सोमवार, 26 नवंबर 2018

मोदी मनमोहन से थोड़ी विनम्रता सीखते तो 'तेरी मां मेरी मां' नहीं बोलना पड़ता

नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह न सही, अपनी पार्टी के पितामह अटलबिहारी वाजपेयी का ही अनुसरण करते तो संसद की भाषाई मर्यादा बचा ले जाते.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मध्य प्रदेश में शनिवार को दिया भाषण सुना, तो उसी हफ्ते मनमोहन सिंह की प्रेस कॉन्फ्रेंस याद आई जिसमें उन्होंने कहा कि मैंने कभी कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया भी होगा तो मैं उसे दोहराना नहीं चाहूंगा. उन्होंने यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी को अपने प्रधानमंत्री पद की गरिमा बनाए रखनी चाहिए और विपक्षी नेताओं के साथ सार्वजनिक मंच से गाली गलौज नहीं करनी चाहिए.

इदौर में 21 नवंबर को मनमोहन सिंह ने नरेंद्र मोदी के पुराने वादों की याद दिलाते हुए अच्छे दिनों की समीक्षा की. उन्होंने भाजपा की सरकार की असफलता गिनाने के लिए सिर्फ आंकड़ों की बात की.

एक पत्रकार ने पूछा कि मोदी जी भाषणों को देखते हुए क्या आपको लगता है कि वे अपने पद की मर्यादा रख पा रहे हैं? इसके जवाब में मनमोहन सिंह ने कहा, 'सम्मानपूर्वक मेरा मानना है कि मोदी जी प्रधानमंत्री के पद का ठीक इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. प्रधानमंत्री को ये नहीं शोभा देता कि वे दूसरे नेताओं के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर गाली गलौज करें. वे गैरबीेजेपी राज्यों में जाते हैं तो नेताओं पर खूब बरसते हैं. यह उचित बात नहीं हैं. इससे ज्यादा मैं और कुछ नहीं कहूंगा.'

एक पत्रकार ने पूछा कि आपने प्रधानमंत्री रहते हुए अपने अंतिम संबोधन में कहा था कि यदि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो यह एक त्रासदी होगी, अब आप क्या कहेंगे, यह त्रासदी थी या नहीं? इस पर मनमोहन सिंह ने कहा, 'मुझे नहीं याद आ रहा है कि मैंने 2014 में इतने कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया था. अगर मैंने इस्तेमाल किया तो मैं इसे दोहराना नहीं चाहूंगा.'

मनमोहन सिंह की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद नरेंद्र मोदी मध्य प्रदेश की रैलियों में और कड़े शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं. प्रधानमंत्री ने शनिवार को कहा, 'कांग्रेस के पास चर्चा मुद्दे नहीं हैं, इसलिए ये लोग मेरी मां को गाली देने की राजनीति पर उतर आए हैं. कुछ बुराइयां उनके खून में समा गई हैं.'

मोदी ने कहा कि कांग्रेस इस चुनाव में न चार पीढ़ियों का हिसाब देने को तैयार है, न मध्य प्रदेश में 55 सालों के शासन का हिसाब देने को तैयार है, न शिवराज सिह चौहान द्वारा किए गए कामों पर चर्चा करने को तैयार है. वे अपनी चार पीढ़ी और एक चायवाले के चार साल के शासन की तुलना को भी तैयार नहीं हैं.

प्रधानमंत्री ने आगे कहा, 'जिसके पक्ष में सत्य न हो, न्याय न हो, कुसंस्कार हो, अहंकार हो, वह मुद्दे छोड़कर तेरी मां मेरी मां पर आ जाता है. आजादी के बाद इतने सालों तक जिस पार्टी ने शासन किया, उसके नेता मोदी के साथ भिड़ने की बजाय, मां को गाली दे रहे हैं. मोदी से मुकाबला करने की ताकत नहीं, और आप मां को घसीटकर ले आते हैं.'

मोदी ने कहा, 'कांग्रेसी नामदार हैं, हम कामदार. नामदार चाहे जिसे गालियां दे सकते हैं, भले ही गलती उनकी हो. प्रदेश का बच्चा-बच्चा शिवराज को मामा बोलता है. कांग्रेसी उन्हें शकुनि मामा, कंस मामा कहने लगे. अच्छा होता अगर कांग्रेस के राजा-महाराजा और नामदार शिवराज को गाली देने से पहले क्वात्रोची मामा को याद कर लेते. भोपाल के गुनहगार एंडरसन मामा को याद कर लेते, जिन्हें नामदार के पिताजी की सरकार ने चोरी से भगा दिया था.'

मोदी ने दिल्ली की राजनीति में प्रवेश से पहले जिन मुद्दों और जनआकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देते हुए विकास के नारे से अपनी शुरुआत की थी, वे अब उन्हीं की जुबान पर नहीं आ रहे हैं. क्वात्रोची और एंडरसन को कांग्रेसियों का मामा बताना कम से कम एक प्रधानमंत्री के मुंह से शोभा नहीं देता. उनके हर भाषण में अब गुस्सा और अपशब्द होते हैं.

मोदी पहले भी ऐसा बोलते रहे हैं. ‘मेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा, मैं तो फक़ीर हूं’, ‘वे मुझे मार डालेंगे, मुझे थप्पड़ मार देना’, ‘मुझे लात मार कर सत्ता से हटा देना’, ‘मुझे फांसी पर चढ़ा देना’, ‘मुझे उलटा लटका देना’, ‘मुझे चौराहे पर जूते मारना’…. ये सब मोदी के ही जुमले हैं जो उनके अलग भाषणों में सुने जा चुके हैं.

उनको मनमोहन सिंह पर 'रेनकोट पहनकर नहाने' वाला कटाक्ष भी प्रधानमंत्री के पद के अनुरूप बेहद छिछला था. वे 'पचास करोड़ की गर्लफ़्रेंड' कहते हुए जरा भी नहीं हिचकिचाते. बल्कि इसे चुनावी इजहार मानकर संतोष कर लेते हैं कि उन्होंने महान भाषण दिया है.

चुनावी राजनीति में भाषा का पतन नरेंद्र मोदी से ही नहीं शुरू हुआ है. राहुल गांधी या दूसरे किसी भी पार्टी के नेता अपनी भाषाई मर्यादा के लिए नहीं जाने जाते. लेकिन प्रधानमंत्री पद से मोदी जैसी भाषा अभूतपूर्व है. वे यह परंपरा डाल रहे हैं कि किसी पद की कोई गरिमा नहीं है और चुनावी मुकाबले में अपशब्दों की अहम भूमिका होगी.

मनमोहन सिंह में एक बात गौर करने लायक है कि जब वे प्रधानमंत्री नहीं हैं, तब भी वे जब भी बोलते हैं तो एक विकास के विजन के साथ बोलते हैं. वे कभी भी व्यक्ति पर केंद्रित नहीं होते, किसी व्यक्ति के बारे में सवाल करने पर संक्षिप्त और सभ्य उत्तर देते हैं या फिर सवाल को टाल जाते हैं. जबकि मोदी पत्रकारों से कभी मुखातिब ही नहीं होते और अपने एकतरफा भाषणों में वह बोलते हैं जो उन्हें पसंद होता है.

मोदी अपने पांच राज्यों के चुनाव में सिर्फ व्यक्तियों पर बात कर रहे हैं. वे नेहरू, इंदिरा, सोनिया और राहुल पर न सिर्फ निजी हमले कर रहे हैं, बल्कि भाषाई मर्यादा को बार बार तोड़ रहे हैं.

इसके उलट जिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को लोग 'पप्पू' कहते हैं, मध्य प्रदेश में ही उन्होंने कहा, 'मोदी जी अपने भाषण में गलत शब्द का प्रयोग करेंगे, झूठ बोलेंगे नफ़रत भरी बात करेंगे. क्योंकि मोदी जी जानते हैं कि जो भरोसा जनता ने मोदी जी पर किया था वो टूट गया है.'

क्या मोदी जी को अपने गिरते ग्राफ से बौखलाहट होने लगी है? यह एक कारण हो सकता है लेकिन उनका पिछला भाषाई रिकॉर्ड भी बहुत खूबसूरत नहीं है. बस प्रधानमंत्री बनने के बाद उनसे उम्मीदें बढ़ी थीं. काश वे अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह से ही सीखते कि पद की गरिमा के अनुरूप ही शब्दों का चुनाव करना चाहिए.

मोदी जब प्रधानमंत्री बनकर संसद पहुंचे थे तो पहले दिन संसद की चौखट पर सिर रखकर उसे प्रणाम किया था. यह भी पहली बार था. लेकिन संसद की उस पूजनीय पवित्रता को उन्होंने ही भंग कर दिया जो पिछले 70 सालों में कभी नहीं देखी गई थी. स्तरहीन भाषा का प्रयोग संसदीय परंपरा की अजीबोग़रीब गिरावट है जिसकी भरपाई मुश्किल है. देश के युवा को प्रधानमंत्री से सीखने के लिए क्या है, सिवाय इस स्तरहीन भाषा के? नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह न सही, अपनी पार्टी के पितामह अटलबिहारी वाजपेयी का ही अनुसरण करते तो संसद की भाषाई मर्यादा बचा ले जाते.

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद के आलोचक प्रेमचंद


प्रेमचंद यूरोपीय राष्ट्रवाद की आलोचना के साथ ऐसे राष्ट्रवाद की कल्पना करते थे जिसमें किसानों, मजदूरों और गरीबों के लिए जगह हो. 

'सांप्रदायिकता सरकार का सबसे बड़ा अस्त्र है और वह आखिर दम तक इस हथियार को हाथ से न छोड़ेगी.' प्रेमचंद यह पंक्ति उस अंग्रेजी शासन के लिए जब लिख रहे थे तब वे यह भली भांति समझ रहे थे कि यह जनता को बांटने का एक कारगर हथियार है. इसीलिए वे कह रहे थे कि 'सरकार ने भारत में सांप्रदायिकता का बीज बो दिया है और किसी दिन इस वृक्ष का फल भारत और भारतीय सरकार दोनों के लिए घातक साबित होगा.' ऐसा हुआ भी. यह सांप्रदायिकता देश के विभाजन का न सिर्फ कारण बनी, बल्कि आज तक हिंदुस्तान सांप्रदायिकता से ग्रस्त है. आश्चर्यजनक रूप से महात्मा गांधी, भगत सिंह, मौलाना आज़ाद और तमाम स्वतंत्रता के नायक जिस सांप्रदायिकता से लड़ रहे थे वही सांप्रदायिकता आज़ादी के बाद भी बार बार मुसीबत की वजह बनती रही है.

प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के पास के गांव लमही में हुआ था. बचपन में ही उनके सिर से मां का साया उठ गया था. 15 साल की उम्र में ही उनकी शादी हो गई और इसके कुछ ही समय बाद पिता का भी देहांत हो गया. प्रेमचंद के पिता डाकघर में मामूली नौकर का काम करते थे. वे भयंकर गरीबी में पले बढ़े थे. प्रेमचंद के उपन्यासों में गरीबी और जहालत का जो असीम संसार है, वह उनके अपने निजी जीवन की झलक भी है.

प्रेमचंद को अपनी आर्थिक परेशानियों से निपटने के लिए अपनी कोट और किताबें आदि बेचनी पड़ी थीं. बताते हैं कि एक बार जब वे आर्थिक रूप से परेशान थे, अपनी सारी किताबें लेकर एक किताब की दुकान पर पहुंचे. वहां उनकी मुलाकात एक स्कूल के हेडमास्टर से हुई. उन्होंने प्रेमचंद को स्कूल में अध्यापक नियुक्त करवा दिया.

लेकिन प्रेमचंद अध्यापक बनकर छात्र बन गए. वे आजीवन भारतीय समाज को अपनी बारीक निगाह से पढ़ते रहे और उसे कागज पर उतारते रहे.

1907 में प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ. देशप्रेम और आम जनता के दर्द से सराबोर इन कहानियों को अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और उनके लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बाद वे नाम बदल कर प्रेमचंद नाम से लिखने लगे.

आम जनता के जीवन और ग्रामीण भारतीय समाज को विस्तार से अपने उपन्यासों में रचने वाले प्रेमचंद ने बहुत से वैचारिक लेख लिखे और राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद पर बेबाक राय रखी. उनके वे लेख आज भी महत्वपूर्ण हैं. 

प्रेमचंद की चेतावनी को लोगों ने नहीं सुना 

आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू कह रहे थे कि 'अगर सांप्रदायिकता से कड़ाई से नहीं निपटा गया तो यह भारत को तोड़ डालेगी', तो आजादी मिलने से कुछ वर्षों पहले प्रेमचंद लिख रहे थे कि 'सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है. हालांकि, संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं.'

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, 'सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है... जब प्रेमचंद ऐसा लिख रहे थे तब वे एक चेतावनी दे रहे थे. ये चेतावनी वे नब्बे साल पहले दे रहे थे. उस चेतावनी को इस देश के लोगों ने सुना नहीं. उसका नतीजा है कि अब वह हमारी गर्दन पर चढ़ बैठी है.'

सांप्रदायिकता किस संस्कृति की दुहाई देती है? 

'सांप्रदायिकता और संस्कृति' (1934) शीर्षक से अपने लेख में संस्कृति के बहाने धर्म के झगड़ों पर चर्चा करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं, 'हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना ज़ोर बांध रही है. वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड. शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं. यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मन्त्र है और कुछ नहीं. हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की ज़रूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे.'

प्रेमचंद को अल्बेयर कामू और जॉर्ज आॅरवेल के समकक्ष रखते हुए अपूर्वानंदकहते हैं, 'प्रेमचंद हों, जॉर्ज आॅरवेल हों, अल्बेयर कामू हों या हजारी प्रसाद द्विवेदी हों, उनकी प्रासंगिकता यही है कि उन्होंने इन लक्षणों को बहुत पहले पहचान लिया था. और लोगों को बहुत स्पष्ट रूप से बताया भी था. जो लोग सांप्रदायिक शक्तियों को लेकर बहुत उत्साहित रहते हैं, उन्हें प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए. अगर सांप्रदायिक सोच के लोग यह मानते हैं कि प्रेमचंद बहुत महान लेखक थे तो उन्हें प्रेमचंद के विचारों पर भी सोचने की जरूरत पड़ेगी.' 

