मंगलवार, 5 नवंबर 2019

सरकार देशभक्ति और सुरक्षा के नाम पर झुनझुना पकड़ा रही है: रवीश कुमार

(केंद्र सरकार ने 2016 में एनडीटीवी पर एक दिन के प्रतिबंध की घोषणा की थी. इसके बाद लोगों में जबरदस्त प्रतिक्रिया देखने को मिली. सोशल मीडिया पर दो दिन तक एनडीटीवी ट्रेंड करता रहा. पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और पार्टियों की ओर से इस कार्रवाई की निंदा हुई. इस प्रकरण को लेकर हमने एनडीटीवी के रवीश कुमार से बातचीत की थी जो कि 5 नवंबर, 2016 को फर्स्टपोस्ट हिंदी पर प्रकाशित हुई थी. रवीश कुमार से हुई बातचीत यहां हूबहू रखी जा रही है- )

मेरी प्रतिक्रिया यही है कि जनता अपनी राजनीतिक पसंद रखे. लेकिन उस पसंद को वो हर जगह न ढूंढे. मीडिया का संस्थान उसकी राजनीतिक पसंद के अनुकूल क्यों होना चाहिए? दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है. आप दोनों को अलग-अलग रूप में देख सकते हैं, पसंद कर सकते हैं. लेकिन आजकल राजनीति ऐसा चाहने लगी है कि सबकुछ हमारे अनुकूल हो. उसे देशभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा नाम के दो अंतिम तर्क मिल गए हैं. राजनीति के पास अब बुद्धि नहीं रही.

कोई राजनीतिक विचारधारा, विमर्श की भाषा में जब कोई नेता बात करता था, तब बहुत सारी बातें निकलती थीं. तो अब उतनी क्षमता किसी में है नहीं. न ही धीरज बचा है नेताओं में. नेता क्या करते हैं? हमेशा वे राष्ट्रभक्ति और इन सब चीजों का सहारा लेकर बात करने लगते हैं कि इसके नाम पर हम सबकुछ कर रहे हैं. राजनीति एक अलग स्वतंत्र और बहुत ही खूबसूरत प्रक्रिया है. उसमें जनता को अलग-अलग दलों के साथ या एक दल के साथ जुड़ना चाहिए. उसमें और मीडिया की स्वतंत्रता में कोई टकराव नहीं है.

आप क्या सातों दिन एक ही कमीज पहनना चाहेंगे? क्या आप ऐसे जीवन की कल्पना करते हैं? नहीं करना चाहेंगे न. वे यही चाह रहे हैं कि राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों को ऐसी ट्रेनिंग कर दी जाए कि वे एक ही वर्दी में घूमते रहें. लेकिन इससे फिर लोग तो लोग नहीं रहेंगे न! वे इतनी सी बात को समझ जाएं.

लोगों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं चाहता हूं कि समर्थन से ज्यादा लोग इस बात को समझें, अपने भीतर इस बात को लागू करें कि सवाल करने की जगह आजाद होनी चाहिए. वे ये भी देखें कि पत्रकारिता का पैमाना लागू हो रहा है कि नहीं और इस बात के प्रति वे सतर्क रहें.

चाटुकारिता जब पत्रकारिता में घुस जाती है तो इससे नुकसान जनता का होता है और फायदा एक अकेले आदमी का होता है. जो वो एंकर या पत्रकार है, सिर्फ उसका. वो किसी नेता से जनता का भरोसा बेचकर कितना कुछ कमाता है, कितना कुछ पाता है ये बात जनता को मालूम नहीं. इसलिए जनता को चाहिए कि जब भी देखे कि ये पत्रकार कुछ ज्यादा ही सरकार के प्रति समर्थन रखता है तो उसे सतर्क रहना चाहिए. इसका मतलब उस पत्रकार ने जनता के भरोसे का फायदा उठाकर नेता से कुछ बड़ा समझौता किया है. हमारा काम थोड़ी है राजनीति की दिशा तय करना. हमारा काम है हर चीज पर सवाल करना. लेकिन राजनीतिक सहनशीलता खत्म होती जा रही है.

