बुधवार, 30 मई 2012

गांधीजी भ्रष्ट कांग्रेस का दाह-संस्कार चाहते थे


महात्मा गांधी ने गांधी सेवा संघ के कार्यकर्ताओं से मई 1939 में कहा था- ‘‘मैं समूची कांग्रेस पार्टी का दाह-संस्कार कर देना अच्छा समझता हूं, बजाय इसके कि इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करना पड़े।’’ आज जब प्रधानमंत्री सहित देश के पंद्रह मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे हैं, क्या अगर गांधीजी जीवित होते तो पार्टी का दाह-संस्कार कर देते? 

टीम अन्ना एक बार फिर मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के खिलाफ गंभीर आरोपों के साथ उतरी है और उसका दावा है कि वह इन आरोपों के समर्थन में पुख्ता सबूत भी पेश करने का दावा कर रही है। टीम अन्ना का कहना है कि जब तक मंत्रिमंडल का शुद्धिकरण नहीं होगा, तब तक लोकपाल पास नहीं हो पाएगा। यह बात टीम अन्ना के लोग लंबे समय से कह रहे हैं। अन्ना हजारे और उनकी टीम के सदस्य आज कांग्रेस पार्टी और अन्य दलों के भ्रष्टाचार पर जितना परेशान हैं, गांधीजी उससे कहीं ज्यादा थे, यह और बात है कि तब स्थिति इतनी दमघोंटू नहीं थी। नवंबर, 1938 में गांधीजी ने हरिजन में लिखा- ‘‘यदि कांग्रेस से अवैध और अनियमित तत्वों की सफाई नहीं होती, तो आज जो इसकी शक्ति है, वह खत्म हो जाएगी और जब देश को वास्तविक संघर्ष का सामना करना होगा तब कांग्रेस लोगों की आशाओं को पूरा नहीं कर सकेगी।’’ दुर्भाग्य से गांधी की यह बात भविष्यवाणी की तरह उनके युग का अंत होते-होते सच साबित हुई। 

हालांकि, टीम अन्ना के ये आरोप नए नहीं हैं, लेकिन उन्हें इस बार व्यवस्थित ढंग से रखा गया है। टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के आरोपी जिन पंद्रह मंत्रियों की सूची पेश की है, उनमें मिस्टर क्लीन की छवि वाले नेता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी भी शामिल हैं। इनके अलावा सरकार में सबसे ज्यादा मुखर लगभग सभी मंत्रियों के नाम इस सूची में शामिल हैं। मसलन, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद, शरद पवार, एस एम कृष्णा आदि। टीम अन्ना ने मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जजों की निगरानी में एक विशेष जांच दल की मांग की है और ऐसा न होने की स्थिति में 25 जुलाई से आमरण अनशन की धमकी दी है। अपने को बेगुनाह साबित करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उन्होंने यह मांग की है कि वे खुद पहल करके जांच कराएं। इन आरोपों का आधार नियंत्रक महालेेखा परीक्षक की रिपोर्ट और मीडिया में प्रसारित खबरें हैं। टीम अन्ना ने अपने आंदोलन के दौरान अब तक प्रधानमंत्री पर कोई भी आरोप नहीं लगाए थे। 

प्रशांत भूषण का कहना है कि जिस दौरान प्रधानमंत्री के पास कोयला मंत्रालय हुआ करता था, कोयला ब्लाकों के आवंटन में अनियमितता बरती गई। प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल के मुताबिक, उन्होंने अपनी छानबीन में यह पाया कि प्रधानमंत्री जब कोयला मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे थे, उस दौरान लाइसेंस, परमिट आदि बहुत कम दामों पर बांटे गए, जिससे करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ। प्रधानमंत्री के समक्ष यह मसला उठाया गया, लेकिन उन्होंने इस पर कोई कदम नहीं उठाया और सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचा। 

