाहता हूं इसे बिना किसी वैयक्तिक द्वेष के स्वीकार किया जाए.
असल में बात व्यक्तिगत है भी नहीं. बात पेशेवर जिम्मेदारी की है. सामाजिक दायित्वबोध की है और आखिर में देशप्रेम की भी है. मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इन तीनों पैमानों पर एक संस्थान के तौर पर तुम, तुमसे जुड़े होने के नाते एक पत्रकार के तौर पर मैं, पिछले एक साल में कई बार फेल हुए.
मई 2014 के बाद से जब से श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से कमोबेश देश के हर न्यूज़ रूम का सांप्रदायीकरण (Communalization) हुआ है लेकिन हमारे यहां स्थितियां और भी भयावह हैं. माफी चाहता हूं इस भारी भरकम शब्द के इस्तेमाल के लिए लेकिन इसके अलावा कोई और दूसरा शब्द नहीं है. आखिर ऐसा क्यों होता है कि ख़बरों को मोदी एंगल से जोड़कर लिखवाया जाता है? ये सोचकर खबरें लिखवाई जाती हैं कि इससे मोदी सरकार के एजेंडे को कितना गति मिलेगी?
हमें गहराई से संदेह होने लगा है कि हम पत्रकार हैं. ऐसा लगता है जैसे हम सरकार के प्रवक्ता हैं या सुपारी किलर हैं? मोदी हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं, मेरे भी है; लेकिन एक पत्रकार के तौर इतनी मोदी भक्ति अब हजम नहीं हो रही है. मेरा ज़मीर मेरे खिलाफ बग़ावत करने लगा है. ऐसा लगता है जैसे मैं बीमार पड़ गया हूं.
हर खबर के पीछे एजेंडा, हर न्यूज़ शो के पीछे मोदी सरकार को महान बताने की कोशिश, हर बहस के पीछे मोदी विरोधियों को शूट करने का प्रयास? अटैक, युद्ध से कमतर कोई शब्द हमें मंजूर नहीं. क्या है ये सब? कभी ठहरकर सोचता हूं तो लगता है कि पागल हो गया हूं.
आखिर हमें इतना दीन हीन, अनैतिक और गिरा हुआ क्यों बना दिया गया? देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान से पढ़ाई करने और आजतक से लेकर बीबीसी और डॉयचे वेले, जर्मनी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम करने के बाद मेरी पत्रकारीय जमापूंजी यही है कि लोग मुझे ‘छी न्यूज़ पत्रकार’ कहने लगे हैं. हमारे ईमान (Integrity) की धज्जियां उड़ चुकी हैं. इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
कितनी बातें कहूं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ लगातार मुहिम चलाई गई और आज भी चलाई जा रही है. आखिर क्यों? बिजली-पानी, शिक्षा और ऑड-इवेन जैसी जनता को राहत देने वाली बुनियादी नीतियों पर भी सवाल उठाए गए. केजरीवाल से असहमति का और उनकी आलोचना का पूरा हक है लेकिन केजरीवाल की सुपारी किलिंग का हक एक पत्रकार के तौर पर नहीं है. केजरीवाल के खिलाफ की गई निगेटिव स्टोरी की अगर लिस्ट बनाने लगूंगा तो कई पन्ने भर जाएंगे. मैं जानना चाहता हूं कि पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत ‘तटस्थता’ का और दर्शकों के प्रति ईमानदारी का कुछ तो मूल्य है, कि नहीं?
दलित स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे पर ऐसा ही हुआ. पहले हमने उसे दलित स्कॉलर लिखा फिर दलित छात्र लिखने लगे. चलो ठीक है लेकिन कम से कम खबर तो ढंग से लिखते. रोहित वेमुला को आत्महत्या तक धकेलने के पीछे ABVP नेता और बीजेपी के बंडारू दत्तात्रेय की भूमिका गंभीरतम सवालों के घेरे में है (सब कुछ स्पष्ट है) लेकिन एक मीडिया हाउस के तौर हमारा काम मुद्दे को कमजोर (dilute) करने और उन्हें बचाने वाले की भूमिका का निर्वहन करना था.
