गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नोटीबंदी, घोटाला और क्रोनी कैपिटलिज्म

"नोटबंदी का मकसद था 15-20 सबसे अमीर क्रोनी कैप​टलिस्ट, सबसे भ्रष्ट लोगों की मदद करना कि वे अपना कालाधन सफेद कर सकें. नोटबंदी का मकसद था कि छोटे दुकानदार और छोटे व्यापार को खत्म करके बड़ी कंपनियों को मदद करना. छोटे दुकानदार, छोटे बिजनेस और कारोबार जो चलाते हैं, अच्छी तरह सुनो. नोटबंदी कोई गलती नहीं थी. नोटबंदी आपके उपर आक्रमण था. नोटबंदी आपके पैर पर कुल्हाड़ी मारी गई थी. गलतफहमी में मत आइए. ये गलती नहीं थी. ये जानबूझकर आपको नष्ट करने के लिए और सबसे बड़े अमेजन जैसे बिजनेस के लिए रास्ता खोलने का तरीका है. प्रधानमंत्री ने यह जानबूझ कर किया है." यह शब्द हैं राहुल गांधी के.

आज की प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी काफी स्पष्ट थे. आज उनकी जबान नहीं लड़खड़ाई. स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह सबसे बड़ा घोटाला है. लेकिन यह समझ में नहीं आया कि जिस क्रोनी कैप​टलिज्म को वे कोस रहे हैं, उसके जनक तो मनमोहन सिंह हैं. उन्होंने पाला पोसा और अब मोदी जी उसे दुह रहे हैं. क्या राहुल गांधी के पास क्रोनी कैप​टलिज्म को समाप्त करने का कोई रोडमैप है? उनके पास कौन सा जनपक्षधर आर्थिक मॉडल है?

एक पत्रकार के सवाल पर राहुल गांधी ने कहा, माफी तब मांगी जाती है, जब गलती होती है. प्रधानमंत्री जी ने गलती नहीं की, यह जानबूझ कर किया. प्रधानमंत्री जी का लक्ष्य था कि जिन्होंने प्रधानमंत्री जी को मार्केटिंग के पैसे दिलवाए, जिनके कारण टेलीविजन पर रोज नरेंद्र मोदी का चेहरा दिखाई देता है, उनको पैसा मिले. उनको पैसा कैसे मिले? हिंदुस्तान के किसान, महिला, छोटे दुकानदार, छोटे और मझोले बिजनेस के जेब में से पैसा निकालकर उनके 15-20 मित्रों को मिले. सिस्टम है. क्रोनी कैपिटलिस्ट नरेंद्र मोदी जी की मार्केटिंग करते हैं, नरेंद्र मोदी जी जनता से पैसा छीनकर क्रोनी कैपिटलिस्ट को देते हैं.

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी जी और जेटली जी ने हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया है. हमारे समय ढाई लाख करोड़ रुपया नॉन परफार्मिंग एसेट था. आज 12 लाख करोड़ रुपया नॉन परफार्मिंग एसेट है. क्यों? क्योंकि नरेंद्र मोदी जी ने अपने मित्रों की रक्षा की है. उनका वन प्वाइंट प्रोग्राम है कि हिंदुस्तान के क्रोनी कैपिटलिज्म की कैसे मदद की जाए.

कालेधन को सफेद करने का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि गुजरात के कोआॅपरेटिव बैंक में, अमित शाह जी जिस बैंक में डायरेक्टर हैं, 700 करोड़ रुपये उस बैंक में बदला गया. इसे सिर्फ स्कैम कहा जा सकता है.

इसके अलावा, राहुल गांधी ने राफेल डील के मामले में अरुण जेटली के सवालों का जवाब दिया. अनिल अंबानी की कंपनी की भागीदारी पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कई सवाल किए. राहुल का कहना है कि उन्हीं क्रोनी कैपिटलिस्ट के लिए राफेल का घोटाला भी किया गया.

बहरहाल, नरेंद्र मोदी ने जो आशा जगाई थी कि नोटबंदी का दूरगामी फायदा होगा, वह आरबीआई के आंकड़ों से ध्वस्त हो गया. निकटतक फायदा जनता देख चुकी है. इसलिए सरकार को विपक्ष की इस मांग को मान लेना चाहिए कि एक ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी गठित हो और नोटबंदी और राफेल घोटाले की जांच हो.

क्या नोटबंदी एक घोटाला था?


बिना तैराकी जाने उफनती हुई नदी में कूद जाना भी बेहद साहसिक फैसला है, लेकिन इस साहस की उपादेयता क्या है? इसी तरह नक्सल समस्या या कश्मीर में आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए कोई प्रशासक अगर परमाणु विकल्प का इस्तेमाल करना चाहे तो बेशक यह बहुत साहसिक और कड़ा फैसला है. लेकिन क्या ऐसे विकल्पों की उपादेयता पर विचार नहीं किया जाएगा? क्या इससे होने वाली तबाही पर बात नहीं होगी? क्या हम सिर्फ इस फैसले की इसलिए तारीफ करेंगे कि यह कड़ा फैसला है और आतंकवाद मिटाने की अच्छी नीयत से लिया गया है?
नोटबंदी के समय लाइन में लगकर रोते हुए एक बुजुर्ग की वायरल हुई तस्वीर. 
नोटबंदी के बाद जब सरकार की आलोचना शुरू हुई तो प्रधानमंत्री बार बार भावुक हो रहे थे. वे यहां तक कह गए कि 50 दिन दे दीजिए, फिर जनता जिस चौराहे पर कहेगी आ जाऐंगे और सजा चाहें दे सकते हैं. यह एक फालतू बात थी. अगर वे किसी मामले में दोषी भी हैं तो उन्हें काननूसम्मत सजा ही दी जा सकती है. यह बात करके उन्होंने अपने पद की गरिमा को भंग किया.

नोटबंदी के बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक हुई तो प्रधानमंत्री इसमें भी भावुक हो गए. उन्होंने अपने फैसले को सही ठहराने के लिए फिर से गरीबों और मजदूरों का हवाला देते हुए कहा कि ये 'अनिवार्य' है. यह समझ से परे है कि प्रधानमंत्री आर्थिक सुधार के सिलसिले में लिए गए एक राजनीतिक फैसले को लेकर बार-बार भावुक क्यों होते रहे, जबकि चार साल में उस फैसले की कोई उपयोगिता साबित नहीं हुई. आर्थिक रूप से जो नुकसान हुआ, 150 से ज्यादा जानें गईं, उस बारे में भी भरपाई को कोई कदम नहीं उठाया गया. क्या जो लोग लाइन में लगकर मरे, उनको मुआवजा नहीं दिया जाना चाहिए?

नोटबंदी के बाद इसके किसी भी आलोचक या किसी विपक्षी दल या नेता ने यह नहीं कहा है कि वह कालाधन या भ्रष्टाचार का समर्थन कर रहा है. लेकिन नोटबंदी पर बगैर पुख्ता तैयारी के बरती गई हड़बड़ी और जनता को हो रही परेशानियों को लेकर जितने सवाल संसद में उठाए गए, प्रधानमंत्री या सरकार ने उनका स्पष्ट जवाब नहीं दिया. उल्टा आलोचकों को कालाधन समर्थक कहते रहे.

प्रधानमंत्री जो कर रहे हैं, यह वही तो है जो पिछले 70 सालों में होता रहा है और जिसे वे लगातार कोसते हैं. कॉरपोरेट को अभयदान देते जाना और उसे गरीबों को समर्पित करते जाना आम आदमी को गाली देने सरीखा है. इसका सिलसिला इंदिरा गांधी के ही समय से चल रहा है. मोदी जी खुद कह रहे थे कि 'मनमोहन सिंह ने बाजारवाद को ठीक से लागू नहीं किया, हम इसे ठीक से लागू करेंगे.' मनमोहन सिंह ने कॉरपोरेट जगत के लिए सरकारी खजाना खोल दिया था, मोदी जी सरकारी खजाने को दोनों हाथों से दलाल ​स्ट्रीट में लुटा रहे हैं. उसमें बहुसंख्यक गरीबों के लिए कुछ नहीं है, कॉरपोरेट और अमीरों के लिए सबकुछ है.

बैड लोन जैसी समस्या का क्या

मोदी कालाधन और पार​दर्शिता लाने और अपने को देश का चौकीदार होने की बात करते हुए चार साल से अधिक शासन करते रहे, अब रिजर्व बैंक कह रहा है कि जो एनपीए या बैड लोन 31 मार्च, 2015 तक तीन लाख करोड़ रुपये था, 31 मार्च, 2018 तक बढ़कर 10 लाख करोड़ रुपये के ऊपर पहुंच गया है. हाल ही में यह भी रिपोर्ट आई थी कि स्विस बैंकों में भारतीय कालाधन 50 प्रतिशत बढ़ गया है.

जुलाई, 2016 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बैड लोन की जानकारी देते हुए संसद को बताया था कि सरकार से कर्ज लेकर न लौटाने वाले ​बकायेदारों की संख्या 8167 है. इन पर 76,685 करोड़ रुपये का बकाया है. यानी 2016 के बाद भी एनपीए में भयानक बढ़ोत्तरी हुई. बैड लोन वह पैसा है जो सरकार पूंजीपतियों को व्यापार के लिए देती है और वह सरकार को वापस नहीं मिलता. विजय माल्या का 7000 करोड़ इसी के तहत है, जिसे सरकार ने एसबीआई के रिकॉर्ड से हटा दिया. नीरव मोदी का 13500 करोड़ इसी के तहत है जिसके मिलने की कोई आशा फिलहाल नहीं दिखती.

सरकार बैंक ऋण और बैंक डिफाल्टरों के पास मौजूद संपत्ति को हासिल करने के लिए क्या प्रयास कर रही है? क्या सरकार इसे कालाधन नहीं मानती? सरकार इन डिफाल्टरों के नाम क्यों नहीं सार्वजनिक करती? विजय माल्या जैसे डिफाल्टरों की संपत्तियां जब्त करने जनता का पैसा क्यों नहीं सरकारी खजाने में वापस लिया गया? अगर प्रधानमंत्री जनता की संपत्ति की लूट के प्रति गंभीर हैं तो नोटबंदी के समय ही 63 कॉरपोरेट डिफाल्टरों के 7016 करोड़ रुपये को भारतीय स्टेट बैंक के रिकॉर्ड से क्यों हटा दिया गया?

इसके पहले सरकार ने 2013 से 2015 के बीच 29 बैंकों से लिए गए 1.14 लाख करोड़ का कर्ज सरकार ने माफ कर दिया था, जिसे बैड लोन मान लिया गया था. हाल ही में इसका खुलासा इंडियन एक्सप्रेस ने किया था. पिछले तीन वित्त बर्ष का आंकड़ा है कि सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक का 40,084 करोड़ से अधिक का बैड लोन है. बैंक ने मान लिया है कि अब यह वसूला नहीं जा सकेगा.

क्या कालाधन खत्म हो गया

प्रधानमंत्री पुरजोर तरीके से कह रहे थे कि नोटबंदी से देश में भ्रष्टाचारी तत्वों पर लगाम लगाने के लिए की गई है. वे जनता से बलिदान मांग रहे थे. जनता ने यह बलिदान दिया. अब उस बलिदान के प्रतिदान का समय है. और कुछ न हो तो जनता ईमानदार जवाब की अधिकारी है.

इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि 93.3 प्रतिशत कैश वापस आ गया तो नोटबंदी के पहले का सरकार का क्या आकलन था और नोटबंदी क्यों की गई? अर्थशास्त्री तभी कह रहे थे कि कैश में करीब छह प्रतिशत कालाधन है. बाकी बचे 94 प्रतिशत कालेधन को लेकर सरकार क्या कार्रवाई की और अब क्या रही है?

जब बड़े नोटों के जरिये काला कारोबार करना ज्यादा आसान है तो पुराने नोटों पर प्रतिबंध के साथ ही नये 2000 रुपये के नोट काले कारोबार में और मददगार कैसे नहीं होंगे? कालाधन जहां पैदा होता है, कालेधन से जितने कारोबार होते हैं, सरकार ने उनके बारे में क्या रणनीति बनाई? बिना काला कारोबार रोके कालेधन पर लगाम कैसे लग सकती है?

नोटबंदी के बाद लंबे समय तक जनता तक नोट नहीं पहुंचे, कारोबार प्रभावित हुए, जबकि नोटबंदी के कुछ दिन बाद कश्मीर में आतंकवादियों के पास से 2000 के नकली नोट बरामद किए गए.

नोटबंदी के बाद संसद में सांसद सीताराम येचुरी, शरद यादव, गुलाम नबी आजाद आदि नेताओं ने कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए, जिसका दो साल भी सरकार ने समुचित जवाब नहीं दिया. जब कालेधन की मात्रा कैश में करीब 6 प्रतिशत अनुमानित है, तब सरकार ने इस छोटे से लक्ष्य के लिए पूरे देश को आर्थिक संकट में क्यों डाला? कालेधन का बड़ा हिस्सा काले कारोबार में लगाया जाता है जिससे और ज्यादा कालाधन पैदा किया जाता है. सरकार उसे लेकर क्या कार्रवाई करने जा रही है?

विदेशों में जो कालाधन है, जिसका जिक्र बार-बार नरेंद्र मोदी अपने चुनाव प्रचार में कर रहे थे, उस पर सरकार क्या कर रही है? विदेशों में कालाधन रखने वालों की लिस्ट भारत को किसी सरकार से नहीं मिली. इसे सार्वजनिक करने में कोई समझौता बाधा नहीं डालता. फिर भी सदन की मांग पर सरकार कालाधन खाताधारकों के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किए गए?

अव्यवस्था का जिम्मेदार कौन?

हाल ही में राफेल घोटाले को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे यशवंत सिन्हा ने कहा कि नोटबंदी के समय हमने जो गंभीर सवाल उठाए थे, उनके जवाब नहीं दिए गए. हमें शक है कि नये लाए गए 2000 के नोट भी कहीं एकत्र किए जा रहे हैं, जो समय आने पर निकाले जाएंगे. ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके जवाब मिलने बाकी हैं. कोई सरकार यह फैसला कैसे ले सकती है कि अचानक देश की 86 प्रतिशत करेंसी को अमान्य घोषित कर दे और पूरा देश मात्र 14 प्रतिशत फुटकर करेंसी के भरोसे छोड़ दिया जाए? नोटबंदी के फैसले से अगर आंशिक लगाम लगती है तो भी यह साहसिक फैसला था. लेकिन बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए यह निर्णय कैसे ले लिया गया?

नोटबंदी के बाद कई राज्यों में आरबीआई की ओर से कैश पहुंचाने में कई हफ्ते लगे. बैंकों को अपने एटीएम नये नोटों के हिसाब से कैलिब्रेट कराने में महीनों लगे. हाल में जारी नये नोट भी एटीएम में सही फिट नहीं हो रहे हैं. अब तक एटीएम का रीकैलिब्रेशन चल रहा है. इसके अलावा 2000 की नोट खुद एक समस्या के रूप में आई. नोटबंदी के दौरान 86 प्रतिशत कैश बाजार से खींच लिया गया तो 2000 के नोटों का फुटकर मिलना मुश्किल हो गया. लेकिन जिनको करोड़ों में रुपया एकत्र करना हो उनके लिए 2000 की नोट और मददगार ही है. क्या सरकार के लिए इस समस्या का अंदाजा लगाना मुश्किल था?

फायदे और नुकसान कितना?

अनुमानों और आंकड़ों के मुताबिक, नोटबंदी की कवायद में सरकार ने 21000 करोड़ से अधिक रुपये खर्च किए. लेकिन इससे फायदा क्या हुआ? इसके ठीक-ठीक फायदे क्या होंगे, कितना नुकसान होगा, सरकार ने इस बारे में क्या आकलन किया था? कितना कालाधन आएगा, या अब तक कितना आया, कितना नष्ट हुआ क्या इस बारे में कोई आंकड़ा न तब उपलब्ध था, न नोटबंदी के दो साल बाद उपलब्ध है. क्या सरकार के सामने इस फैसले से जुड़ा कोई सफल उदाहरण मौजूद है कि नोटबंदी के जरिये कालाधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद आदि समस्याओं का हल नोटबंदी के जरिये निकाला जा सकता है?

बंद किए गए नोटों से सिनेमा टिकट मिलेगा, लेकिन खाना नहीं मिलेगा, यह फैसला देशहित से कैसे जुड़ा था? असम के चाय बागान कर्मियों को पुराने नोट खर्च करने की छूट दी गई तो बंगाल और उड़ीसा आदि राज्यों में यही छूट क्यों नहीं दी गई थी? इसका क्या तर्क था? बंगाल भाजपा के अकाउंट में नोटबंदी की घोषणा के साथ ही एक करोड़ रुपये जमा कराया जाना क्या महज इत्तेफाक था? नोटबंदी के ठीक पहले विभिन्न जिलों में भाजपा के कार्यालय के जमीन खरीदना क्या महज इत्तेफाक था? इस जमीन खरीद में कितना पैसा लगाया गया?

नोटबंदी के बाद गुजरात में एक ही बैंक में असीमित पैसा जमा होने का रहस्य क्या रहा? इसका जवाब भी जनता को नहीं दिया गया. जिन बैंकों के नाम भाजपा नेताओं से जुड़े और सवाल उठे, वह भी अब तक रहस्य ही है.

पुराने नोट वापस लेकर उन्हें नये 500, 1000 और 2000 मूल्य के नोटों से बदलने की कुल लागत कितनी रही? क्या यह लागत नष्ट होने वाले अनुमानित कालेधन से अधिक रही या उससे कम? अगर कालाधन निकला ही नहीं तो सरकार ने इस रोमांचक कवायद में कितने अरब रुपये पानी में बहाए?

हमारे व्यापार का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र है. इस क्षेत्र को नोटबंदी से बहुत बड़ा झटका लगा. असंगठित क्षेत्र में 60 से लेकर 80 प्रतिशत तक गिरावट थी. वहां कैश में काम चलता है और जब उनके पास कैश की कमी आ गई, तो उनका जो लागत पूंजी थी, वो कम हो गई, जिसका असर अभी तक दिख रहा है. सीएमई के आंकड़ों के मुताबिक, नोटबंदी से 1.50 करोड़ से 6 करोड़ लोगों का रोज़गार चला गया. लोग शहरों से गांव की तरफ गए और मनरेगा में काम की डिमांड 5 प्रतिशत तक बढ़ गई. इस नुकसान पर सरकार ने कोई अध्ययन नहीं कराया. सरकार को इस योजना का नफा-नुकसान और तथ्यों से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक करना चाहिए.

वंचितों के बारे में कौन सोचेगा?

जैसा कि मोदी जी कहते हैं कि वे 125 करोड़ जनता के प्रधानमंत्री हैं. उनका काम है कि वे देश की समूची आबादी के बारे में सोचें. न्याय का सिद्धांत यह है कि '10 अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए.'

प्रधानमंत्री जी ने अपना निर्णय लेते समय भारत की करीब दो तिहाई ग्रामीण आबादी के बारे में क्या सोचा था जो बैंकिंग व्यवस्था से बाहर है? इंटरनेट से लेनदेन वैध करने के फैसले के साथ उस 78 प्रतिशत जनता के बारे में क्या सोचा जिसकी पहुंच इंटरनेट तक नहीं थी. क्या प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनजान हैं कि देश की मात्र 22 प्रतिशत आबादी इंटरनेट के दायरे में आती है.

पेटीएम जैसी व्यवस्था को प्रमोट करना सुविधाजनक रहा होगा, लेकिन सिर्फ उनके लिए जो स्मार्टफोन और तेज स्पीड इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं. देश की 125 करोड़ की आबादी में कुल 61 करोड़ के करीब मोबाइल यूजर हैं. इनमें से बड़ी संख्या साधारण मोबाइल का इस्तेमाल करती है. बड़ी संख्या में लोगों के पास एक से ज्यादा मोबाइल नंबर हैं. आधी से अधिक आबादी जो मोबाइल सुविधा का भी इस्तेमाल नहीं करती, उसके लिए क्या व्यवस्था की गई थी?

नोटबंदी की घोषणा के समय भारत के 'अभिन्न अंग' कश्मीर घाटी में इंटरनेट पर प्रतिबंध था. उस बारे में सरकार ने क्या वैकल्पिक व्यवस्था की थी? देश में करीब ढाई करोड़ लोग क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं. बाकी की पूरी आबादी के बारे में सरकार ने क्यों नहीं सोचा? देश की करीब आधी आबादी अशिक्षित है. जो शिक्षित नहीं हैं, उनके इंटरनेट साक्षर होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. जाहिर है कि उनके पास कैशलेस पेमेंट की सुविधाएं नहीं हैं. उनके बारे में सरकार ने क्या योजना बनाई थी?

अच्छी नीयत पैमाना नहीं हो सकती

नोटबंदी के आपात निर्णय के बाद सरकार को हर दिन अपने निर्णय बदलने पड़े. इससे आम जनता को और भी असुविधा हुई. निर्णय के पहले गोपनीयता का मसला था. उसके बाद में भी निर्णय से जुड़ी अराजकता का समाधान तुरंत क्यों नहीं हुआ? नोटबंदी की वजह से जिन साधारण लोगों को जान गंवानी पड़ी, सरकार ने उन पर मुंह नहीं खोला. कितने लोग मरे हैं यह सिर्फ अनुमान है कि यह संख्या 150 के करीब होगी. सरकार ने नोटबंदी से हुई मौतों का आंकड़ा क्यों नहीं जारी किया?

पूरे देश में 70 से 80 प्रतिशत उद्योग-व्यापार प्रभावित हुआ है. देश की अर्थव्यस्था और उद्योग जगत को कितना नुकसान हुआ है, इसका अनुमान क्यों नहीं लगाया गया? क्या नोटबंदी से जितना हासिल हुआ, नुकसान उससे कम है या अधिक है? क्या इसका अनुमान लगाने का कोई तंत्र सरकार ने नहीं बनाया.

इन सब सवालों के बावजूद यह कहना होगा कि नोटबंदी का फैसला अच्छी नीयत से लिया गया था और साहसिक था. लेकिन अच्छी नीयत के आधार पर फैसले की असफलता और उससे उपजे संकट की समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए? प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि उन्होंने एक सार्वजनिक हित का निर्णय लिया. उसकी आलोचना भी सार्वजनिक हित से ही जुड़ी है. उन्हें हर मुद्दे को भावुकता का मसला बनाने से बचना चाहिए. कालाधन, भ्रष्ट हो चुकी अर्थव्यस्था, नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय मसले भावुकता के मसले नहीं हैं. एक मजबूत प्रधानमंत्री को बार-बार भावुकता का सहारा क्यों लेना पड़ता है?

