शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

गांधी और भगत सिंह के नाम झूठ कौन फैला रहा है?


कुछ सालों से नई पीढ़ी के दिमाग में भरा गया है कि महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी लेकिन उन्होंने नहीं चाहा। सोशल मीडिया पर यह मूर्खता खूब चल रही है। जानबूझ कर गलत तथ्य देकर गांधी को भगत सिंह के खिलाफ खड़ा किया जाता है, जैसे पटेल को नेहरू के खिलाफ खड़ा किया जाता है। 


मजेदार है कि यह बात उस विचारधारा के लोग फैला रहे हैं जो उस समय भगत सिंह और उनके साथियों का मजाक उड़ा रहे थे। अपने मुखपत्र में इनका कहना था कि 'ताकतवर से लड़ना बुजदिली है, इसलिए अंग्रेजों से लड़ने की जगह उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। इसके लिए शम्सुल इस्लाम को पढ़ा जा सकता है जहां मुखपत्र और महान गुरुजी की लेखनी के उद्धरण मौजूद हैं।

अंग्रेजी हुक्मरानों को उस समय सफलता नहीं मिली थी, लेकिन सत्तर सालों बाद उनके षड्यंत्र की विषवेल फलफूल रही है। गांधी और भगत सिंह को एक दूसरे का दुश्मन बताया जा रहा है।

सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी किताब "भारत का स्वाधीनता संघर्ष" में लिखा है-"महात्मा जी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने की पूरी कोशिश की। अंग्रेजों को गुप्तचर एजेंसियों से पता चला कि यदि भगत सिंह को फांसी दे दी जाये और उसके फलस्वरूप हिंसक आंदोलन उभरेगा, अहिंसक गांधी खुलकर हिंसक आंदोलन का पक्ष नहीं ले पाएंगे तो युवाओं में आक्रोश उभरेगा। वे कांग्रेस और गांधी से अलग हो जायेंगे। इसका असर भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को समाप्त कर देगा।"

पर शुक्र है उस समय भारतीय जनता ने अंग्रेजी साम्राज्यवादी चाल को विफल कर दिया। कुछ नवयुवकों ने आक्रोश में आकर काले झण्डों के साथ प्रदर्शन किया लेकिन उसके बाद ही हिंसक आंदोलन का अंत हो गया। महात्मा गांधी ने अफसोस के साथ कहा, मैंने सारे प्रयत्न किए लेकिन हम सफल नहीं हुए। जो विरोध कर रहे हैं उनको गुस्सा निकालने दीजिए। भगत ने देश की आजादी के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है। बलिदान का ऐसा उदाहरण कम मिलता है।

यह सच है कि अपने जीवन में पहली बार किसी व्यक्ति- भगत सिंह की सजा कम करने के लिए कहने वाले गांधी जी की बात यदि अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मान ली गई होती तो इसका सबसे अधिक लाभ गांधी जी का होता, उनकी अहिंसा की विजय होती।

अंग्रेजों की यह साजिश थी कि ऐसी रणनीति बनाई जाये कि अवाम को ऐसा लगे महात्मा के अपील पर फांसी रुक जायेगी, महात्मा ने स्वयं वाइसराय से मिलकर लिखित रूप में अपील की कि भगतसिंह की फांसी रोक दी जाये।

लेकिन अचानक समय से पहले ही भगत सिंह को फांसी दे दी गई। करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन प्रारम्भ होने से पहले ही फांसी देने का एक मात्र मकसद था गांधी के प्रति नवयुवकों में विद्रोह पैदा करना।

भगत सिंह ने स्वयं फांसी के पूर्व अपने वकील से मिलने पर कहा था- मेरा बहुत बहुत आभार पंडित नेहरू और सुभाष बोस को कहियेगा, जिन्होंने हमारी फांसी रुकवाने के लिए इतने प्रयत्न किये।

इतना ही नहीं भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह जी जिन्होंने 23 मार्च को अपना पुत्र खोया था, 26 मार्च को कांग्रेस अधिवेशन में लोगों से अपील कर रहे थे- आप लोगों को अपने जेनरल महात्माजी का और सभी कांग्रेस नेताओं का साथ जरूर देना चाहिए। सिर्फ तभी आप देश की आजादी प्राप्त करेंगे।

इस पिता के उदगार के बाद पूरा पंडाल सिसकियों में डूब गया था। नेहरू, पटेल, मालवीय जी के आंखों से आंसू गिर रहे थे।

वैसे यह झूठ फैलाने वाले दंगापंथियों से एक सवाल है कि जब भगत सिंह को फांसी हो रही थी तब आरएसएस के कई बड़े नेता जैसे हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर, मुंजे आदि क्या कर रहे थे? भगत की फांसी रुकवाने के लिए इन लोगों ने क्या किया? जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि कुछ नहीं। वे शाखा लगा रहे थे और जिन्ना के साथ हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र का खेल रहे थे। जब पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन में लाठियां और गोलियां खा रहा था, तब जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेजों के लिए कैंप लगाकर सैनिकों की भर्ती कर रहे थे, ताकि हिंदुस्तान के युवा अंग्रेजों की फौज में भर्ती होकर अंग्रेजों की तरफ से विश्वयुद्ध में भाग ले सकें.

भगत सिंह को फांसी हुई तो आरएसएस के मुखपत्र में लेख लिखकर क्रांतिकारी नौजवानों को 'बुजदिल' कहकर उनको अपमानित करने का काम इन्होंने जरूर किया था।
कहते थे कि हम शाखाओं में देश पर मर मिटने वाले युवक तैयार करेंगे। लेकिन अंग्रेजों को लिखित में दे रखा था कि आरएसएस क्रांतिकारी आंदोलन से दूर रहेगा।

संघ शाखा लगाता रहा, लाठी भांजता रहा और तबतक भारत की जांबाज जनता ने देश आजाद करा लिया। जिन मुस्लिमों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को गोलवलकर हिंदुओं का दुश्मन बता रहे थे, वे सब मिलकर लड़े और देश आजाद हो गया।

अब जिन्होंने आज़ादी आंदोलन में नाखून तक न कटवाया, उल्टा राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गद्दारी की, वे सबसे बड़े ठेकेदार बनकर सर्टिफिकेट बांटते फिर रहे हैं कि नेहरु ऐसे थे, गांधी ऐसे थे...

इनको इतिहास में जाकर सौ साल पुराना हिसाब इसीलिए करना है क्योंकि ये अपने अतीत से शर्मिंदा हैं। वरना इतिहास का सिर्फ इतना महत्व है कि उससे सबक लिया जाए। नेताओं की गलतियों से बड़ी है लाखों लोगों की कुर्बानी और उसका सम्मान! लेकिन लिंचतंत्र उसे भी अपमानित ही कर रहा है।

सौ साल पहले जो हुआ उसे आज सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन नेहरू नेहरू करने में संघ परिवार को बहुत मजा आता है क्योंकि अपना बताने को कुछ है नहीं। इसलिए झूठ फैलाते रहते हैं।


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