सोमवार, 23 मार्च 2015

भारत कृषिप्रधान देश या किसानों की कब्रगाह?

सरकार ने 13 मार्च को संसद में जानकारी दी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद डिवीजन में 2015 के शुरुआती 58 दिनों के भीतर 135 किसानों ने आत्महत्या कर ली। कृषि राज्यमंत्री मोहनभाई कुंडारिया ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 और 2013 में क्रमश: 13,754 और 11,772 किसानों ने आत्महत्या की। भारत में ज्यादातर किसान कर्ज़, फसल की लागत बढ़ने, सिंचाई की सुविधा न होने, कीमतों में कमी और फसल के बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं।
1995 से लेकर अब तक 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इसी साल एक जनवरी से अब तक 200 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
उरई में फसल बर्बाद होने के सदमे में नरेंद्र कुशवाहा (35) ने कल सोमवार को आत्महत्या कर ली। रविवार को मध्य प्रदेश के खंडवा में एक किसान ने आत्महत्या कर ली। पिछले हफ्ते हमीरपुर के कुनैठा गांव के किसान इंद्रपाल ने बढ़ते कर्ज और फसल की बर्बादी से परेशान होकर खेत में फांसी लगा ली। हमीरपुर के ही सुमेरपुर परहेटा के 68 वर्षीय किसान राजाभैया तिवारी को खेत में दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। उन्नाव के पूराचांद निवासी विरेंद्र सिंह की दिल का दौरा पड़ने से खेत में ही मौत हो गई। 
लगातार 12वें साल महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में अव्वल है। यहां का सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र किसानों की कब्रगाह है। अकेले महाराष्ट्र में 1995 से अब तक 60,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बीती फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती में शरद पवार के किसी ड्रीम प्रोजेक्ट कृषि विज्ञान केंद्र का उद्घाटन किया और दोनों नेताओं ने एक दूसरे को किसानों का हितैषी बताया। यह गौर करने की बात है कि 1995 से अब तक बीस साल में शरद पवार दस साल कृषि मंत्री रहे और सबसे ज्यादा किसान महाराष्ट्र में मरे। 
जब शरद पवार के कथित ड्रीम प्रोजेक्ट का उद्घाटन हो रहा था, तब किसानों की इन मौतों का तो कोई जिक्र नहीं हुआ पर कृषि को वैश्विक बाजार में तब्दील करने की घोषणा जरूर हुई। जबकि एक जनवरी से 45 दिन के भीतर महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में 93 किसानों ने आत्महत्या की थी। नई सरकार आने के बाद से अब तक एक बार भी किसानों को कोई सांत्वना नहीं दी है कि वे कर्ज और गरीबी के चलते आत्महत्या न करें, सरकार उनकी समस्याओं को सुलझाने के कुछ उपाय करेगी।
चुनाव प्रचार के दौरान मोदी हर सभा में कहा करते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों और किसानों का है। लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनते ही अडाणी को छह हजार करोड़ का सरकारी कर्ज दिलवाना उनकी शुरुआती बड़ी घोषणाओं में से एक थी। तब से वे दुनिया भर में घूम-घूम कर पूंजीपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनकी सरकार पूंजीपतियों को पूरी सुरक्षा देगी। 
अमेरिका से परमाणु समझौते के तहत आनन फानन में भारत सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को दुर्घटना संबंधी जवाबदेही से मुक्त कर दिया और देश के खजाने से 1500 करोड़ का मुआवजा पूल गठित कर दिया। यदि पूंजीपतियों के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा सकता है तो क्या कर्ज से मरते किसानों की जान बचाने के लिए कुछ सौ करोड़ रुपए की योजनाएं नहीं शुरू की जा सकतीं?