इतने सारे सवालों के मद्देनजर अरविंद केजरीवाल, यशवंत सिन्हा और कांग्रेसियों के यह आरोप ज्यादा भारी पड़ता है कि नोटबंदी देश का सबसे बड़ा घोटाला था. यह संदेह भी पुख्ता होता है कि भाजपा ने अपने फायदे के लिए यह कवायद की. इस​की पुष्टि एडीआर के उस हालिया आंकड़े से भी होती है ​जिसमें कहा गया है कि भाजपा सबसे अमीर राष्ट्रीय दल है और एक साल में उसकी आय 81.18 प्रतिशत बढ़ गई. 2016-17 में देश के सात राष्ट्रीय दलों ने कुल 1,559.17 करोड़ रुपये की आय घोषित की. इनमें भाजपा की आय सबसे ज्यादा 1,034.27 करोड़ रुपये रही. यह कुल राशि का 66.34 प्रतिशत है.

बैंक घाटे में, कंपनियां घाटे में, व्यापार घाटे में, अर्थव्यस्था घाटे में लेकिन भाजपा फायदे में. क्या यह तथ्य संदेह नहीं पैदा करते? क्या नोटबंदी वाकई एक घोटाला था?

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

हम मध्ययुगीन बर्बरता के कीचड़ में धंसने के लिए अतीत की ओर लौट पड़े हैं

यह ज्ञान, सूचना और तकनीक का युग है. जिनका इनपर कब्जा है, वे दुनिया की अगुआई कर रहे हैं. ​जो इनसे
वंचित हैं वे विकासशील अथवा तीसरी दुनिया के देश हैं. अब तलवार से और संख्याबल से सत्ता नहीं मिलती. ऐसा मध्ययुग में होता था. दुनिया के सबसे युवा देश के करोड़ों बच्चों के हाथ में मोबाइल पकड़ाकर, मुफ्त में डेटा देकर उन्हें फर्जी खबरों और झूठी सूचनाओं के ब्लैकहोल में कुदा दिया गया है. दिन भर लोग बहस करते हैं कि नेहरू कितने हिंदू विरोधी थे, या गांधी कितने दुश्चरित्र.

मीडिया के नाक में नकेल यह तय करती है कि इस पीढ़ी में यह चर्चा न होने पाए कि दुनिया के विकसित देश कहां हैं और हम कहां हैं. इस देश के बच्चों को सिखाया जा रहा है कि बाबर-अकबर से लेकर गांधी-नेहरू तक आपके दुश्मन हैं. उनसे हिसाब बराबर करना है. युवाओं को यह तक नहीं सोचने दिया जा रहा है कि इन लोगों से बदला लेने के लिए हमको भी मरना पड़ेगा क्योंकि वे बहुत पहले मर चुके हैं.
सोशल मीडिया पर वायरल हापुड़ में लिंचिंग की तस्वीर.
जिस इतिहास से हमें सबक लेना था, हम उसकी गंदगी और दलदल में कूदने की प्रतियोगिता कर रहे हैं. हम मध्ययुगीन बर्बरता के कीचड़ में धंस जाने के लिए अतीत की ओर लौट पड़े हैं.

एक घटना पर गौर करें. चार बड़े लेखकों को उनके विचार और लेखन के कारण मार दिया गया. वे तर्कवादी, प्रगतिशील और आधुनिक विचारों के लोग थे. इसके विरोध में लेखक समुदाय ने विरोध किया और पुरस्कार लौटाए. उन्हें अवार्ड वापसी गैंग, आजादी गैंग, अफजलप्रेमी गैंग, पाकिस्तानी आदि कहा गया. अब जब सरकार की एजेंसियां कह रही हैं कि ​कट्टर हिंदू संगठन के लोगों ने इन्हें मारा. उनकी धरपकड़ हो रही, चार्जशीट लग रही, लेकिन सन्नाटा है. जो अवार्ड वापस करके विरोध करने को बड़े बड़े बुद्धिजीवियों का उपहास कर रहे थे, वे हिंदुओं के नाम पर इस आतंक की निंदा तक नहीं कर रहे हैं.

इससे साफ है कि आपको अपने लेखकों, दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों से नहीं, आपको धार्मिक कट्टरता और पाकिस्तान से बहुत प्रेम है. हर असहमति को पाकिस्तानी बताना आपको उसी की तरह बना रहा है. यह हिंदू जनता को तय करना है कि उन्हें अपनी हजारों साल पुरानी उदार संस्कृति चाहिए या हिंदुत्व नाम की कट्टर राजनीति. यह कुत्सित राजनीति हिंदुओं की विराट संस्कृति को तालिबान के समकक्ष लाकर खड़ा कर देगी. हिंदू धर्म में व्याप्त पाखंड और बुराइयों की आलोचना और सुधारों ने ही उसे बड़ा और उदार बनाया है. कट्टरता तुच्छ होती है, वह आपको संकुचित करेगी और दुनिया की निगाह में बर्बर साबित कर देगी.

बुरे को बुरा कहने वाले को धर्मद्रोही मत कहिए. कबीर कह गए हैं कि 'निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय'. आपके निंदक या आलोचक आपके विरोधी नहीं हैं. जो धर्म के नाम पर आपको गोलबंद करना चाहते हैं, जो धर्म के नाम राष्ट्र बनाने और दीगर धर्मों से आपको घृणा सिखाते हैं, वे अंतत: गोलबंद करके आपको कट्टरता के कुएं में धकेल देंगे, जहां से निकलने में आपको सदियां लगेंगी. आपको यही सोचने से रोका जा रहा है इसीलिए ऐसे लोग तैयार किए गए हैं जो तर्क और ज्ञान की बातें करने वाले का उपहास करें, उसकी हत्या कर दें और उन्माद का माहौल बनाएं.

भारत विश्वगुरु रहा होगा तो इतना कमअक्ल नहीं रहा होगा कि जबानी फेंके और आदमी की गर्दन पर हाथी का सिर ट्रांसप्लांट करवा दे. विश्व के इतिहास में उदार संस्कृतियों ने हमेशा विकास किया है और आज भी यह सत्य है.

पूंजीवाद का अगुआ वामपंथ का धुर विरोधी अमेरिका अपने वामपंथी विचारक को नोबल जैसे पुरस्कार दिलाता है, उनके नाम पर विभाग ​बनवाता है. उनसे अपनी नीतियों यहां तक कि युद्ध नीतियों की आलोचना करवाता है. वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश है.

हमारे देश में तर्कवादी, प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच के लोगों की हत्या कर दी जाती है, उन्हें पाकिस्तानी और देशद्रोही कहा जाता है. मंत्री से लेकर चैनलिए तक उनका मजाक उड़ाते हैं. हम किसी को लिखने के लिए उसे जेल में डाल देते हैं, बोलने के लिए किसी की नौकरी ले लेते हैं. हम तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में हैं जो मानव विकास सूचकांक में हमेशा नीचे से फर्स्ट आता है. अपनी इस हरकत के बावजूद हम विश्वगुरु बनने का दावा ठोंक रहे हैं.

बहुसंख्यकवाद और भीड़ की राजनीति करके हमें यह सोचने से रोका जा रहा है कि सड़कों पर तकरीर करने और तलवार भांजने का युग चला गया है. अब तकरीर कर रही लाखों की आबादी को इजराइल जैसे छोटे देश एक बटन दबाकर उड़ा देते हैं. जब दुनिया ब्रम्हांड के रहस्य खोज रही है, हमारा शासक हमसे कह रहा है कि नाली पर भगोना उलटकर चाय बना लो. आदमी की गर्दन पर हाथी का सिर ट्रांसप्लांट कर दो. वेदों से विमान निकाल लो. फूलों से विमान बना लो.

चाहे निजी जीवन हो, चाहे सामाजिक, क्या यह सच नहीं है कि हम अपने को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मान कर अपने साथ अन्याय करेंगे? स्वाभिमान और गौरव एक जरूरी चीज है, जो हर नागरिक में होनी चाहिए, लेकिन इतिहास के गर्त में कूद जाना और सबसे महान होने का नारा लगाना ऐतिहासिक मूर्खता से अधिक कुछ नहीं है. हमें मालूम है कि हमने अपनी बैलगाड़ी में टायर भी तब लगाया जब अंग्रेज हमें लूटकर रेलगाड़ियों में भरकर ब्रिटेन ले जा रहे थे. इतिहास किसी से नफरत करने के लिए नहीं होता. इतिहास हमेशा सबक सीखने के लिए होता है. 

बड़ी संख्या में हमारे युवाओं को भीड़ में तब्दील कर दिया गया है. वे न्यायालय से बाहर शक के आधार पर लोगों की हत्याएं कर रहे हैं. ऐसे सैकड़ों केस हो चुके हैं. दोषी लोगों को केंद्रीय मंत्री माला पहनाकर उनका स्वागत कर रहे हैं. हमें यह सोचने से रोका जा रहा है कि 50-60 साल की आजादी की लड़ाई और लाखों की कुर्बानी के बाद मिले लोकतंत्र को हम भीड़ बनकर नष्ट कर रहे हैं. हमें लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, उदार, और प्रगतिशील सोच से दूर किया जा रहा है ताकि हम भेड़ का ऐसा झुंड बन जाएं जिन्हें कोई एक सत्ता का लालची अपने इशारा पर चराता फिरे.

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

महंगाई डायन अब महंगाई जानेमन हो गई

फोटो साभार: भोपाल समाचार
'जय मां दुर्गे' नामक न्यूज चैनल पर छोटा अर्नब चीख चीख कर हिंदू मुस्लिम पर डिबेट करा रहा था. मेरे एक अजीज दोस्त उसे 'गरीबों का अर्नब' कहते हैं. वह गरीब जनता को ताकतवर अंग्रेजीदां के बराबर चीख सकने की कला का कॉन्फिडेंस देता है. 'भारत माता की जय' नामक एक दूसरे चैनल के स्टूडियो में एंकर ने अपनी जबानी तोपें पाकिस्तान की तरफ मोड़ दी थीं. 'विज्ञान तक' नामक एक चैनल पर एक एंकरिनी गाय की सांस में निकली कार्बनडाई आक्साइड को आॅक्सीजन में बदलकर विज्ञान को फूल माला चढ़ा रही थी. उसी बीच महंगाई डायन का कायापलट हो गया. सेना के लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला हो गया. और सबसे बड़ी दुर्घटना यह कि महंगाई डायन अब महंगाई जानेमन हो गई. पेट्रोल का दाम बढ़कर 85 रुपये तक पहुंच गया.
एक सामान्य आदमी ने लिखा, महंगाई बहुत बढ़ गई है. उस पर एक असाधारण आदमी, जिसे भक्त कहते हैं, ने लिखा, चार साल पहले तुमको सब मुफ्त मिलता था क्या? तुम पाकिस्तान चले जाओ. हालांकि, हर देशद्रोही को पाकिस्तान भेजने की बात तो होती है, लेकिन बिना बुलाए मोदी जी और बुलावे पर सिद्धू को छोड़कर अब तक कोई पाकिस्तान नहीं गया. और ये दोनों भी दो दो दिन की यात्रा करके लौट आए, यह और बुरा हुआ.