प्रेमचंद लिखते हैं, 'इन संस्थाओं को जनता को सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें. उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना है. वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते.'

जैसा कि उनके साहित्य से इतर लेखन से स्पष्ट है कि वे सांप्रदायिकता के घोर आलोचक हैं, यह विचार उनकी रचनाओं में भी दिखता है. अपनी कहानियों और उपन्यासों में प्रेमचंद ने धार्मिक एकता की नायाब नजीरें पेश कीं.

प्रेमचंद और राष्ट्रवाद 

प्रेमचंद अपने लेखों के जरिये भारत में राष्ट्रवाद को लेकर चल रही बहस में भी शरीक हुए. रवींद्रनाथ टैगोर मानते थे कि आधुनिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में संकीर्णता की भावना निहित है. प्रेमचंद भी इसी विचार के साथ खड़े हुए. प्रेमचंद उपनिवेशवाद, आधुनिक राष्ट्र और लोकतंत्र में आम जनता की जगह न पाकर व्यथित थे. वे उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में राष्ट्रवाद की भूमिका की तरफदारी करते हुए भी पश्चिमी राष्ट्रवाद और उसके अंतर्विरोधों के आलोचक थे.

वे लिखते हैं, 'वर्तमान राष्ट्र यूरोप की ईजाद है... इसी राष्ट्रवाद ने साम्राज्यवाद, व्यवसायवाद आदि को जन्म देकर संसार में तहलका मचा रखा है. व्यापारिक प्रभुत्व के लिए महान युद्ध होते हैं. यह सारे अनर्थ इसलिए हो रहे हैं कि धन और भूमि की तृष्णा ने राष्ट्रों को चक्षुहीन सा कर दिया है. प्राणि मात्र को भाई समझने वाला ऊंचा और पवित्र आदर्श इस राष्ट्रवाद के हाथों ऐसा कुचला गया कि अब उसका कहीं चिह्न भी नहीं रहा.'

अपूर्वानंद कहते हैं कि प्रेमचंद ने राष्ट्रवाद को कोढ़ कहा था. वे राष्ट्रवाद के घोर आलोचक रहे. जितनी बेबाकी से उन्होंने उस समय लिखा, आज का समय ऐसा है कि कोई लेखक राष्ट्रवाद को कोढ़ बता दे तो मुमकिन है कि वह जेल में पहुंच जाए. 

प्रेमचंद्र महात्मा गांधी से प्रभावित थे और उसी तरह के राष्ट्रवाद में उनका यकीन था. वे आजादी की लड़ाई में एकजुटता के लिए राष्ट्रवाद की भूमिका को महत्व दे रहे थे, लेकिन आजाद भारत में ऐसा राष्ट्रवाद चाहते थे जो गरीबों, किसानों और मजदूरों का हिमायती हो. जो सामंतवाद का विरोधी हो. वे जाति, धर्म और संप्रदायवाद से मुक्त राष्ट्र चाहते थे.

वे लिखते हैं, 'आज भी राष्ट्रीयता का रोग उन्हीं लोगों को लगा हुआ है जो शिक्षित हैं, इतिहास के जानकार हैं. वे संसार को राष्ट्र के रूप में ही देख सकते हैं. संसार के संगठन की दूसरी कल्पना उनके मन में आ ही नहीं सकती. जैसे शिक्षा से कितनी ही अस्वाभाविकताएं हमने अंदर भर ली हैं, उसी तरह इस रोग को भी पाल लिया है.'

महात्मा गांधी यूरोपीय लोकतंत्र पश्चिमी सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहते थे. प्रेमचंद भी गांधी की तरह स्वराज के समर्थक और लोकतंत्र के आलोचक थे. उन्होंने लिखा, 'डेमोक्रेसी केवल एक दलबंदी बन कर रह गई. जिसके पास धन था, जिनकी जबान में जादू था, जो जनता को सब्जबाग दिखा सकते थे, उन्होंने डेमोक्रेसी की आड़ में सारी शक्ति अपने हाथ में कर ली. व्यवसायवाद और साम्राज्यवाद उस सामूहिक स्वार्थपरता के भयंकर रूप थे जिन्होंने संसार को गुलाम बना डाला और निर्बल राष्ट्रों को लूट कर अपना घर भरा और आज तक वही नीति चली आ रही है. डेमोक्रेसी की इन दो सदियों में संसार में जो जो अनर्थ हुए, वह एकाधिपत्य की असंख्य सदियों में न हुए थे. अपने राष्ट्र के लिए डेमोक्रेसी चाहे जितनी मंगलमय सिद्ध हुई हो, पर संसार की दृष्टि से तो उसने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिस पर वह गर्व कर सके.'

वे चाहते थे कि 'संसार का कल्याण तभी हो सकता है जब संकुचित राष्ट्रीयता का भाव छोड़ कर व्यापक अंतर्राष्ट्रीय भाव से विचार हो.' प्रेमचंद का राष्ट्रवाद ऐसा था जो जाति भेद और धर्म के बंधनों से मुक्त हो. उन्होंने लिखा है, 'राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण व्यवस्था, ऊंच नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है.'

जेम्स की जगह नायडू के आने से क्या बदलेगा 

जैसे भगत सिंह मानते थे कि संपूर्ण समाज का परिवर्तन ही असली आजादी होगी वरना गोरे अंग्रेजों की जगह भूरे अंग्रेज काबिज हो जाएंगे और कुछ नहीं बदलेगा. उसी तरह प्रेमचंद मानते थे कि 'जेम्स की जगह मिस्टर नायडू के आ जाने से जनता का क्या उपकार होगा.'

उनके राष्ट्र की कल्पना में किसान और मजदूर थे. वे कहते हैं, 'हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें जन्मगत वर्णों की तो गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे या सभी हरिजन.'

वे भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को खत्म करने का आह्वान करते हुए लिखते हैं, 'हमारा स्वराज केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है.'

क्या भारत जाति या धर्म से मुक्त ऐसा समाज बन सका? यदि आज प्रेमचंद होते तो दिनोदिन बढ़ती असमानता और पूंजी के केंद्रीकरण के खिलाफ ही खड़े होते. प्रेमचंद के लेखन का एकमात्र पक्ष था जनता का पक्ष. इस जनपक्ष को गौर से पढ़ने और चिंतन करने की जरूरत है.

रविवार, 9 सितंबर 2018

क्या विदेशों में मोदी जी का डंका बजता है?

विदेशों में मोदी जी का डंका बजता है. इसे साबित करने के लिए उन्होंने कई देशों में बांसुरी और नगाड़े बजाए. विदेश में रह रहे भारतीयों से नारे लगवाए. बराक भाई के साथ फोटो खिंचवाई और जिनपिंग के साथ हिंडोला झूले. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने कहा कि हम विदेश नीति को एकदम अलग दिशा में ले जाएंगे. लेकिन जब एक साल बीता तो कभी मोदी के प्रशंसक रहे वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक का हमने एक इंटरव्यू लिया. उनका कहना था कि शोर बहुत था, लेकिन मोदी जी का सारा शोर मोर का नाच साबित हुआ है. भाजपा और नरेंद्र मोदी विदेशी मोर्चे पर बुरी तरह फेल हो चुके हैं.
http://nationalspeak.in/
सबसे बड़ा मुद्दा पाकिस्तान था लेकिन पाकिस्तान को न आप घेर सके, न कोई दबाव बना सके, न ही बातचीत शुरू कर सके. पांच साल कनफ्यूज रहे कि उसे दुश्मन मानें या दोस्त बनाएं. बस नारों में और भाषणों में पाकिस्तान जिंदा रहा. आईएसआई को बुलाकर पठानकोट हमले की जांच जरूर करवा ली. जम्मू कश्मीर में हालात और ही खराब हुए. जो मिलिटेंसी लगभग शांत थी, वह फिर से उभरी.
अमेरिका से हालिया समझौता भारत की संप्रभुता पर चोट है जिसके तहत अमेरिका आपको निर्देश दे रहा है कि आप ईरान से तेल लेना बंद करें वरना हम प्रतिबंध लगा देंगे. वह आपको रूस से हथियार खरीदने में बाधा खड़ी कर रहा.
अमेरिका पर सब कुछ लुटा देने वाली मुद्रा में भी आप न तो एनएसजी के सदस्य बन सके, न पाकिस्तान से आतंकी ला पाए. न माल्या आया, न मेहुल भाई आए. मालदीव में चीन ने अपना अड्डा जमा लिया. बांग्लादेश से भी आपका कुछ खास रिश्ता नहीं है. जबकि चीन वहां पर दक्षिणी और उत्तरी बांग्लादेश को जोड़ने वाला पुल बना रहा है. बांग्लादेश ने अपना ढाका स्टॉक एक्सचेंज का 25 फीसदी हिस्सा चीन को बेच दिया जबकि भारत के अधिकारी वहां गए थे, नाकाम होकर लौट आए.
नेपाल जो करीब करीब भारतीय ही है, जिसकी हमारी सीमाएं खुली हैं, वहां जाकर शेखी बघारकर लोगों को नाराज किया, नाकेबंदी करके और वहां हिंदू राष्ट्र का अभियान चलाकर अपनी ही जड़ खोद ली. उस नाकेबंदी से कोई फायदा नहीं हुआ, सिवाय नेपाल चीन की नजदीकी बढ़ने के. श्रीलंका ने अपना हम्बनटोटा पोर्ट चीन के सुपुर्द कर दिया. नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश हर देश में चीन मजबूत हुआ.
विदेश नीति विशेषज्ञ ब्रह्म चेलानी की मानें तो 'डोकलाम में चीन ने रणनीतिक स्तर पर जीत हासिल की है. चीन विवादित इलाक़े में निर्माण कार्य कर रहा है. इसके चलते भूटान अपनी सुरक्षा को लेकर भारत पर भरोसा करने से पहले सौ बार सोचेगा. दक्षिण एशिया और इसके क़रीब के देशों से भारत दूर हुआ है. नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान में भारत की स्थिति कमज़ोर हुई है. ऐसा भारत की दूरदर्शिता में अभाव के कारण हुआ है. शुरू में मोदी ने मज़बूत शुरुआत की थी, लेकिन आगे चलकर चीज़ें नाकाम रहीं.'
मेक इन इंडिया का नारा लगाते रहे लेकिन यह केवल मोदी जी और भगवान राम ही जानते हैं कि कितना विदेशी निवेश ला पाए. फिर इतने देशों में आप घूमे किसलिए? रंगबिरंगे कपड़े पहनकर नगाड़ा और बांसुरी बजाने के लिए? स्पष्ट है कि विदेश नीति के साथ नोटबंदी कांड हो गया.

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम

मई, 1928 के ‘किरती’ में यह लेख छपा। जिसमें भगत सिंह ने धर्म की समस्या पर प्रकाश डाला है।

अमृतसर में 11-12-13 अप्रैल को राजनीतिक कान्फ्रेंस हुई और साथ ही युवकों की भी कान्फ्रेंस हुई। दो-तीन सवालों पर इसमें बड़ा झगड़ा और बहस हुई। उनमें से एक सवाल धर्म का भी था। वैसे तो धर्म का प्रश्न कोई न उठाता, किन्तु साम्प्रदायिक संगठनों के विरुद्ध प्रस्ताव पेश हुआ और धर्म की आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेने वालों ने स्वयं को बचाना चाहा। वैसे तो यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो गयी और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठा। प्रान्तीय कान्फ्रेंस की विषय समिति में भी मौलाना जफर अली साहब के पाँच-सात बार खुदा-खुदा करने पर अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल ने कहा कि इस मंच पर आकर खुदा-खुदा न कहें। आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता का प्रचारक हूँ। बाद में लाहौर में भी इसी विषय पर नौजवान सभा ने एक मीटिंग की। कई भाषण हुए और धर्म के नाम का लाभ उठाने वाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जाने वाले कई सज्जनों ने कई तरह की नेक सलाहें दीं।

सबसे ज़रूरी बात जो बार-बार कही गयी और जिस पर श्रीमान भाई अमरसिंह जी झबाल ने विशेष ज़ोर दिया, वह यह थी कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाये। बड़ी नेक सलाह है। यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शान्ति में कोई विघ्न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की जरूरत हो सकती है? लेकिन सवाल तो यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले आन्दोलन में भी धर्म का यही सवाल उठा और सभी को पूरी आज़ादी दे दी गयी। यहाँ तक कि कांग्रेस के मंच से भी आयतें और मंत्र पढ़े जाने लगे। उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था। फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी। जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब राष्ट्रवादी या स्वतंत्रता प्रेमी लोग धर्म की असलियत समझ गये हैं और वही उसे अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं।

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गु़लामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिये, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर जो सिख ‘राज करेगा खालसा’ गायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?

