बेंगलुरु में किसानों के प्रदर्शन की तस्वीर. |
विपक्ष के बहिष्कार के बीच जो तीन लेबर बिल राज्यसभा से पास हुए हैं, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वे कानून बन जाएगे. कृषि विधेयकों के साथ इन लेबर विधेयकों का भी विरोध शुरू हो गया है. खुद आरएसएस का संगठन भारतीय मजदूर संघ भी श्रम कानूनों में बदलाव का विरोध कर रहा है.
कामगारों की छंटनी आसान होगी
श्रम कानूनों में जो बदलाव किए गए हैं, उनके लागू होने के बाद किसी भी कंपनी को कभी भी बंद किया जा सकता है. 300 कर्मचारियों वाली कंपनी अब बिना सरकार की इजाजत के कर्मचारियों को निकाल सकती है. साथ ही मजदूर यूनियन को अब कंपनी में अपनी मांग को लेकर अगर हड़ताल करनी है तो 60 दिनों पहले इसका नोटिस देना होगा. बिना नोटिस हड़ताल नहीं कर सकेंगे.
एक तरह से सरकार ने मजदूरों से सामाजिक सुरक्षा छीन ली है.
जिस दौर में करोड़ों नौकरियां चली गई हों, सरकार ऐसा कानून बना रही है जिससे कामगारों की छंटनी आसान हो जाएगी.
नये श्रम कानूनों को लेकर करीब 12 मजदूर संगठन विरोध में आ गए हैं, जिसमें आरएसएस से जुड़ा भारतीय मजदूर संघ भी है.
भारतीय मजदूर संघ ने कहा है कि सरकार ने मजदूरों से जुड़े जो कानून बनाए हैं, वे इंडस्ट्रिलिस्ट, कारोबारी और नौकरशाह को ज्यादा फायदा पहुंचाने वाले हैं. इसमें मजदूरों का खयाल नहीं रखा गया. इसमें मजदूर संघों के सुझाव को भी तवज्जो नहीं दी गई है.
किसानों पर कहर बढ़ेगा
किसानों के हित में कानून लाने की बात कहकर पूंजीपतियों के लिए कानून पास कर दिया गया है. नये कृषि विधेयकों में अनाज भंडारण की सीमा हटा ली गई है और जमाखोरी को कानून बना दिया गया है. सरकार इस बात पर नजर रखना बंद कर देगी कि कौन व्यापारी कितना अनाज जमा करके रखे हुए है. जमाखोरी कौन करेगा? रिटेल में उतर रहीं कॉरपोरेट कंपनियां, जिनकी नजर अब खुदरा बाजार पर है.
सरकार कह रही है कि किसान अपनी फसल कहीं भी बेच सकेगा.
भारत में 86% किसान ऐसे हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर या इससे कम खेती है. क्या ये किसी दूसरी जगह या दूसरे राज्य में जाकर अपनी फसल बेच सकते हैं? तो फिर ये कानून किसके लिए है?
सरकार के नये कानून से देश की मंडियां खत्म हो जाएंगी. मंडियां खत्म होने से न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा. जमाखोरी को लीगल कर देने से महंगाई बढ़ेगी.
सरकार एक तरफ कह रही है कि मंडी में अलग कानून होगा और मंडी से बाहर मार्केट का अलग कानून होगा.
उधर सरकार ये भी कह रही है कि हम 'एक देश एक बाजार' बना रहे हैं. जब कानून दो होगा तो 'एक देश एक बाजार' कैसे हुआ?
जब राज्य की कृषि की प्रकृति अलग है, पैदावार अलग है, फसलें अलग हैं तो एक देश एक बाजार का क्या मतलब हुआ?
देश भर के किसान कृषि से जुड़े इन तीन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं. विरोध लंबे समय से चल रहा है और कई राज्यों में है. इसे देखते हुए विपक्षी दल भी किसानों के साथ आ गए हैं.
