शुक्रवार, 19 नवंबर 2010


मुस्लिम समाज में गतिशीलता की ज़रूरत 

                                                                                                                   -     असगर वजाहत 
भारत के विभाजन के बाद से ही हमारे यहां ऐसी बहसें चलती रही हैं कि मुसलमान यहां सुरक्षित हैं या नहीं. उनके धर्म, भाषा, संस्कृति, पहचान और जीविका संबंधी उनके अधिकार स्वतंत्रता की हद तक सुरक्षित हैं या नहीं. यदि नहीं, तो इसका जिम्मेदार कौन है? यदि हां, तो इसके बाद भी मुसलमान पिछड़े  क्यों है? प्रस्तुत है इन्हीं मुद्दों पर वरिष्ठ  साहित्यकार असगर वजाहत का नजरिया-
भारत में अल्पसंख्यकों के पिछड़े होने का कारण है कि उन्होंने खुद अपने साथ बुरा किया. उन्होंने अपनी मूल समस्याओं को नजरअंदाज किया. चाहे वह पश्चिमी शिक्षा का विरोध हो, खिलाफत आंदोलन हो या फिर भारत का विभाजन. आज भी उनकी सबसे बड़ी मुश्किलें यही हैं कि वे अपनी मूल समस्याओं को समस्या मानने से इनकार करते हैं. वे यह स्वीकार नहीं करते कि हम शैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं. अपनी समस्याओं का इनकार ही अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी समस्या है. नेताओं ने धर्म के नाम पर ऐसी चाबी भर दी है कि वह एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है जिसके नाम पर मुसलमान जान देने को तैयार है. उनको आगे लाने के लिए समुचित नीतियों की जरूरत है. पिछले पचास-साठ साल मुसलिम समाज के अंतमुर्खी होने के वर्ष कहे जा सकते हैं. मुसलिम समाज कई कारणों से सिमटता चला गया है. केवल सांप्रदायिक दंगों या हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों के आतंक के कारण ही नहीं बल्कि कोई अग्रगामी एजेंडा न हो पाने के कारण मुसलमान इतना अधिक बचाव की मुद्रा में आ गये हैं कि वे भारतीय लोकतंत्र में अपनी भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं और न अपना हिस्सा ही ले पा रहे हैं. 
आरक्षण इस दिशा में एक अहम उपाय हो सकता है. जिन समुदायों को अवसर मिलता रहा है वे आगे हैं. अब जरूरत है कि जो पीछे रह गये हैं उन्हें अवसर देकर आगे लाया जाये. जो समुदाय विकास की धारा में पीछे छूट गया हो उसे साथ लिये बिना आगे चलना संभव नहीं होगा. बशर्ते इसे लेकर समुचित नीति हो और लागू करने में ईमानदारी बरती जाय. मुसलमानों के संदर्भ में स्थिति थोड़ी सी उलट है. उन्हें आरक्षण की नहीं, प्रेरणा की जरूरत है. मुसलमानों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे शिक्षा आदि विषयों में, जो उनकी स्थिति सुधारने में मदद कर सकती हैं, उसमें रुचि दिखाएं. जामिया जैसे विश्वविद्यालय में आप देख सकते हैं कि सभी प्रोफेशनल और अच्छे कोर्सेस के टापर गैर-मुस्लिम विद्यार्थी हैं. वहां तो उनको पढ़ने और आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक रहा. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का भी हाल जैसा है सब जानते हैं. आज जितनी भी मुस्लिम संस्थाएं हैं, वे सब गुणवत्ता  के मामले में सबसे निकृष्ट कोटि की हैं. सही मायने में मुसलमानों में आज समाजसुधार की सख्त जरूरत है. अन्य समुदायों की भांति मुस्लिम समाज में क्रीमी लेयर है. यह और बात है कि यह बेहद छोटा है. किसी भी तरह के आरक्षण का फायदा यही तबका उठाता है. आरक्षण आदि से गरीब मुसलमान को कोई फायदा नहीं होता. इन मसलों को लेकर कोई मुसलमान नेता आगे नहीं आता. मुसलिम समाज में कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन नहीं दिखाई पड़ता. लगता है सर सैयद के आंदोलन के बाद मुसलिम समाज में कोई आंदोलन नहीं चला. यहीं नहीं, मुसलिम समाज में धर्म, संस्कृति, भाषा, सामाजिक समस्याओं आदि को लेकर कोई विमर्श भी नहीं दिखाई पड़ता. यह जड़ समाजों का लक्षण है और मुसलमान को गतिशील होने की आवश्यकता है. यदि देखा जाये तो भारतीय अर्थव्यवस्था, प्रशासनिक संरचना और उद्योग जगत में मुसलमानों की भागीदारी नगण्य है. मुसलिम बुद्घिजीवी अपने समाज और परिवेश का अध्ययन करने तथा दिशा-निर्देश तय करने में भी बहुत सफल नहीं हुए हैं. ऐसी स्थिति में धर्म और धर्म की आड़ में तथाथित ’धार्मिक मूल्यों’ ने मुसलमानों को बड़े भारतीय समाज से अलग कर दिया है. कहने को मुसलमानों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है लेकिन यह सब कवायदें मात्र राजनीतिक औपचारिकताएं हैं. देश में नीतियां ऐसी बनायी जानी चाहिए कि जो वर्ग कमजोर है उसे अपने आप फायदा हो. अगर ऐसा नहीं होता तो इसका अर्थ है कि नीतियों में खोट है. हमारे यहां इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जो पढ़ाई पूरी कर ले उसे नौकरी भी मिलेगी. नागरिकों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार की गारंटी नहीं है. अलबत्ता इन चीजों का इस्तेमाल वोट लेने के लिए होता है. 