मुझे याद है जब असहिष्णुता के मुद्दे पर उदय प्रकाश समेत देश के सभी भाषाओं के नामचीन लेखकों ने अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो हमने उन्हीं पर सवाल करने शुरू कर दिए. अगर सिर्फ उदय प्रकाश की ही बात करें तो लाखों लोग उन्हें पढ़ते हैं. हम जिस भाषा को बोलते हैं, जिसमें रोजगार करते हैं उसकी शान हैं वो. उनकी रचनाओं में हमारा जीवन, हमारे स्वप्न, संघर्ष झलकते हैं लेकिन हम ये सिद्ध करने में लगे रहे कि ये सब प्रायोजित था. तकलीफ हुई थी तब भी, लेकिन बर्दाश्त कर गया था.
लेकिन कब तक करूं और क्यों?
मुझे ठीक से नींद नहीं आ रही है. बेचैन हूं मैं. शायद ये अपराध बोध का नतीजा है. किसी शख्स की जिंदगी में जो सबसे बड़ा कलंक लग सकता है वो है- देशद्रोह. लेकिन सवाल ये है कि एक पत्रकार के तौर पर हमें क्या हक है कि किसी को देशद्रोही की डिग्री बांटने का? ये काम तो न्यायालय का है न?
कन्हैया समेत जेएनयू के कई छात्रों को हमने ने लोगों की नजर में ‘देशद्रोही’ बना दिया. अगर कल को इनमें से किसी की हत्या हो जाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? हमने सिर्फ किसी की हत्या और कुछ परिवारों को बरबाद करने की स्थिति पैदा नहीं की है बल्कि दंगा फैलाने और गृहयुद्ध की नौबत तैयार कर दी है. कौन सा देशप्रेम है ये? आखिर कौन सी पत्रकारिता है ये?
क्या हम बीजेपी या आरएसएस के मुखपत्र हैं कि वो जो बोलेंगे वहीं कहेंगे? जिस वीडियो में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा था ही नहीं उसे हमने बार-बार हमने उन्माद फैलाने के लिए चलाया. अंधेरे में आ रही कुछ आवाज़ों को हमने कैसे मान लिया की ये कन्हैया या उसके साथियों की ही है? ‘भारतीय कोर्ट ज़िंदाबाद’ को पूर्वाग्रहों के चलते ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ सुन लिया और सरकार की लाइन पर काम करते हुए कुछ लोगों का करियर, उनकी उम्मीदें और परिवार को तबाही की कगार तक पहुंचा दिया. अच्छा होता कि हम एजेंसीज को जांच करने देते और उनके नतीजों का इंतज़ार करते.
लोग उमर खालिद की बहन को रेप करने और उस पर एसिड अटैक की धमकी दे रहे हैं. उसे गद्दार की बहन कह रहे हैं. सोचिए ज़रा अगर ऐसा हुआ तो क्या इसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं होगी? कन्हैया ने एक बार नहीं हज़ार बार कहा कि वो देश विरोधी नारों का समर्थन नहीं करता लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई, क्योंकि हमने जो उम्माद फैलाया था वो NDA सरकार की लाइन पर था. क्या हमने कन्हैया के घर को ध्यान से देखा है? कन्हैया का घर, ‘घर’ नहीं इस देश के किसानों और आम आदमी की विवशता का दर्दनाक प्रतीक है. उन उम्मीदों का कब्रिस्तान है जो इस देश में हर पल दफ्न हो रही हैं. लेकिन हम अंधे हो चुके हैं!
मुझे तकलीफ हो रही है इस बारे में बात करते हुए लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि मेरे इलाके में भी बहुत से घर ऐसे हैं. भारत का ग्रामीण जीवन इतना ही बदरंग है.उन टूटी हुई दीवारों और पहले से ही कमजोर हो चुकी जिंदगियों में हमने राष्ट्रवादी ज़हर का इंजेक्शन लगाया है, बिना ये सोचे हुए कि इसका अंजाम क्या हो सकता है! अगर कन्हैया के लकवाग्रस्त पिता की मौत सदमें से हो जाए तो क्या हम जिम्मेदार नहीं होंगे? ‘The Indian Express’ ने अगर स्टोरी नहीं की होती तो इस देश को पता नहीं चलता कि वंचितों के हक में कन्हैया को बोलने की प्रेरणा कहां से मिलती है!
रामा नागा और दूसरों का हाल भी ऐसा ही है. बहुत मामूली पृष्ठभूमि और गरीबी से संघर्ष करते हुए ये लड़के जेएनयू में मिल रही सब्सिडी की वजह से पढ़ लिख पाते हैं. आगे बढ़ने का हौसला देख पाते हैं. लेकिन टीआरपी की बाज़ारू अभीप्सा और हमारे बिके हुए विवेक ने इनके करियर को लगभग तबाह ही कर दिया है.