किसानों और गरीबों के लिए क्या मूक मनमोहन, क्या वाचाल मोदी! कोई अंतर नहीं आया। जैसे मनमोहन की चुप्पी किसानों को लील रही थी, ठीक वैसे ही मोदी के भाषणों का शोर किसानों को लील रहा है।
जब संसद में सरकार किसान के आत्महत्या की जानकारी दे रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्रा पर जा चुके थे। उन्होंने जाफना में श्रीलंकाई तमिलों को भारत की मदद से बने 27 हजार मकान सौंपे और इस परियोजना के दूसरे चरण में भारत के सहयोग से और 45 हजार मकान बनाए जाने की घोषणा की। 
मॉरीशस को इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए 50 करोड़ डॉलर का रियायती कर्ज देने की पेशकश की। इसी तरह अनुदान और कर्ज के रूप में सेशेल्स को भी 7.50 करोड़ डालर की राशि दी गई। काश प्रधानमंत्री अपने देश में मर रहे किसानों पर कुछ करते नहीं तो कोई घोषणा ही करते।
मोदी एक ऐसे देश के प्रधानमंत्री हैं जहां पांच करोड़ लोग बेघर हैं। इन बेघर लोगों के लिए मोदी सरकार ने कोई पहल की हो, ऐसा अभी सुनने में नहीं आया है। सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के लिए जरूर पूरा जोर लगा चुकी है जिसके तहत किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीनें लेकर कॉरपोरेट को सस्ते दाम में देने की योजना है।
यह वही देश है जो स्मार्ट सिटी बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने की बात करता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता कि पहले से चल रही खटारा ट्रेनों में पानी नहीं होते। इस पर बात नहीं होती कि ज्यादातर जनसंख्या को पीने के लिए शुद्ध पानी तक नहीं है। यहां इस पर कोई बात नहीं होती कि हर साल करीब साढ़े तेरह लाख बच्चे पांच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं। इसका कारण डायरिया और निमोनिया जैसी साधारण बीमारियां हैं। हम इन शर्मनाक आंकड़ों पर कभी शर्मिंदा नहीं होते।
हम आप जब तक मनुष्य रहेंगे, तब तक कार या बुलेट ट्रेन का डिब्बा नहीं खाएंगे, न यूरेनियम खाएंगे। न मेक इन इंडिया के तहत बने कल पुर्जे खाएंगे। हम आप रोटी ही खाएंगे जो किसान उगाते हैं। यह सामान्य बात नहीं है कि उदारीकरण लागू होने के बाद से देश के सरकारी रिकॉर्ड में करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की। इन आंकड़ों के साथ भी राज्य सरकारें बाजीगरी करती हैं, यह बात पी साईनाथ साबित करते रहे हैं। किसान कर्ज से मरता है तो सरकारें उसे बीमारी से हुई मौत साबित करने का प्रयास करतीं हैं। 
आप याद कर सकते हैं कि विजय माल्या जैसे उद्योगपति खुद को दिवालिया घोषित करते हैं तो भारत सरकार अरबों देकर उन्हें उबार लेती है। पर संसद में बदजबानी करने वालों में से कोई एक नेता नहीं है जो पूरे दम से कह सके कि मेरे देश के किसानों, अब फांसी लगाना और फिनायल पीना बंद करो। तुम्हारी फसलें बर्बाद हो जाएंगी तब भी तुम्हारे बच्चों को मरने नहीं देंगे।
चुनाव से पहले भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा। लेकिन सरकार बनाने के बाद मोदी एंड टीम का पूरा जोर कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग पर है। उनकी प्राथमिकता में कृषि और किसान कहीं नहीं हैं। सरकार मेक इन इंडिया के लिए तो मशक्कत कर रही है लेकिन कृषि के लिए उसके पास कोई योजना या सोच नहीं है। देश की करीब 60 प्रतशित जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र है। लेकिन इस क्षेत्र को लेकर सरकार ने अब तक किसी बड़े नीतिगत बदलाव या घोषणा से परहेज ही किया है। जबकि कृषि पर गंभीर संकट मंडरा रहे हैं। चालू वित्त वर्ष (2014-15) में कृषि विकास दर सिर्फ़ 1.1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है।
कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में मोदी सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी। बजट में किसानों के लिए कुछ खास नहीं रहा। सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है, उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है। हालिया बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐलान किया कि कॉरपोरेट टैक्स को अगले चार सालों में 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी किया जाएगा।
मोदी सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का साफ संदेश है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं। यह कृषिप्रधान देश फिलहाल किसानों की कब्रगाह बना रहेगा।

मनमोहन की चुप्पी, मोदी का शोर

जैसे मनमोहन की चुप्पी किसानों को लील रही थी, ठीक वैसे ही मोदी के भाषणों का शोर किसानों को लील रहा है. एक जनवरी से अब तक 200 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. एक जनवरी से 45 दिन के भीतर महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में 93 किसानों ने आत्महत्या की. 
उरई में फसल बर्बाद होने के सदमे में नरेंद्र कुशवाहा 35 ने कल सोमवार को आत्महत्या कर ली. रविवार को मध्य प्रदेश के खंडवा में एक किसान ने आत्महत्या कर ली. पिछले हफ्ते हमीरपुर के कुनैठा गांव के किसान इंद्रपाल ने बढ़ते कर्ज और फसल की बर्बादी से परेशान होकर खेत में फांसी लगा ली. हमीरपुर के ही सुमेरपुर परहेटा के 68 वर्षीय किसान राजाभैया तिवारी को खेत में दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई. उन्नाव के पूराचांद निवासी विरेंद्र सिंह को दिल का दौर पड़ने से खेत में ही मौत हो गई. 
