जनता की सरकार बनाम न्यायालय
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अनाज की उपलब्धता और उसके वितरण को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगाते हुए कहा है कि देश में दो भारत नहीं हो सकते जो अमीर और गरीब में विभाजित हों। कोर्ट ने पूछा कि जब अनाजों से गोदाम भर हैंऔर फसलों का उत्पादन भी पर्याप्त है तो फिर भी भुखमरी के मामले क्यों सामने आ रहे हैं? साथ ही योजना आयोग को भी आड़े हाथ लेते हुए कोर्ट ने १९८१ के आंकड़ों के आधार पर गरीबी रखा से नीचे रहने वालों की संख्या ३६ फीसदी मानने पर भी नाराजगी जताई है। कोर्ट ने यह भी कहा कि योजना आयोग से गरीबों की संख्या ३६ फीसदी मानने के पीछे अपने तर्कों का खुलासा करे।
कुछ महीनों पहले जब लाखों टन अनाज के सडऩे की खबर आई थी तो एक याचिका पर सुनेह्लाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट सरकार पर काफी सख्त टिप्पणियां की थीं। इसे लेकर प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट को उसकी सीमाएं बताने में लग गए थे। लेकिन उस स्थिति में अब तक कोई खास बदलोह्ल नहीं देखने को मिला है। अब न्यायालय के दोबारा उसी रुख को सरकार किस रूप में लेती है, यह देखने की बात होगी।
सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि न्यायालय को कार्यपालिका के कामों में दखल नहीं देना चाहिए। इस पर एक पक्ष बड़ी मजबूती से रखा गया था कि यदि आम आदमी भूख से मर रहा है और वह अपने जीवन के अधिकार को लेकर न्यायालय की शरण जाता है तो न्यायालय को क्या करना चाहिए? क्या न्यायालय व्यक्ति की जीवन रक्षा के लिए प्रतिबद्ध नहीं है? और क्या लोकतंत्र में एक व्यक्ति का यह अधिकार नहीं कि उसके लिए भर पेट भोजन सुलभ हो?
जहां तक बात गरीबी रखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या की है तो यह भी अपने आप में विवादास्पद ही है कि भारत में कितने लोग गरीबी रखा से नीचे रह हैं? एनसी सक्सेना समिति, योजना आयोग और सुरश तेंदुलकर समिति की रिपोर्टों से साफ है कि हमार पास वास्तव इस संबंध में कोई आधिकारिक और सही आंकड़े नहीं हैं, जिन्हें हम इस बार में सही मानें और उस आधार पर नीतियां तैयार करं। विभिन्न समितियों की इन रिपोर्टों के होने की सुविधा यह है कि नीतियां तैयार करने में सुविधाजनक आंकड़ा उपयोग में लाया जा सकता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार उस ७६ प्रतिशत जनता को गरीब मानती है, जो २० रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रही है? या फिर उस रिपोर्ट को, जो ५० प्रतिशत जनता को गरीब मानती है? या फिर योजना आयोग की रिपोर्ट को, जो मात्र ३६ प्रतिशत लोगों को गरीब मानकर अपनी नीतियां कर रहा है?
सुप्रीम कोर्ट की ऐसी कार्यवाहियों से जो सवाल उठता है, वह यह है कि बार-बार न्यायालय को प्रशासनिक कामों में दखल क्यों देना पड़ता है? यह प्रश्न अब और प्रभोह्ली तरीके से उठना चाहिए, जबकि जनता भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को बताने उतर चुकी है कि वह कैसी नीतियां बनाए और भविष्य में प्रशासन का कैसा स्वरूप उसे चाहिए। नेताओं के बौखलाने की वजह यही है कि जो उसे करना चाहिए वह बाकी संस्थाएं क्यों करें? हालांकि, जरूरत इस बात की है कि अब राजनेता यह सोचें कि क्या विधायिका या कार्यपालिका को नया रूप अख्तियार करने की जरूरत है? क्या उसे अपनी भूमिकाओं को और जिम्मेदारीपूर्ण अंजाम नहीं देना चाहिए? वरना, अगर जनता को अपने हितों पर खतरा मंडराता दिखेगा तो वह न्यायालय से लेकर प्रदर्शन के मैदानों तक लामबंद होगी ही। क्या आश्चर्य है कि एक दिन जंतर-मंतर, तहरीर चौक हो जाए। माना कि जनता की सामूहिक सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है, लेकिन वह अमर सिंह और दिग्विजय सिंह की कुटिल चालें ज्यादा दिन तक बरदाश्त नहीं कर सकती। कार्यपालिका की निष्क्रियता अदालत के साथ-साथ जनता को सक्रिय होने और हाथ में पत्थर उठाने का मौका देती है। हो सकता है कि कभी कोई याचिका पडऩे के बजाय लोग खुद से गोदाम लूटने निकल पडे़। नेताओं को इन संभावनाओं पर भी विचार करना चाहिए।