हो सकता है कि हम इनकी राजनीति से असहमत हों या इनके विचार उग्र हों लेकिन ये देशद्रोही कैसे हो गए? कोर्ट का काम हम कैसे कर सकते हैं? क्या ये महज इत्तफाक है कि दिल्ली पुलिस ने अपनी FIR में ज़ी न्यूज का संदर्भ दिया है? ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली पुलिस से हमारी सांठगांठ है? बताइए कि हम क्या जवाब दे लोगों को?
आखिर जेएनयू से या जेएनयू के छात्रों से क्या दुश्मनी है हमारी? मेरा मानना है कि आधुनिक जीवन मूल्यों, लोकतंत्र, विविधता और विरोधी विचारों के सह अस्तित्व का अगर कोई सबसे खूबसूरत बगीचा है देश में तो वो जेएनयू है लेकिन इसे गैरकानूनी और देशद्रोह का अड्डा बताया जा रहा है.
मैं ये जानना चाहता हूं कि जेएनयू गैर कानूनी है या बीजेपी का वो विधायक जो कोर्ट में घुसकर लेफ्ट कार्यकर्ता को पीट रहा था? विधायक और उसके समर्थक सड़क पर गिरे हुए CPI के कार्यकर्ता अमीक जमेई को बूटों तले रौंद रहे थे लेकिन पास में खड़ी पुलिस तमाशा देख रही थी. स्क्रीन पर पिटाई की तस्वीरें चल रही थीं और हम लिख रहे थे – ओपी शर्मा पर पिटाई का आरोप. मैंने पूछा कि आरोप क्यों? कहा गया ‘ऊपर’ से कहा गया है? हमारा ‘ऊपर’ इतना नीचे कैसे हो सकता है? मोदी तक तो फिर भी समझ में आता है लेकिन अब ओपी शर्मा जैसे बीजेपी के नेताओं और ABVP के कार्यकर्ताओं को भी स्टोरी लिखते समय अब हम बचाने लगे हैं.
घिन आने लगी है मुझे अपने अस्तित्व से. अपनी पत्रकरिता से और अपनी विवशता से. क्या मैंने इसलिए दूसरे सब कामों को छोड़कर पत्रकार बनने का फैसला बनने का फैसला किया था. शायद नहीं.
अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं या तो मैं पत्रकारिता छोड़ूं या फिर इन परिस्थितियों से खुद को अलग करूं. मैं दूसरा रास्ता चुन रहा हूं. मैंने कोई फैसला नहीं सुनाया है बस कुछ सवाल किए हैं जो मेरे पेशे से और मेरी पहचान से जुड़े हैं. छोटी ही सही लेकिन मेरी भी जवाबदेही है. दूसरों के लिए कम, खुद के लिए ज्यादा. मुझे पक्के तौर पर अहसास है कि अब दूसरी जगहों में भी नौकरी नहीं मिलेगी. मैं ये भी समझता हूं कि अगर मैं लगा रहूंगा तो दो साल के अंदर लाख के दायरे में पहुंच जाऊंगा. मेरी सैलरी अच्छी है लेकिन ये सुविधा बहुत सी दूसरी कुर्बानियां ले रही है, जो मैं नहीं देना चाहता. साधारण मध्यवर्गीय परिवार से आने की वजह से ये जानता हूं कि बिना तनख्वाह के दिक्कतें भी बहुत होंगी लेकिन फिर भी मैं अपनी आत्मा की आवाज (consciousness) को दबाना नहीं चाहता.
मैं एक बार फिर से कह रहा हूं कि मुझे किसी से कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं है. ये सांस्थानिक और संपादकीय नीति से जुडे हुए मामलों की बात है. उम्मीद है इसे इसी तरह समझा जाएगा.
यह कहना भी जरूरी समझता हूं कि अगर एक मीडिया हाउस को अपने दक्षिणपंथी रुझान और रुचि को जाहिर करने का, बखान करने का हक है तो एक व्यक्ति के तौर पर हम जैसे लोगों को भी अपनी पॉलिटिकल लाइन के बारे में बात करने का पूरा अधिकार है. पत्रकार के तौर पर तटस्थता का पालन करना मेरी पेशेवर जिम्मेदारी है लेकिन एक व्यक्ति के तौर पर और एक जागरूक नागरिक के तौर पर मेरा रास्ता उस लेफ्ट का है जो पार्टी द्फ्तर से ज्यादा हमारी ज़िंदगी में पाया जाता है. यही मेरी पहचान है.