आप याद कर सकते हैं कि विजय माल्या जैसे उद्योगपति खुद को दिवालिया घोषित करते हैं तो भारत सरकार अरबों देकर उन्हें उबार लेती है. मोदी जब तीन देशों की यात्रा में अपना पिटारा खोले धन लुटा रहे हैं, अमेरिकी कंपनियों के लिए 1500 करोड़ का बीमा पूल बना रहे हैं, अडानियों को क़र्ज़ दे रहे हैं, तब देश में किसान कर्ज और फसल बर्बाद होने के कारण खुदकुशी कर रहे हैं. जब हमारे प्रधानमंत्री दुनिया भर के धनपशुओं से कहते फिर रहे हैं कि हमारे यहां आओ, सस्ती जमीन, बिजली, पानी सब देंगे और धंधा डूबने नहीं देंगे, तब हमारे लिए खून पसीना बहाकर रोटी उगाने वाला किसान आत्महत्या कर रहा है.
हम आप जब तक मनुष्य रहेंगे, तब तक कार या बुलेट ट्रेन का डिब्बा नहीं खाएंगे. न यूरेनियम खाएंगे. न मेक इन इंडिया के तहत बने कल पुर्जे खाएंगे. हम आप रोटी ही खाएंगे जो किसान उगाते हैं. एक जनवरी से अबतक 200 किसानों ने कर्ज और फसल बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर ली है. 
फसलें बर्बाद होती हैं तो किसानों को सदमा लगता है. उनकी आंखों में गरीबी का अंधेरा छा जाता होगा. उनके जेहन में भूखे बच्चों की चीखें सुनाई देती होंगी. कर्जदाता का डंडा उनका दिल दहलाता होगा. वे भय से फांसी लगा लेते हैं. फिनायल पी लेते हैं. वे रोज की मौत से डरकर ही मौत को गले लगा लेते हैं.
किसी देश में इससे बुरा कुछ नहीं होता कि कोई गरीबी, कर्ज या भूख से मर जाए. यह सामान्य बात नहीं है कि उदारीकरण लागू होने के बाद से देश के सरकारी रिकॉर्ड में करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की. इन आंकड़ों के साथ भी राज्य सरकारें बाजीगरी करती हैं, यह बात पी साईनाथ साबित करते रहे हैं. किसान कर्ज से मरता है तो सरकारें उसे बीमारी से हुई मौत साबित करने का प्रयास करतीं हैं. संसद में बदजबानी करने वालों में से कोई एक नेता नहीं है जो पूरे दम से कह सके कि मेरे देश के किसानों, अब फांसी लगाना और फिनायल पीना बंद करो. तुम्हारी फसलें बर्बाद हो जाएंगी तब भी तुम्हारे बच्चों को मरने नहीं देंगे. 
जब आपका प्रधानमंत्री दुनिया भर के उद्योगपतियों को औद्योगिक सुरक्षा का भरोसा दिला रहा है, तब फांसी लगा रहे किसानों को सांत्वना देने वाला कोई नहीं है. हमारे सांसद कुछ अश्लील टिप्पणियों और बहसों में व्यस्त हैं. किसानों और गरीबों के लिए क्या मूक मनमोहन, क्या वाचाल मोदी! कोई अंतर नहीं आया.
मैं शर्मिंदा हूं कि इन मौतों पर बात कर सकने लायक नेतृत्व हमारे पास नहीं है.
प्रधानमंत्री ने कॉरपोरेट को सुरक्षा देने के लिए अपनी पूरी 'स्किल' लगा दी है. पूंजीपतियों ने इसे अपने 'स्केल' पर खूब सराहा है. किसानों के मरने की 'स्पीड' वैसे ही बनी हुई है. महाराष्ट्र में 1 जनवरी, 2015 से 27 फरवरी, 2015 के बीच औरंगाबाद क्षेत्र के 135 किसानों ने आत्महत्या की. इस बीच दस साल कृषि मंत्री रहे शरद पवार ने एक कृषि विज्ञान केंद्र की स्थापना की जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री ने किया. दोनों ने एक दूसरे की तारीफ की, एक दूसरे को किसान हित चिंतक बताया और इन मौतों का कोई जिक्र तक नहीं किया. सरकारी रिकॉर्ड में शरद पवार के कृषि मंत्री रहते करीब दो लाख किसानों ने कर्ज और गरीबी से आत्महत्या की. इस बात का भी कोई जिक्र नहीं हुआ. 