मैं मेट्रो में यात्रा करते समय अपने दोस्त से कह रहा था कि देखो आज पेट्रोल का दाम फिर बढ़ गया. इतने में बगल खड़े एक सज्जन ने कहा, चार साल पहले महंगाई नहीं थी? तब नहीं खाते थे? देश के लिए थोड़ा महंगा नहीं खरीद सकते हो? मैंने पूछा, भैया चार साल में देश पर ऐसा कौन सा संकट आ गया कि हर नागरिक को हर सुविधा पर अतिरिक्त पैसा भुगतान करना चाहिए?

उन्होंने कहा, यह सब तुमको समझ में नहीं आएगा. जब तक सरकार के पास पैसा नहीं होगा तब तक देश का निर्माण कैसे होगा? आप लोग जरा सा पढ़ लिख क्या गए, किसी की बात नहीं सुनते.

मैं सनाका खा गया. मुझे लगा शायद देश किसी बड़े संकट में हैं और मुझे पता नहीं चला है. मैंने घर आकर टीवी खोला, भारत माता की जय नामक चैनल लगाया. शाम के नौ बज रहे थे. एंकर चमकचंद महोदय जनसंख्या समस्या पर बहस करवाने जा रहे थे.

एंकर महोदय ने पैनलिस्ट पोंगापंथी अखंड नारायण से पूछा, जी हम आपसे शुरुआत करते हैं, बताइए कि भारत को बढ़ती जनसंख्या से निपटने के लिए क्या करना चाहिए?

पैनलिस्ट ने सवाल पूरा होने पहले ही पोंगापंथी जी ने जवाब देने के उतावलेपन के साथ अपनी तर्जनी उंगली दिखाना शुरू कर दिया था. जैसे ही एंकर चुप हुए, पोंगापंथी जी जोर से चीखे, यह सवाल इस देश के वामपंथियों से पूछिए, इस देश के बुद्धिजीवियों से पूछिए, कुछ कांग्रेसी पत्रकारों से पूछिए, तथाकथित सेकुलरों से पूछिए कि वे मुसलमानों की बढ़ती आबादी का समर्थन क्यों कर रहे हैं?

एंकर ने टोका, लेकिन पोंगापंथी जी, आबादी तो पूरे देश की बढ़ रही है, समग्रता में देखा जाए तो हिंदू जनसंख्या ही ज्यादा बढ़ रही है. यह तो पूरे देश के लिए एक समाधान सोचना होगा, आपने भी तो कोई पहल नहीं की. इसमें अलग से मुसलमानों की बात कहां से आ गई?

पोंगापंथी जी उत्तेजना में बोले, देखिए आपने फिर से हिंदुओं और देश के विरोध में टिप्पणी कर दी है. आपने मुसलमानों का बचाव किया और हिंदुओं को आहत करने वाली टिप्पणी कर दी है. क्या आप हम हिंदुओं को इसीलिए बुलाती हैं अपने चैनल पर ताकि आप हमारी और हमारे हिंदू भाइयों की बेइज्जती कर सकें?

एंकर महोदय घबरा गए, लेकिन किसी तरह थूक निगलते हुए थोड़ा थमें, फिर दोगुने जोर से चीखे- सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से आरोप है कि विपक्ष लगातार हिंदुओं की भावना आहत कर रहा है. भावना जी इतनी बार आहत हुई हैं कि कई बार तो हत होते होते बची हैं. यह बहुत गलत हो रहा है इस देश में. विपक्ष को जवाब देना होगा... आप हमारे चैनल के फलां नंबर पर एसएमएस करके बताएं कि क्या विपक्ष द्वारा लगातार हिंदुओं की भावना जी को आहत करना जायज है? यस आॅर नो... जल्दी से हमें भेज दें.

इसके बाद ब्रेक हो गया. फिर चैनल पर स्वदेशी कंपनी पतितअंजली प्राइवेट लिमिटेड के दिव्य उत्पाद स्वदेशी वियाग्रा का प्रचार आया कि आप देशहित में स्वदेशी अपनाकर कैसे अपनी खोई हुई शक्ति वापस पा सकते हैं और देश के क्रांतिकारियों का कर्ज अदा कर सकते हैं. इसके बाद बहस फिर शुरू हुई....

एंकर महोदय, स्क्रीन पर हाजिर हुए और जोर से चीखे- विपक्षी दलों में हमारे पास एक ही पैनलिस्ट है, बाकी सब सत्ता पक्ष के हैं. तो हम कभी यूनाइट न होने वाले संपूर्ण विपक्ष की ओर से उन्ही से सवाल कर लेते हैं, ढपोरशंख जी, आप बताएं कि आप लोग, यानी सभी विपक्षी दल सिर्फ हिंदुओं की भावनाएं क्यों आहत कर रहे हैं?

ढपोरशंख जी कुछ बोलते, इसके पहले ही पोंगापंथी अखंड नारायण जी को गुस्सा आ गया. वे कान को फाड़ देने की क्षमता वाली अपनी आवाज की तीव्रता बढ़ाते हुए बोले, इनको जवाब देना होगा कि हिंदुओं के देश में ऐसा कैसे चलेगा? हम आज आपके चैनल के माध्यम से पूरे देश से कह देना चाहते हैं कि मंदिर वहीं बनेगा और हम ही बनाएंगे. यह देश के एक अरब हिंदुओं की आस्था का मामला है...

ढपोरशंख जी का चेहरा छोटा सा स्क्रीन पर ऐसा दिख रहा था जैसे वे कुछ बोलने की कोशिश में दांत चियार रहे हों. इधर पोंगापंथी जी का भव्य चेहरा स्क्रीन पर तारी था. वे बोले जा रहे थे, अरे मुल्ले, अरे पाकिस्तानी, अरे जिहादी, अरे पिड्डी, ओ पिड्डी, बिस्कुट खाओ, पिड्डी बिस्कुट खाओ....

नेपथ्य से ढपोरशंख की आवाज घिघियाती हुई मध्यम सी सुनाई पड़ी, वे एंकर से कह रहे थे कि चमकचंद जी, आपने जनसंख्या समस्या पर डिबेट आयोजित की है, यह हो क्या रहा है आपके चैनल पर?

चमकचंद जी ने स्क्रीन के किनारे जलती हुई आग में से झांक कर तेज आवाज में प्रहार किया, विपक्ष का रवैया बेहद गैरजिम्मेदाराना है. सरकार का विरोध सिर्फ विरोध करने के लिए नहीं करना चाहिए. और तब तक फिर से स्वदेशी पतितअंजली प्राइवेट लिमिटेड का प्रचार आ गया. हमने चैनल बंद किया, सिर में थोड़ा सा झंडू बाम लगाकर मालिश किया और किचन में जाकर घुइया छीलने लगा.

घुइया छीलते हुए हमें चमकचंद जी का चेहरा याद आया और मैंने मन में सोचा, आज चमकचंद जी ने क्या बेहतरीन मुद्दा उठाया. ऐसा 70 साल में पहली बार हो रहा है.

मूर्ख ज़िंदा हैं तब तक शातिर राज करेगा

एक बहुत बड़े महापुरुष की शोक सभा में शामिल मंत्री का ठहाका टीवी पर देखकर घर से निकला ही था कि सुबह सुबह एक पहुंचे हुए बाबा जी मिल गए. सज धज कर, त्रिपुंड लगाकर, गेरुआ पहनकर तैयार होकर पवन वेग से चले जा रहे थे. हमने पूछा, बाबा जी एतना सबेरे सबेरे कहां? बाबा बोले- बच्चा जा रहा हूं दुनिया को बेवकूफ बनाकर व्यौपार करने का नुस्खा देखने. व्यौपार का नुस्खा सुनकर मुझ बेरोजगार के कान खड़े हो गए. हमने तनिक उत्साह से पूछा, बाबा क्या यह नुस्खा कहीं सिखाया जाता है? बाबा बोले, नहीं बच्चा, यह सिखाया दिखाया नहीं जाता. यह अमल में लाया जाता है. जैसे जादूगर हाथ की सफाई दिखाकर लोगों को करतब दिखाता है, वैसे सियासत के जादूगर भी हाथ की सफाई दिखाकर लोगों को करतब दिखाते हैं. मैं अधम संन्यासी वह करतब देखना चाहता हूं कि खून में व्यापार होने का दावा करने वाले सियासतदां किसी महापुरुष की तिजारत कैसे करते हैं?