और अंत में एक साल तक चलने वाली खींचतान के लिए शुक्रिया. इस खींचतान की वजह से ज़ी न्यूज़ मेरे कुछ अच्छे दोस्त बन सके.
सादर-सप्रेम,
विश्वदीपक

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

मीडिया की स्वामिभक्ति

हिंदुस्तान की यह पहली सरकार है जो जबर्दस्त बहुमत में है और छोटे छोटे बच्चों से भिड़ी है. पुलिस और छुटभैये नेता त​क तो ठीक था, लेकिन गृहमंत्री भी इस प्रहसन में कूद पड़े. दो ही दिन में अब जब सारा मामला फुस्स हो गया, आईबी ने सब आरोपों को नकार दिया, दिल्ली पुलिस ने सबूत होने से इनकार कर दिया, तब क्या देश की बहुमत की सरकार देश माफी मांगेगी? क्या राष्ट्रवाद इतना उच्छृंखल हो गया है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी के बच्चों से भिड़कर फुस्स हो जाता है?
हिंदुस्तान में पहली बार है कि मीडिया जनता की ओर नहीं, सत्ताधारी दल के साथ खड़ा है. सत्ताधारी दल की छात्र इकाई को विरोधी संगठन को नीचा दिखाना था, उसने प्रोपेगेंडा किया जो चार दिन में फुस्स हो गया. यह राजनीतिक मसला था, लेकिन मीडिया ने अपनी क्या छवि पेश की? बिना पुख्ता जानकारी लिए मीडिया ने जेएनयू और वहां के छात्रों को देशद्रोही कह दिया और जब कहीं से कुछ नहीं मिला तो सबने कन्हैया समेत पूरे जऐनयू को क्लीनचिट भी दे दी. क्या मीडिया अपने इस गैरजिम्मेदाराना व्यवहार पर जनता से माफी मांगेगा? पार्टी के पक्ष में जनता को गलत जानकारी देना क्या गैरकानूनी और गैरलोकतांत्रिक हरकत नहीं है?
देशभक्ति का असली यूटर्न यह रहा कि चैनलों के लिए पहले दो दिन पूरा जेएनयू देशद्रोही हो गया था. चौधरी, गोस्वामी और चौरसिया सब प्रमाणपत्र मांग रहे थे. जब एबीवीपी के राष्ट्रभक्तों ने कोर्ट में मीडियाकरों को कूट दिया तो कानून याद आया. इसके पहले कानून याद नहीं आया था, न ही दायित्व. मैं चैनल में बैठा हूं तो मैं फैसले कैसे सुना सकता हूं, भले ही वह मेरे विरोधी दल के बारे में हो. मेरा पेशा और मेरे विचार दोनों अलग चीजें हैं.
लेकिन जी न्यूज के सुधीर चौधरी ने तो कसम खाई है कि अगर मुनाफे का सौदा हो तो वे  मीडिया को मिले लोकतांत्रिक अधिकार, उसके फर्ज और अपना जमीर बेच देंगे. उन्होंने उमा खुराना प्रकरण एक महिला को फर्जी स्टिंग के बदनाम किया. मामला झूठा निकला, चैनल ने प्रतिबंध झेला. फिर वे सौ करोड़ की उगाही में जेल
गये और लौटे तो राष्ट्रवाद की दुकान खोलकर बैठ गये. वे प्रोपेगेंडा करके जेड सीक्योरिटी लेकर बैठे हैं और ज्ञान झाड़ रहे हैं कि जेएनयू पर देश का पैसा बर्बाद हो रहा है. इन्हें जेड सीक्योरिटी किसलिए मिली हुई है? मोदी गुणगान के लिए देश का पैसा इसकी सुरक्षा पर क्यों खर्च किया जा रहा है? मीडिया चैनल के नाम पर मुखपत्र चलाने वाला यह आदमी इस देश के किस काम है, सिवाय इसके कि लोगों को गुमराह करे?