इन परिस्थितियों के बीच गाय बचाने का सरकारी अभियान जोरों पर है. किसान मरता है तो मरने दो. गाय बचा लो. गाय में धरम है इसलिए लोगों को मूरख बनाया जा सकता है. अफीम खाए लोगों का झुंड गाय बचाने दौड़ पड़ा है. इस झुंड को कोई बताओ कि क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जो तीन लाख किसानों की आत्महत्याएं दर्ज की हैं, उनपर आपकी सरकार बात तक करने को तैयार नहीं है. आप भी मौन रहिए. किसानों के मरने में उन्माद नहीं है. उसमें मूर्खता की हद तक ईसाई या मुस्लिम विरोध नहीं है. किसानों की खुदकुशी के नाम पर कोई दंगा भी नहीं हो सकता. अलबत्ता मुर्गी की गर्दन को गाय की गर्दन बताकर दंगा एकदम संभव है. आपका धरम इंसानों को मरने देता है, गाय बचाने दौड़ लेता है. इस भीड़ में आप भी शामिल हो सकते हैं.

मंगलवार, 17 मार्च 2015

कृषिप्रधान देश या किसानों की कब्रगाह?

सरकार ने 13 मार्च को संसद में जानकारी दी कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद डिवीजन में 2015 के शुरुआती 58 दिनों के भीतर 135 किसानों ने आत्महत्या कर ली. कृषि राज्यमंत्री मोहनभाई कुंडारिया ने बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2012 और 2013 में क्रमश: 13,754 और 11,772 किसानों ने आत्महत्या की. भारत में ज्यादातर किसान कर्ज़, फसल की लागत बढ़ने, सिंचाई की सुविधा न होने, कीमतों में कमी और फसल के बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं. 1995 से लेकर अब तक 2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. 
महाराष्ट्र लगातार 12वें साल महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में अव्वल है. यहां का सूखाग्रस्त विदर्भ क्षेत्र किसानों की कब्रगाह है. अकेले महाराष्ट्र में 1995 से अब तक 60,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बीती फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती में शरद पवार के किसी ड्रीम प्रोजेक्ट कृषि विज्ञान केंद्र का उद्घाटन किया और दोनों नेताओं ने एक दूसरे को किसानों का हितैषी बताया. यह गौर करने की बात है कि 1995 से अब तक बीस साल में शरद पवार दस साल कृषि मंत्री रहे और सबसे
ज्यादा किसान महाराष्ट्र में मरे. जब शरद पवार के  कथित ड्रीम प्रोजेक्ट का उद्घाटन हो रहा था, तब किसानों की इन मौतों का तो कोई जिक्र नहीं हुआ, कृषि को वैश्विक बाजार में तब्दील करने की घोषणा जरूर हुई. नई सरकार आने के बाद से अब तक इस सरकार ने एक बार भी किसानों को कोई सांत्वना तक नहीं दी है कि वे कर्ज और गरीबी के चलते आत्महत्या न करें, सरकार उनकी समस्याओं को सुलझाने के कुछ उपाय करेगी. 
चुनाव प्रचार के मोदी हर सभा में कहा करते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों और किसानों का है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनते ही अडाणी को छह हजार करोड़ का सरकारी कर्ज दिलवाना उनकी शुरुआती बड़ी घोषणाओं में से एक थी. तब से वे दुनिया भर में घूम घूम कर पूंजीपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनकी सरकार पूंजीपतियों को पूरी सुरक्षा देगी. अमेरिका से परमाणु समझौते के तहत आनन फानन में भारत सरकार ने अमेरिकी कंपनियों को दुर्घटना संबंधी जवाबदेही से मुक्त कर दिया और देश के खजाने से 1500 करोड़ का मुआवजा पूल गठित कर दिया. यदि पूंजीपतियों के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा सकता है तो क्या कर्ज से मरते किसानों की जान बचाने के लिए कुछ सौ करोड़ रुपए की योजनाएं नहीं शुरू की जा सकतीं? 
जब संसद में सरकार किसान आत्महत्याओं की जानकारी दे रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्रा पर जा चुके थे. उन्होंने जाफना में श्रीलंकाई तमिलों को भारत की मदद से बने 27 हजार मकान सौंपे और इस परियोजना के दूसरे चरण में भारत के सहयोग से और 45 हजार मकान बनाए जाने की घोषणा की. मॉरीशस को  इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए 50 करोड़ डॉलर का रियायती कर्ज देने की पेशकश की. इसी तरह अनुदान और कर्ज के रूप में सेशेल्स को भी 7.50 करोड़ डालर की राशि दी गई. काश प्रधानमंत्री अपने देश में मर रहे किसानों के लिए भी कुछ करते! यदि कुछ न करते तो दिलासा देने वाली कोई घोषणा ही कर देते!
मोदी एक ऐसे देश के प्रधानमंत्री हैं जहां पांच करोड़ लोग बेघर हैं. इन बेघर लोगों के लिए मोदी सरकार ने कोई पहल की हो, ऐसा अभी सुनने में नहीं आया है. सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के लिए जरूर पूरा जोर लगा चुकी है जिसके तहत किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीनें लेकर कारपोरेट को सस्ते दाम में देने की योजना है.  
