रविवार, 24 अप्रैल 2011

 जनता की सरकार बनाम न्यायालय
                                                                                              
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अनाज की उपलब्धता और उसके वितरण को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि देश में दो भारत नहीं हो सकते जो अमीर और गरीब में विभाजित हों। कोर्ट ने पूछा कि जब अनाजों से गोदाम भर हैंऔर फसलों का उत्पादन भी पर्याप्त है तो फिर भी भुखमरी के मामले क्यों सामने आ रहे हैं? साथ ही योजना आयोग को भी आड़े हाथ लेते हुए कोर्ट ने १९८१ के आंकड़ों के आधार पर गरीबी रखा से नीचे रहने वालों की संख्या ३६ फीसदी मानने पर भी नाराजगी जताई है। कोर्ट ने यह भी कहा कि योजना आयोग से गरीबों की संख्या ३६ फीसदी मानने के पीछे अपने तर्कों का खुलासा करे।
कुछ महीनों पहले जब लाखों टन अनाज के सडऩे की खबर आई थी तो एक याचिका पर सुनेह्लाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट सरकार पर काफी सख्त टिप्पणियां की थीं। इसे लेकर प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट को उसकी सीमाएं बताने में लग गए थे। लेकिन उस स्थिति में अब तक कोई खास बदलोह्ल नहीं देखने को मिला है। अब न्यायालय के दोबारा उसी रुख को सरकार किस रूप में लेती है, यह देखने की बात होगी।
सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि न्यायालय को कार्यपालिका के कामों में दखल नहीं देना चाहिए। इस पर एक पक्ष बड़ी मजबूती से रखा गया था कि यदि आम आदमी भूख से मर रहा है और वह अपने जीवन के अधिकार को लेकर न्यायालय की शरण जाता है तो न्यायालय को क्या करना चाहिए?  क्या न्यायालय व्यक्ति की जीवन रक्षा के लिए प्रतिबद्ध नहीं है? और क्या लोकतंत्र में एक व्यक्ति का यह अधिकार नहीं कि उसके लिए भर पेट भोजन सुलभ हो?
जहां तक बात गरीबी रखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या की है तो यह भी अपने आप में विवादास्पद ही है कि भारत में कितने लोग गरीबी रखा से नीचे रह हैं? एनसी सक्सेना समिति, योजना आयोग और सुरश तेंदुलकर समिति की रिपोर्टों से साफ है कि हमार पास वास्तव इस संबंध में कोई आधिकारिक और सही आंकड़े नहीं हैं, जिन्हें हम इस बार में सही मानें और उस आधार पर नीतियां तैयार करं। विभिन्न समितियों की इन रिपोर्टों के होने की सुविधा यह है कि नीतियां तैयार करने में सुविधाजनक आंकड़ा उपयोग में लाया जा सकता है। अभी तक यह  स्पष्ट नहीं है कि सरकार उस ७६ प्रतिशत जनता को गरीब मानती है, जो २० रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रही है? या फिर उस रिपोर्ट को, जो ५० प्रतिशत जनता को गरीब मानती है? या फिर योजना आयोग की रिपोर्ट को, जो मात्र ३६ प्रतिशत लोगों को गरीब मानकर अपनी नीतियां कर रहा है?
सुप्रीम कोर्ट की ऐसी  कार्यवाहियों से जो सवाल  उठता है, वह यह है कि बार-बार न्यायालय को प्रशासनिक कामों में दखल क्यों देना पड़ता है? यह प्रश्न अब और प्रभोह्ली तरीके से उठना चाहिए, जबकि जनता भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को बताने उतर चुकी है कि वह कैसी नीतियां बनाए और भविष्य में प्रशासन का कैसा स्वरूप उसे चाहिए। नेताओं के बौखलाने की वजह यही है कि जो उसे करना चाहिए वह बाकी संस्थाएं क्यों करें?  हालांकि, जरूरत इस बात की है कि अब राजनेता यह सोचें कि क्या विधायिका या कार्यपालिका को नया रूप अख्तियार करने की जरूरत है? क्या उसे अपनी भूमिकाओं को और जिम्मेदारीपूर्ण अंजाम नहीं देना चाहिए? वरना, अगर जनता को अपने हितों पर खतरा मंडराता दिखेगा तो वह न्यायालय से लेकर प्रदर्शन के मैदानों तक लामबंद होगी ही। क्या आश्चर्य है कि एक दिन जंतर-मंतर, तहरीर चौक हो जाए। माना कि जनता की सामूहिक सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है, लेकिन वह अमर सिंह और दिग्विजय सिंह की कुटिल चालें ज्यादा दिन तक बरदाश्त नहीं कर सकती। कार्यपालिका की निष्क्रियता अदालत के साथ-साथ जनता को सक्रिय होने और हाथ में पत्थर उठाने का मौका देती है। हो सकता है कि कभी कोई याचिका पडऩे के बजाय लोग खुद से  गोदाम लूटने निकल पडे़। नेताओं को इन संभावनाओं पर भी विचार करना चाहिए।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

