सोमवार, 15 नवंबर 2010

पीछे नहीं हैं मुसलमान: मौलाना वहीदुद्दीन खान

मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि कोई समुदाय अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक है. संख्या के आधार पर अगर ऐसा है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. माइनारिटी और मेजारिटी कुछ नहीं होता. इस बारे में मेरी राय बिल्कुल अलग है. कुछ लोगों या कुछ समुदायों का आगे हो जाना या पीछे होना दुनिया भर में हर कहीं है. मैं नहीं मानता कि भारत में मुसलमान पिछड़े हैं. हमारे देश में करोड़ों की संख्या में हिंदू भी गरीबी से जूझ रहे हैं. ऐसे में यह कहना गलत है कि मुसलमान पीछे हैं या उसके साथ बड़ा अन्याय हो रहा है. अन्याय तब होता जब बाकी समुदायों में गरीब तबका नहीं होता. मैं आजमगढ़ में जन्मा हूं. आज के चालीस साल पहले वहां ज्यादातर लोग अनपढ़ थे. कोई शिक्षण संस्थान नहीं था. लेकिन पिछले दिनों मैं वहां गया था तो देखा कि अब स्थिति बदल गयी है. शिक्षा और पिछड़ेपन  के सवाल पर मेरे भाइयों ने कहा कि अब वे स्थितियां नहीं रहीं. अब गांव-गांव में स्कूल खुल गये हैं. मेरे ही परिवार के लोगों ने एक बड़ा सा स्कूल खोल लिया है. सभी पढ़-लिख रहे हैं. कोई कम्युनिटी अगर पीछे है तो उसे सरकार आगे नहीं बढ़ाती. लोग खुद आगे बढ़ते हैं. मैं अलग से किसी समुदाय पर विचार करना ठीक नहीं मानता. हम एक देश के नागरिक हैं और हमें सामूहिकता में सोचना चाहिए. दूसरे, सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत में मुसलमान पिछड़े नहीं हैं. उनके लिए भी उतने अवसर हैं जितने में वे अपने को काफी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं. इस सिलसिले में एक घटना उल्लेखनीय है. कुछ साल पहले की घटना है जब मैं हवाई जहाज में सफर कर रहा था. कुछ लोगों के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि भारतीय अंतरिक्ष और परमाणु कार्यक्रमों से यदि अब्दुल कलाम का नाम हटा दिया जाये तो वह कुछ नहीं बचेगा. जिस समुदाय से इतने महत्वपूर्ण और विद्वान लोग निकले हों वह पिछड़ी कहां है? और उनका आगे होना यह सिद्ध करता है कि आम मुसलमाना सहित हर नागरिक के लिए यहां अवसर है. मैं नहीं मानता कि सच्चर कमेटी आदि की कोई प्रासंगिकता है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट अखबारी तथ्यों पर आधारित है. सच्चर कमेटी ने गांवों के दौरे नहीं किये. उसने जमीनी हकीकत जाने बिना अपनी बातें रखीं. उसकी रिपोर्ट वैसी ही है जैसी मीडिया में रोजमर्रा की खबरें होती हैं. उनमें कितनी सच्चाई है यह सब जानते हैं.
               जहां तक लोगों मुसलमानों के पक्ष में उठने वाली आवाजों की बात है तो यह सिर्फ और सिर्फ राजनीति है. अयोध्या में बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि को लेकर जो विवाद है वह पूरी तरह राजनीतिक है. अगर वह आम मुसलमान या आम हिंदू का मसला होता तो वे लाखों-करोड़ों की संख्या में सड़क पर होते. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. न आम हिंदू जनता ने इस पर कोई प्रतिक्रिया दी और न ही मुसलमानों ने. दोनों ने अदालत के फैसले को स्वीकारा. किसी समुदाय की ओर से कोई अप्रिय घटना को अंजाम न दिया जाना इस बात का सबूत है कि यह आम जनता का मसला नहीं है. यह नेताओं की कसरत है. इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला मुसलमानों को मंजूर है. फैसला आने से पहले सरकारों ने स्थिति को काफी तनावपूर्ण बना दिया था. मैंने तब भी कहा था कि मसला ऐसा नहीं है जैसा पेश किया जा रहा है. सरकारों ने खामखां पैसा बरबाद किया. हमारी नयी पीढ़ी के सामने तमाम ऐसे सवाल हैं जहां ये सब बातें महत्व की नहीं हैं. हाल ही में मैं दिल्ली में था. एक महिला अध्यापक ने कहा कि मंदिर-मस्जिद हमारी चिंता के विषय बिल्कुल नहीं हैं. हम हिंदू या मुसलमान की निगाह से कुछ नहीं सोच सकते. हमें अपना ध्यान शिक्षा और इस तरह के अन्य जरूरी मसलों पर केंद्रित करना चाहिए. अगर जनता की सोच उदारवादी है, अगर वह विकास चाहती है तो ऐसे नेताओं की कोई कीमत नहीं है जो धर्म या जाति के आधार पर झंडा बुलंद करते हैं.
अयोध्या में मस्जिद के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई इस्लाम के मुताबिक जायज नहीं है. जो दावा किया जा रहा है कि मस्जिद की जगह को बांटा नहीं जा सकता या मस्जिद की जगह मंदिर नहीं बन सकता, ऐसी बातें कुरान में कहीं नहीं हैं. बल्कि, कुरान में कहा गया है कि दो धर्मस्थल अगल-बगल नहीं होने चाहिए. इस लिहाज से वहां मस्जिद जायज नहीं है क्योंकि वह हिंदुओं का धर्मस्थल है. मीर बाकी ने वहां मस्जिद बनवा कर समस्या खड़ी की. अब हमें इस गलती को सुधार लेना चाहिए. सऊदी अरब, सीरिया और मिश्र में मस्जिदों को रिबिल्ट किया गया तो हिंदुस्तान में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? हिंदू समुदायों का अलग जमीन देने का प्रस्ताव मुसलमानों को मान लेना चाहिए. मेरे ख्याल से दो बातें हो सकती हैं. या तो जो स्थिति है उसे स्वीकार कर लिया जाये या फिर मस्जिद के लिए कोई दूसरी जगह चुन ली जाये.
मुसलमानों को लेकर जो बातें प्रचारित की जाती हैं और की जा रही हैं, वे सही नहीं हैं. इन बातों से भ्रांतियां फैलती हैं. मुसलमानों को राजनीतिक और धार्मिक दोनों लिहाज से और ऊपर उठने की जरूरत है. मैं पहले भी यह बातें कहता रहा हूं और फिर कह रहा हूं कि मुसलमानों को नगेटिव वोटिंग न करके पाजीटिव वोटिंग करनी चाहिए. ऐसा सोच कर वोट नहीं चाहिए कि कोई पार्टी हमारी दुश्मन है और उसके खिलाफ वोटिंग करके उसे हराना है. यह अगर हमें नुकसान नहीं तो फायदा तो कतई नहीं पहुंचाएगा. वोट देने का आधार यह होना चाहिए कि कौन सी पार्टी को वोट देना हमारे हित मे या देश हित में हो सकता है. मुस्लिम समुदाय को यह समझने की सख्त जरूरत है कि कोई पार्टी या कोई सरकार किसी का कल्याण नहीं कर सकती. हर समुदाय अपनी मेहनत से आगे बढ़ता है. मेरे ख्याल से भारत में इतने अवसर हैं कि हर व्यक्ति आगे बढ़ सकता है. मुसलमानों को अपना ध्यान शिक्षा, उपलब्ध अवसरों का उपयोग और अपने विकास पर केंद्रित करना चाहिए.
(लेखक मुस्लिम विद्वान हैं. यह लेख बातचीत पर आधारित है.  प्रस्तुति- कृष्णकांत )