यह वही देश है जो स्मार्ट सिटी बनाने और बुलेट ट्रेन चलाने की बात करता है, लेकिन इस पर कोई बात नहीं करता कि उसकी कितनी आबादी बेघर है, भूखी है। पहले से चल रही खटारा ट्रेनों में पानी नहीं होते. ज्यादातर जनसंख्या को पीने के लिए शुद्ध पानी तक नहीं है. यहां इस पर कोई बात नहीं होती कि हर साल करीब साढ़े तेरह लाख बच्चे पांच साल की उम्र पूरी करने से पहले मर जाते हैं. इसका कारण डायरिया और निमोनिया जैसी साधारण बीमारियां हैं. हम इन शर्मनाक आंकड़ों पर कभी शर्मिंदा नहीं होते.
जब प्रधानमंत्री उद्योगपतियों को विश्वास में लेने के लिए ताबड़तोड़ कॉरपोरेट हितैषी घोषणाएं कर रहे हैं और दुनिया भर में घूम घूम कर आर्थिक मदद बांट रहे हैं, उसी समय में स्वाइन फ्लू से अबतक 1600 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और करीब 50 हजार पर यह खतरा बना हुआ है. यदि स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी से इतनी मौतें अमेरिका या यूरोपीय देशों में ​होतीं तो क्या वहां ऐसी ही चैन की बंसी बज रही होती? 
चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने किसानों को लेकर बहुत बड़ी बड़ी बातें की थीं लेकिन अब किसान उनकी चिंताओं में नहीं हैं. भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा. लेकिन सरकार बनाने के बाद मोदी एंड टीम का पूरा जोर कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग पर है. उनकी प्राथमिकता में कृषि और किसान कहीं नहीं हैं. सरकार मेक इन इंडिया के लिए तो मशक्कत कर रही है लेकिन कृषि के लिए उसके पास कोई योजना या सोच नहीं है. देश की करीब 60 प्रतशित जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र है. लेकिन इस क्षेत्र को लेकर सरकार ने अब तक किसी बड़े नीतिगत बदलाव या घोषणा से परहेज ही किया है. जबकि कृषि पर गंभीर संकट मंडरा रहे हैं. चालू वित्त वर्ष (2014-15) में कृषि विकास दर सिर्फ़ 1.1 फ़ीसदी रहने का अनुमान है.
कृषि की दयनीय हालत के बावजूद अपने पहले बजट में मोदी सरकार ने कृषि आय की बात तो की, लेकिन कृषि बजट में कटौती कर दी.बजट में किसानों के लिए कुछ खास नहीं रहा. सरकार द्वारा जिस कृषि लोन की बात की जाती है, उसका फायदा किसानों से ज्यादा कृषि उद्योग से जुड़े लोगों को होता है. हालिया बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐलान किया कि कॉरपोरेट टैक्स को अगले चार सालों 30 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी किया जाएगा.
मोदी सरकार की अब तक की नीतियों और केंद्रीय बजट का संदेश साफ है कि किसानों को वह सांत्वना मात्र देने को तैयार नहीं हैं. यह कृषिप्रधान देश फिलहाल किसानों का कब्रगाह बना रहेगा.

गुरुवार, 12 मार्च 2015

जनांदोलन के विचार की दुर्गति

अरविंद केजरीवाल का उभार भाजपा और कांग्रेस मार्का घोड़ा खरीद राजनीति का नकार था. केजरीवाल उस काजल की कोठरी को पानी पी—पी कर कोसते हुए उसमें दाखिल हुए और कोठरी साफ करने की जगह सर से पांव तक खुद को कालिख से पोत लिया. केजरीवाल के उभार के साथ
हम सबने जनता की तड़पती हुई आकांक्षाओं को देखा है कि वह कितनी बेताबी से बदलाव के लिए छटपटाती है. नरेंद्र मोदी और भाजपा को मिला ऐतिहासिक बहुमत भी इसी जन छटपटाहट का नतीजा रहा. लेकिन इन दोनों ने ही जनता की आकांक्षाओं को बेरहमी से रौंदा. आम आदमी पार्टी के बारे में यह तो पहले से ही साफ था कि एक पार्टी बिना किसी घोषित विचारधारा के अगर चुनाव लड़ रही है तो वह सिर्फ सत्ता में जगह बनाने की कोशिश कर रही है. वह कोई दूरगामी परिवर्तन ला सकने की कूवत नहीं रखती. सत्ता मिलने के पंद्रह दिन बाद से सामने आई सिर फुटौवल इसका प्रमाण है. सिर्फ आलाकमान बनने की खब्त में केजरीवाल अपने तालीबाज अव​सरवादियों को अपनी विश्वसनीयता और अपने सियासी भविष्य से जैसा खिलवाड़ कर रहे हैं वह ऐतिहासिक मूर्खता असधारण है. केजरीवाल ऐसे लोगों से घिर गए हैं जिन्होंने अवसर देख राजनीति लपक ली है. राजनीतिक समझ से पैदल पदलोलुपों के भरोसे पार्टियां नहीं चलतीं. लेकिन केजरीवाल खुद को भी इस पदलोलुपता से नहीं बचा पा रहे हैं, नतीजतन वे अपने आदर्शों की तिलांजलि देकर दूसरी कांग्रेस या भाजपा बनाने में लगे हैं.