धर्म तो यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को तलवार के घाट उतार देना चाहिये और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये तो परिणाम क्या होगा? हम जानते हैं कि अभी कई और बड़े ऊँचे भाव की आयतें और मंत्र पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पाया जाये? धर्म का पहाड़ तो हमें हमारे सामने खड़ा नज़र आता है। मान लें कि भारत में स्वतंत्रता-संग्राम छिड़ जाये। सेनाएँ आमने-सामने बन्दूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गौरी की तरह, जैसी कि कहावत बतायी जाती है, आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, वेद-कुरान आदि चीज़ें खड़ी कर दे, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेटकर घर बैठ जायेंगे। धर्म के होते हुए हिन्दू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते। धर्म के बड़े पक्के इन्सान तो उस समय सोमनाथ के कई हजार पण्डों की तरह ठाकुरों के आगे लोटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी-काम कर जायेंगे। तो हम किस निष्कर्ष पर पहुंचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है। लेकिन यदि धर्म के पक्षवालों के तर्क भी सोचे जायें तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अँधेरा हो जायेगा, पाप पढ़ जायेगा। बहुत अच्छा, इसी बात को ले लें।

रूसी महात्मा टॉल्स्टॉय ने अपनी पुस्तक (Essay and Letters) में धर्म पर बहस करते हुए उसके तीन हिस्से किये किये हैं —

1. Essentials of Religion, यानी धर्म की ज़रूरी बातें अर्थात सच बोलना, चोरी न करना, गरीबों की सहायता करना, प्यार से रहना, वगैरा।

2. Philosophy of Religion, यानी जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, संसार-रचना आदि का दर्शन। इसमें आदमी अपनी मर्जी के अनुसार सोचने और समझने का यत्न करता है।

3. Rituals of Religion, यानी रस्मो-रिवाज़ वगैरा। मतलब यह कि पहले हिस्से में सभी धर्म एक हैं। सभी कहते हैं कि सच बोलो, झूठ न बोलो, प्यार से रहो। इन बातों को कुछ सज्जनों ने Individual Religion कहा है। इसमें तो झगड़े का प्रश्न ही नहीं उठता। वरन यह कि ऐसे नेक विचार हर आदमी में होने चाहिये। दूसरा फिलासफी का प्रश्न है। असल में कहना पड़ता है कि Philosophy is the out come of Human weakness, यानी फिलासफी आदमी की कमजोरी का फल है। जहाँ भी आदमी देख सकते हैं। वहाँ कोई झगड़ा नहीं। जहाँ कुछ नज़र न आया, वहीं दिमाग लड़ाना शुरू कर दिया और ख़ास-ख़ास निष्कर्ष निकाल लिये। वैसे तो फिलासफी बड़ी जरूरी चीज़ है, क्योंकि इसके बगैर उन्नति नहीं हो सकती, लेकिन इसके साथ-साथ शान्ति होनी भी बड़ी ज़रूरी है। हमारे बुजुर्ग कह गये हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म भी होता है, ईसाई और मुसलमान इस बात को नहीं मानते। बहुत अच्छा, अपना-अपना विचार है। आइये, प्यार के साथ बैठकर बहस करें। एक-दूसरे के विचार जानें। लेकिन ‘मसला-ए-तनासुक’ पर बहस होती है तो आर्यसमाजियों व मुसलमानों में लाठियाँ चल जाती हैं। बात यह कि दोनों पक्ष दिमाग को, बुद्धि को, सोचने-समझने की शक्ति को ताला लगाकर घर रख आते हैं। वे समझते हैं कि वेद भगवान में ईश्वर ने इसी तरह लिखा है और वही सच्चा है। वे कहते हैं कि कुरान शरीफ में खु़दा ने ऐसे लिखा है और यही सच है। अपने सोचने की शक्ति, (Power of Reasoning) को छुट्टी दी हुई होती है। सो जो फिलासफी हर व्यक्ति की निजी राय से अधिक महत्त्व न रखती हो तो एक ख़ास फिलासफी मानने के कारण भिन्न गुट न बनें, तो इसमें क्या शिकायत हो सकती है।

अब आती है तीसरी बात – रस्मो-रिवाज़। सरस्वती-पूजावाले दिन, सरस्वती की मूर्ति का जुलूस निकलना ज़रूरी है उसमें आगे-आगे बैण्ड-बाजा बजना भी ज़रूरी है। लेकिन हैरीमन रोड के रास्ते में एक मस्जिद भी आती है। इस्लाम धर्म कहता है कि मस्जिद के आगे बाजा न बजे। अब क्या होना चाहिये? नागरिक आज़ादी का हक (Civil rights of citizen) कहता है कि बाज़ार में बाज़ा बजाते हुए भी जाया जा सकता है। लेकिन धर्म कहता है कि नहीं। इनके धर्म में गाय का बलिदान ज़रूरी है और दूसरे में गाय की पूजा लिखी हुई है। अब क्या हो? पीपल की शाखा कटते ही धर्म में अन्तर आ जाता है तो क्या किया जाये? तो यही फिलासफी व रस्मो-रिवाज़ के छोटे-छोटे भेद बाद में जाकर National Religion बन जाते हैं और अलग-अलग संगठन बनने के कारण बनते हैं। परिणाम हमारे सामने है।

सो यदि धर्म पीछे लिखी तीसरी और दूसरी बात के साथ अन्धविश्वास को मिलाने का नाम है, तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं। इसे आज ही उड़ा देना चाहिये। यदि पहली और दूसरी बात में स्वतंत्र विचार मिलाकर धर्म बनता हो, तो धर्म मुबारक है।

लेकिन अगल-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा। जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हमें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आजादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं, वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है। जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से भी आज़ाद हो जायेंगे।

(साभार: www.marxists.org)

बुधवार, 5 सितंबर 2018

हम सब नक्सल हैं

हमारे एक अजीज मित्र हैं. हिंदू परिवार से हैं तो संस्कार भी हिंदू हैं. बातचीत में 24 कैरेट के नहीं हैं लेकिन 24 कैरेट के तो गांधी भी नहीं थे. कोई अन्य महापुरुष भी नहीं. वे आस्तिक हैं. पूजा पाठ करते हैं. किसी पार्टी के नहीं हैं. लेकिन अपना पत्रकार धर्म निभाते हुए सरकार की आलोचना करते हैं तो कोई आकर उन्हें वामपंथी कह देता है.

यह मूर्खता की प्रचंड प्रतियोगिता का दौर है. सरकार या रूलिंग पार्टी का प्रवक्ता किसी अंबेडकरवादी को खुलकर माओवादी बोल सकता है. ऐसे अंबेडकरवादी को जिसने न सिर्फ माओवाद की, बल्कि हिंसा और संपूर्ण वाम विचारधारा की आलोचना में किताब लिखी हो.

यदि गरीब, आदिवासी, वंचित, दलित और हाशिए के लोगों की आवाज को उठाने वाला वामपंथी है, इस न्याय से हमारे संविधान को भी वामपंथी अथवा नक्सल कहना होगा. हमारा संविधान ​आदिवासियों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों और वंचितों के प्रति झुका हुआ है, तो क्या वह नक्सली दस्तावेज है? जब भी जनता की बात आएगी तो वह बात सरकार के विरोध में ही होगी. तो क्या सरकार का विरोध अथवा आलोचना नक्सलवाद, देशद्रोह अथवा आतंकवाद है? यह तो अंग्रेजी शासन की परिभाषा हुई कि जो भी सरकार के विरोध में है, सब आतंकवादी हैं. अंग्रेजों की इसी क्रूरता और अलोकतांत्रिकता के खिलाफ तो आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी. क्या हम 70 साल पीछे लौट आए हैं?

क्या कांग्रेस और भाजपा होना एक ही चीज है? क्या नाथूराम गोडसे होना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होना एक ही बात है? क्या वामपंथ और नक्सल एक ही चीज है? क्या सामाजिक कार्यकर्ता होना, मानवाधिकार कार्यकर्ता होना, दलित अधिकार कार्यकर्ता होना और देशद्रोही होना सब एक ही चीज है? क्या हम सिर्फ काला या सिर्फ सफेद ही देख पाते हैं?

जिस यलगार परिषद की रैली को नक्सली आयोजन कहा जा रहा है, उसे आयोजित करने वालों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस पीबी सावंत और हाईकोर्ट के पूर्व  जस्टिस कोलसे पाटिल भी थे. क्या हम अपने टॉप न्यायाधीशों को भी नक्सल ठहराएंगे?

इससे पहले अरुंधति राय को यूपीए के समय मुकदमा झेलना पड़ा था. विनायक सेन तो बाकायदा गिरफ्तार हुए और अदालत ने उनको ससम्मान बरी किया. छत्तीसगढ़ में तमाम पत्रकारों को नक्सल समर्थक बताकर प्र​ताड़ित किया जाता रहा है. भाजपा सरकार ने एक कदम और आगे जाते हुए अब सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को थोक में नक्सल कहना शुरू किया है. इस सिलसिले में कई गिरफ्तारियां भी हुई हैं.

पूर्व वायुसेना प्रमुख एल रामदास ने भी इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखकर इन गिरफ्तारियों पर चिंता जताई है कि यह हमें सिखाए गए मूल्यों के खिलाफ है. असह​मति ही लोकतंत्र है. राज्य को उसे कुचलना नहीं चाहिए.

पूर्व न्यायाधीश पीबी सावंत ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की इन गिरफ़्तारियों को "राज्य का आतंक" और "भयानक आपातकाल" बताया है. बीबीसी से उन्होंने कहा, "आज जो हो रहा है वो स्टेट टेररिज़्म है. आप विपक्ष और आलोचकों की आवाज़ कैसे दबा सकते हैं. सरकार के विरोध में अपनी बात रखना सबका अधिकार है. अगर मुझे लगता है कि ये सरकार आम लोगों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती तो सरकार की आलोचना करना मेरा अधिकार है, अगर तब मैं नक्सल बन जाता हूं तो मैं नक्सल हूँ... "ग़रीबों के पक्ष में और सरकार के विरोध में लिखना आपको नक्सल नहीं बना देता. ग़रीबों के पक्ष में लिखने पर गिरफ़्तारी संविधान और संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना है."

हमें विरोधी के विचारों को सुनने और सहने की आदत विकसित करनी है, वरना हम जाने अनजाने उस देश का नुकसान करेंगे, जिसका आजकल कुछ ज्यादा ही नारा लगाया जा रहा है. वरना तो आज तमाम ऐसे लोग भी सरकार और पार्टी की किसी नीति के विरोध में हैं जो उसे वोट दे चुके हैं. तो क्या वे भी नक्सल हैं. इस तरह से तो पूरा देश नक्सल हो जाएगा, क्योंकि हर व्यक्ति किसी न किसी चीज से असहमत होता है. हर नागरिक सरकार या पार्टियों की आलोचना करता है. अगर यह पैमाना सेट किया जाएगा तो फिर कहना होगा कि हम सब नक्सल हैं. 

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

'अगर देश उल्लू बनाने की प्रयोगशाला है तो हमें उससे ख़तरा है'

ऐसे समय में, जब देश भर के किसान लगातार सड़क पर हों, किसानों और मज़दूरों के क्रांतिकारी कवि पाश बरबस याद आते हैं.


जिन्होंने देखे हैं 
छतों पर सूखते सुनहरे भुट्टे
और नहीं देखे 
मंडी में सूखते भाव 
वे कभी नहीं जान पाएंगे 
कि कैसी दुश्मनी है 
दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की 
उस पैरों से नंगी गांव की सुंदर लड़की से...

क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधू उर्फ पाश की यह कविता उस दौर में लिखी गई होगी जब दिल्ली की सत्ता पर 'एक कुलीन औरत' विराजमान थी, जिसकी हुकूमत 'गांव की नंगे पैरों वाली लड़की' के पांव की बिवाई को भरने की जगह और कुरेद रही थी.
फोटो: कृष्णकांत
पिछला पूरा साल किसानों के आंदोलन का साल रहा है. देश भर में एक तरफ किसान आत्महत्याएं बढ़ी हैं तो दूसरी तरफ जगह जगह किसान सड़क पर उतरे. आज की इस किसान विरोधी तवारीख़ में पाश की हत्या के 30 साल बाद उनकी कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि जैसे ये कविताएं हाल के वर्षों में जी रहे किसी आज के कवि ने रची हैं, जब भारत किसानों की कब्रगाह में तब्दील हुआ जाता है.

यहां तो सारी उम्र नहीं उतरेगा 
बहनों की शादी पर उठाया क़र्ज़ा 
खेतों में छिड़के हुए लहू का 
हर क़तरा इकट्ठा करके भी 
इतना रंग नहीं बनेगा 
कि चित्रित कर लेंगे, एक शांत 
मुस्कुराते हुए व्यक्ति का चेहरा...

पाश की कविताएं किसानों और मज़दूरों की ज़िदगी में पांव पसारे गुरबत से उपजी व्यथा और पीड़ा की कविताएं हैं जो बार.बार सवाल करती हैं कि हममें से कितनों का नाता है/ ज़िंदगी जैसी किसी चीज़ के साथ. वे भगत सिंह की तरह किसान और व्यापारी की असमानता पर तीखा सवाल करते हुए कहते हैं कि 'ख़ुदा की वो कैसी रहमत है/ जो गोड़ाई करते फटे हाथों और/ मंडी में तख़्तपोश पर फैली हुई मांस की उस पिलपिली ढेरी पर/ एक साथ होती है?'

आख़िर क्यों 
बैलों की घंटियों 
और पानी खींचते इंजनों के शोर में 
घिरे हुए चेहरों पर जम गई है 
एक चीख़ती ख़ामोशी?...
क्यों गिड़गिड़ाता है 
मेरे गांव का किसान 
एक मामूली पुलिस वाले के आगे?

ऐसे में किसान कवि चाह रहा है कि 'उड़ते हुए उन बाज़ों के पीछे चला जाए' जो 'चैन का एक पल बिता सकने की हमारी ख़्वाहिश को चोंच में लेकर उड़ गए हैं'. यह ख़्वाहिशें क्या थीं? भूखे के लिए रोटी, बेघर के लिए घर और भूमिहीन को ज़मीन.

कुछ लोग कहते हैं 
अब कहने को कुछ बाक़ी नहीं 
तय करने के लिए कुछ भी बचा नहीं 
और मैं कहता हूं 
सफ़र के इतिहास की बात मत करो 
मुझे अगला क़दम रखने के लिए ज़मीन दो.

पाश को आज की तारीख़ में उपजी परिस्थिति के मद्देनज़र नये नज़रिये से पढ़े जाने का वक़्त है. ऐसे वक़्त में, जब पूरे देश में किसानों के क़र्ज़ में डूब कर आत्महत्या कर लेने की बात सामान्य हो, जब देश के हर शहर, कस्बे और राजधानियों में किसानों का बैनर पोस्टर लेकर निकल जाना आम हो चला हो, जब खेतों में उगी ज़िंदगियों को सड़ने के बाद सड़क पर फेंका जा रहा हो, जब अपना मेहनताना मांग रहे किसानों पर गोलियां चलाई जा रही हों, जब किसान सोलह आने खेत में बोकर चार आना भी न बचा पाता हो, जब मज़दूरों की हाशिए की अपनी जगह और सिकुड़ती जा रही हो, जब सरकारें नीतियां बनाकर मज़दूरों के हक़ूक छीन रही हों, तब किसानों और मजदूरों के कवि पाश को फिर से पढ़े जाने का वक़्त है.

हम तो खप गए हैं 
धूल से लथपथ शामों के पेट में 
हम तो छप गए हैं 
उपलों पर उकरी उंगलियों के साथ 
'लोकतंत्र' के पैरों में रुलते मेरे देश 
हमारा फ़िक्र मत करना
प्रश्न तो ठीक बड़ा है 
कि छब्बीस वर्षों के इस अभाव के समय 
हम देशभक्त क्यों न बने
लेकिन मिट्टी ने खा ली है 
कई करोड़ बाज़ुओं की ताक़त 
और फलों ने खा ली है 
किसानों के हिस्से की उर्जा...