कुछ महीनों पहले जब लाखों टन अनाज के सडऩे की खबर आई थी तो एक याचिका पर सुनेह्लाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट सरकार पर काफी सख्त टिप्पणियां की थीं। इसे लेकर प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट को उसकी सीमाएं बताने में लग गए थे। लेकिन उस स्थिति में अब तक कोई खास बदलोह्ल नहीं देखने को मिला है। अब न्यायालय के दोबारा उसी रुख को सरकार किस रूप में लेती है, यह देखने की बात होगी।
सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि न्यायालय को कार्यपालिका के कामों में दखल नहीं देना चाहिए। इस पर एक पक्ष बड़ी मजबूती से रखा गया था कि यदि आम आदमी भूख से मर रहा है और वह अपने जीवन के अधिकार को लेकर न्यायालय की शरण जाता है तो न्यायालय को क्या करना चाहिए? क्या न्यायालय व्यक्ति की जीवन रक्षा के लिए प्रतिबद्ध नहीं है? और क्या लोकतंत्र में एक व्यक्ति का यह अधिकार नहीं कि उसके लिए भर पेट भोजन सुलभ हो?
जहां तक बात गरीबी रखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या की है तो यह भी अपने आप में विवादास्पद ही है कि भारत में कितने लोग गरीबी रखा से नीचे रह हैं? एनसी सक्सेना समिति, योजना आयोग और सुरश तेंदुलकर समिति की रिपोर्टों से साफ है कि हमार पास वास्तव इस संबंध में कोई आधिकारिक और सही आंकड़े नहीं हैं, जिन्हें हम इस बार में सही मानें और उस आधार पर नीतियां तैयार करं। विभिन्न समितियों की इन रिपोर्टों के होने की सुविधा यह है कि नीतियां तैयार करने में सुविधाजनक आंकड़ा उपयोग में लाया जा सकता है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार उस ७६ प्रतिशत जनता को गरीब मानती है, जो २० रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रही है? या फिर उस रिपोर्ट को, जो ५० प्रतिशत जनता को गरीब मानती है? या फिर योजना आयोग की रिपोर्ट को, जो मात्र ३६ प्रतिशत लोगों को गरीब मानकर अपनी नीतियां कर रहा है?
सुप्रीम कोर्ट की ऐसी कार्यवाहियों से जो सवाल उठता है, वह यह है कि बार-बार न्यायालय को प्रशासनिक कामों में दखल क्यों देना पड़ता है? यह प्रश्न अब और प्रभोह्ली तरीके से उठना चाहिए, जबकि जनता भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को बताने उतर चुकी है कि वह कैसी नीतियां बनाए और भविष्य में प्रशासन का कैसा स्वरूप उसे चाहिए। नेताओं के बौखलाने की वजह यही है कि जो उसे करना चाहिए वह बाकी संस्थाएं क्यों करें? हालांकि, जरूरत इस बात की है कि अब राजनेता यह सोचें कि क्या विधायिका या कार्यपालिका को नया रूप अख्तियार करने की जरूरत है? क्या उसे अपनी भूमिकाओं को और जिम्मेदारीपूर्ण अंजाम नहीं देना चाहिए? वरना, अगर जनता को अपने हितों पर खतरा मंडराता दिखेगा तो वह न्यायालय से लेकर प्रदर्शन के मैदानों तक लामबंद होगी ही। क्या आश्चर्य है कि एक दिन जंतर-मंतर, तहरीर चौक हो जाए। माना कि जनता की सामूहिक सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है, लेकिन वह अमर सिंह और दिग्विजय सिंह की कुटिल चालें ज्यादा दिन तक बरदाश्त नहीं कर सकती। कार्यपालिका की निष्क्रियता अदालत के साथ-साथ जनता को सक्रिय होने और हाथ में पत्थर उठाने का मौका देती है। हो सकता है कि कभी कोई याचिका पडऩे के बजाय लोग खुद से गोदाम लूटने निकल पडे़। नेताओं को इन संभावनाओं पर भी विचार करना चाहिए।