हिंदुस्तान की राजनीति में कई दशकों से खराबतर में से कम खराब चुनने का विकल्प मिलता रहा है. इस लिहाज से केजरीवाल जनता को कम खराब विकल्प के तौर पर मिले और उसने तवज्जो दी. अब वे यह साबित कर रहे हैं कि भारतीय युवा, जो अन्ना आंदोलन के बाद से राजनीति से कम घृणा करने लगे थे, राजनीति में शामिल हो रहे थे, वे गलत थे. केजरीवाल ने जनांदोलनों पर से जनता का भरोसा और हटा दिया है. उन्होंने अगले किसी आंदोलन पर भरोसा न करने की जमीन तैयार की है. 
दिल्ली में चुनाव जीतने के बाद से ही केजरीवाल ने लगातार यह साबित किया है कि जनता ने उनपर भरोसा करके गलती की. वे इस ऐतिहासिक बहुमत के सर्वथा अयोग्य थे और वे भाजपा या कांग्रेस मार्का राजनीति से अलग कुछ नहीं करने जा रहे हैं. अरविंद केजरीवाल के साथ जनता यकीनन इसलिए खड़ी हुई कि वे साफ सुथरी राजनीति और एक राजनीतिक आदर्श के चेहरे के रूप में दिखे थे. लेकिन वह एक भ्रम मात्र था. हो सकता है कि वे राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ते जाएं, लेकिन पारंपरिक भ्रष्ट राजनीति के काले बादल अभी छंटने नहीं जा रहे हैं. मोदी की अपेक्षा केजरीवाल का महत्व ज्यादा था, क्योंकि वे छोटे स्तर पर ही सही, पर जनता से ज्यादा जुड़े थे. हाल के कुछ प्रकरणों ने हमारी सामूहिक आशाओं पर न सिर्फ कुठाराघात किया, बल्कि यह साबित किया कि सत्ता की गली में जाने वाले की बातों और हरकतों में कितना फर्क होता है.
केजरीवाल जब हल्ला मचा रहे थे कि भाजपा और कांग्रेस अनैतिक—अलोकतांत्रिक राजनीति करती हैं, तब वे कांग्रेस को तोड़कर सत्ता हथियाने का षडयंत्र रच रहे थे. यदि सामने आए स्टिंग की प्रामाणिकता पर संदेह करना चाहें तो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की चिट्ठी इस बात की तस्दीक करती है कि केजरीवाल सत्ता हथियाने के लिए किस कदर बेताब थे, कितने यत्न किए, जिसकी वजह से इन दोनों नेताओं से उनके मतभेद शुरू हुए. 
केजरीवाल लगातार साबित कर रहे हैं कि वे 'इंदिरा इज इंडिया' सिंड्रोम से पीड़ित हो चुके हैं. प्रशांत भूषण का भारतीय राजनीति में अराजनीतिक तरीके से क्या योगदान है, यह बताने की जरूरत नहीं है. बावजूद इसके, जायज सवालों की वजह से उन्हें बेइज्जत किया जा रहा है. इसी तरह केजरीवाल योगेंद्र यादव के साथ पेश आ रहे हैं. जबकि, इन दोनों नेताओं की चिट्ठी केजरीवाल का कच्चा चिट्ठा है. हो सकता है कि केजरीवाल के विधायक उनका साथ दें और योगेंद्र प्रशांत को पार्टी से बाहर कर दें, लेकिन ऐसाी करके भी वे हार जाएंगे. चिट्ठी में आंतरिक लोकतंत्र, स्वराज, राजनीतिक शुचिता संबंधी तमाम सवाल हैं जिनका अब तक पार्टी कोई जवाब नहीं दे सकी है और पार्टी का बर्ताव इसके विपरीत रहा है. इन दोनों नेताओं के तमाम आदर्शवादी और तर्कसंगत सवालों के जवाब की जगह उनपर हंटर चलाने की कोशिश की जा रही है, जैसे कांग्रेस या भाजपा में होती रही है.