बाघ नहीं, जंगल बचाओ


कल्पना कीजिए कि धरती किसी ऐसे प्रजाति के जीव-जंतुओं से भर जाए, जो मानव जीवन के लिए कठिन परिस्थितियां खड़ी कर दें, तो क्या होगा? क्या मनुष्य धरती से पलायन कर जाएगा? या उन जीवों द्वारा उसका विनाश हो जाएगा? या परिस्थितियां ही ऐसी बन जाएं कि मानव खुद--खुद खत्म हो जाए। प्रकृति का मौजूदा चक्र यदि टूटता है तो प्राय: वह विनाशकारी होता है। कोई शक नहीं कि प्रकृति में मानव के बढ़ते दखल का ही परिणाम है कि पर्यावरण से तमाम जीव-जंतु विलुप्त हो रहे हैं। इसी बीच एक सुखद खबर सुनने को मिली है।
दिल्ली में बाघ संरक्षण पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पर्यावरण मंत्रालय की ओर से जारी किए गए आंकड़ों में कहा गया है कि देश में बाघों की कुल संख्या 1706 हो गई है, जो कि 2006 की गणना में 1411 थी। कुल मिलाकर बाघों की संख्या में 30 फीसद की बढ़ोत्तरी बताई जा रही है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर मसलन- केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु के जंगलों में और असम के काजीरंगा में बाघों की संख्या में बढ़त हुई है। कर्नाटक में सबसे ज्यादा 320 बाघ हैं। हालांकि, माना जा रहा है कि यह बढ़ोत्तरी इसलिए भी हो सकती है कि पश्चिम बंगाल के सुंदर वन और नक्सली प्रभाव वाले स्थानों को पहली बार इस गणना में शामिल किया गया है। सुंदर वन में 70 बाघ पाए गए हैं। इसे 2006 की गणना में सुंदरवन के बाघों को नहीं गिना गया था।
हालांकि, दो दशक पहले भारत में बाघों की संख्या तीन हजार से अधिक थी, जो कि 2006 में मात्र 1411 रह गई। बाघों की इस तरह घटती संख्या पर सरकार ने चिंता जाहिर करते हुए बाघों को बचाने का अभियान चलाया। मौजूदा गणना में हुई बढ़त को कुछ लोग इस अभियान का परिणाम मान रहे हैं। टाइगर स्टेट के रूप में जाने जाने वाले मध्य प्रदेश में बाघों की औसत संख्या अब 257 ही रह गई है।
बाघों पर पिछले 35 सालों से काम कर रहे बाल्मिीकि थापर का कहना है कि कुछ नए स्थानों को गणना में शामिल किया गया है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि बाघों की संख्या बढ़ी है। एक दो जगह जहां पहले गिनती नहीं हुई थी, वहां भी गिनती कर ली गई है, इससे संख्या में इजाफा दर्ज हुआ है। बाल्मिीकि थापर का यह भी कहना है कि पांच साल पहले सरकार ने बाघों को बचाने के उद्देश्य से 50 हजार करोड़ रुपये की योजना को मंजूरी दी थी, जो अभी तक लागू नहीं हो सकी है।
बाघों की संख्या को लेकर खासी खलबली तब मची, जब 2008 में सरिस्का अभ्यारण्य में एक भी बाघ की निशानी नहीं मिली। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता पर सरकार को निर्देश दिया  था कि वह बाघों के संरक्षण के लिए एक टास्क फोर्स का गठन करे। सरकार ने इस मामले को तवज्जो दी और पर्यावरणविद सुनीता नारायण की अध्यक्षता में टास्क फोर्स का गठन किया गया और उसने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें इस अभियान में स्थानीय लोगों को जोड़ने, जंगलों की पुख्ता सुरक्षा और पर्यावरण जागरूकता फैलाने जसे सुझाव शामिल हैं।
बताया जाता है कि करीब एक सदी पहले भारत में बाघों की संख्या करीब एक लाख थी। बाघों को बचाने के प्रयास क्या किए जा रहे हैं, यह प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो यह है कि वे कौन से कारण हैं कि हमारे पर्यावरण से महत्वपूर्ण घटक गायब होते जा रहे हैं। गौरैया, गिद्ध, बाघ सहित जंतुओं की  कितनी ही ऐसी प्रजातियां हैं जो या तो विलुप्त हो चुकी हैं या होने की कगार पर हैं।
मान लिया कि सरकार तमाम प्रयासों से बाघों का संरक्षण करे और उनकी प्रजननिकी को येन-केन बढ़ा ले जाये, तो भी यह सवाल अनुत्तरित है कि जो पर्यावरण चक्र टूट रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी? पूरा पारिस्थितिकी तंत्र छिन्न-भिन्न होने की स्थिति में क्या किया जा सकेगा? जंगल का अपना एक समाज होता है, जहां पाए जाने वाले जीव जंतु एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। जंगलों को तेजी से नष्ट किया जा रहा है। ऐसे में अगर बाघ बचा भी लिए गए तो उनके रहने की जगह कहा होगी? असली चुनौती बाघ नहीं, उस पूरे तंत्र को बचाना है, जहां बाघों को जीवन के अनुकूल जगह मिल सके। हमें कैंसर की बीमारी में दर्द की दवा खाने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए।