यह संयोग नहीं है कि जिस साल मध्य प्रदेश में फ़सलों का उचित मूल्य मांग रहे किसानों पर गोली चलाई गई, उसी साल सत्ता के पायदान पर बैठे संगठन ने सिफ़ारिश की कि मिर्ज़ा ग़ालिब और रवींद्रनाथ टैगोर के साथ पाश की कविताओं को कोर्स से हटा देना चाहिए. हालांकि, इस सिफ़ारिश के ख़िलाफ़ उठे विरोध के बाद यह सलाह नहीं मानी गई.

सवाल उठता है कि किसानों, ग़रीबों और मज़दूरों के कवि से सत्ता को डर क्यों लगा? शायद इसलिए क्योंकि उन कविताओं को पढ़ने वाले बच्चे बार बार सड़कों पर उतर रहे किसानों के हक़ में सवाल पूछ सकते हैं और क्रूर सत्ता हमेशा सवालों से डरती है. सिर्फ़ क्रूर सत्ता ही नहीं, सवालों से हर आततायी डरता है. इसीलिए तो पाश को किसी क्रूर सत्ता ने नहीं, उन खालिस्तानियों ने मारा जो कथित तौर पर एक ज़्यादा बेहतर दुनिया बनाने का दावा करते थे.

जिस वक़्त सियासत के बड़े.बड़े आलोचकों की ज़बान आलोचना के दो शब्द बोलने में लरज रही हो, जिस वक़्त चौथा खंभा दरबारियों की भांति कतार में खड़े होकर ताली बजा रहा हो, उस वक़्त पाश का ज़िक्र ज़रूरी लगता है:

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है.

जिन ग़रीबों और किसानों के नाम पर आज सियासी गलियारों में सजे तंबुओं से लंबे लंबे भाषण देकर वोट बटोरे जाते हैं, उन्हीं ग़रीब और किसानों के लिए एक सुंदर देश की चाहत रखने वाले पाश जैसे आंदोलनकारी रचनाकारों को यह कहकर बदनाम भी किया जाता है कि वे देशविरोधी विचारों वाले लोग हैं. हालांकि, पाश जिस समय लिख रहे थे, उस समय जनवाद को बदनाम करने की शर्मनाक मुहिम नहीं चली थी. सत्ता तो तब भी क्रूर थी, लेकिन ज़बानों पर इतने मज़बूत ताले नहीं थे. इसीलिए तमाम अलोकतांत्रिक घटनाओं से क्षुब्ध एक युवा के भीतर का छटपटाता हुआ कवि अपने समय पर अफ़सोस ज़ाहिर करता करता है:

यह शर्मनाक हादसा हमारे ही वक़्तों में होना था 
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने 
बन जाना था सिंहासन के पायदान...

ये गौरव हमारे ही वक़्तों में होना है 
कि उन्होंने नफ़रत निथार ली 
गुज़रकर गंदले समुंदरों से...

यह गौरव हमारे ही वक़्तों का होना है.

जब हज़ारों की संख्या में भारतीय किसान सड़कों पर उतरकर सत्ताधारी पार्टी और सरकारों से कह रहे हैं कि हमसे किया गया वादा निभाया जाए, हमारी आमदनी बढ़ाई जाए, हमें मौत के मुंह में न झोंका जाए, हमें क़र्ज़, सूखा और तंगी से बचाया जाए, उस समय लगता है कि पाश उन्हीं हज़ारों किसानों के हुजूम में अपनी कविता पढ़ रहे हैं कि .

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है.

आज़ादी के बाद मज़दूरों और किसानों के हक़ में शुरू हुए नक्सल आंदोलन की लहर पंजाब पहुंची तो पाश भी इससे प्रभावित हुए. पाश के समग्र कविता संग्रह 'अक्षर अक्षर' में केसर सिंह 'केसर' अपने लेख में लिखते हैं, 'पंजाब में नक्सली लहर का वर्ग आधार ग़रीब किसान था... पाश की कविता भी पंजाबी किसान, उसकी आर्थिकी, राजनीति, संस्कृति और इन सबके अनुभवों से जुड़ी रही है.'

9 सितंबर, 1950 को जालंधर के तलवंडी में जन्मे पाश ज़्यादा पढ़ लिख नहीं सके थे. लेकिन 20 साल की छोटी सी उम्र में झूठे क़त्ल के केस में गिरफ़्तार हुए और क़रीब दो साल तक जेल में रहे. तब तक कविता की दुनिया में उनका नाम होने लगा था. बहुत ही कम समय में उन्होंने धारदार कविताएं लिखकर साहित्य जगत में तहलका मचा दिया. 23 मार्च, 1988 को उनके गांव में ही उनके मित्र हंसराज समेत ने खालिस्तानियों ने उनकी हत्या कर दी. यह दुखद संयोग है कि भगत सिंह की वैचारिक सेना के बहादुर सिपाहियों की अगली कतार में खड़े पाश की हत्या भी उसी दिन की गई, जिस दिन भगत सिंह का शहादत दिवस होता है.

हमेशा प्रताड़ना के लिए पुलिस के आने का इंतज़ार करने वाले पाश 'स्वप्न.सीमा' के इधर खड़े होकर कह रहे थे कि 'अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है.' वे कह रहे थे कि 'मुझे जीने की बहुत इच्छा थी कि मैं गले तक ज़िंदगी में डूबना चाहता था.' लेकिन पाश को शायद यह मालूम था कि उनकी नियति में लिखने के लिए जान देना है, शायद इसीलिए वे लिख रहे थे कि '...सुना है मेरा क़त्ल भी आने वाले इतिहास के पन्ने पर अंकित है.'

प्रो. चमनलाल द्वारा संपादित उनके कविता संग्रह 'बीच का रास्ता नहीं होता' की भूमिका में नामवर सिंह ने 1989 में लिखा था, 'स्पेन के जनकवि लोर्का की हत्या के बारे में कहा जाता है कि जब उसकी अमर कविता 'एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत' का टेप जनरल फ्रैंको को सुनाया गया तो जनरल ने आदेश दिया था कि यह आवाज़ बंद होनी चाहिए. यह घटना पचास साल पहले की है. कविता पर. फिर वह शोकगीत ही क्यों न हो. फासिस्ट प्रतिक्रिया! पाश के रूप में पंजाब को भी एक लोर्का मिला था जिसकी आवाज़ खालिस्तानी जुनून ने बंद कर दी और वह भी संयोग से उस समय सैंतीस साल का ही जवान था लोर्का की तरह.'

पाश की कविताएं उनके ग्रामीण जीवन से निकली थीं, जिनका कवि दृष्टि ने गहन अवलोकन और विश्लेषण किया था और वह गरीबी और जहालत से बहुत क्षुब्ध था. 1973 में अपने पिता को लिखी एक चिट्ठी में पाश ख़ुद लिखते हैं: 'मैंने आज तक जितनी भी रचना की है, उसके इतनी जल्दी मक़बूल हो जाने का यही कारण है कि इस लेखन के पीछे किसी मूड की तरंग या दंभ का हाथ नहीं, बल्कि समाजी जीवन में महंगे और कठिन तजुरबे करके जो भी समझा है, लिखा है.'

उनकी सर्वाधिक पढ़ी और दोहराई गई कविताओं में से एक है सबसे ख़तरनाक, यह कविता परिवर्तन और न्याय की चाह रखने वालों की सपनीली आंखों का वह पानी है जो पुतलियों में नमी बनाए रखता है.

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना.

पाश के साथी रहे अमरजीत चंदन ने उनके क़त्ल के बाद 'पाश ज़िदाबाद' शीर्षक से लिखे एक लेख में कहा है, 'सरकारी अत्याचार बढ़ रहा था. कवियों को राजनीति गतिविधियों या हमदर्दी के कारण पुलिस यंत्रणा का शिकार बना रही थी. पाश को दिल से पुलिस की प्रतीक्षा रहती थी. मुझसे एक बार पूछने लगा कि ये हमें लेने कब आएंगे? अब शायद यह बात हास्यास्पद लगे, लेकिन आज से वर्षों पहले अठारह वर्ष के उभरते कवि पाश या मुझ जैसे पर हंसना उतना अर्थ नहीं रखता था. तब सोच की राजनीति नहीं, क़त्ल और शहादत की राजनीति चल रही थी... झूठे केस में बरी होने तक पौने दो साल वह जेल में रहा.'

पाश की प्रशंसा में अमरजीत चंदन लिखते हैं, 'पाश ने जेल में बहुत सी कविताएं लिखीं. जेल के भीतर ही पाश ने अपनी पहली पुस्तक 'लौह कथा' अपने गांव के किसी लड़के द्वारा भेजकर गुरुशरण सिंह से छपवाई थी. इसके साथ ही पाश ने पंजाबी कविता में अपना झंडा गाड़ दिया था. जेल से बाहर आकर पाश को अपनी चरम प्रसिद्धि व स्वीकृति देखकर अवश्य ही हैरानी हुई होगी. पाश थोड़े समय में ही पंजाबी कविता का चमकता लाल तारा बन गया था. पाश ने कविता की परंपरा व प्रतिमान के बिंब को एक ही ठोकर से तोड़ दिया था. अंग्रेज़ी मुहावरे की तरह, कांच के बर्तनों की दुकान में हुंकारता हुआ सांड़ आ गया था.'

तुम्हें पता नहीं 
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं 
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में 
कोई आवारा कुत्ता आ जाए...

उनकी कविताएं बेचैन आंखों में तैर रहे विराट स्वप्न जैसी हैं जो एक सुंदर और न्यायपूर्ण दुनिया का सपना देखती हैं. इन कविताओं में एक ऐसी दुनिया का स्वप्न है जिसमें वंचितों, मज़दूरों, ग़रीबों और किसानों के लिए भी भरपूर जगह हो. पाश ऐसी ख़ूबसूरत दुनिया चाहते हैं जिसमें ज़िंदगी कविताओं जैसी ख़ूबसूरत हो, इसलिए वे कुलीन वर्ग को संबोधित करते हुए लिखते हैं:

...मेरी कल्पना उस लोहार के जगह.जगह से झुलसे मांस जैसी है 
जो बेरहम आसमान पर खीझा रहे, एक हवा के झोंके के लिए... 
अब मैं तुम्हारे लिए किसी हारमोनियम का पंखा नहीं हो सकता 
मैं बर्तन मांजती कहारिन की उंगलियों में से रिसता राग हूं केवल.

लेकिन वे यह भी कहते हैं कि.

जिंदगी अगर कविता जैसी होती 
हम ख़ामोश ही रहते
सपने अगर पत्थर के होते 
गीटों से दिल बहला लेते 
पानी से अगर पेट भरता 
तो पीकर सो जाते 
चांटनी अगर ओढ़ी जा सकती 
सिलकर पहन लेते...

लेकिन यहां कुछ नज़र नहीं आता 
अमन के कपोतों जैसा 
गीतों के पेड़ नहीं मिलते 
जिन पर झूले डाल लें.

शायद बदलाव का आह्वान करती तमाम कविताएं उन्हें निराश भी करती हों, इसलिए वे लिखते हैं कि

मेरी दोस्त, कविता बहुत ही शक्तिहीन हो गई है 
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं 
और अब हर तरह की कविता से पहले 
हथियारों से युद्ध करना ज़रूरी हो गया है.

फिल्मी मॉस कल्चर, अंध धार्मिकता, भ्रष्टाचार, इमरजेंसी, आतंकवाद और राजनीतिक अराजकता से घबराकर पाश के भीतर का कवि गुस्सैल होता गया और लिखा:

छीन लो मुझसे भीड़ की टें.टें
जला दो मुझे मेरी नज़्मों की धूनी पर... 
मुझे नहीं चाहिए अमीन सयानी के डायलॉग 
संभालो आनंद बख्शी, तुम जानो लक्ष्मीकांत...
मेरे मुंह में ठूंस दो यमले जट्ट की तुंबी...
मेरी छाती पर चिपका दो गुलशन नंदा के नॉवेल... 
अगर तुम्हारे पास नहीं है कोई बोल तो 
मुझे बकने दो मैं क्या बकता हूं.

हालांकि, तवारीख़ ने उन्हें यूं ही बकने के लिए नहीं छोड़ दिया. परिवर्तन और बराबरी की दुनिया का सपना देखने वाले तमाम युवा आंखों को पाश ने शब्द दे दिए थे.

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए 
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए 
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े...

हम लड़ेंगे जब तक 
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है...

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नोटीबंदी, घोटाला और क्रोनी कैपिटलिज्म

"नोटबंदी का मकसद था 15-20 सबसे अमीर क्रोनी कैप​टलिस्ट, सबसे भ्रष्ट लोगों की मदद करना कि वे अपना कालाधन सफेद कर सकें. नोटबंदी का मकसद था कि छोटे दुकानदार और छोटे व्यापार को खत्म करके बड़ी कंपनियों को मदद करना. छोटे दुकानदार, छोटे बिजनेस और कारोबार जो चलाते हैं, अच्छी तरह सुनो. नोटबंदी कोई गलती नहीं थी. नोटबंदी आपके उपर आक्रमण था. नोटबंदी आपके पैर पर कुल्हाड़ी मारी गई थी. गलतफहमी में मत आइए. ये गलती नहीं थी. ये जानबूझकर आपको नष्ट करने के लिए और सबसे बड़े अमेजन जैसे बिजनेस के लिए रास्ता खोलने का तरीका है. प्रधानमंत्री ने यह जानबूझ कर किया है." यह शब्द हैं राहुल गांधी के.

आज की प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी काफी स्पष्ट थे. आज उनकी जबान नहीं लड़खड़ाई. स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह सबसे बड़ा घोटाला है. लेकिन यह समझ में नहीं आया कि जिस क्रोनी कैप​टलिज्म को वे कोस रहे हैं, उसके जनक तो मनमोहन सिंह हैं. उन्होंने पाला पोसा और अब मोदी जी उसे दुह रहे हैं. क्या राहुल गांधी के पास क्रोनी कैप​टलिज्म को समाप्त करने का कोई रोडमैप है? उनके पास कौन सा जनपक्षधर आर्थिक मॉडल है?