टीम अन्ना के निशाने पर सिर्फ यही पंद्रह मंत्री नहीं हैं। उनकी मांग है कि जो जांच दल बनाया जाय, वह इन पंद्रहों के अलावा बसपा की मुखिया मायावती, सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह और लालू यादव पर लगे आरोपों की भी जांच करे। जांच दल के लिए टीम ने छह सेवानिवृत्त जजों के नाम सुझाए हैं, जिन्हें वे विश्वसनीय समझते हैं। इनमें जस्टिस ए के गांगुली, सुदर्शन रेड्डी, ए पी शाह, जे एस वर्मा, कुलदीप सिंह और एम एन वेंकटचिल्लैया के नाम शामिल हैं। यहां यह गौरतलब है कि टीम अन्ना सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों पर भी भरोसा नहीं करती। इसकी भी वजह शायद भ्रष्टाचार है। प्रशांत भूषण ने पहले ही सुप्रीम कोर्ट को आठ जजों के खिलाफ लिफाफा बंद हलफनामा देकर उन पर सवाल उठा चुके हैं। 
सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस ने इन आरोपों पर अपने चिरपरिचित अंदाज में प्रतिक्रिया दी कि ये सभी आरोप बेबुनियाद हैं और इसका जवाब देने की जरूरत नहीं हैं। पार्टी का कहना है कि यह कोई नई बात नहीं है। टीम अन्ना पहले भी ऐसी बातें करती रही है। कांग्रेस पार्टी की  प्रतिक्रिया अप्रत्याशित नहीं है। टीम अन्ना के अब तक के आंदोलन के दौरान अब तक उठे सभी सवालों को वह सिरे से नकारती रही है। तब भी, जब प्रशांत भूषण, स्वामी सुब्रमण्यम और अन्य के प्रयासों से कई घोटाले उजागर हुए और ए राजा, कनिमोझी और अलागिरी को मंत्री पद छोड़ जेल जाना पड़ा। टूजी को लेकर भी सरकार के मंत्रियों ने सभी आरोपों को बार-बार नकार कर कोई भी अनियमितता होने से इन्कार किया और सुप्रीम कोर्ट की डांट खाई।

यहां सवाल टीम अन्ना या सरकार के पक्ष-विपक्ष में खड़े होने का नहीं है, जैसा कि पिछले महीनों लगातार देखने में आया है। सवाल तो यह है कि व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और स्वच्छ प्रशासन कैसे पाया जाए? क्या सरकार इस दिशा में कोई प्रयास कर रही है? पहले से पर्याप्त कानून मौजूद होने और नए की जरूरत न होने की बात स्वीकारी जा सकती है, यदि मौजूदा कानून वर्तमान व्यवस्था को अपेक्षित पारदर्शिता तक पहुंचा सके। 
26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान को अपनाए जाने के दौरान अपने समापन भाषण में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था- ‘‘यदि लोग, जो चुनकर आएंगे, योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हुए तो वे दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्त बना देंगे। यदि उनमें इन गुणों का अभाव हुआ तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिरकार, एक मशीन की तरह संविधान भी निर्जीव है। इनमें प्राणों का संचार उन व्यक्तियों के द्वारा होता है, जो इस पर नियंत्रण करते हैं। भारत को इस समय ऐसे लोगों की जरूरत है जो ईमानदार हों तथा देश के हित को सर्वोपरि रखें। 
क्या हम उस स्थिति से आगे आ सके हैं? क्या आज भी डॉ राजेंद्र प्रसाद की बातें सही नहीं हैं? तो क्या हमें फिर से एक गांधी की जरूरत है जो भ्रष्ट पार्टी और सरकार का दाह-संस्कार कर भारत की जनता को एक स्वच्छ व्यवस्था प्रदान करे?