केजरीवाल अब मूर्ख चापलूसों की उस फौज के सहारे नई राजनीति करने के इच्छुक हैं जो सार्वजनिक तौर पर आपराधिक सोच के साथ खड़ी है. कुमार विश्वास कहते हैं कि 'अलगाववादियों को गिरफ्तार न करके गोली मार देनी चाहिए'. यह बातें उस देश में कही जा रही हैं, जिसने अंग्रेज सरकार से सौ वर्षों तक आजादी की लड़ाई लड़ी है. जिस धरती पर धरना, अनशन, असहयोग जैसे राजनीतिक के हथियार विकसित हुए, वहां पर इक्कीसवीं सदी में अलगाववादियों को गोली मार देने की आकांक्षा पालने वाला लंपट दिमाग केजरीवाल का विश्वस्त सहयोगी है. उनके प्रवक्ता आशुतोष, जो कि पत्रकारिता के शिखर पर विराजमान थे, योगेंद्र और प्रशांत आदि को 'अति वाम' खेमा कहते हैं. वरिष्ठ पत्रकार की ऐसी समझ पर आप या तो सर पीट सकते हैं या फिर जब वे बोल रहे हों तो शहर में सबसे अच्छी आइसक्रीम की दुकान के बारे में बात कर सकते हैं. 
हो सकता है कि योंगेंद्र यादव और भूषण परिवार पर लग रहे आरोप सही हों, लेकिन यह साफ है कि केजरीवाल अपने झूठ, अपने आदर्शों के मायाजाल और असली लोकतंत्र लाने के शगूफे पर उठ रहे सवालों का कोई जवाब न देकर लंपटों की एक फौज के सहारे भाजपा और कांग्रेस नुमा आलाकमान बनने के लिए सारी ताकत लगाए दे रहे हैं. वे जीतें या हारें, इससे फर्क नहीं पड़ता. कांग्रेस सवा सौ साल पुरानी पार्टी है लेकिन फिलहाल जनता उसे एक राजनीतिक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं मान रही है. अब यह केजरीवाल को तय करना है कि वे क्या बनना चाहते हैं, एक मजबूत राजनीतिक विकल्प या मूर्खों के अप्रश्नेय सरदार!

सोमवार, 2 मार्च 2015

केजरी बाबू! लोकतंत्र कहां गया?

अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति के स्यवंभू
लोकतांत्रिक और सबसे ईमानदार हैं, इसलिए एक से ज्यादा पद पर काबिज रह सकते हैं. बहाना वही है जो सोनिया गांधी, माया या मुलायम के पास है कि पार्टी नहीं चाहती कि वे हटें. वे देश का सिस्टम पारदर्शी चाहते हैं. पूरा सिस्टम श्रीधरन की मेट्रो की तरह चाहते हैं कि कोई भी रहे पर बेईमानी न कर पाए, लेकिन अपनी पार्टी में ऐसी व्यवस्था नहीं बनाते कि विकेंद्रीकरण हो. उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद संयोजक पद से इस्तीफा दिया, पार्टी के लोगों ने मना कर दिया और वे मान गए! फिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के चापलूस यही करके क्या बुरा करते हैं? केजरीवाल के व्यवहार से तो लगता है कि खुदा न खास्ता, आम आदमी पार्टी की एक से ज्यादा राज्यों में सरकार बनने की नौबत आई तो स​बके मुख्यमंत्री केजरीवाल ही बनेंगे.
केजरीवाल ने चुनाव जीतने से पहले राजनीतिक ईमानदारी को लेकर बड़ा हल्ला मचाया लेकिन उम्मीदवारों को टिकट बांटने में वही किया जो कांग्रेस भाजपा करती हैं. टिकट बंटवारे को लेकर प्रशांत भूषण, शांति भूषण और पार्टी के लोकपाल की आपत्तियों को दरकिनार किया. जब लोकपाल की सुननी नहीं है तो वह दिखाने का दांत है किस काम का? केंद्र में मजबूत लोकपाल चाहिए जो एक ही शिकायत पर प्रधानमंत्री तक को जेल भिजवा दे. लेकिन अपना लोकपाल जो कहे, कहता रहे, चलता है.
उनके आंतरिक लोकपाल एडमिरल रामदास अगर पार्टी में लोकतंत्र को लेकर कई सवाल उठाते हैं तो केजरीवाल को क्यों नहीं सुनना चाहिए? अगर वे पार्टी के लोकपाल की हैसियत से कहते हैं कि यह पार्टी भी बाकी पार्टियों जैसी है, तो उनके सवालों पर गौर करने की जगह उनपर ही तलवार क्यों खींच लेना चाहिए? अगर वे पार्टी फंडिंग को लेकर सवाल पूछते हैं तो पार्टी को क्यों जवाब नहीं देना चाहिए?