एक पत्रकार के सवाल पर राहुल गांधी ने कहा, माफी तब मांगी जाती है, जब गलती होती है. प्रधानमंत्री जी ने गलती नहीं की, यह जानबूझ कर किया. प्रधानमंत्री जी का लक्ष्य था कि जिन्होंने प्रधानमंत्री जी को मार्केटिंग के पैसे दिलवाए, जिनके कारण टेलीविजन पर रोज नरेंद्र मोदी का चेहरा दिखाई देता है, उनको पैसा मिले. उनको पैसा कैसे मिले? हिंदुस्तान के किसान, महिला, छोटे दुकानदार, छोटे और मझोले बिजनेस के जेब में से पैसा निकालकर उनके 15-20 मित्रों को मिले. सिस्टम है. क्रोनी कैपिटलिस्ट नरेंद्र मोदी जी की मार्केटिंग करते हैं, नरेंद्र मोदी जी जनता से पैसा छीनकर क्रोनी कैपिटलिस्ट को देते हैं.

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी जी और जेटली जी ने हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया है. हमारे समय ढाई लाख करोड़ रुपया नॉन परफार्मिंग एसेट था. आज 12 लाख करोड़ रुपया नॉन परफार्मिंग एसेट है. क्यों? क्योंकि नरेंद्र मोदी जी ने अपने मित्रों की रक्षा की है. उनका वन प्वाइंट प्रोग्राम है कि हिंदुस्तान के क्रोनी कैपिटलिज्म की कैसे मदद की जाए.

कालेधन को सफेद करने का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि गुजरात के कोआॅपरेटिव बैंक में, अमित शाह जी जिस बैंक में डायरेक्टर हैं, 700 करोड़ रुपये उस बैंक में बदला गया. इसे सिर्फ स्कैम कहा जा सकता है.

इसके अलावा, राहुल गांधी ने राफेल डील के मामले में अरुण जेटली के सवालों का जवाब दिया. अनिल अंबानी की कंपनी की भागीदारी पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कई सवाल किए. राहुल का कहना है कि उन्हीं क्रोनी कैपिटलिस्ट के लिए राफेल का घोटाला भी किया गया.

बहरहाल, नरेंद्र मोदी ने जो आशा जगाई थी कि नोटबंदी का दूरगामी फायदा होगा, वह आरबीआई के आंकड़ों से ध्वस्त हो गया. निकटतक फायदा जनता देख चुकी है. इसलिए सरकार को विपक्ष की इस मांग को मान लेना चाहिए कि एक ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी गठित हो और नोटबंदी और राफेल घोटाले की जांच हो.

क्या नोटबंदी एक घोटाला था?


बिना तैराकी जाने उफनती हुई नदी में कूद जाना भी बेहद साहसिक फैसला है, लेकिन इस साहस की उपादेयता क्या है? इसी तरह नक्सल समस्या या कश्मीर में आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए कोई प्रशासक अगर परमाणु विकल्प का इस्तेमाल करना चाहे तो बेशक यह बहुत साहसिक और कड़ा फैसला है. लेकिन क्या ऐसे विकल्पों की उपादेयता पर विचार नहीं किया जाएगा? क्या इससे होने वाली तबाही पर बात नहीं होगी? क्या हम सिर्फ इस फैसले की इसलिए तारीफ करेंगे कि यह कड़ा फैसला है और आतंकवाद मिटाने की अच्छी नीयत से लिया गया है?
नोटबंदी के समय लाइन में लगकर रोते हुए एक बुजुर्ग की वायरल हुई तस्वीर. 
नोटबंदी के बाद जब सरकार की आलोचना शुरू हुई तो प्रधानमंत्री बार बार भावुक हो रहे थे. वे यहां तक कह गए कि 50 दिन दे दीजिए, फिर जनता जिस चौराहे पर कहेगी आ जाऐंगे और सजा चाहें दे सकते हैं. यह एक फालतू बात थी. अगर वे किसी मामले में दोषी भी हैं तो उन्हें काननूसम्मत सजा ही दी जा सकती है. यह बात करके उन्होंने अपने पद की गरिमा को भंग किया.

नोटबंदी के बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक हुई तो प्रधानमंत्री इसमें भी भावुक हो गए. उन्होंने अपने फैसले को सही ठहराने के लिए फिर से गरीबों और मजदूरों का हवाला देते हुए कहा कि ये 'अनिवार्य' है. यह समझ से परे है कि प्रधानमंत्री आर्थिक सुधार के सिलसिले में लिए गए एक राजनीतिक फैसले को लेकर बार-बार भावुक क्यों होते रहे, जबकि चार साल में उस फैसले की कोई उपयोगिता साबित नहीं हुई. आर्थिक रूप से जो नुकसान हुआ, 150 से ज्यादा जानें गईं, उस बारे में भी भरपाई को कोई कदम नहीं उठाया गया. क्या जो लोग लाइन में लगकर मरे, उनको मुआवजा नहीं दिया जाना चाहिए?

नोटबंदी के बाद इसके किसी भी आलोचक या किसी विपक्षी दल या नेता ने यह नहीं कहा है कि वह कालाधन या भ्रष्टाचार का समर्थन कर रहा है. लेकिन नोटबंदी पर बगैर पुख्ता तैयारी के बरती गई हड़बड़ी और जनता को हो रही परेशानियों को लेकर जितने सवाल संसद में उठाए गए, प्रधानमंत्री या सरकार ने उनका स्पष्ट जवाब नहीं दिया. उल्टा आलोचकों को कालाधन समर्थक कहते रहे.

प्रधानमंत्री जो कर रहे हैं, यह वही तो है जो पिछले 70 सालों में होता रहा है और जिसे वे लगातार कोसते हैं. कॉरपोरेट को अभयदान देते जाना और उसे गरीबों को समर्पित करते जाना आम आदमी को गाली देने सरीखा है. इसका सिलसिला इंदिरा गांधी के ही समय से चल रहा है. मोदी जी खुद कह रहे थे कि 'मनमोहन सिंह ने बाजारवाद को ठीक से लागू नहीं किया, हम इसे ठीक से लागू करेंगे.' मनमोहन सिंह ने कॉरपोरेट जगत के लिए सरकारी खजाना खोल दिया था, मोदी जी सरकारी खजाने को दोनों हाथों से दलाल ​स्ट्रीट में लुटा रहे हैं. उसमें बहुसंख्यक गरीबों के लिए कुछ नहीं है, कॉरपोरेट और अमीरों के लिए सबकुछ है.

बैड लोन जैसी समस्या का क्या

मोदी कालाधन और पार​दर्शिता लाने और अपने को देश का चौकीदार होने की बात करते हुए चार साल से अधिक शासन करते रहे, अब रिजर्व बैंक कह रहा है कि जो एनपीए या बैड लोन 31 मार्च, 2015 तक तीन लाख करोड़ रुपये था, 31 मार्च, 2018 तक बढ़कर 10 लाख करोड़ रुपये के ऊपर पहुंच गया है. हाल ही में यह भी रिपोर्ट आई थी कि स्विस बैंकों में भारतीय कालाधन 50 प्रतिशत बढ़ गया है.

जुलाई, 2016 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बैड लोन की जानकारी देते हुए संसद को बताया था कि सरकार से कर्ज लेकर न लौटाने वाले ​बकायेदारों की संख्या 8167 है. इन पर 76,685 करोड़ रुपये का बकाया है. यानी 2016 के बाद भी एनपीए में भयानक बढ़ोत्तरी हुई. बैड लोन वह पैसा है जो सरकार पूंजीपतियों को व्यापार के लिए देती है और वह सरकार को वापस नहीं मिलता. विजय माल्या का 7000 करोड़ इसी के तहत है, जिसे सरकार ने एसबीआई के रिकॉर्ड से हटा दिया. नीरव मोदी का 13500 करोड़ इसी के तहत है जिसके मिलने की कोई आशा फिलहाल नहीं दिखती.

सरकार बैंक ऋण और बैंक डिफाल्टरों के पास मौजूद संपत्ति को हासिल करने के लिए क्या प्रयास कर रही है? क्या सरकार इसे कालाधन नहीं मानती? सरकार इन डिफाल्टरों के नाम क्यों नहीं सार्वजनिक करती? विजय माल्या जैसे डिफाल्टरों की संपत्तियां जब्त करने जनता का पैसा क्यों नहीं सरकारी खजाने में वापस लिया गया? अगर प्रधानमंत्री जनता की संपत्ति की लूट के प्रति गंभीर हैं तो नोटबंदी के समय ही 63 कॉरपोरेट डिफाल्टरों के 7016 करोड़ रुपये को भारतीय स्टेट बैंक के रिकॉर्ड से क्यों हटा दिया गया?

इसके पहले सरकार ने 2013 से 2015 के बीच 29 बैंकों से लिए गए 1.14 लाख करोड़ का कर्ज सरकार ने माफ कर दिया था, जिसे बैड लोन मान लिया गया था. हाल ही में इसका खुलासा इंडियन एक्सप्रेस ने किया था. पिछले तीन वित्त बर्ष का आंकड़ा है कि सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक का 40,084 करोड़ से अधिक का बैड लोन है. बैंक ने मान लिया है कि अब यह वसूला नहीं जा सकेगा.

क्या कालाधन खत्म हो गया

प्रधानमंत्री पुरजोर तरीके से कह रहे थे कि नोटबंदी से देश में भ्रष्टाचारी तत्वों पर लगाम लगाने के लिए की गई है. वे जनता से बलिदान मांग रहे थे. जनता ने यह बलिदान दिया. अब उस बलिदान के प्रतिदान का समय है. और कुछ न हो तो जनता ईमानदार जवाब की अधिकारी है.

इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि 93.3 प्रतिशत कैश वापस आ गया तो नोटबंदी के पहले का सरकार का क्या आकलन था और नोटबंदी क्यों की गई? अर्थशास्त्री तभी कह रहे थे कि कैश में करीब छह प्रतिशत कालाधन है. बाकी बचे 94 प्रतिशत कालेधन को लेकर सरकार क्या कार्रवाई की और अब क्या रही है?

जब बड़े नोटों के जरिये काला कारोबार करना ज्यादा आसान है तो पुराने नोटों पर प्रतिबंध के साथ ही नये 2000 रुपये के नोट काले कारोबार में और मददगार कैसे नहीं होंगे? कालाधन जहां पैदा होता है, कालेधन से जितने कारोबार होते हैं, सरकार ने उनके बारे में क्या रणनीति बनाई? बिना काला कारोबार रोके कालेधन पर लगाम कैसे लग सकती है?

नोटबंदी के बाद लंबे समय तक जनता तक नोट नहीं पहुंचे, कारोबार प्रभावित हुए, जबकि नोटबंदी के कुछ दिन बाद कश्मीर में आतंकवादियों के पास से 2000 के नकली नोट बरामद किए गए.

नोटबंदी के बाद संसद में सांसद सीताराम येचुरी, शरद यादव, गुलाम नबी आजाद आदि नेताओं ने कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए, जिसका दो साल भी सरकार ने समुचित जवाब नहीं दिया. जब कालेधन की मात्रा कैश में करीब 6 प्रतिशत अनुमानित है, तब सरकार ने इस छोटे से लक्ष्य के लिए पूरे देश को आर्थिक संकट में क्यों डाला? कालेधन का बड़ा हिस्सा काले कारोबार में लगाया जाता है जिससे और ज्यादा कालाधन पैदा किया जाता है. सरकार उसे लेकर क्या कार्रवाई करने जा रही है?

विदेशों में जो कालाधन है, जिसका जिक्र बार-बार नरेंद्र मोदी अपने चुनाव प्रचार में कर रहे थे, उस पर सरकार क्या कर रही है? विदेशों में कालाधन रखने वालों की लिस्ट भारत को किसी सरकार से नहीं मिली. इसे सार्वजनिक करने में कोई समझौता बाधा नहीं डालता. फिर भी सदन की मांग पर सरकार कालाधन खाताधारकों के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किए गए?

अव्यवस्था का जिम्मेदार कौन?

हाल ही में राफेल घोटाले को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे यशवंत सिन्हा ने कहा कि नोटबंदी के समय हमने जो गंभीर सवाल उठाए थे, उनके जवाब नहीं दिए गए. हमें शक है कि नये लाए गए 2000 के नोट भी कहीं एकत्र किए जा रहे हैं, जो समय आने पर निकाले जाएंगे. ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके जवाब मिलने बाकी हैं. कोई सरकार यह फैसला कैसे ले सकती है कि अचानक देश की 86 प्रतिशत करेंसी को अमान्य घोषित कर दे और पूरा देश मात्र 14 प्रतिशत फुटकर करेंसी के भरोसे छोड़ दिया जाए? नोटबंदी के फैसले से अगर आंशिक लगाम लगती है तो भी यह साहसिक फैसला था. लेकिन बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए यह निर्णय कैसे ले लिया गया?

नोटबंदी के बाद कई राज्यों में आरबीआई की ओर से कैश पहुंचाने में कई हफ्ते लगे. बैंकों को अपने एटीएम नये नोटों के हिसाब से कैलिब्रेट कराने में महीनों लगे. हाल में जारी नये नोट भी एटीएम में सही फिट नहीं हो रहे हैं. अब तक एटीएम का रीकैलिब्रेशन चल रहा है. इसके अलावा 2000 की नोट खुद एक समस्या के रूप में आई. नोटबंदी के दौरान 86 प्रतिशत कैश बाजार से खींच लिया गया तो 2000 के नोटों का फुटकर मिलना मुश्किल हो गया. लेकिन जिनको करोड़ों में रुपया एकत्र करना हो उनके लिए 2000 की नोट और मददगार ही है. क्या सरकार के लिए इस समस्या का अंदाजा लगाना मुश्किल था?

फायदे और नुकसान कितना?

अनुमानों और आंकड़ों के मुताबिक, नोटबंदी की कवायद में सरकार ने 21000 करोड़ से अधिक रुपये खर्च किए. लेकिन इससे फायदा क्या हुआ? इसके ठीक-ठीक फायदे क्या होंगे, कितना नुकसान होगा, सरकार ने इस बारे में क्या आकलन किया था? कितना कालाधन आएगा, या अब तक कितना आया, कितना नष्ट हुआ क्या इस बारे में कोई आंकड़ा न तब उपलब्ध था, न नोटबंदी के दो साल बाद उपलब्ध है. क्या सरकार के सामने इस फैसले से जुड़ा कोई सफल उदाहरण मौजूद है कि नोटबंदी के जरिये कालाधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद आदि समस्याओं का हल नोटबंदी के जरिये निकाला जा सकता है?