यह तिजारत जैसा भारी भरकम शब्द मेरी समझ में नहीं आया. मैंने पूछा, बाबा अब यह महापुरुष की तिजारत क्या बला है? बाबा बोले, बच्चा तू तो एकदम नादान है. लगता है जी न्यूज नहीं देखता. इसलिए कम होशियार है. जब किसी गुजर चुके महापुरुष का यश, उसका नाम, उसका काम और यहां तक कि मृत्यु के बाद उसकी अस्थि भस्म तक को भुनाया जाए तो यह हुआ व्यौपार, मतलब तिजारत. मैं वही देखने जा रहा हूं कि अटल बिहारी वाजपेयी नामक हिंदू महापुरुष को मरणोपरांत कैसे सियासत के बाजार में उतारा गया!
मैंने सुबह ही 'हिंदू हृदय सम्राट' अखबार पढ़ा था. पढ़कर संतुष्ट हो गया था, सो उनसे पूछ बैठा, बाबा, लेकिन मरने के बाद अस्थियां गंगा में विसर्जित करने की परंपरा है. वही तो हो रहा है. इसमें गलत क्या है?
बाबा बोले, अरे मूढ़ बालक, अस्थियां गंगा में विसर्जित करने की परंपरा है. सरजू या यमुना में भी हो सकती हैं, लेकिन टेढ़िया नदी, सुरसुरी नदी, खुखरी नदी, मोतिया नदी और जो नदी मर चुकी है, जिसकी अपनी धारा ही नहीं बची है और शहर वालों के गुह से भरी है, उसमें अस्थि विसर्जन का भव्य आजोयन तो किसी विशेष प्रायोजन से ही होगा न? यह धार्मिक परंपरा तो नहीं है.
दूसरी बात बच्चा, अस्थि विसर्जन तो परिवार के लोग करते हैं. ठहाके लगाते मंत्री, मसखरी करते कार्यकर्ताओं, राजनीति करते नेता और सनाका खाती जनता को अस्थि विसर्जन करते देखना और परिवार वालों का सभा में उपेक्षित होकर लौट आने का रहस्य मैं समझना चाहता हूं.
मेरी जिज्ञासा ने उड़ान भरी— लेकिन बाबा अटल जी की पार्टी तो धर्म की रक्षक है. जबसे विकास हेरा गया है, राफेल घोटाला हो गया, नीरव और मेहुल स्मार्ट सिटी से एंटीगा हो गया, तब से वे लगातार कह रहे हैं धर्म खतरे में है. तो वे तो धर्मसम्मत काम ही करेंगे.
अस्थि विसर्जन में शामिल मंत्री के अंदाज में ही बाबा ने ठहाका लगाया और बोले, बस बच्चा, यही तो तुझे समझाना चाह रहा हूं. धर्म के खतरे में होने की बात धर्म का व्यौपार है और यह अस्थि विसर्जन कर्ता और उसके कर्म का व्यौपार है. धर्म को खतरा किससे है? मृत की व्यक्ति की अस्थियों को मोक्ष के लिए गंगा में न बहाकर सियासत के घिनौने कुंड में डाल देना ही असली अधर्म है.
बाबा ने बीन बजाते सपेरे की तरह सांस चढ़ाई और आगे बोले, बेटा मैं बूढ़ा हो गया हूं. मैंने जिन्ना से लेकर दिल्ली वाले खन्ना तक को देखा है. जब कोई कहे कि धर्म से खतरा है तो समझ लो कि खतरा उस व्यक्ति के रूप में हमारे सामने है. यही वह अधम प्राणी है जो हमारी आस्था को लंगी लगाएगा और अंत में हमें मूरख बनाकर हमारा फायदा उठाएगा. धर्म नश्वर नहीं है, धर्म आस्था संबंधी विचार है. धर्म के खतरे में होने की बात भौतिक फायदे का मायाजाल है. यह मायाजाल ही मैं समझना चाह रहा हूं, इसलिए विसर्जन समारोह में जा रहा हूं.
मैंने गीता के कम से कम दो तीन श्लोक पढ़ रखे थे. मैं अपने आप को बाबा से कम ज्ञानी कैसे समझता? मैंने अपना ज्ञान ठेलते हुए कहा, बाबा लेकिन मनुष्य तो परमात्मा का अंश है. आत्मा अमर. फिर कोई अधम मृत व्यक्ति की तिजारत कैसे कर सकता है?
बाबा एक कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए बोले, बच्चा, जब तक तुझ जैसे मूढ़ जिंदा हैं तब तक शातिर इस देश में राज करता रहेगा. अरे आत्मा अमर है, मानव की पकड़ से दूर है, लेकिन सियासत के दलदल में धंसा व्यक्ति सबसे क्रूर है. वह आत्मा को नहीं पकड़ पाएगा तो आत्मा से छूटा शरीर धर दबोचेगा. दबोचकर उसका जलसा मनाएगा, जुलूस निकालेगा. उसकी कला समझो, वह बालू से तेल निकालेगा. प्रकृति के महाविनाश में फंसे लाखों लोगों को मरने के लिए छोड़ देगा और देश का खजाना जलसे और नुमाइश के लिए खोल देगा.
बाबा ने सुरती निकाली, मलते हुए बोले, बच्चा आपने वह पंक्ति सुनी होगी कि जर्मन शासक कहते थे कि ​जनता को रोटी नहीं दे सकते तो सर्कस दो. अब सर्कस का तो जमाना न रहा, सो हुतात्माओं ने मृतात्मा को पकड़ कर सर्कस दिखाना शुरू कर दिया है. यह सर्कस महीनों चलेगा और तू भूखा, बेराजगार, बेकार ऐसे ही सर्कस के बारे में सरसरी जानकारी बटोरता घूमता रहेगा. जा जाकर सर्कस देख. मैं चला, मुझे अतिशत विलंब हो रहा है.
बाबा ने सुरती मलने का महाउपक्रम पूरा करते हुए ताल ठोंकी, गर्दा उड़ाया, सुरती मुंह में प्रक्षेपित की और मुझे छींकने के लिए छोड़कर छिटकते फुदकते हुए आगे बढ़ गए.

बुधवार, 22 अगस्त 2018

आवारा भीड़ के ख़तरे

(देश भर में आवारा भीड़ बेक़ाबू हुई जा रही है. वह जहां तहां अपने तरीक़े से न्याय करने पर आमादा है. वह कहीं भी किसी को भी पीटकर मार सकती है. इस आवारा भीड़ को ही ध्यान में रखते हुए व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई द्वारा जून 1991 में लिखा गया लेख ‘आवारा भीड़ के खतरे’ याद आता है.)
फोटो साभार: द वायर
एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर. इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया- पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर कांच के केस में सुंदर माॅडल खड़ी थी. एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा. कांच टूट गया. आसपास के लोगों ने पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया- हरामजादी बहुत खूबसूरत है.

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी?

20वीं सदी के उत्तरार्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं- पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी.

अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का काम मिले, अमेरिका में रहूं.

‘स्टेटस’ जाना है यानी चौबीस घंटे गंगा नहाना है. ये अपवाद है. भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है, जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं. संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार और भारत के युवकों के व्यवहार में अंतर है.

सवाल है उस युवक ने सुंदर माॅडल के चेहरे पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है- यह उस गुस्से का कारण क्यों है? वाह, कितनी सुंदर है- ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?

युवक साधारण कुर्ता-पाजामा पहने था. चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त. शिक्षित था. बेकार था. नौकरी के लिए भटकता रहा था. धंधा कोई नहीं.

घर की हालत खराब. घर में अपमान बाहर अवहेलना. वह आत्मग्लानि से क्षुब्ध. घुटन और गुस्सा. एक नकारात्मक भावना. सबसे शिकायत.

ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है. खिले हुए फूल बुरे लगते हैं. किसी के अच्छे घर से घृणा होती है. सुंदर कार पर थूकने का मन होता है. मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है.

अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है. जिस चीज से खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है.

बूढ़े-सयाने लोगों का लड़का जब मिडिल स्कूल में होता है, तभी से शिकायतें होने लगती हैं. वे कहते हैं ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था.

हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुका के मानते थे. अब ये लड़के बहस करते हैं. किसी की नहीं मानते. मैं याद करता हूं कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था.

गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता. समाज के नेताओं का भी नहीं. मगर तब हम किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी?

हमारे कस्बे में दस-बारह अखबार आते थे. रेडियो नहीं. स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था. सब नेता हमारे हीरो थे- स्थानीय भी और जवाहरलाल नेहरू भी.

हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियां नहीं जानते थे. मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे.

पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पांचवीं कक्षा का छात्र है. वह सबेरे अखबार पढ़ता है, टेलीविजन देखता है, रेडियो सुनता है. वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है.

देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है. घर में कुछ ऐसा करने को कहो तो प्रतिरोध करता है- मेरी बात भी तो सुनो. दिन भर पढ़कर आया हूं. अब फिर कहते हो कि पढ़ने बैठ जाऊं. थोड़ी देर नहीं खेलूंगा नहीं तो पढ़ाई भी नहीं होगी. हमारी पुस्तक में लिखा है. वह जानता है कि घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं.

ऊंची पढ़ाई वाले विश्वविद्यालय के छात्र सबेरे अखबार पढ़ते हैं तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं. अखबार देश को चलाने वालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं.

धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है. यही नेता अपने हर भाषण, हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं- युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र का ग्रहण करना है- (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे?

छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे में सब जानते हैं. उनका ऊंचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं. उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टांग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग.

छात्रों से कुछ भी नहीं छिपा रहता अब. वे घरेलू मामले भी जानते हैं. ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएं. ये गुरु कहते हैं- छात्रों को क्रांति करना है. वे क्रांति करने लगे तो सबसे पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे. अधिकतर छात्र अपने गुरुओं से नफरत करते हैं.

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं. वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो तीन हजार है, पर घर का ठाठ-बाट आठ हजार रुपयों का है. मेरा बाप घूस खाता है. मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है.

हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सब कुछ जानते हैं. इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों से भी अंधआज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती. हमारे यहां ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था- ‘प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत.’

उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है. कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था. उसकी परीक्षा हो चुकी है और लंबी छुट्टी है. उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो तीन बार कहा. डांटा.

वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया, हम क्या करें? ऐसी-तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी. छुट्टी काटना उसकी समस्या है. वह कुछ तो करेगा ही. दबाओगे तो विद्रोह कर देगा. जब बच्चे का यह हाल है तो तरुणों की प्रतिक्रियाएं क्या होंगी.

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है. सब बड़े उसके सामने नंगे हैं. आदर्शों, सिद्धातों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ते, वे देखते हैं. वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते हैं.

मूल्यों का संकट भी उनके सामने है. सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है. बाजार से लेकर धर्मस्थल तक. वे किस पर आस्था जमाएं और किसके पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे लॉस्ट जनरेशन’(खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है. युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा, चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं. युद्ध में सब बड़े लगे हैं तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं.

बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए. घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ. जीवन मूल्यों का नाश हुआ. ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन, कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीच जो पीढ़ी बढ़कर जवान हुई तो खोई हुई पीढ़ी.

इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवा कुछ नहीं था. विश्वास टूट गए थे. यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई.
अंग्रेज लेखक जॉर्ज आॅसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था तो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी. नाटक का नाम है- ‘लुक बैक इन एंगर’. मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और सम्पन्न हो जाने पर भी चलता रहा.

कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए. ‘बीट जनरेशन’ पैदा हुई. औद्योगीकीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है. ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है. अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा. मगर व्यवस्था से असंतोष वहां भी पैदा हुआ.

अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है. वहां एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक हैं तो दूसरी ओर अतिशय सम्पन्नता से पीड़ित युवक भी. जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वछंदता और विध्वंसवादिता में प्रकट हुआ.

जहां तक नशीली वस्तुओं के सेवन का सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है. दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले (1989 में) सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्राएं नशे के आदी पाए गए.

दिल्ली तो महानगर है. छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं. किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर कहीं मिल जाता है. ‘स्मैक’ और ‘पाट’ टाफी की तरह उपलब्ध हैं.

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं. सही मानते हैं. अगर छात्रों-युवकों में विचार हो, दिशा हो, संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो, वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बनें, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयां मिलाकर पतन की परंपरा को आगे नहीं बढ़ाएं. सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है.

एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठे दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे. वे ‘स्टूडेंट पावर’ में बहुत विश्वास करते थे. मानते थे कि छात्र क्रांति कर सकते हैं. वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते. उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लेना होगा. लक्ष्य निर्धारित करना होगा.

आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो. अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए. हो ची मिन्ह और चे गुवेरा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी, भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना. अमेरिकी विश्वविद्यालयों की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी.

फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे. राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यालय में आंदोलन किया. लेखक ज्यां पाल सात्र ने उनका समर्थन किया. उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था.

उनके लिए राजनीतिक क्रांति करना तो संभव नहीं था. फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया. पर उनकी मांगें ठोस थीं जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन. अपने यहां जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी. पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई. फिर वह लंदन चला गया.

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सब पतित हैं तो हम क्यों नहीं हों. सब दलदल में फंसे हैं तो जो लोग नए हैं, उन्हें उन लोगों को वहां से निकालना चाहिए. यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फंस जाएं.

दुनिया में जो क्रांतियां हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है. मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले, क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है, वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती.

ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर लेते हैं. कारण बताते हैं- मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूं, पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा. यदि युवकों के पास दिशा हो, विचारधारा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वे परिवर्तन ला सकते हैं.

पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है. यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है. अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है.

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया.

यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं.

यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

‘जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर संभालनी है, उन्हें अक़्ल का अंधा बनाया जा रहा है’

(जब पूरा देश ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, कुछ नेता ऐसे भी थे जो विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे. इस सलाह के जवाब में भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से यह महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था.)

इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान (विद्यार्थी) राजनीतिक या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न लें. पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है. विद्यार्थी से कॉलेज में दाख़िल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वे पॉलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे. आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मंत्री है, स्कूलों-कॉलेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ाने वाला पॉलिटिक्स में हिस्सा न ले. कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था, वहां भी सर अब्दुल कादर और प्रोफेसर ईश्वरचंद्र नंदा ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विद्यार्थियों को पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए.

पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ कहा जाता है. इसका क्या कारण हैं? क्या पंजाब ने बलिदान कम किए हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली हैं? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं. आज पंजाब काउंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी और फिज़ूल होती है, और विद्यार्थी-युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता. उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता. जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफ़सोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता.

जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है? कुछ ज़्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं, ‘काका तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो. तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमंद साबित होगे.’

बात बड़ी सुंदर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ़ ऊपरी बात है. इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक ‘अपील टू द यंग, प्रिंस क्रोपोटकिन’ पढ़ रहा था. एक प्रोफ़ेसर साहब कहने लगे, ‘यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है!’ लड़का बोल पड़ा, ‘प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है. वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे.’ इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफ़ेसर के लिए बड़ा ज़रूरी था. प्रोफ़ेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हंस भी पड़ा. और उसने फिर कहा, ‘ये रूसी सज्जन थे.’ बस! ‘रूसी!’ क़हर टूट पड़ा! प्रोफ़ेसर ने कहा, ‘तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पॉलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो.’ देखिए आप प्रोफ़ेसर की योग्यता! अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते हैं?

दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पॉलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबंध से संबंधित कोई भी बात पॉलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जाएगी, तो फिर यह भी पॉलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जाएगा कि इससे सरकार ख़ुश होती है और दूसरी से नाराज़? फिर सवाल तो सरकार की ख़ुशी या नाराज़गी का हुआ. क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही ख़ुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिंदुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफ़ादारी करने वाले वफ़ादार नहीं, बल्कि ग़द्दार हैं, इंसान नहीं, पशु हैं, पेट के ग़ुलाम हैं. तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफ़ादारी का पाठ पढ़ें?

सभी मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की ज़रूरत है, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दें. लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो. सिर्फ गणित और ज्योग्राफी काे ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो.

क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते, जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो. आज नेशनल कॉलेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जाएंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है?

सभी देशों को आज़ाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं. क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते. वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रांति की ज़रूरत है. वे पढ़ें. जरूर पढ़ें, साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें. अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें. वरना बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता.

(वेबसाइट www.marxists.org से साभार)

सोमवार, 20 अगस्त 2018

सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज

(जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) के बाद ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक दंगों का ख़ूब प्रचार शुरू किया. इसके परिणामस्वरूप 1924 में कोहाट (अब पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत का एक जिला है) में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए. इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिक दंगों पर लंबी बहस चली. इन्हें समाप्त करने की ज़रूरत तो सबने महसूस की, लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने हिंदू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगों को रोकने के यत्न किए. इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रांतिकारी आंदोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किए. भगत सिंह का यह लेख जून, 1928 में ‘किरती’ नाम के अख़बार में छपा था.)

भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यक़ीन न हो तो लाहौर के ताज़ा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफ़ी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क़ कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाक़ी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को क़ायम रखने के लिए डंडे लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाक़ी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेज़ी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग़ का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहां तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है. इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो सांप्रदायिक आंदोलन में जा मिले हैं, ज़मीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आई हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अख़बार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था. आज बहुत ही गंदा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम हैं, जिनका दिल व दिमाग़ ऐसे दिनों में भी शांत हो.

अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहां थे वे दिन कि स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहां आज यह दिन कि स्वराज एक सपना मात्र बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया था, कि आज गई, कल गई, वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.

यदि इन सांप्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियां दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गई थी. असहयोग आंदोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से सांप्रदायिक नेताओं के धंधे चौपट हो गए. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल ज़रूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धांतों में से यह एक मुख्य सिद्धांत है. इसी सिद्धांत के कारण ही ‘तबलीग’, ‘तनकीम’, ‘शुद्धि’ आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.

बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है. दरअसल, भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी ख़राब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धांत ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यंत कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाए, चैन की सांस नहीं लेना चाहिए.

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की ज़रूरत है. ग़रीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जाएंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी.

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि ज़ार के समय वहां भी ऐसी ही स्थितियां थीं, वहां भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहां श्रमिक-शासन हुआ है, वहां का नक़्शा ही बदल गया है. अब वहां कभी दंगे नहीं हुए. अब वहां सभी को ‘इंसान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. ज़ार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही ख़राब थी. इसलिए सब दंगे-फ़साद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गई है और उनमें वर्ग-चेतना आ गई है इसलिए अब वहां से कभी किसी दंगे की ख़बर नहीं आती.

इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत ख़ुशी की सुनने में आई. वह यह कि वहां दंगों में ट्रेड यूनियन के मज़दूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन सभी हिंदू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्ग-चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है.

यह ख़ुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से, जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नज़र से- हिंदू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन सभी को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहरा है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.

1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दख़ल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए ग़दर पार्टी जैसे आंदोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिंदू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुंदर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं. यदि धर्म को अलग कर दिया जाए तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.

हमारा ख़्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताए इलाज पर ज़रूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे.

(आरोही पब्लिकेशन की ओर से प्रकाशित संकलन ‘इंकलाब जिंदाबाद’ से साभार)

शनिवार, 11 अगस्त 2018

पिछले 70 साल में क्या हुआ?

पिछले 70 सालों में वह सब हुआ है, जिसकी आज के नेता कल्पना भी नहीं कर सकते.

अभी तक पूछा जा रहा था कि पिछले सत्तर सालों में क्या हुआ? अब पूछा जा रहा है कि पिछले चार सालों में क्या हुआ? पिछले चार सालों में जो हुआ है वह तो आप सभी जानते हैं. लेकिन पिछले सत्तर सालों में क्या हुआ, इस पर निगाह डालनी जरूरी है.

1947 में जब देश आजाद हुआ तब यह देश सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में था. दो देशों के बीच बड़ी संख्या में पलायन हो रहा था. पूरा देश छोटे छोटे रजवाड़ों में बंटा था. पाकिस्तान से साठ लाख शरणार्थी भारत आए थे, उनका पुनर्वास एक चुनौती थी. मुस्लिमों की सुरक्षा, हिंसा पर नियंत्रण, पाकिस्तान से युद्ध से बचाव, कम्युनिस्ट विद्रोह पर नियंत्रण, राजनीतिक स्थिरता, प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण, देश की सुरक्षा और स्थायित्व जैसी चुनौतियां थीं. 70 प्रतिशत जमीनों पर जमीदारों का कब्जा था. करीब करीब पूरा भारत अनपढ़ था. देश सूखा, महामारी, बीमारी, भुखमरी आर्थिक पिछड़ापन, गरीबी और सामाजिक विषमता से जूझ रहा था. अंग्रेजी विरासत में भारतीयों को एक खोखला और टूटा हुआ देश हम भारतीयों को सौंपा गया था.

1943 में बंगाल में सूखा के चलते करीब 30 लाख लोग मारे गए थे. देश की जीवन प्रत्याशा मात्र 32 साल थी. देश की जनता का अधिकांश हिस्सा दोनों वक्त खाना नहीं खा सकता था, दरिद्रता इस हद तक थी. विशाल समस्याओं के पहाड़ तो थे लेकिन नेहरू के अलावा तमाम महान नेताओं की फौज खड़ी थी. राष्ट्रीय आंदोलन की राष्ट्रवादी विरासत थी. सबने मिलकर इस देश को खड़ा किया.

इसके अलावा दो बड़ी चुनौतियां थीं. हिंदूवादी और संघ परिवारी तिरंगे की होली जला रहे थे, गांधी की हत्या करके मिठाइयां बांट रहे थे, आजादी को झूठा बता रहे थे, मनुस्मृति लागू करने की मांग कर रहे थे, तो दूसरी तरफ कम्युनिस्ट भी इस आजादी को नहीं मान रहे थे. फरवरी 1948 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आम क्रांति की घोषणा करते हुए उग्र आंदोलन शुरू कर दिया.

लेफ्ट विंग और राइट विंग में अंतर सिर्फ इतना था कि लेफ्ट विंग के लोग बढ़ चढ़ कर आजादी आंदोलन में शामिल थे, जबकि आरएसएस के हिंदूवादी शाखा लगा रहे थे. कांग्रेस में जो हिंदूवादी विचार के लोग थे, उनकी बात दीगर है.

तमाम समस्याओं के रहते हुए क्या हुआ?

इन समस्याओं से पूरा देश मिलकर लड़ा. देश की नींव की पहली ईंट के रूप में भारत का संविधान बना और लागू हुआ और भारतीय गणराज्य की स्थापना हुई. पांच सौ टुकड़ों में बंटे भूभाग का एकीकरण हुआ. सबके लिए एक समान कानून के शासन की स्थापना हुई. समता, बराबरी, शिक्षा, अभिव्यक्ति और जीवन के अधिकार सबके लिए सुरक्षित किए गए. राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया की स्थापना करते हुए राष्ट्रीय राजसत्ता को विकास एवं सामाजिक बदलाव के उपकरण के रूप में विकसित और सुरक्षित रखना सुनिश्चित किया गया.

भारतीयता की परिभाषा लिखी गई. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना हुई. सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक क्रांति का आधार तैयार किया गया. कृषि, उद्योग, तकनीक, विज्ञान, यातायात, संचार और अर्थव्यवस्था का खाका तैयार हुआ. महिलाओं, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और वंचितों के लिए समान अधिकार की आधारशिला रखी गई. प्रेस की आजादी बहाल हुई. स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना हुई.

 देश में पांच आईआईटी की स्थापना हुई, आईआईएम बने. परमाणु उर्जा आयोग की स्थापना नेहरू के ही समय हो गई थी. एक देश के निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही वह होमी भाभा के नेतृत्व में परमाणु उर्जा के बारे में भी सोच रहा था. एशिया का पहला परमाणु रिएक्टर 1956 में बंबई में काम करना शुरू कर चुका था. 1962 में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए इसरो की स्थापना की गई.

आजादी मिली तो देश में मात्र 18 विश्वविद्यालय थे. 1964 तक नेहरू सरकार ने 54 विश्वविद्यालय और 2500 कॉलेज खोले. आजादी के समय मात्र 16 प्रतिशत लोग साक्षर थे. आज कम से कम तीन राज्यों में सौ प्रतिशत शिक्षा दर है. शहरी विकास, ग्रामीण विकास, सामुदायिक विकास कार्यक्रम, पंचायती राज आदि की नींव रखी गई.

पिछले सत्तर सालों में वह वह हुआ, जिसके बारे में आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं और वह भी आपकी क्षमता से परे है. लगभग निरक्षर देश में महान नेताओं ने तय किया कि एक जनवादी और समान नागरिक अधिकारों पर आधारित समाज का निर्माण किया जाएगा और एक जनवादी राजनीतिक व्यवस्था के अंदर आर्थिक विकास होगा. अंबेडकर का नारा लगाना और इस बात को समझना दो अलग बाते हैं.