राज्यों में भी एक तरह के मीडिया का नियंत्रण है, केबल पर प्रोग्राम ऑफ कर दिए जा रहे हैं. यह क्या है? क्या कभी प्रोग्राम इसके लिए ऑफ हुआ है कि अर्धसैनिक बलों को सैलरी नहीं मिल रही है, उनको पेंशन नहीं मिल रहा है. उनको शहीद का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. पुलिस के लोग ड्यूटी पे मारे जाते हैं उनको शहीद का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. उनको पेट्रोल पंप नहीं दिया जा रहा है जबकि वे भी ड्यूटी पर मर रहे हैं. वो लोग अपनी मांग तो कर रहे हैं. इन मांगों को लेकर कोई झगड़ा क्यों नहीं है? क्यों स्कूलों में ठेके के शिक्षक पढ़ा रहे हैं जबकि वैकेंसी है? क्यों हर राज्य में वैकेंसी खाली है? अभी जो कैदी भाग गए या भगाए गए तो अखबारों में रिपोर्ट आई कि हर राज्य में जेलों में जो नियुक्ति होनी चाहिए वो मंजूर पदों से आधी से भी कम है. इसका मतलब है कि ये सरकारें जानबूझ कर बेरोजगारी पैदा कर रही हैं. वे लोगों को बेरोजगार रख रही हैं.

लोग सवाल न करें इसलिए देशभक्ति और देश की सुरक्षा के नाम पर झुनझुना पकड़ा के चली जा रही है. ऐसा क्या हो गया है हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को? ये प्रक्रिया धीरे धीरे चली आ रही है और हम इससे भी बुरे दिन देखने वाले हैं. इससे भी बुरी स्थिती देखने वाले हैं. जनता को सोचना चाहिए. हुकूमत चाहे तो एक पत्रकार की नौकरी कभी भी ले सकती है लेकिन जनता को सोचना चाहिए कि उसके बदले में सरकार कितने लोगों का हक गायब कर देगी. सोचना चाहिए जनता को.

अगर हर किसी को लगता है कि लोकतंत्र की रक्षा होनी चाहिए तो हर किसी को इसके समर्थन में आना चाहिए. क्या उनकी राजनीतिक विचारधारा ने दुनिया का अंतिम सत्य देख लिया है? क्या अब उसके बाद कोई सत्य नहीं है? क्या कोई दावे के साथ कह सकता है ऐसा? दुनिया की कोई विचारधारा ऐसा कह सकती है क्या? इसीलिए सवाल जवाब के दौर होते हैं. आपकी विचारधारा अपनी जगह है. इससे टेस्टिंग होती है, आप अपने को चेक करते हैं. इतने की भूमिका होती है.

आप पूछ कह रहे हैं कि क्या आपातकाल जैसी स्थिति है? मैं कह रहा हूं कि उससे भी बदतर स्थिति है. जब लोग फोन पर बात करने से डरने लगें, जब वो इस बात से डरने लगें कि दो बयान अगर गलत हो जाएगा तो पता नहीं 50 आदमी आकर क्या करेगा. जब आप कोई बात कहें और 500 वकील लगाकर आपके खिलाफ कोर्ट केस होने लगे तो ये आपातकाल की स्थिति है. और इससे ज्यादा हम क्या देखना चाहते हैं? इससे बदतर क्या होगा? या ठीक है हम ये भी देख लेंगे. लेकिन इसके बदले में आपने जनता को क्या दिया?

वो पंजाब का किसान जसवंत था. पांच साल के अपने बच्चे को सीने से चिपका कर नहर में कूद कर मर गया. दस लाख रुपया कर्जा था. क्या आप उसके आंसू पोंछ पाए? पोंछ सकते हैं आप? हम बंद कर देते हैं, अखबार, टीवी सब बंद करवा दीजिए आप. इसकी जरूरत ही नहीं है. क्या आप ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं? भाषण कुछ, काम कुछ. भाषण दीजिए लोकतंत्र का और काम कीजिए ठीक उसके खिलाफ. यह स्थिति खतरनाक है.

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