बंद किए गए नोटों से सिनेमा टिकट मिलेगा, लेकिन खाना नहीं मिलेगा, यह फैसला देशहित से कैसे जुड़ा था? असम के चाय बागान कर्मियों को पुराने नोट खर्च करने की छूट दी गई तो बंगाल और उड़ीसा आदि राज्यों में यही छूट क्यों नहीं दी गई थी? इसका क्या तर्क था? बंगाल भाजपा के अकाउंट में नोटबंदी की घोषणा के साथ ही एक करोड़ रुपये जमा कराया जाना क्या महज इत्तेफाक था? नोटबंदी के ठीक पहले विभिन्न जिलों में भाजपा के कार्यालय के जमीन खरीदना क्या महज इत्तेफाक था? इस जमीन खरीद में कितना पैसा लगाया गया?

नोटबंदी के बाद गुजरात में एक ही बैंक में असीमित पैसा जमा होने का रहस्य क्या रहा? इसका जवाब भी जनता को नहीं दिया गया. जिन बैंकों के नाम भाजपा नेताओं से जुड़े और सवाल उठे, वह भी अब तक रहस्य ही है.

पुराने नोट वापस लेकर उन्हें नये 500, 1000 और 2000 मूल्य के नोटों से बदलने की कुल लागत कितनी रही? क्या यह लागत नष्ट होने वाले अनुमानित कालेधन से अधिक रही या उससे कम? अगर कालाधन निकला ही नहीं तो सरकार ने इस रोमांचक कवायद में कितने अरब रुपये पानी में बहाए?

हमारे व्यापार का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र है. इस क्षेत्र को नोटबंदी से बहुत बड़ा झटका लगा. असंगठित क्षेत्र में 60 से लेकर 80 प्रतिशत तक गिरावट थी. वहां कैश में काम चलता है और जब उनके पास कैश की कमी आ गई, तो उनका जो लागत पूंजी थी, वो कम हो गई, जिसका असर अभी तक दिख रहा है. सीएमई के आंकड़ों के मुताबिक, नोटबंदी से 1.50 करोड़ से 6 करोड़ लोगों का रोज़गार चला गया. लोग शहरों से गांव की तरफ गए और मनरेगा में काम की डिमांड 5 प्रतिशत तक बढ़ गई. इस नुकसान पर सरकार ने कोई अध्ययन नहीं कराया. सरकार को इस योजना का नफा-नुकसान और तथ्यों से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक करना चाहिए.

वंचितों के बारे में कौन सोचेगा?

जैसा कि मोदी जी कहते हैं कि वे 125 करोड़ जनता के प्रधानमंत्री हैं. उनका काम है कि वे देश की समूची आबादी के बारे में सोचें. न्याय का सिद्धांत यह है कि '10 अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए.'

प्रधानमंत्री जी ने अपना निर्णय लेते समय भारत की करीब दो तिहाई ग्रामीण आबादी के बारे में क्या सोचा था जो बैंकिंग व्यवस्था से बाहर है? इंटरनेट से लेनदेन वैध करने के फैसले के साथ उस 78 प्रतिशत जनता के बारे में क्या सोचा जिसकी पहुंच इंटरनेट तक नहीं थी. क्या प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनजान हैं कि देश की मात्र 22 प्रतिशत आबादी इंटरनेट के दायरे में आती है.

पेटीएम जैसी व्यवस्था को प्रमोट करना सुविधाजनक रहा होगा, लेकिन सिर्फ उनके लिए जो स्मार्टफोन और तेज स्पीड इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं. देश की 125 करोड़ की आबादी में कुल 61 करोड़ के करीब मोबाइल यूजर हैं. इनमें से बड़ी संख्या साधारण मोबाइल का इस्तेमाल करती है. बड़ी संख्या में लोगों के पास एक से ज्यादा मोबाइल नंबर हैं. आधी से अधिक आबादी जो मोबाइल सुविधा का भी इस्तेमाल नहीं करती, उसके लिए क्या व्यवस्था की गई थी?

नोटबंदी की घोषणा के समय भारत के 'अभिन्न अंग' कश्मीर घाटी में इंटरनेट पर प्रतिबंध था. उस बारे में सरकार ने क्या वैकल्पिक व्यवस्था की थी? देश में करीब ढाई करोड़ लोग क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं. बाकी की पूरी आबादी के बारे में सरकार ने क्यों नहीं सोचा? देश की करीब आधी आबादी अशिक्षित है. जो शिक्षित नहीं हैं, उनके इंटरनेट साक्षर होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. जाहिर है कि उनके पास कैशलेस पेमेंट की सुविधाएं नहीं हैं. उनके बारे में सरकार ने क्या योजना बनाई थी?

अच्छी नीयत पैमाना नहीं हो सकती

नोटबंदी के आपात निर्णय के बाद सरकार को हर दिन अपने निर्णय बदलने पड़े. इससे आम जनता को और भी असुविधा हुई. निर्णय के पहले गोपनीयता का मसला था. उसके बाद में भी निर्णय से जुड़ी अराजकता का समाधान तुरंत क्यों नहीं हुआ? नोटबंदी की वजह से जिन साधारण लोगों को जान गंवानी पड़ी, सरकार ने उन पर मुंह नहीं खोला. कितने लोग मरे हैं यह सिर्फ अनुमान है कि यह संख्या 150 के करीब होगी. सरकार ने नोटबंदी से हुई मौतों का आंकड़ा क्यों नहीं जारी किया?

पूरे देश में 70 से 80 प्रतिशत उद्योग-व्यापार प्रभावित हुआ है. देश की अर्थव्यस्था और उद्योग जगत को कितना नुकसान हुआ है, इसका अनुमान क्यों नहीं लगाया गया? क्या नोटबंदी से जितना हासिल हुआ, नुकसान उससे कम है या अधिक है? क्या इसका अनुमान लगाने का कोई तंत्र सरकार ने नहीं बनाया.

इन सब सवालों के बावजूद यह कहना होगा कि नोटबंदी का फैसला अच्छी नीयत से लिया गया था और साहसिक था. लेकिन अच्छी नीयत के आधार पर फैसले की असफलता और उससे उपजे संकट की समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए? प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि उन्होंने एक सार्वजनिक हित का निर्णय लिया. उसकी आलोचना भी सार्वजनिक हित से ही जुड़ी है. उन्हें हर मुद्दे को भावुकता का मसला बनाने से बचना चाहिए. कालाधन, भ्रष्ट हो चुकी अर्थव्यस्था, नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय मसले भावुकता के मसले नहीं हैं. एक मजबूत प्रधानमंत्री को बार-बार भावुकता का सहारा क्यों लेना पड़ता है?

इतने सारे सवालों के मद्देनजर अरविंद केजरीवाल, यशवंत सिन्हा और कांग्रेसियों के यह आरोप ज्यादा भारी पड़ता है कि नोटबंदी देश का सबसे बड़ा घोटाला था. यह संदेह भी पुख्ता होता है कि भाजपा ने अपने फायदे के लिए यह कवायद की. इस​की पुष्टि एडीआर के उस हालिया आंकड़े से भी होती है ​जिसमें कहा गया है कि भाजपा सबसे अमीर राष्ट्रीय दल है और एक साल में उसकी आय 81.18 प्रतिशत बढ़ गई. 2016-17 में देश के सात राष्ट्रीय दलों ने कुल 1,559.17 करोड़ रुपये की आय घोषित की. इनमें भाजपा की आय सबसे ज्यादा 1,034.27 करोड़ रुपये रही. यह कुल राशि का 66.34 प्रतिशत है.

बैंक घाटे में, कंपनियां घाटे में, व्यापार घाटे में, अर्थव्यस्था घाटे में लेकिन भाजपा फायदे में. क्या यह तथ्य संदेह नहीं पैदा करते? क्या नोटबंदी वाकई एक घोटाला था?

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

हम मध्ययुगीन बर्बरता के कीचड़ में धंसने के लिए अतीत की ओर लौट पड़े हैं

यह ज्ञान, सूचना और तकनीक का युग है. जिनका इनपर कब्जा है, वे दुनिया की अगुआई कर रहे हैं. ​जो इनसे
वंचित हैं वे विकासशील अथवा तीसरी दुनिया के देश हैं. अब तलवार से और संख्याबल से सत्ता नहीं मिलती. ऐसा मध्ययुग में होता था. दुनिया के सबसे युवा देश के करोड़ों बच्चों के हाथ में मोबाइल पकड़ाकर, मुफ्त में डेटा देकर उन्हें फर्जी खबरों और झूठी सूचनाओं के ब्लैकहोल में कुदा दिया गया है. दिन भर लोग बहस करते हैं कि नेहरू कितने हिंदू विरोधी थे, या गांधी कितने दुश्चरित्र.

मीडिया के नाक में नकेल यह तय करती है कि इस पीढ़ी में यह चर्चा न होने पाए कि दुनिया के विकसित देश कहां हैं और हम कहां हैं. इस देश के बच्चों को सिखाया जा रहा है कि बाबर-अकबर से लेकर गांधी-नेहरू तक आपके दुश्मन हैं. उनसे हिसाब बराबर करना है. युवाओं को यह तक नहीं सोचने दिया जा रहा है कि इन लोगों से बदला लेने के लिए हमको भी मरना पड़ेगा क्योंकि वे बहुत पहले मर चुके हैं.
सोशल मीडिया पर वायरल हापुड़ में लिंचिंग की तस्वीर.
जिस इतिहास से हमें सबक लेना था, हम उसकी गंदगी और दलदल में कूदने की प्रतियोगिता कर रहे हैं. हम मध्ययुगीन बर्बरता के कीचड़ में धंस जाने के लिए अतीत की ओर लौट पड़े हैं.

एक घटना पर गौर करें. चार बड़े लेखकों को उनके विचार और लेखन के कारण मार दिया गया. वे तर्कवादी, प्रगतिशील और आधुनिक विचारों के लोग थे. इसके विरोध में लेखक समुदाय ने विरोध किया और पुरस्कार लौटाए. उन्हें अवार्ड वापसी गैंग, आजादी गैंग, अफजलप्रेमी गैंग, पाकिस्तानी आदि कहा गया. अब जब सरकार की एजेंसियां कह रही हैं कि ​कट्टर हिंदू संगठन के लोगों ने इन्हें मारा. उनकी धरपकड़ हो रही, चार्जशीट लग रही, लेकिन सन्नाटा है. जो अवार्ड वापस करके विरोध करने को बड़े बड़े बुद्धिजीवियों का उपहास कर रहे थे, वे हिंदुओं के नाम पर इस आतंक की निंदा तक नहीं कर रहे हैं.

इससे साफ है कि आपको अपने लेखकों, दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों से नहीं, आपको धार्मिक कट्टरता और पाकिस्तान से बहुत प्रेम है. हर असहमति को पाकिस्तानी बताना आपको उसी की तरह बना रहा है. यह हिंदू जनता को तय करना है कि उन्हें अपनी हजारों साल पुरानी उदार संस्कृति चाहिए या हिंदुत्व नाम की कट्टर राजनीति. यह कुत्सित राजनीति हिंदुओं की विराट संस्कृति को तालिबान के समकक्ष लाकर खड़ा कर देगी. हिंदू धर्म में व्याप्त पाखंड और बुराइयों की आलोचना और सुधारों ने ही उसे बड़ा और उदार बनाया है. कट्टरता तुच्छ होती है, वह आपको संकुचित करेगी और दुनिया की निगाह में बर्बर साबित कर देगी.

बुरे को बुरा कहने वाले को धर्मद्रोही मत कहिए. कबीर कह गए हैं कि 'निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय'. आपके निंदक या आलोचक आपके विरोधी नहीं हैं. जो धर्म के नाम पर आपको गोलबंद करना चाहते हैं, जो धर्म के नाम राष्ट्र बनाने और दीगर धर्मों से आपको घृणा सिखाते हैं, वे अंतत: गोलबंद करके आपको कट्टरता के कुएं में धकेल देंगे, जहां से निकलने में आपको सदियां लगेंगी. आपको यही सोचने से रोका जा रहा है इसीलिए ऐसे लोग तैयार किए गए हैं जो तर्क और ज्ञान की बातें करने वाले का उपहास करें, उसकी हत्या कर दें और उन्माद का माहौल बनाएं.

भारत विश्वगुरु रहा होगा तो इतना कमअक्ल नहीं रहा होगा कि जबानी फेंके और आदमी की गर्दन पर हाथी का सिर ट्रांसप्लांट करवा दे. विश्व के इतिहास में उदार संस्कृतियों ने हमेशा विकास किया है और आज भी यह सत्य है.

पूंजीवाद का अगुआ वामपंथ का धुर विरोधी अमेरिका अपने वामपंथी विचारक को नोबल जैसे पुरस्कार दिलाता है, उनके नाम पर विभाग ​बनवाता है. उनसे अपनी नीतियों यहां तक कि युद्ध नीतियों की आलोचना करवाता है. वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश है.

हमारे देश में तर्कवादी, प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच के लोगों की हत्या कर दी जाती है, उन्हें पाकिस्तानी और देशद्रोही कहा जाता है. मंत्री से लेकर चैनलिए तक उनका मजाक उड़ाते हैं. हम किसी को लिखने के लिए उसे जेल में डाल देते हैं, बोलने के लिए किसी की नौकरी ले लेते हैं. हम तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में हैं जो मानव विकास सूचकांक में हमेशा नीचे से फर्स्ट आता है. अपनी इस हरकत के बावजूद हम विश्वगुरु बनने का दावा ठोंक रहे हैं.

बहुसंख्यकवाद और भीड़ की राजनीति करके हमें यह सोचने से रोका जा रहा है कि सड़कों पर तकरीर करने और तलवार भांजने का युग चला गया है. अब तकरीर कर रही लाखों की आबादी को इजराइल जैसे छोटे देश एक बटन दबाकर उड़ा देते हैं. जब दुनिया ब्रम्हांड के रहस्य खोज रही है, हमारा शासक हमसे कह रहा है कि नाली पर भगोना उलटकर चाय बना लो. आदमी की गर्दन पर हाथी का सिर ट्रांसप्लांट कर दो. वेदों से विमान निकाल लो. फूलों से विमान बना लो.