फिर सुधीर चौधरी चूंकि निजी तौर पर कूटे नहीं गए, तो अभी भी वे राष्ट्रवाद के फूहड़तम शिखर पर विराजमान है. बाकी मीडिया का दिमाग कुछ ठिकाने आ गया है. किसी को देशद्रोही घोषित करने की जल्दी मीडिया को क्यों है?
अब जब मीडिया चैनल, सुरक्षा एजेंसियां और दिल्ली पुलिस सबने वह सारे दावे नकार दिए हैं तो क्या मीडिया माफी मांगेगा. नहीं, क्योंकि जवाबदेही जैसी कोई चीज होती तो यह हुआ ही न होता.
मैं किसी पार्टी को पसंद नहीं करता, लेकिन उसके खिलाफ बिना सबूत के झूठी खबर नहीं फैला सकता. चाहे संघ हो, भाजपा हो, कांग्रेस हो या वामपंथी दल.
मीडिया लोगों के आगे भाजपा का राजनीतिक उत्पाद राष्ट्रवाद परोस रहा है. यह मियादी राष्ट्रवाद चार दिन में ढह गया, लेकिन भारत राष्ट्र अक्षुण्ण है. देशप्रेम और राष्ट्रवादी देशप्रेम का अंतर जनता को कौन बताएगा? मीडिया भाजपा के राजनीतिक हिंदुत्व को हिंदू धर्म के रूप में जनता से सामने पेश कर रहा है, परिमाणस्वरूप वह उन्मादी भीड़ द्वारा लतियाया जा रहा है.
मीडिया जनता को यह नहीं बताता कि अगर देशभक्ति का ठेका पाकिस्तान पुरुष गिरिराज सिंह, असंसदीय सांसद साक्षी महाराज, संत समाज के अंडरवर्ल्ड योगी आदित्यनाथ, अदालत को ताक पर रखने वाले ओपी शर्मा, तड़ीपार अमित शाह, और साध्वी प्राची को दिया जाएगा तो नतीजा पटियाला कोर्ट के सामने हुई अराजकता के रूप में सामने आएगा.
पार्टी और मीडिया दोनों मिलकर बौराएंगे तो अपने साथ साथ देश की कब्र ही खोदेंगे.

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' चुनावी जुमला था

नरेंद्र मोदी ने 2014 में भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त संसद देने का वादा किया था. वे ऐसा कर तो नहीं सके लेकिन घोटालों की फेहरिश्त में एक नया घोटाला जुड़ गया. आरोप है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी की मंत्री आनंदी बेन ने अपनी बेटी को 250 एकड़ कीमती जमीन कौड़ियों के भाव में दिलवाई. 125 करोड़ की जमीन मात्र डेढ़ करोड़ में. अब आनंदी बेन मुख्यमंत्री हैं. हाल ही में यह भी आरोप लगा था कि आनंदी बेन पटेल की बेटी अनार पटेल और बेटे संजय पटेल राज्य में समानांतर सरकार चला रहे हैं. वे सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप करते हैं.
इंतजार कीजिए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कह दें​गे कि 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' चुनावी जुमला था. अगर वे नहीं भी कहें तो जिस तरह से लूट मची है और मोदी चुपचाप रोज एक नया नारा लॉन्च कर रहे हैं, साफ समझा जा सकता है कि घोटाले और लूट रोकना उनकी प्राथमिकता में नहीं है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे बड़ा घोटाला ये हुआ कि यूपीए सरकार ​के जो ​कथित महाघोटाले थे, उनके संबंध न कोई जेल गया, न किसी की संपत्ति जब्त हुई, न किसी को कोई जुर्माना हुआ. कोयला घोटाला, टूजी, कॉमनवेल्थ आदि घोटालों का सच क्या है, यह अब अतीत की बात हो गई. मोदी के नारों में जो कुछ था वह नारों की फेहरिश्त में बहुत पीछे छूट चुका है.
भाजपा घोटालों के मामले में कांग्रेस से बिल्कुल पीछे नहीं है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद राज्यों में भाजपा की सरकारों ने लूट मचा रखी है. मध्य प्रदेश का व्यापमं घोटाला अब तक का सबसे भयानक घोटाला है. इसमें कितना पैसा खाया गया है यह तो पता ही नहीं है, उस पर 50 के करीब हत्याएं भी हुई हैं. लेकिन राज्य में शिवराज सरकार और केंद्र में मोदी की सरकार आराम से चल रही है. इसी के साथ डीमैट घोटाला भी हुआ है जो दस हजार करोड़ तक अनुमानित है.