मंगलवार, 15 मई 2012

कार्टून से ढहता लोकतंत्र और महापुरुषों की गरिमा




एनसीईआरटी की किताब में छपे एक कार्टून को लेकर जिस तरह का नासमझी भरा विवाद हुआ, वह किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इस मसले पर संसद से लेकर सड़क तक की बहसें किसी को भी विचलित करने वाली हैं। हद तो तब हो गयी जब आम्बेडकर के कार्टून से दो हाथ आगे बढ़ पुरे पाठ्यक्रम में शामिल कार्टूनों पर सवाल उठाया गया. नेताओं का तर्क है कि कार्टूनों को किताब में शामिल करना और उसपर  छात्रों की राय माँगा देश को तानाशाही और अराजकता की और ले जायेगा. दुर्भाग्य है कि बड़े नेताओं ने भी इस असंगत बहस में सुर मिलाया, जिनसे ऐसी उम्मीद कटाई नहीं थी. जिन विद्वानों ने मिलजुल कर उस किताब को लिखा है, यदि उनका पक्ष और उनकी चिंताओं को दरकिनार भी कर दिया जाए और सिर्फ एक नागरिक की तरह सोचा जाए तो भी ये घटनाएं किसी को चिंता में डालने के पर्याप्त हैं। एक लोकप्रिय विधा को लेकर जिस तरह की घटनाएं और असंगत बहसें नुमायां हुईं, वह न तो वाजिब है और न ही किसी भी कोण से तर्कपूर्ण। असल में बात एक कार्टून से कहीं आगे तक जाती है। खासकर तब, जब पाठ्यक्रम में शामिल इन कार्टूनों के उद्देश्य साफ कर दिए गए हों। 
यह बात एकदम महत्व की नहीं है कि वह कार्टून कब बना और कब उस पर विवाद शुरू हुआ। महत्व की बात तो यह है कि ऐसी घटनाओं को अंजाम दिए जाने के पीछे क्या मंशा हो सकती हैं। क्या वास्तव में वह कार्टून बाबा साहेब आंबेडकर का अपमान करता है और जिन लोगों को उसके लिए दोषी कहा जा रहा है, क्या उनकी प्रतिबद्धताओं को भी परखने की कोई कोशिश हुई। कार्टून पर विवाद के शुरू होते ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पाठ्यक्रम विकास समिति के सदस्य प्रो सुहास पलशीलकर और समिति के सलाहकार योगेंद्र यादव ने विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया। कार्टून पर हंगामा करने वाले लोगों और समिति के इन सदस्यों पक्ष सुनकर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वास्तव में यह किसी महापुरुष की गरिमा का मसला न होकर उन मूल्यों का ही अपमान है, जिनकी सुरक्षा की बात कहकर पूरा विवाद खड़ा किया गया है।  
बात सिर्फ कार्टून का विरोध करने तक नहीं थमी, अगले ही दिन पुणे में सुहास पलशीलकर के दफ्तर में कुछ लोगों ने हमला कर तोड़फोड़ किया। इसकी प्रतिक्रिया में शांत स्वभाव योगेंद्र यादव ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा कि पलशीलकर ने अपने पूरे अकादमिक कैरियर में लोगों को आंबेडकर के बारे में सिखाया है, खुद मेरे लिए वो आंबेडकर को सिखाने वाले गुरु समान हैं। ऐसे व्यक्ति पर आंबेडकर के नाम पर कुछ अनपढ़ लोग हमला करें, इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है। 
इस पूरे प्रकरण में सांसदों की प्रतिक्रिया पर योगेंद्र यादव की टिप्पणी गौर करने वाली है कि ‘‘सांसदों ने नासमझी का परिचय दिया, कि जिस किताब ने आंबेडकर को स्थापित करने की कोशिश की, उस पाठय पुस्तक को आंबेडकर विरोधी करार दिया है। बिना एक शब्द पढ़े किसी चीज के बारे में राय व्यक्त की, यह सब सांसदों और संसद की गरिमा के अनुरूप नहीं है और मुझे यकीन है कि इस भेड़चाल से मुक्त होकर हमारे देश की संसद कुछ बेहतर सोचेगी।‘‘ असली चिंता की बात यही है कि क्या हमारी संसद और हम कुछ बेहतर सोंचेंगे। 