चाहे निजी जीवन हो, चाहे सामाजिक, क्या यह सच नहीं है कि हम अपने को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मान कर अपने साथ अन्याय करेंगे? स्वाभिमान और गौरव एक जरूरी चीज है, जो हर नागरिक में होनी चाहिए, लेकिन इतिहास के गर्त में कूद जाना और सबसे महान होने का नारा लगाना ऐतिहासिक मूर्खता से अधिक कुछ नहीं है. हमें मालूम है कि हमने अपनी बैलगाड़ी में टायर भी तब लगाया जब अंग्रेज हमें लूटकर रेलगाड़ियों में भरकर ब्रिटेन ले जा रहे थे. इतिहास किसी से नफरत करने के लिए नहीं होता. इतिहास हमेशा सबक सीखने के लिए होता है. 

बड़ी संख्या में हमारे युवाओं को भीड़ में तब्दील कर दिया गया है. वे न्यायालय से बाहर शक के आधार पर लोगों की हत्याएं कर रहे हैं. ऐसे सैकड़ों केस हो चुके हैं. दोषी लोगों को केंद्रीय मंत्री माला पहनाकर उनका स्वागत कर रहे हैं. हमें यह सोचने से रोका जा रहा है कि 50-60 साल की आजादी की लड़ाई और लाखों की कुर्बानी के बाद मिले लोकतंत्र को हम भीड़ बनकर नष्ट कर रहे हैं. हमें लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, उदार, और प्रगतिशील सोच से दूर किया जा रहा है ताकि हम भेड़ का ऐसा झुंड बन जाएं जिन्हें कोई एक सत्ता का लालची अपने इशारा पर चराता फिरे.

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

महंगाई डायन अब महंगाई जानेमन हो गई

फोटो साभार: भोपाल समाचार
'जय मां दुर्गे' नामक न्यूज चैनल पर छोटा अर्नब चीख चीख कर हिंदू मुस्लिम पर डिबेट करा रहा था. मेरे एक अजीज दोस्त उसे 'गरीबों का अर्नब' कहते हैं. वह गरीब जनता को ताकतवर अंग्रेजीदां के बराबर चीख सकने की कला का कॉन्फिडेंस देता है. 'भारत माता की जय' नामक एक दूसरे चैनल के स्टूडियो में एंकर ने अपनी जबानी तोपें पाकिस्तान की तरफ मोड़ दी थीं. 'विज्ञान तक' नामक एक चैनल पर एक एंकरिनी गाय की सांस में निकली कार्बनडाई आक्साइड को आॅक्सीजन में बदलकर विज्ञान को फूल माला चढ़ा रही थी. उसी बीच महंगाई डायन का कायापलट हो गया. सेना के लड़ाकू विमान की खरीद में घोटाला हो गया. और सबसे बड़ी दुर्घटना यह कि महंगाई डायन अब महंगाई जानेमन हो गई. पेट्रोल का दाम बढ़कर 85 रुपये तक पहुंच गया.
एक सामान्य आदमी ने लिखा, महंगाई बहुत बढ़ गई है. उस पर एक असाधारण आदमी, जिसे भक्त कहते हैं, ने लिखा, चार साल पहले तुमको सब मुफ्त मिलता था क्या? तुम पाकिस्तान चले जाओ. हालांकि, हर देशद्रोही को पाकिस्तान भेजने की बात तो होती है, लेकिन बिना बुलाए मोदी जी और बुलावे पर सिद्धू को छोड़कर अब तक कोई पाकिस्तान नहीं गया. और ये दोनों भी दो दो दिन की यात्रा करके लौट आए, यह और बुरा हुआ.

मैं मेट्रो में यात्रा करते समय अपने दोस्त से कह रहा था कि देखो आज पेट्रोल का दाम फिर बढ़ गया. इतने में बगल खड़े एक सज्जन ने कहा, चार साल पहले महंगाई नहीं थी? तब नहीं खाते थे? देश के लिए थोड़ा महंगा नहीं खरीद सकते हो? मैंने पूछा, भैया चार साल में देश पर ऐसा कौन सा संकट आ गया कि हर नागरिक को हर सुविधा पर अतिरिक्त पैसा भुगतान करना चाहिए?

उन्होंने कहा, यह सब तुमको समझ में नहीं आएगा. जब तक सरकार के पास पैसा नहीं होगा तब तक देश का निर्माण कैसे होगा? आप लोग जरा सा पढ़ लिख क्या गए, किसी की बात नहीं सुनते.

मैं सनाका खा गया. मुझे लगा शायद देश किसी बड़े संकट में हैं और मुझे पता नहीं चला है. मैंने घर आकर टीवी खोला, भारत माता की जय नामक चैनल लगाया. शाम के नौ बज रहे थे. एंकर चमकचंद महोदय जनसंख्या समस्या पर बहस करवाने जा रहे थे.

एंकर महोदय ने पैनलिस्ट पोंगापंथी अखंड नारायण से पूछा, जी हम आपसे शुरुआत करते हैं, बताइए कि भारत को बढ़ती जनसंख्या से निपटने के लिए क्या करना चाहिए?

पैनलिस्ट ने सवाल पूरा होने पहले ही पोंगापंथी जी ने जवाब देने के उतावलेपन के साथ अपनी तर्जनी उंगली दिखाना शुरू कर दिया था. जैसे ही एंकर चुप हुए, पोंगापंथी जी जोर से चीखे, यह सवाल इस देश के वामपंथियों से पूछिए, इस देश के बुद्धिजीवियों से पूछिए, कुछ कांग्रेसी पत्रकारों से पूछिए, तथाकथित सेकुलरों से पूछिए कि वे मुसलमानों की बढ़ती आबादी का समर्थन क्यों कर रहे हैं?

एंकर ने टोका, लेकिन पोंगापंथी जी, आबादी तो पूरे देश की बढ़ रही है, समग्रता में देखा जाए तो हिंदू जनसंख्या ही ज्यादा बढ़ रही है. यह तो पूरे देश के लिए एक समाधान सोचना होगा, आपने भी तो कोई पहल नहीं की. इसमें अलग से मुसलमानों की बात कहां से आ गई?

पोंगापंथी जी उत्तेजना में बोले, देखिए आपने फिर से हिंदुओं और देश के विरोध में टिप्पणी कर दी है. आपने मुसलमानों का बचाव किया और हिंदुओं को आहत करने वाली टिप्पणी कर दी है. क्या आप हम हिंदुओं को इसीलिए बुलाती हैं अपने चैनल पर ताकि आप हमारी और हमारे हिंदू भाइयों की बेइज्जती कर सकें?

एंकर महोदय घबरा गए, लेकिन किसी तरह थूक निगलते हुए थोड़ा थमें, फिर दोगुने जोर से चीखे- सत्तारूढ़ पार्टी की तरफ से आरोप है कि विपक्ष लगातार हिंदुओं की भावना आहत कर रहा है. भावना जी इतनी बार आहत हुई हैं कि कई बार तो हत होते होते बची हैं. यह बहुत गलत हो रहा है इस देश में. विपक्ष को जवाब देना होगा... आप हमारे चैनल के फलां नंबर पर एसएमएस करके बताएं कि क्या विपक्ष द्वारा लगातार हिंदुओं की भावना जी को आहत करना जायज है? यस आॅर नो... जल्दी से हमें भेज दें.

इसके बाद ब्रेक हो गया. फिर चैनल पर स्वदेशी कंपनी पतितअंजली प्राइवेट लिमिटेड के दिव्य उत्पाद स्वदेशी वियाग्रा का प्रचार आया कि आप देशहित में स्वदेशी अपनाकर कैसे अपनी खोई हुई शक्ति वापस पा सकते हैं और देश के क्रांतिकारियों का कर्ज अदा कर सकते हैं. इसके बाद बहस फिर शुरू हुई....

एंकर महोदय, स्क्रीन पर हाजिर हुए और जोर से चीखे- विपक्षी दलों में हमारे पास एक ही पैनलिस्ट है, बाकी सब सत्ता पक्ष के हैं. तो हम कभी यूनाइट न होने वाले संपूर्ण विपक्ष की ओर से उन्ही से सवाल कर लेते हैं, ढपोरशंख जी, आप बताएं कि आप लोग, यानी सभी विपक्षी दल सिर्फ हिंदुओं की भावनाएं क्यों आहत कर रहे हैं?

ढपोरशंख जी कुछ बोलते, इसके पहले ही पोंगापंथी अखंड नारायण जी को गुस्सा आ गया. वे कान को फाड़ देने की क्षमता वाली अपनी आवाज की तीव्रता बढ़ाते हुए बोले, इनको जवाब देना होगा कि हिंदुओं के देश में ऐसा कैसे चलेगा? हम आज आपके चैनल के माध्यम से पूरे देश से कह देना चाहते हैं कि मंदिर वहीं बनेगा और हम ही बनाएंगे. यह देश के एक अरब हिंदुओं की आस्था का मामला है...

ढपोरशंख जी का चेहरा छोटा सा स्क्रीन पर ऐसा दिख रहा था जैसे वे कुछ बोलने की कोशिश में दांत चियार रहे हों. इधर पोंगापंथी जी का भव्य चेहरा स्क्रीन पर तारी था. वे बोले जा रहे थे, अरे मुल्ले, अरे पाकिस्तानी, अरे जिहादी, अरे पिड्डी, ओ पिड्डी, बिस्कुट खाओ, पिड्डी बिस्कुट खाओ....

नेपथ्य से ढपोरशंख की आवाज घिघियाती हुई मध्यम सी सुनाई पड़ी, वे एंकर से कह रहे थे कि चमकचंद जी, आपने जनसंख्या समस्या पर डिबेट आयोजित की है, यह हो क्या रहा है आपके चैनल पर?

चमकचंद जी ने स्क्रीन के किनारे जलती हुई आग में से झांक कर तेज आवाज में प्रहार किया, विपक्ष का रवैया बेहद गैरजिम्मेदाराना है. सरकार का विरोध सिर्फ विरोध करने के लिए नहीं करना चाहिए. और तब तक फिर से स्वदेशी पतितअंजली प्राइवेट लिमिटेड का प्रचार आ गया. हमने चैनल बंद किया, सिर में थोड़ा सा झंडू बाम लगाकर मालिश किया और किचन में जाकर घुइया छीलने लगा.

घुइया छीलते हुए हमें चमकचंद जी का चेहरा याद आया और मैंने मन में सोचा, आज चमकचंद जी ने क्या बेहतरीन मुद्दा उठाया. ऐसा 70 साल में पहली बार हो रहा है.

मूर्ख ज़िंदा हैं तब तक शातिर राज करेगा

एक बहुत बड़े महापुरुष की शोक सभा में शामिल मंत्री का ठहाका टीवी पर देखकर घर से निकला ही था कि सुबह सुबह एक पहुंचे हुए बाबा जी मिल गए. सज धज कर, त्रिपुंड लगाकर, गेरुआ पहनकर तैयार होकर पवन वेग से चले जा रहे थे. हमने पूछा, बाबा जी एतना सबेरे सबेरे कहां? बाबा बोले- बच्चा जा रहा हूं दुनिया को बेवकूफ बनाकर व्यौपार करने का नुस्खा देखने. व्यौपार का नुस्खा सुनकर मुझ बेरोजगार के कान खड़े हो गए. हमने तनिक उत्साह से पूछा, बाबा क्या यह नुस्खा कहीं सिखाया जाता है? बाबा बोले, नहीं बच्चा, यह सिखाया दिखाया नहीं जाता. यह अमल में लाया जाता है. जैसे जादूगर हाथ की सफाई दिखाकर लोगों को करतब दिखाता है, वैसे सियासत के जादूगर भी हाथ की सफाई दिखाकर लोगों को करतब दिखाते हैं. मैं अधम संन्यासी वह करतब देखना चाहता हूं कि खून में व्यापार होने का दावा करने वाले सियासतदां किसी महापुरुष की तिजारत कैसे करते हैं?