प्रशांत भूषण वह आदमी है, जिसने एक साथ न्यायपालिका और केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था. हर बड़े घोटाले को अंजाम तक पहुंचाने वाले लोगों में प्रशांत सबसे आगे खड़े रहे. अब जब वे आम आदमी पार्टी से सवाल करते हैं तो केजरीवाल को बुरा क्यों लगता है? प्रशांत ने कहा, 'पार्टी ने अपने सभी अकाउंट को वेबसाइट पर जारी करने की बात की थी, लेकिन आरटीआई के अंतर्गत आने के बहुत बाद में भी हम ऐसे नहीं कर सके हैं. हमने चंदे के बारे में तो बता दिया लेकिन खर्च कितना किया, यह अभी भी पर्दे में है.' केजरीवाल के पास प्रशांत भूषण के इस सवाल का क्या जवाब है?
प्रशांत भूषण ने अपने पत्र में लिखा है कि 'हम राष्ट्रीय दल बनें, इससे पहले देश के अहम मुद्दों पर हमारी सोच का स्पष्ट होना भी जरूरी है.' केजरीवाल को यह उम्मीद अराजकता क्यों लगती है? दुनिया की कौन सी पार्टी या संगठन है जिसने बिना किसी विचारधारा या स्पष्ट सोच के तीर मार लिया हो? प्रशांत भूषण अगर पीएसी में किसी महिला सदस्य को शामिल करने की वकालत करते हैं तो वे अनुशासनहीन कैसे हो गए? पार्टी में छह महिला विधायक हैं. किसी को मंत्रिमंडल या पार्टी में अहम पद क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? उनका सवाल है कि 'एक व्यक्ति केंद्रित प्रचार से हमारी पार्टी अन्य दूसरी पारंपरिक पार्टियों की तरह बनती जा रही है जो एक व्यक्ति पर केंद्रित है...एक व्यक्ति केंद्रित अभियान असरदार हो सकता है, लेकिन तब क्या अपने सिद्धांतों को उचित ठहराया जा सकता है? अगर वे चाहते हैं कि पार्टी में कोई एक सुप्रीमो न हो, तो केजरीवाल को इतना बुरा क्यों लगता है कि प्रशांत भूषण उन्हें खलनायक लगते हैं?
अगर योगेंद्र यादव चाहते हैं कि पार्टी अपने आदर्शों को मजबूत कर देश भर में एक राजनीतिक विकल्प बने तो केजरीवाल को नागवार क्यों गुजरता है? केजरीवाल क्यों चाहते हैं कि वे दूसरे राज्यों में भी अपना ही चेहरा आगे रखें? उन्होंने दिल्ली में रहने की कसम खाई है तो रहें लेकिन बाकी नेताओं को
पार्टी के विस्तार की इजाजत क्यों नहीं देना चाहते?
भाजपा कांग्रेस भ्रष्ट हैं परंतु उनकी एक सही—गलत विचारधारा तो है! केजरीवाल सिर्फ ​भ्रष्टाचार का शगूफा लेकर कहां तक जाना चाहते हैं? कहीं यह भ्रष्टाचार विरोधी नारा मुलायम का सेक्युलरिज्म तो नहीं बन जाएगा, जिसका जिक्र आते ही लोग या तो हंसेंगे या चिढ़कर गालियां बकेंगे? दिल्ली एक केंद्र  द्वारा शासित एक पिद्दी सा राज्य है. केजरीवाल को अगर लगता है कि जिस ढंग से दिल्ली की सत्ता मिल गई, वैसे ही राष्ट्रीय राजनीति पलकें बिछाए उनका स्वागत करेगी, तो वे भारी भ्रम में हैं. उनकी अबतक की राजनीतिक उपलब्धि यही है कि उन्होंने भाजपा कांग्रेस को गरियाया है और सत्ता पर काबिज हुए हैं. इसके लिए उन्होंने भी तमाम हथकंडे अपनाए हैं. अग्रवाल समाज, सिख, हिंदू, मुसलमान सबको साधने के दबे छुपे उपक्रम किए. इसी क्रम में वे नास्तिक से आस्तिक तो हो ही गए, उनके ईश्वर चुनाव प्रचार से लेकर शपथ ग्रहण तक में दिखे. अब जब पार्टी और सत्ता को लोकतंत्रिक साबित करने का वक्त है, तब वे वही कर रहे हैं जो नरेंद्र मोदी, अमित शाह, सोनिया—राहुल या माया—मुलायम करते.
केजरीवाल को इतना समझदार नहीं बनना चाहिए कि उनका घामड़पन उनकी हर हरकत में टपकने लगे. जनता को मूर्ख बनाने के चक्कर में अपना शातिरानापन तो छुपाना ही पड़ेगा. लोकतंत्र के लिए ​चीखना और इसे व्यवहार में उतारना, ये दोनों दो बातें हैं. उनकी पार्टी के दो सबसे मजबूत नेता अब उनके लिए खलनायक इसलिए हैं क्योंकि वे उनपर ही सवाल उठा रहे हैं.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...