लोगों में लोकतांत्रिक चेतना विकसित करने के तमाम उपाय किए गए. लोगों में सुनहरे भविष्य की आकांक्षा जगाई गई. जातीय, धार्मिक और भाषाई टुकड़ों में बंटे देश को यथासंभव एकता के सूत्र में पिरोया गया. उद्योग, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, प्रशासन, कृषि, स्वास्थ्य, उत्पादन सबकी नींव रखी गई. 1951 में देश में कुल 18000 डॉक्टर थे. अधिकांश शहरों में रहते थे. अस्पतालों की संख्या मात्र 1900 थी. अधिकांश शहर भी बिना बिजली के थे. जलापूर्ति जैसा शब्द शायद किसी ने सुना हो.

लेकिन देश भर में बड़े बड़े बांध बनाए गए. विश्वविद्यालय खोले गए. उद्योगों की स्थापना हुई. वैज्ञानिक संस्थान खोले गए. सभी क्षेत्रों में तमाम संस्थाओं की स्थापना हुई. विदेश नीति की स्थापना हुई. भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अगुआ देशों में था. सरकारी नियंत्रण में बड़ी बड़ी कंपनियों की स्थापना हुई जिसे आज सरकार पूंजीपतियों को बेचने के लिए ललचा रही है. सिर्फ नेहरू ने अपने ही कार्यकाल में भारत को एक दरिद्र कुनबों के देश को एक विकासशील देश में तब्दील कर दिया था.

सत्तर सालों की बात जाने दें, सिर्फ नेहरू कार्यकाल में इतना हुआ कि उसके बाद वैसे विजन का कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ. कुछ हजार गांवों में बिजली पहुंचाने का गाना गाने के दौर में याद रखना चाहिए कि जिस नींव पर यह देश सुपर पावर बनने जा रहा है, उसकी नींव शुरुआती दस सालों में ही रख दी गई थी. पूरे भारत का निर्माण करने के लिए. बाद की पीढ़ी के नेताओं ने सिर्फ उस मजबूत नींव को दरकाने की ही कोशिश की, चाहे वह स्वनामधन्य दुर्गा बनीं इंदिरा गांधी हों, या विष्णु अवतार बने नरेंद्र मोदी.

समस्याएं इतनी थीं कि दुनिया भर के विद्वान कहते फिर रहे थे कि न तो आजादी, न ही लोकतंत्र भारत में लंबे समय तक रह पाएगा. देर सवेर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था ढह जाएगी. 1960 में अमेरिकी विद्वान पत्रकार सेलिग एस हैरिसन भविष्यवाणी कर रहे थे कि 'बाधाएं करीब करीब पूरी तरह आजादी के जीवित रहने के खिलाफ हैं और मुद्दा यह है कि वस्तुत: क्या कोई भारतीय राजसत्ता बिल्कुल जीवित रह पाएगी या नहीं? (आजादी के बाद भारत, बिपन चंद्र)

1967 में टाइम्स अखबार के संवाददाता नेविल मैक्सवेल ने लेखों की सीरीज लिखी 'इंडियाज डिसिंटिग्रेटिंग डेमोक्रेसी', इसमें उन्होंने कहा कि 'एक लोकतांत्रिक ढांचे के अंदर भारत को विकसित करने का महान प्रयोग असफल हो गया है.' इसके बाद जब आपातकाल लगा तब भी यही बात कही गई कि भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का प्रयोग असफल हो गया है. लेकिन क्या आज कोई कह सकता है कि भारत लोकतांत्रिक देश नहीं है?

जब हमने 21वीं सदी में कदम रखा तो पूरी दुनिया में भारत के महाशक्ति बनने का रास्ता साफ हो गया था. भारत के सुपर पॉवर बनने की चर्चा तब शुरू हो गई थी जब मनमोहन सिंह की अगुआई में भारत अमेरिका से परमाणु समझौता कर रहा था. जाहिर है कि सुपरपॉवर बनने की आधारशिला गाय, गोबर, दंगा और लिंचिंग नहीं हो सकती. नेहरू से लेकर अब तक के सारे प्रधानमंत्री गोरक्षा करते और गोमूत्र के ब्रांड एंबेस्डर बन जाते तब तो फिरंगियों की भविष्यवाणी के मुताबिक, सच में यह देश निपट गया होता.

यह कहना बहुत आसान है कि फलां काम आजादी के सत्तर साल बाद पहली बार हो रहा है. लेकिन ठहर कर यह सोचना चाहिए कि सत्तर साल पहले हर काम पहली ही बार हो रहा था. किसी देश की यात्रा कर आना कठिन काम हो सकता है लेकिन विदेशों में एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता लेना निश्चित रूप् से कठिन काम रहा होगा. सिक्किम या अरुणालच में पहली बार जहाज उतार देना मुश्किल काम है, लेकिन जहाज सेवा और उड्डयन की शुरुआत उससे भी कठिन रहा होगा. आधी रात को किसी सरकारी नीति का उत्सव मनाना कठिन हो सकता है, लेकिन नीतियां बनाकर लागू करने लायक देश और व्यवस्था बनाना निश्चित तौर पर इससे कठिन काम रहा होगा.

तो भारत में पैदा होने को लेकर शर्मिंदगी महसूस न करें. खासकर विदेश जाएं तो यह न कहें कि भारत में पैदा होकर शर्म आती थी. इस देश का इतिहास अपनी लाख खामियों, कमजोरियों और कमियों के साथ महान है और उम्मीद है कि आने वाला कल आज से बेहतर होगा!





गुरुवार, 9 अगस्त 2018

'राफेल विमान सौदा रक्षा क्षेत्र का सबसे बड़ा घोटाला'

राफेल विमान सौदे में करीब 35000 करोड़ का घोटाला हुआ है. यह हमारा नहीं, देश की तीन बड़ी शख्सियतों का कहना हैं. ये हैं पूर्व भाजपा मंत्री अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और वकील प्रशांत भूषण. अरुण शौरी दशकों से रक्षा सौदों और उसमें हेरफेर के मामलों को फॉलो करते रहे हैं. इन तीनों का कहना कि रफेल विमान की डील में घोटाला हुआ है और यह अब तक का सबसे बड़ा रक्षा सौदा घोटाला है. यह राजीव गांधी के समय हुए बोफोर्स घोटाले से भी बड़ा घोटाला है.
फोटो साभार: जीन्यूज
इनके मुताबिक, राफेल के मुकाबले बोफ़ोर्स घोटाला कुछ नहीं था, इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचा है. प्रशांत भूषण के मुताबिक, राफेल सौदे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निर्णय लेने का अधिकार नहीं था, जबकि यह अधिकार दूसरे संस्थानों के पास था. इस डील में रक्षा मंत्रालय, कैबिनेट कमेटी आॅन सिक्योरिटी और वायुसेना की राय नहीं ली गई. इसमें साफ तौर पर प्रधानमंत्री के खिलाफ 'क्रिमिनल मिसकन्डक्ट' का मामला बनता है. इसीलिए बचने के लिए प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट में बदलाव कर दिया गया, जिसके तहत प्रधानमंत्री पर शिकंजा कसा जा सकता था.
प्रेस कांफ्रेंस के मुताबिक, सौदे में बदलाव के बाद हर विमान 1000 करोड़ ज़्यादा कीमत में खरीदा जा रहा है. इस सौदे में भारत सरकार की कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल को बाहर करके अनिल अंबानी की कंपनी को डील में शामिल किया जिसे रक्षा उपकरण बनाने का कोई अनुभव नहीं है. इससे अंबानी को 21000 करोड़ का मुफ्त में फायदा होगा. पूर्व में 126 विमानों का सौदा करने का प्रस्ताव था जिसे बदल कर 36 कर दिया गया. इसके साथ में फ्रांस से विमान बनाने की तकनीक मिलनी थी, वह भी नए समझौते के तहत नहीं मिलेगी.
सरकार कह रही है कि फ्रांस के साथ गोपनीयता का समझौता है इसलिए इस मामले में कोई सूचना नहीं दी जा सकती. इस पर अरुण शौरी का कहना है कि रक्षा मंत्री ने लोकसभा में झूठ बोला है. भारत—फ्रांस के बीच हुए समझौते में स्पष्ट लिखा है कि सिर्फ विमान की तकनीक से जुड़ी जानकारियों के लिए ये समझौता प्रभावी होगा. सरकार को बताना चाहिए अनिल अंबानी की कंपनी को कॉन्ट्रैक्ट क्यों दिया, इसका जवाब देने के लिए ये एग्रीमेंट कहां मना करता है? सीक्रेसी की आड़ में भ्रष्टाचार छुपाया जा रहा है.
जबकि इंडिया टुडे के मुताबिक, फ्रांस के राष्ट्रपति का कहना है कि अगर सरकार जरूरी समझे तो विपक्ष को जरूरी जानकारियां दे सकती है. फिर सरकार ये जानकारी देना जरूरी क्यों नहीं समझ रही है?
इन तीनों नेताओं का आरोप है कि गोपनीयता का हवाला करप्शन को छुपाने के लिए दिया जा रहा है.
प्रशांत भूषण के मुताबिक, इस डील में प्रधानमंत्री ने अनाधिकृत रूप से मनमानी की. रक्षा मंत्रालय, वायुसेना और कैबिनेट कमेटी के अधिकारों को दरकिनार कर, पद का दुरुपयोग करके, देश की जनता के 35000 करोड़ का नुकसान किया गया.
अरुण शौरी ने कहा है कि राफेल सौदे से राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचा है. लेकिन अनिल अंबानी ने उन्हें चिट्ठी लिखी है कि इस मुद्दे को न उठाएं.
शौरी ने कहा कि पीएम मोदी के दौरे के दौरान राफेल विमान सौदे का जो समझौता हुआ वह पुराने मसौदे से अलग है. नई डील के लिए नए सिरे से टेंडर होना चाहिए था. इसके साझा घोषणापत्र में भी किसी नए उपकरण या हथियार लगाए जाने का ज़िक्र नहीं था. सेम कॉन्फिगरेशन के हथियार का ज़िक्र था जिसे एयरफ़ोर्स पहले टेस्ट कर अप्रूव कर चुका था. इसका कॉन्ट्रेक्ट हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड से हटाकर अनिल अंबानी की कंपनी को दे दिया गया जिसको डिफ़ेंस का कोई अनुभव नहीं था और कंपनी 10 दिन पहले बनाई गई थी.
शौरी ने कहा कि सरकार की गाइडलाइन कहती है कि हर ऑफ़सेट कॉन्ट्रेक्ट चाहे वह जिस भी क़ीमत का हो, रक्षा मंत्री की मंज़ूरी से होगा. सरकार झूठ बोल रही है कि रिलायंस को कॉन्ट्रेक्ट डेसाल्ट ने दिया. कीमत का खुलासा न करने का तर्क भी बेकार है. सरकार के रक्षा राज्यमंत्री खुद लोकसभा में कीमत बता चुके हैं- 670 करोड़ प्रति विमान जिसमें सब कुछ शामिल है. इस क़ीमत में हथियार से लेकर ट्रांसफर ऑफ टेक शामिल है. रिलायंस और डेसाल्ट ने भी खुद एक साल पहले कीमत बताई थी, 1000 करोड़ प्रति विमान से ज़्यादा.
प्रशांत भूषण ने कहा कि इस सौदे से देश को 35000 करोड़ दी चपत लगी है. सौदे में विमान की तादाद घटाए जाने से देश की सुरक्षा को ख़तरा बढ़ा है. इस सौदे की जानकारी न तो रक्षा मंत्री को थी न वायुसेना में किसी को. पीएम मोदी ने अपने स्तर पर ही फ़ैसला किया.
भूषण ने कहा कि हमारे देश को सुरक्षा के लिए सात स्क्वाड्रन की ज़रूरत है, तभी 126 विमानों की बात हुई थी. इसके बावजूद यह संख्या 36 कर दी, बिना किसी की जानकारी के. यह राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ है. उन्होंने कहा कि कैसे किसी हैंकी पैंकी कंपनी को कॉंन्ट्रेक्ट दिया जा सकता है? वह (सरकार) कहती है कि इसमें मिडिल मैन कहां हैं! तो फिर इस डील में अनिल अंबानी कौन है? कहां से आ गया, कैसे हजारों करोड़ ले जाएगा?
आप किस आधार पर कह रहे हैं कि विमान खरीद में घोटाला हुआ है, इस प्रशांत भूषण का कहना है कि सरकार का बार बार स्टैंड बदलना और झूठ बोलना, 670 करोड़ के विमान का दाम 1670 करोड़ हो जाना, नई बोगस कंपनी का नाम शामिल करना, उस कंपनी के कर्ज में डूबे होने को दरकिनार कर देना, सरकारी एजेंसी को डील से हटा देना, इसके ठीक बाद खुद को बचाने के लिए प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट को बदल देना, सौदे के बारे में जनता को न बताना, रक्षा मंत्रालय और वायु सेना को डील की कोई जानकारी न होना, ये बातें यह साबित करती हैं कि राफेल सौदे में घोटाला हुआ है.
यशवंत सिन्हा ने कहा कि विदेश सचिव ने समझौते से दो दिन पहले कहा था कि पुरानी डील को ही आगे बढ़ाएंगे, पर वहां जाकर नई डील कर ली गई. अरुण शौरी ने कहा कि जिस तरह राफ़ेल डील की गई है उससे वायुसेना के लोग बहुत ख़फ़ा हैं. अनिल अंबानी की कंपनी की ओर से इन आरोपों को खारिज किया गया है. सरकार ने अभी तक इन आरोपों पर कोई सफाई नहीं दी है.