यह तिजारत जैसा भारी भरकम शब्द मेरी समझ में नहीं आया. मैंने पूछा, बाबा अब यह महापुरुष की तिजारत क्या बला है? बाबा बोले, बच्चा तू तो एकदम नादान है. लगता है जी न्यूज नहीं देखता. इसलिए कम होशियार है. जब किसी गुजर चुके महापुरुष का यश, उसका नाम, उसका काम और यहां तक कि मृत्यु के बाद उसकी अस्थि भस्म तक को भुनाया जाए तो यह हुआ व्यौपार, मतलब तिजारत. मैं वही देखने जा रहा हूं कि अटल बिहारी वाजपेयी नामक हिंदू महापुरुष को मरणोपरांत कैसे सियासत के बाजार में उतारा गया!
मैंने सुबह ही 'हिंदू हृदय सम्राट' अखबार पढ़ा था. पढ़कर संतुष्ट हो गया था, सो उनसे पूछ बैठा, बाबा, लेकिन मरने के बाद अस्थियां गंगा में विसर्जित करने की परंपरा है. वही तो हो रहा है. इसमें गलत क्या है?
बाबा बोले, अरे मूढ़ बालक, अस्थियां गंगा में विसर्जित करने की परंपरा है. सरजू या यमुना में भी हो सकती हैं, लेकिन टेढ़िया नदी, सुरसुरी नदी, खुखरी नदी, मोतिया नदी और जो नदी मर चुकी है, जिसकी अपनी धारा ही नहीं बची है और शहर वालों के गुह से भरी है, उसमें अस्थि विसर्जन का भव्य आजोयन तो किसी विशेष प्रायोजन से ही होगा न? यह धार्मिक परंपरा तो नहीं है.
दूसरी बात बच्चा, अस्थि विसर्जन तो परिवार के लोग करते हैं. ठहाके लगाते मंत्री, मसखरी करते कार्यकर्ताओं, राजनीति करते नेता और सनाका खाती जनता को अस्थि विसर्जन करते देखना और परिवार वालों का सभा में उपेक्षित होकर लौट आने का रहस्य मैं समझना चाहता हूं.
मेरी जिज्ञासा ने उड़ान भरी— लेकिन बाबा अटल जी की पार्टी तो धर्म की रक्षक है. जबसे विकास हेरा गया है, राफेल घोटाला हो गया, नीरव और मेहुल स्मार्ट सिटी से एंटीगा हो गया, तब से वे लगातार कह रहे हैं धर्म खतरे में है. तो वे तो धर्मसम्मत काम ही करेंगे.
अस्थि विसर्जन में शामिल मंत्री के अंदाज में ही बाबा ने ठहाका लगाया और बोले, बस बच्चा, यही तो तुझे समझाना चाह रहा हूं. धर्म के खतरे में होने की बात धर्म का व्यौपार है और यह अस्थि विसर्जन कर्ता और उसके कर्म का व्यौपार है. धर्म को खतरा किससे है? मृत की व्यक्ति की अस्थियों को मोक्ष के लिए गंगा में न बहाकर सियासत के घिनौने कुंड में डाल देना ही असली अधर्म है.
बाबा ने बीन बजाते सपेरे की तरह सांस चढ़ाई और आगे बोले, बेटा मैं बूढ़ा हो गया हूं. मैंने जिन्ना से लेकर दिल्ली वाले खन्ना तक को देखा है. जब कोई कहे कि धर्म से खतरा है तो समझ लो कि खतरा उस व्यक्ति के रूप में हमारे सामने है. यही वह अधम प्राणी है जो हमारी आस्था को लंगी लगाएगा और अंत में हमें मूरख बनाकर हमारा फायदा उठाएगा. धर्म नश्वर नहीं है, धर्म आस्था संबंधी विचार है. धर्म के खतरे में होने की बात भौतिक फायदे का मायाजाल है. यह मायाजाल ही मैं समझना चाह रहा हूं, इसलिए विसर्जन समारोह में जा रहा हूं.
मैंने गीता के कम से कम दो तीन श्लोक पढ़ रखे थे. मैं अपने आप को बाबा से कम ज्ञानी कैसे समझता? मैंने अपना ज्ञान ठेलते हुए कहा, बाबा लेकिन मनुष्य तो परमात्मा का अंश है. आत्मा अमर. फिर कोई अधम मृत व्यक्ति की तिजारत कैसे कर सकता है?
बाबा एक कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए बोले, बच्चा, जब तक तुझ जैसे मूढ़ जिंदा हैं तब तक शातिर इस देश में राज करता रहेगा. अरे आत्मा अमर है, मानव की पकड़ से दूर है, लेकिन सियासत के दलदल में धंसा व्यक्ति सबसे क्रूर है. वह आत्मा को नहीं पकड़ पाएगा तो आत्मा से छूटा शरीर धर दबोचेगा. दबोचकर उसका जलसा मनाएगा, जुलूस निकालेगा. उसकी कला समझो, वह बालू से तेल निकालेगा. प्रकृति के महाविनाश में फंसे लाखों लोगों को मरने के लिए छोड़ देगा और देश का खजाना जलसे और नुमाइश के लिए खोल देगा.
बाबा ने सुरती निकाली, मलते हुए बोले, बच्चा आपने वह पंक्ति सुनी होगी कि जर्मन शासक कहते थे कि ​जनता को रोटी नहीं दे सकते तो सर्कस दो. अब सर्कस का तो जमाना न रहा, सो हुतात्माओं ने मृतात्मा को पकड़ कर सर्कस दिखाना शुरू कर दिया है. यह सर्कस महीनों चलेगा और तू भूखा, बेराजगार, बेकार ऐसे ही सर्कस के बारे में सरसरी जानकारी बटोरता घूमता रहेगा. जा जाकर सर्कस देख. मैं चला, मुझे अतिशत विलंब हो रहा है.
बाबा ने सुरती मलने का महाउपक्रम पूरा करते हुए ताल ठोंकी, गर्दा उड़ाया, सुरती मुंह में प्रक्षेपित की और मुझे छींकने के लिए छोड़कर छिटकते फुदकते हुए आगे बढ़ गए.

बुधवार, 22 अगस्त 2018

आवारा भीड़ के ख़तरे

(देश भर में आवारा भीड़ बेक़ाबू हुई जा रही है. वह जहां तहां अपने तरीक़े से न्याय करने पर आमादा है. वह कहीं भी किसी को भी पीटकर मार सकती है. इस आवारा भीड़ को ही ध्यान में रखते हुए व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई द्वारा जून 1991 में लिखा गया लेख ‘आवारा भीड़ के खतरे’ याद आता है.)
फोटो साभार: द वायर
एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर. इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया- पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर कांच के केस में सुंदर माॅडल खड़ी थी. एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा. कांच टूट गया. आसपास के लोगों ने पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया- हरामजादी बहुत खूबसूरत है.

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी?

20वीं सदी के उत्तरार्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं- पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी.

अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का काम मिले, अमेरिका में रहूं.

‘स्टेटस’ जाना है यानी चौबीस घंटे गंगा नहाना है. ये अपवाद है. भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है, जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं. संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार और भारत के युवकों के व्यवहार में अंतर है.

सवाल है उस युवक ने सुंदर माॅडल के चेहरे पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है- यह उस गुस्से का कारण क्यों है? वाह, कितनी सुंदर है- ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?

युवक साधारण कुर्ता-पाजामा पहने था. चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त. शिक्षित था. बेकार था. नौकरी के लिए भटकता रहा था. धंधा कोई नहीं.

घर की हालत खराब. घर में अपमान बाहर अवहेलना. वह आत्मग्लानि से क्षुब्ध. घुटन और गुस्सा. एक नकारात्मक भावना. सबसे शिकायत.

ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है. खिले हुए फूल बुरे लगते हैं. किसी के अच्छे घर से घृणा होती है. सुंदर कार पर थूकने का मन होता है. मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है.

अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है. जिस चीज से खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है.

बूढ़े-सयाने लोगों का लड़का जब मिडिल स्कूल में होता है, तभी से शिकायतें होने लगती हैं. वे कहते हैं ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था.

हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुका के मानते थे. अब ये लड़के बहस करते हैं. किसी की नहीं मानते. मैं याद करता हूं कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था.

गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता. समाज के नेताओं का भी नहीं. मगर तब हम किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी?

हमारे कस्बे में दस-बारह अखबार आते थे. रेडियो नहीं. स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था. सब नेता हमारे हीरो थे- स्थानीय भी और जवाहरलाल नेहरू भी.

हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियां नहीं जानते थे. मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे.

पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पांचवीं कक्षा का छात्र है. वह सबेरे अखबार पढ़ता है, टेलीविजन देखता है, रेडियो सुनता है. वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है.

देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है. घर में कुछ ऐसा करने को कहो तो प्रतिरोध करता है- मेरी बात भी तो सुनो. दिन भर पढ़कर आया हूं. अब फिर कहते हो कि पढ़ने बैठ जाऊं. थोड़ी देर नहीं खेलूंगा नहीं तो पढ़ाई भी नहीं होगी. हमारी पुस्तक में लिखा है. वह जानता है कि घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं.

ऊंची पढ़ाई वाले विश्वविद्यालय के छात्र सबेरे अखबार पढ़ते हैं तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं. अखबार देश को चलाने वालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं.

धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है. यही नेता अपने हर भाषण, हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं- युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र का ग्रहण करना है- (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे?

छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे में सब जानते हैं. उनका ऊंचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं. उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टांग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग.

छात्रों से कुछ भी नहीं छिपा रहता अब. वे घरेलू मामले भी जानते हैं. ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएं. ये गुरु कहते हैं- छात्रों को क्रांति करना है. वे क्रांति करने लगे तो सबसे पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे. अधिकतर छात्र अपने गुरुओं से नफरत करते हैं.

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं. वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो तीन हजार है, पर घर का ठाठ-बाट आठ हजार रुपयों का है. मेरा बाप घूस खाता है. मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है.

हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सब कुछ जानते हैं. इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों से भी अंधआज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती. हमारे यहां ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था- ‘प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत.’

उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है. कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था. उसकी परीक्षा हो चुकी है और लंबी छुट्टी है. उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो तीन बार कहा. डांटा.

वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया, हम क्या करें? ऐसी-तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी. छुट्टी काटना उसकी समस्या है. वह कुछ तो करेगा ही. दबाओगे तो विद्रोह कर देगा. जब बच्चे का यह हाल है तो तरुणों की प्रतिक्रियाएं क्या होंगी.

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है. सब बड़े उसके सामने नंगे हैं. आदर्शों, सिद्धातों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ते, वे देखते हैं. वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते हैं.

मूल्यों का संकट भी उनके सामने है. सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है. बाजार से लेकर धर्मस्थल तक. वे किस पर आस्था जमाएं और किसके पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे लॉस्ट जनरेशन’(खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है. युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा, चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं. युद्ध में सब बड़े लगे हैं तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं.

बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए. घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ. जीवन मूल्यों का नाश हुआ. ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन, कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीच जो पीढ़ी बढ़कर जवान हुई तो खोई हुई पीढ़ी.

इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवा कुछ नहीं था. विश्वास टूट गए थे. यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई.
अंग्रेज लेखक जॉर्ज आॅसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था तो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी. नाटक का नाम है- ‘लुक बैक इन एंगर’. मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और सम्पन्न हो जाने पर भी चलता रहा.

कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए. ‘बीट जनरेशन’ पैदा हुई. औद्योगीकीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है. ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है. अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा. मगर व्यवस्था से असंतोष वहां भी पैदा हुआ.

अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है. वहां एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक हैं तो दूसरी ओर अतिशय सम्पन्नता से पीड़ित युवक भी. जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वछंदता और विध्वंसवादिता में प्रकट हुआ.

जहां तक नशीली वस्तुओं के सेवन का सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है. दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले (1989 में) सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्राएं नशे के आदी पाए गए.

दिल्ली तो महानगर है. छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं. किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर कहीं मिल जाता है. ‘स्मैक’ और ‘पाट’ टाफी की तरह उपलब्ध हैं.

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं. सही मानते हैं. अगर छात्रों-युवकों में विचार हो, दिशा हो, संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो, वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बनें, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयां मिलाकर पतन की परंपरा को आगे नहीं बढ़ाएं. सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है.

एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठे दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे. वे ‘स्टूडेंट पावर’ में बहुत विश्वास करते थे. मानते थे कि छात्र क्रांति कर सकते हैं. वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते. उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लेना होगा. लक्ष्य निर्धारित करना होगा.

आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो. अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए. हो ची मिन्ह और चे गुवेरा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी, भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना. अमेरिकी विश्वविद्यालयों की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी.

फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे. राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यालय में आंदोलन किया. लेखक ज्यां पाल सात्र ने उनका समर्थन किया. उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था.

उनके लिए राजनीतिक क्रांति करना तो संभव नहीं था. फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया. पर उनकी मांगें ठोस थीं जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन. अपने यहां जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी. पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई. फिर वह लंदन चला गया.

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सब पतित हैं तो हम क्यों नहीं हों. सब दलदल में फंसे हैं तो जो लोग नए हैं, उन्हें उन लोगों को वहां से निकालना चाहिए. यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फंस जाएं.

दुनिया में जो क्रांतियां हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है. मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले, क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है, वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती.

ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर लेते हैं. कारण बताते हैं- मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूं, पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा. यदि युवकों के पास दिशा हो, विचारधारा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वे परिवर्तन ला सकते हैं.

पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है. यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है. अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है.

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया.

यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं.

यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

‘जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर संभालनी है, उन्हें अक़्ल का अंधा बनाया जा रहा है’

(जब पूरा देश ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, कुछ नेता ऐसे भी थे जो विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे. इस सलाह के जवाब में भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से यह महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था.)

इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान (विद्यार्थी) राजनीतिक या पॉलिटिकल कामों में हिस्सा न लें. पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है. विद्यार्थी से कॉलेज में दाख़िल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वे पॉलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे. आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मंत्री है, स्कूलों-कॉलेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ाने वाला पॉलिटिक्स में हिस्सा न ले. कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था, वहां भी सर अब्दुल कादर और प्रोफेसर ईश्वरचंद्र नंदा ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विद्यार्थियों को पॉलिटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए.

पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ कहा जाता है. इसका क्या कारण हैं? क्या पंजाब ने बलिदान कम किए हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली हैं? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं. आज पंजाब काउंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी और फिज़ूल होती है, और विद्यार्थी-युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता. उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता. जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफ़सोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता.

जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक़्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें ख़ुद ही समझ लेना चाहिए. हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए. ऐसी शिक्षा की ज़रूरत ही क्या है? कुछ ज़्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं, ‘काका तुम पॉलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो ज़रूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो. तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फ़ायदेमंद साबित होगे.’

बात बड़ी सुंदर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ़ ऊपरी बात है. इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक ‘अपील टू द यंग, प्रिंस क्रोपोटकिन’ पढ़ रहा था. एक प्रोफ़ेसर साहब कहने लगे, ‘यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है!’ लड़का बोल पड़ा, ‘प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है. वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे.’ इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफ़ेसर के लिए बड़ा ज़रूरी था. प्रोफ़ेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हंस भी पड़ा. और उसने फिर कहा, ‘ये रूसी सज्जन थे.’ बस! ‘रूसी!’ क़हर टूट पड़ा! प्रोफ़ेसर ने कहा, ‘तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पॉलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो.’ देखिए आप प्रोफ़ेसर की योग्यता! अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते हैं?

दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वायसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पॉलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबंध से संबंधित कोई भी बात पॉलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जाएगी, तो फिर यह भी पॉलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जाएगा कि इससे सरकार ख़ुश होती है और दूसरी से नाराज़? फिर सवाल तो सरकार की ख़ुशी या नाराज़गी का हुआ. क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही ख़ुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिंदुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफ़ादारी करने वाले वफ़ादार नहीं, बल्कि ग़द्दार हैं, इंसान नहीं, पशु हैं, पेट के ग़ुलाम हैं. तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफ़ादारी का पाठ पढ़ें?

सभी मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की ज़रूरत है, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दें. लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो. सिर्फ गणित और ज्योग्राफी काे ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो.

क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कॉलेज छोड़कर जर्मनी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते, जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो. आज नेशनल कॉलेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जाएंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है?

सभी देशों को आज़ाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं. क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते. वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रांति की ज़रूरत है. वे पढ़ें. जरूर पढ़ें, साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब ज़रूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें. अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें. वरना बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता.

(वेबसाइट www.marxists.org से साभार)

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