देश में 80 फीसदी से ज्यादा किसान छोटी जोत वाले हैं. किसान अपनी उपज से साल भर अपने खाने के लिए बचा लेता है, बाकी बेच देता है. अनाज की ये राशि दस, बीस या तीस क्विंटल हो सकती है. यूपी बिहार में जहां मंडियां नहीं हैं, वहां किसान खुले बाजार में ही बेचते हैं. औने पौने दाम पर. न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ छह फीसदी किसानों को मिल पाता है, क्योंकि पंजाब, हरियाणा और कुछ हद तक मध्य प्रदेश को छोड़कर बाकी देश में पर्याप्त मंडियां ही नहीं हैं.
आप कहते हैं कि हम बाजार खोल रहे हैं, देश भर में जहां चाहो, वहां बेचो.
सवाल ये है कि क्या तेलंगाना का कोई किसान अपना दस क्विंटल गेहूं बेचने दिल्ली आएगा? बलिया वाला किसान अपना धान बेचने लखनऊ जाएगा? बुंदेलखंड वाला अपनी सरसों बेचने गुड़गांव जाएगा? ये बकवास है.
सबसे बड़ा मसला ये है कि जब सरकार किसानों को आधा अधूरा संरक्षण देती है, उस हालत में देश में हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं. कृषि क्षेत्र को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिए जाने के बाद असुरक्षा और बढ़ेगी. किसानों की मुसीबतें कम होने की जगह उन पर और ज्यादा कहर टूटेगा.
किसान संगठनों के आरोप
किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून से कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका सीधा नुकसान किसानों को होगा.
इन तीनों विधेयक किसानों को बंधुआ मजदूरी में धकेल देंगे.
ये विधेयक मंडी सिस्टम खत्म करने वाले, न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने वाले और कॉरपोरेट ठेका खेती को बढ़ावा देने वाले हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान होगा.
बाजार समितियां किसी इलाक़े तक सीमित नहीं रहेंगी. दूसरी जगहों के लोग आकर मंडी में अपना माल डाल देंगे और स्थानीय किसान को उनकी निर्धारित रकम नहीं मिल पाएगी. नये विधेयक से मंडी समितियों का निजीकरण होगा.
नया विधेयक ठेके पर खेती की बात कहता है. जो कंपनी या व्यक्ति ठेके पर कृषि उत्पाद लेगा, उसे प्राकृतिक आपदा या कृषि में हुआ नुक़सान से कोई लेना देना नहीं होगा. इसका नुकसान सिर्फ किसान उठाएगा.
अब तक किसानों पर खाद्य सामग्री जमा करके रखने पर कोई पाबंदी नहीं थी. ये पाबंदी सिर्फ़ व्यावसायिक कंपनियों पर ही थी. अब संशोधन के बाद जमाख़ोरी रोकने की कोई व्यवस्था नहीं रह जाएगी, जिससे बड़े पूंजीपतियों को तो फ़ायदा होगा, लेकिन किसानों को इसका नुक़सान झेलना पड़ेगा.
किसानों का मानना है कि ये विधेयक "जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी की आजादी" का विधेयक है. विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है कि किसानों की उपज की खरीद कैसे सुनिश्चित होगी. किसानों की कर्जमाफी का क्या होगा?
जाहिर है कि सरकार ने संसदीय मर्यादा और परंपराओं को दरकिनार करके जबरन जो कानून पास करवाए हैं, वे किसानों और मजदूरों के विरोध में और पूंजीपतियों के हित में हैं.
2 टिप्पणियां:
आपकी बात बिल्कुल ठीक है क्योंकि वह तथ्यपरक है। अब देश के श्रमशील वर्ग को (और साथ ही उपभोक्ताओं को भी) पूंजीपतियों के शोषण से नहीं बचाया जा सकता। इस लेख पर कोई टिप्पणी नहीं आई है, यह इस बात का प्रमाण है कि भारत का सुशिक्षित मध्यम वर्ग किस सीमा तक अपना विवेक त्याग चुका है तथा मानसिक रूप से सत्ताधारियों का दास बन चुका है।
Thanks for the in-depth knowledge and insightful articles
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