हाल ही में राजस्थान में 45 हजार करोड़ का खनन घोटाला हुआ. छत्तीसगढ़ में 36 हजार करोड़ का चावल घोटाला हुआ. महाराष्ट्र के महिला और बाल विकास मंत्रालय में 206 करोड़ का चिक्की घोटाला हुआ, जिसमें मुख्य आरोपी पंकजा मुंडे हैं. महाराष्ट्र में ही 191 करोड़ का ई-टेंडरिंग घोटाला हुआ. इसके मुख्य आरोपी शिक्षा मंत्री विनोद तावड़े हैं. 25 हजार करोड़ का एलईडी घोटाला कम चर्चा में रहा. यह योजना केंद्र सरकार की है.
इन घोटालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. जो कुछ हो रहा है उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस का शासन करने का जो तरीका था, वह समय के साथ विस्तार पा गया है. कुर्सी पर बैठने वाले चेहरे बदल गए हैं, बाकी कुछ नहीं बदला है.
अब आप कहेंगे कि फिर भी कांग्रेस से भाजपा अच्छी है, क्योंकि कांग्रेस में परिवारवाद है. तो यह समझने की आवश्यकता है कि कांग्रेस 125 साल पुरानी पार्टी है, उसकी पीढ़ियां कांग्रेसी रोजगार में खप गईं इसलिए वहां पर परिवार ज्यादा दिखता है. भाजपा 25 साल पुरानी है, भाजपा नेताओं के बच्चे अब बड़े हो रहे हैं और वह सब कर रहे हैं जो कांग्रेस नेताओं के बच्चे कर रहे हैं.
जो लोग कहते हैं कि कांग्रेस में परिवारवाद है और भाजपा में नहीं हैं उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि अब भाजपा परिवारवाद में बाकी दलों को पीछे छोड़ती ऩजर आ रही है. मेनका गांधी के बेटे वरुण गांधी उसी कांग्रेसी परिवारवाद से निकले हैं, जिससे कांग्रेस के राहुल गांधी निकले हैं. यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा, कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह, राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह, विजयाराजे सिंधिया की बेटियां वसुंधरा और यशोधरा, वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत, रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह, प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर, मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय हैं.
कांग्रेसी नेता भगवत झा आज़ाद के पुत्र कीर्ति आज़ाद भाजपा में ही हैं. लालू के बेटे तेजस्वी यादव की तरह वे भी क्रिकेटर से नेता बने. भाजपा के दिवंगत नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को भी उनके रहते या बाद में राजनीति में उतारा गया है. मध्य प्रदेश में दिलीप सिंह भूरिया की पु​त्री निर्मला भूरिया, महाराष्ट्र में दिवंगत प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन, गोपीनाथ मुण्डे की पुत्रियां पंकजा मुण्डे और प्रीतम मुंडे को सक्रिय राजनीति में भागीदारी और पद मिले हैं. दिल्ली में साहिब सिंह वर्मा के सुपुत्र प्रवेश वर्मा भी सांसद हैं. भाजपा की ओर से दिवंगत नेताओं की पत्नियों को भी बिना किसी राजनीतिक अनुभव या योग्यता के चुनाव लड़ाया जा रहा है. सरदार सदाशिव राव महादिक की ​बेटी गायत्री राजे महादिक, जो दिवंगत तुकोजीराव की पत्नी हैं, इसका ताजा उदाहरण है.
जो नरेंद्र मोदी देश भर में घूम घूम कर परिवारवाद को नेस्तनाबूद करने का नारा लगा रहे हैं, उनके मॉडल स्टेट गुजरात में मुख्यमंत्री के बच्चे समानांतर सरकार चला रहे हैं और जमीनें हथिया रहे हैं.
आप पूछेंगे कि फिर किसे चुनें? हम कहेंगे कि चाहे जिसे चुनें, लेकिन जिसे चुनें उससे सवाल पूछें. नरेंद्र मोदी की छाती पर चढ़कर पूछें कि यह देश सवा अरब भारतीयों का है और तुम इसके चौकीदार हो. जनता की संपत्ति कोई कैसे उठा ले जाता है, इसका जवाब दो. सरकारें चुनिए और जवाब मांगिए, वरना हमारे हाथ घोटाले गिनने के अलावा कुछ नहीं आएगा. 

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...