पलशीलकर पर हमले के ठीक एक दिन बात संसद अपनी गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति खासी चिंतित दिखी और सदस्यों ने शपथ ली कि वे देश की संसद और उसकी लोकतांत्रिक गरिमा की सुरक्षा करेंगे। जबकि, इस चिंता में कितनी गंभीरता है, यह एक दिन पहले ही साबित हो चुका था और उसके पहले भी, जब कोलकाता में एक कार्टून को लेकर एक प्रोफेसर को जेल की हवा खानी पड़ी। लगातार हम असहिष्णुता की खतरनाक प्रवृत्ति को फलता-फूलता देख रहे हैं।  
सामाजिक विज्ञान की जिस पुस्तक में शामिल कार्टून पर विवाद है, उसके अलावा पाठ्यक्रम की अन्य किताबों में भी यह विधा शामिल की गई है। सब में हर अध्याय को समझाने और उसमें निहित संदेशों को एक तार्किक परिणति तक पहुंचाने के लिए इन कार्टूनों का सहारा लिया गया है। इसके अलावा पाठ्यक्रम में दो चरित्र उन्नी-मुन्नी हैं, जो हर बात पर गंभीर सवाल खड़ा करते हैं। उन्नी-मुन्नी के हर सवाल काफी असहज करने वाले हैं। उन सवालों के वहां मौजूद होने का सीधा अर्थ है कि पाठ्यक्रम में जिज्ञासा और बहस की गुंजाइश का भरपूर ख्याल रखा गया है। दर्जनों कार्टूनों और इन सवालों की मदद से किताब को एक तार्किक स्वरूप देने की कोशिश की गई है। किताब में गांधी, नेहरू, पटेल, आंबेडकर और इंदिरा गांधी सहित उस समय के सभी बड़े नेताओं और घटनाक्रमों पर कार्टून हैं। कार्टून विधा और उसके महत्व के बारे में चर्चा करने का कोई तुक नहीं है, क्योंकि वह पहले से स्थापित है। पाठ्यक्रम की अन्य किताबों भी यही शैली अपनाई गई है। ‘‘भारत का संविधानः सिद्धांत और व्यवहार‘‘ शीर्षक की किताब की भूमिका में इस बारे में लिखा गया है कि ‘‘इन कार्टूनों का उद्देश्य महज हंसना-गुदगुदाना नहीं है। ये कार्टून आपको किसी बात की आलोचना, कमजोरी और संभावित सफलता के बारे में बताते हैं। हमें आशा है कि इन कार्टूनों का मजा लेने के साथ-साथ आप इनके आधार पर राजनीति के बारे में सोचेंगे और बहस करेंगे।‘‘ दुर्भाग्य से यह उद्देश्य पूरा होता नहीं दिख रहा। 
इसी तरह सरकार की शक्ति और सीमाओं पर चर्चा करते हुए किताब में उन्नी का यह सवाल देखें कि ‘‘इसका मतलब यह कि पहले आप एक राक्षस बनाएं और फिर खुद को उससे बचाने की चिंता करें। मैं तो यही कहूंगा कि फिर राक्षस जैसी सरकार को बनाया ही क्यों जाय।‘‘ क्या इस सवाल का उद्देश्य सरकार या संविधान का मखौल उड़ाना हो सकता है। जाहिर है, नहीं। और यह विवाद उन किताबों को बिना देखे पढ़े खड़ा किया गया जिस पर संसद ने न सिर्फ संज्ञान लिया, बल्कि देश से माफी भी मांग ली। यह हमारी राजनीति और सामूहिक मेधा का कमजर्फ नजरिया है, जो एक शुभ उद्देश्य को नकारता है और हमें संकीर्णता की ओर ले जाता है। इस प्रकरण सहित किसी भी किताब, फिल्म या अन्य किसी भी रचना पर संसद सदस्यों और बुद्धिजीवियों का मौन खतरनाक संकेत है। हमारे इस मौन से उस असहिष्णुता को बढ़ावा मिलेगा जो विचारों का गला घोंटने को हमेशा तैयार रहती है। योगेंद्र यादव की टिप्पणी सटीक है कि इस तरह की घटनाएं ‘‘न सिर्फ हमारी असहिष्णुता, बल्कि राजनीतिक निरक्षरता का भी परिचय है। कल तक जो आरएसएस या बीजेपी वाले करते थे, अब वहीं आंबेडकर के नाम पर हो रहा है।‘‘ विचारों की स्वतंत्रता के लिए छीजती जगह को सुरक्षति करने के लिए हमें सड़क पर आकर खड़ा होना होगा। 



गुरुवार, 3 मई 2012


आज सांस कुछ मद्धम है
जैसे थाम के तुम्हें
चले थे रेत पर
ज़मीन से कुछ ऊपर उठ
लरजते क़दमों से
आज फिर लौटी है वो सिहरन
थरथराते पत्ते की तरह
जैसे गह के तुम्हारी हथेली
बहे थे हम हवा के साथ साथ
आज फिर से हुआ हूं बेखुद
कि तुममे डूब चला हूं
आओ थाम लो फिर आज
कि मैं बहने लगा हूं

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...