जहां हर तरफ खौफ है..

दो दिन पहले के अखबारों के मुताबिक दिल्ली में एक ही दिन में कुल मिलाकर हत्या और बलात्कार की आधा दर्जन खबरंे थीं। यह जानकर कि आज यह शहर आधा दर्जन हत्या और बलात्कार का गवाह बना, जब मैं घर से बाहर निकला तो इन्हीं सब बातों से दो चार हुआ। हर तरफ खौफ। हर तरफ डर। हर व्यक्ति सहमा हुआ। हर किसी की आंखों में एक भयानक जंगल, जहां वह अकेला भटक रहा है। मैं बस में चढ़ा ही था कि एक व्यक्ति चिल्लाया- बस रोको। दरवाजे बंद करो। कोई मेरा बटुआ मार ले गया। पूरे बस में अफरा-तफरी मच गई। लोग अपनी अपनी जगह से कहने लगे- सबकी तलाशी लो, देखो इन्हीं में से कोई होगा। सब चौकन्ने हो गए। सबके हाथ अपनी अपनी जेबों पर टिक गए।
उधर, इस अध्याय के समानांतर उसी बस में एक अध्याय और चल रहा था। एक लड़की बगल में खड़े लड़के से कह रही थी- या तो चुपचाप खड़े रहो या फिर बोलो मैं उतर जाऊं। तुम्हें खड़े होने के लिए मेरा ही सर चाहिए। वह दूसरी ओर मुंह कर चुपचाप आंसू बहाने लगी। किसी ने किसी को कुछ नहीं कहा। लड़का अपने साथी को देख-देख कर शैतानी मुस्कान बिखेरता रहा फिर अगले स्टॉप उतर गया।
करीब आधे घंटे बाद जब मैं ओखला मंडी के पास बस से उतरा, एक महिला सहकर्मी का फोन आया। उसका पर्स किसी ने दिन-दहाड़े छीन लिया था। वह परेशान थी, क्योंकि पर्स में एटीएम और पैन कार्ड समेत कई कीमती चीजें थीं। उसको सांत्वना देते हुए मैं ऑफिस में दाखिल हुआ तो देखा टेलीविजन पर लड़की को अगवा कर बलात्कार और हत्या करने की खबर ब्रेकिंग चल रही थी। यह कमोबेश हर दिन होता है। हर दिन इसी तरह भयावहता के बीच गुजरता है।
मेरे मकान मालिक को मुझपर शक है कि यह पत्रकारनुमा युवा आखिर रात को एक बजे क्यों आता है? आखिर यह भी तो आदमी है और कुछ गड़बड़ कर सकता है। मेरे बगल वाले मकान मालिक को अपनी 22 वर्षीय महिला किरायेदार पर शक है कि वह कहीं कुछ अजब-गजब कर बैठे। गली के हर व्यक्ति को हर व्यक्ति पर शक है। यह आसानी से देखा जा सकता है कि हर कोई अपने आसपास के आदमी से डरा हुआ है।
अब तक जितने शहरों में मैं घूूूमा हूं, उनमें दिल्ली एकमात्र ऐसा शहर है, जो बेहद खौफनाक है। यह देश की राजधानी है, और अपराधों की राजधानी भी। दिल्ली को  राजधानी बने हुए 100 साल पूरे हो रहे हैं और देश को आजाद हुए साठ साल, लेकिन अपने एक साल के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि देश की राजधानी देश की सबसे असुरक्षित जगहों में से एक है।

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...