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

गाय पर एक निबंध

वर्तमान भारत में गाय एक धार्मिक और राजनीतिक पशु है. सभी जाति धर्म के लोग गाय पालते हैं. राजनीति गाय पालने के नाम पर उन्मादी भीड़ पालती है. हिंदू गाय की पूजा करते हैं. नेता गाय के नाम पर हत्या करने वालों की माला पहनाकर पूजा करते हैं. गाय दूध देने के काम आती है. गाय दंगा कराने और वोट लेने के भी काम आती है. इसलिए पार्टियों के प्रवक्ता चैनलों पर तेज तेज आवाज में गाय की जबानी पूजा खूब करते हैं.
हिंदुओं में मान्यता है कि मरते वक्त आदमी से गोदान करवा दिया जाए तो वह गाय की पूंछ पकड़कर संसार रूपी वैतरणी पार कर जाता है. भारत के नेताओं में मान्यता है कि गाय के नाम पर अगर जनता में उन्माद भर दिया जाए तो चुनाव रूपी वैतरणी को पार किया जा सकता है.
हमारे देश में आजकल गाय के बहाने लोगों की भीड़ किसी को भी पीट पीटकर मार देती है. भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जहां तमाम किसान और पशु व्यापारी मारे जा चुके हैं. मरने वाले को देशद्रोही अथवा हिंदूद्रोही कहा जाता है जबकि भीड़ का तो कोई चेहरा नहीं होता इसलिए किसे पकड़ा जाए इसका धर्मसंकट बना रहता है. भीड़ बनकर मारने वालों में से अगर कोई पकड़ा जाए तो सरकार उन्हें 'भगत सिंह' और 'निर्दोष बच्चे' कहती है. पकड़े गए लोग जब जेल से छूटते हैं तो सरकार के मंत्री हत्या करने वालों को माला पहनाकर उनका स्वागत करते हैं. देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि ये खूनी खेल बंद करो, लेकिन आदेश के तुरंत बाद एक और इंसान को पीटकर मारा गया. फिर उसे घायल मरने के लिए छोड़ दिया गया और गाय को सुरक्षित गोशाला पहुंचा दिया गया.
बुद्धूबक्सा की दुनिया के एक कुख्यात देशद्रोही रवीश कुमार ने अपने प्रोग्राम में दिखाया है कि पुलिस और नेता मिलकर हत्या करने वालों की भरपूर सुरक्षा करते हैं. गोरक्षा के नाम हत्या करने वाले गिरोहों की ख्याति पूरी दुनिया में फैल चुकी है. इसके चलते हमारे भारत की पूरी दुनिया में लगातार चर्चा भी होती रहती है. लगातार चर्चा होना हमारे ताकतवर होते जाने का प्रत्यक्ष प्रमाण है.
गाय बेजुबान जानवर है. वह बोल नहीं सकती. इसलिए वह पूछ भी नहीं सकती कि मैं किस राज्य में माता हूं किस राज्य में खाया जाने वाला जानवर. पार्टी और सरकारें गोरक्षा का नारा लगाती हैं. वे कुछ राज्यों में गोकुशी पर प्रतिंबध लगा देते हैं. लेकिन गोवा के विधानसभा में कहते हैं कि राज्य में गोमांस की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी. वे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी लोगों को गोमांस खिलाने का वादा करके चुनाव जीतते हैं. जिस तरह सभी पार्टियों के नेता चुनाव में देसी ठर्रा बंटवाते हैं, उसी तरह कहीं गोकशी बंद कराने का तो कहीं शुरू कराने का वादा करते हैं.
एक चैनल पर एक वक्रोक्तिपात्र नेताजी से दूसरे नेताजी ने पूछा कि सब राज्यों में गाय काटने पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगा देते, आप झूठ का सहारा क्यों लेते हैं? वक्रोक्तिपात्र नेताजी जोर से चिल्लाते हुए कहने लगे कि तुम आतंकवादी हो, क्योंकि हमारे धर्म और आस्था पर सवाल उठाते हो. इस न्याय से यह साबित होता है कि जिस तरह गोकशी पर प्रतिबंध से आस्था जुड़ी है, उसी तरह गाय के काटे जाने से भी आस्था जुड़ी है. शायद इसीलिए सरकारों ने बूचड़खानों को लाइसेंस भी दे रखा है. सरकार ने गाय की हत्या को वैध और अवैध में बांट दिया है. इसलिए हम कह सकते हैं कि लाइसेंसी गोहत्या, गोहत्या न भवति.
मौलाना मदनी और ओवैसी नामक कुछ प्रचंड देशद्रोहियों ने मांग की थी कि गाय को राष्ट्रीय पशु का दर्जा देकर पूरे देश में गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, लेकिन सरकारें चूंकि देश की सुरक्षा के लिए होती हैं इसलिए इन देशद्रोहियों पर कान नहीं दिया गया है.
अभी तक के अध्ययन में विद्वानों ने पाया है कि गोरक्षा के नाम पर हत्या वही लोग करते हैं जिन्होंने गाय को या तो इंटरनेट पर देखा है, या फिर सड़क पर आवारा घूमते और पालिथिन खाते देखा है. कोई भी गाय पालने वाले के पास हत्या करने का समय नहीं रहता. दो तीन गायों की परवरिश करने के लिए एक व्यक्ति को दिन के पांच छह घंटे मेहनत करनी होती है. जो किसान गाय पालते हैं, वे उससे प्रेम करते हैं. हिंदू परिवारों में लोग इस बात के लिए सतर्क रहते हैं कि गाय को बेचें भी तो किसी ऐसे के हाथ न पड़े जो गाय को कोई भी नुकसान पहुंचाए. वे खुद उसकी सेवा करते हैं, लेकिन उसकी सेवा के नाम पर किसी की जान नहीं लेते.
आजकल गाय पालने वाले किसानों का भी बुरा हाल है. सरकारी गोरक्षा के चक्कर में पशु मेले लगने बंद हो गए हैं. सरकारों ने कांजी हाउस भी बंद कर दिए हैं जहां आवारा पशु लाकर छोड़ दिए जाते थे. पशुओं की खरीद बिक्री भी बंद हो गई है. अब जो पशु किसान के काम नहीं आ सकते, वे उसे बेच सकते नहीं, इसलिए आवारा छोड़ देते हैं. फिर वे जानवर उन्हीं के खेतों में चरते हैं और फसलें तबाह कर देते हैं. हर इलाके में सैकड़ों की संख्या में आवारा गायें और सांड़ घूमते दिख रहे हैं. किसानों ने इन जानवरों से फसल की सुरक्षा के लिए खेतों में ब्लेड वाला तार लगा दिया है. इन ब्लेड खेत में घुसने का प्रयास करने पर गाय बुरी तरह घायल हो जाती है. कुछ दिन में उसका घाव सड़ जाता है, उसमें कीड़े पड़ जाते हैं. कभी वह बच जाती है, कभी कभी मर भी जाती है. घूमने वाले जानवरों में तमाम घायल जानवर आपको दिख जाएंगे.
कुछ राज्यों में सरकार ने गायों की सुरक्षा के नाम पर गोशालाएं खोली हैं. अब चूंकि किसानों का पूरा परिवार मिलकर गायों की देखभाल करता है. सरकार इतने लोग कहां से लाए. परिणामस्वरूप गोशाला में सैकड़ों की संख्या गाएं भूखों मर जाती हैं. हमारी दादी कहती थीं कि गाय बोल नहीं सकती. अगर उसे खाना पानी समय पर न दो तो पाप लगता है. फिर आदमी नरक में जाता है. गायों को गोशाला नामक नरक में रखने की योजना जिसने बनाई होगी उसे नरक में जाना पड़ेगा. सुना है कि नरक में जो लोग बड़ा पाप करके जाते हैं, उनको पकौड़े की तरह बड़े से कड़ाहे में तला जाता है. हमें नरक के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. हो सकता है कि यह नरक लोक की कोई रोजगार योजना हो जिसमें युवा पकौड़े तलते हों!
आदिकाल में गाय एक पशु मात्र थी. फिर संस्कृति के विकास के साथ लोग प्रकृति की पूजा करने लगे तो उपयोगी जानवरों की भी पूजा करने लगे. गोवंश धार्मिक पशु हो गया. फिर 21वीं सदी में राजनीति गाय के नाम पर लोगों की जान लेने लगी. अब गाय सियासी पशु बन चुका है. हमारे सियासतदां उन उन चीजों की रक्षा का नारा लगाते हैं जो भारतीय जनता की भावनाओं से जुड़ी है, मसलन— धर्म, संस्कृति, देश, मात्रभूमि, देशभक्ति आदि-इत्यादि-अनादि. भगवान राम और गाय माता इसी नारेबाज सियासत के चंगुल में फंस गए हैं. जब तक इसका कोई निदान नहीं होता तब तक हमें यह मानना चाहिए कि एक दिन कोई कृष्ण आएगा जो इन गायों को सियासत के चंगुल से बचाएगा और गाय के नाम पर लोगों को लड़ाने वालों को लाठी लाठी बजाएगा.

नोट: यूपीएससी के छात्र इस निंबंध को न रटें वरना नंबर के नाम पर अंडा मिलेगा. देशद्रोही लोग इसे रट लें, जहां भी सुनाएंगे, डंडा मिलेगा.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...