दरअसल, मुसलमानों का इतिहास एक सामंती और पतनशील मूल्यों से निकला इतिहास है. यह सामंतशाही 1857 में खत्म हो गई. उसके पतन का कारण भी वह खुद था क्योंकि उसमें दूरर्शिता का अभाव था. उसके बाद का समय सर सैयद अहमद का था. वे मुसलमानों को शिक्षा के जरिये आगे लाना चाहते थे. सर सैयद अहमद को इस बात का अंदाजा था कि आने वाला समय अंग्रेजों का है. हालांकि, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने विभाजन में बड़ी भूमिका निभाई. अगर अलीगढ़ आंदोलन में मुसलमानों की बौद्धिक तैयारी धर्मनिरपेक्षता की रक्षा कर पाने में सक्षम होती तो शायद आम मुसलमान पाकिस्तान का समर्थन नहीं करता. अगर उस समय का मुसलमानों का बौद्धिक तबका सही भूमिका निभा पाने के लिए सक्षम होता तो खिलाफत आंदोलन नहीं चला होता, जिसकी भारत में कोई जरूरत नहीं थी. तुर्की की जनता वहां के खलीफा को हटाना चाहती थी तो भारत में इसके विरोध का औचित्य समझ से परे है. महात्मा गांधी ने इसका समर्थन किया था जो कि उनके समस्त योगदान पर काले धब्बे की तरह अंकित है. कांग्रेस की राजनीति मुसलमानों के प्रति कभी बहुत स्पष्ट नहीं रही. मतलब कांग्रेस ने  कभी तय नहीं किया कि मुसलिम समाज के केवल उसी तबके से हाथ मिलाया जायेगा जो धर्मनिरपेक्ष, उदार, सहिष्णु और लोकतंत्र की मर्यादा को समझता है. कांग्रेस ने एक ओर जहां मौलाना आजाद, डा जाकिर हुसैन, रफीक अहमद किदवई, रफीक जकारिया, प्रो. नूरुल हसन जैसे लोगों को मान्यता दी तो दूसरी ओर तब्लीगी जमात और दूसरे ऐसे मुसलिम संगठनों से भी हाथ मिलाया जो अपनी प्रकृति में कांग्रेस से भिन्न थे. इसका कारण शायद यही था कि बड़ा मुसलिम समाज इन्हीं कट्टरपंथी शक्तियों के हाथ में है और वोट लेने के लिए कांग्रेस को कट्टरपंथियों के पास जाने की आवश्यकता पड़ती है. कांग्रेस ने मुसलिम वोट  के लिए हर प्रकार की मुसलिम जड़ता को समर्थन दिया. यहां तक कि शाहबानो केस में कांग्रेस ने ’यूटर्न’ ले लिया. कांग्रेस की यह रणनीति दूसरे दलों को इतनी पसंद आयी कि मुसलिम वोटों के आधार पर मुख्यमंत्री बनते रहे पर उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की वही हालत रही, जो थी. 
समस्या यह है कि मुसलमान खुद अपनी समस्याओं को लेकर चिंतित नहीं है. ऐसे में सरकारी प्रयासों से क्या होने वाला है. कहने को अल्पसंख्यक आयोग बना है, कई सारी योजनाएं भी रेवड़ी की तरह बंट रही हैं मगर इन औपचारिकताओं से अल्पसंख्यको को फायदे की जगह नुकसान ही है. सवाल है कि इसका विरोध कौन करे. क्योंकि जो मठाधीश इसका लाभ ले रहे हैं वे न इसका विरोध करेंगे और न ही करने देंगे. संख्या के आधार पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक मानने से भी क्या होगा. असल समस्या तो आर्थिक और सामाजिक है. जब तक इन बातों को आधार नहीं बनाया जाता तबतक अल्पसंख्यक समुदाय की समस्याएं बनी रहेंगी. वस्तुतः हमारा पूरा समाज यथास्थितिवादी है. समस्याओं का फौरी समाधान भी इसी यथास्थितिवाद का नतीजा है. यथास्थितिवादी नेता वर्तमान स्थिति को बदलना नहीं चाहते क्योंकि बदलाव से उन्हें मिलने वाले छोटे-छोटे फायदे बंद हो सकते हैं. 
मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साजिश अंग्रेजी हुकूमत ने तो की ही, आजादी के बाद पिछले साठ सालों से भी यह जारी है. क्योंकि अगर यह स्थिति बदल गयी तो जिन नेताओं का मुसलमानों पर प्रभुत्त्व है वह खत्म हो जायेगा. समस्या यह भी है कि आज मुसलमान केवल उन्हें अपना नेता मानता है जो उसके मत से पूरी तरह सहमत हों. किसी भी सामाजिक रीति  जैसे पर्दा आदि के बारे में कोई व्यापक बहस मुसलिम समाज के अंदर नहीं चलती. मुसलिम समाज की बड़ी समस्ययाएं तो वही हैं जो इस देश के गरीब, शोषित और पीड़ित समाज की हैं. लेकिन धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष उन्हें कुछ और जटिल बना देता है. 
                                                                                                         (लेख बातचीत पर आधारित है)










     



कोई टिप्पणी नहीं:

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...