इस लेख में ये कुछ तथ्य ऐसे थे, जिस पर मुसलिम समाज के कुछ पाठकों ने  बहसतलब की. मसलन,
1- मौलाना वहीदुद्दीन खान ने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा को मानने से इंकार कर दिया है.  वे अल्पसंख्क और बहुसंख्यक में फर्क नहीं मानते जबकि स्वयं भारतीय संविधान के कई अनुच्छेदों में इसका उल्लेख है. जैसे अनुच्छेद (29) व अनुच्छेद (30) अल्पसंख्यकों में मुसलमान सहित सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध एवं पारसी भी सम्मिलित हैं. क्या इस अल्पसंख्या की अवधारणा पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है?
2- मौलाना वहीदुद्दीन खान, सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमेटी और उनकी रिपोर्टों को सिरे से नकारते हैं. क्या विभिन्न समितियों और रिपोर्टो की वास्तव में कोई प्रासंगिकता नहीं?
3- जहां तक मुसलमानों की नगेटिव और पाजिटिव वोटिंग का प्रश्न है तो हर व्यक्ति या समुदाय किसी न किसी  प्रकार की मनोवृत्ति से प्रेरित रहता है.  वह सकारात्मक हो सकती है या नकारात्मक. गुजरात दंगों के बाद मुसलमानों द्वारा नगेटित वोटिंग किया जाना क्या उस घटना से उपजी नकारात्मक मनोवृत्ति का परिणाम नहीं था?
4- मौलाना वहीदुद्दीन खान ने यह भी लिखा है कि कुरान के अनुसार दो धर्मस्थल अगल-बगल में नहीं होना चाहिए. कुरान में मसजिदों के बारे में कई उल्लेख जैसे सुरा (9) अल तांबा, आयत (18) सूरा (72) अल जिन्न, आयत (18) एवं सूरा (10), यूनूस आयत (87) आदि. मसजिद मुसलमानों के लिए ईमान का मामला है. इसीलिए मसजिद विवाद से जुड़ा मुसलिम पक्ष उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की तैयारी कर रहा है. यह उनका संवैधानिक अधिकार है. मौलाना वहीदुद्दीन खान को यह स्पष्ट करना चाहिए कि कुरान में कहां उल्लेख है कि दो धर्मस्थल अगल-बगल में नहीं होना चाहिए, ताकि समाज गुमराह होने से बच सके.   

23 अक्तूबर को हमने भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति-परिस्थिति पर मौलाना वहीदुद्दीन खान का एक लेख छापा था, जिस पर कई उलेमा सहित तमाम पाठकों ने अपनी असहमति जताते हुए पत्र लिखकर कुछ सवाल किये थे. इसी सिलसिले में रांची से डा. शाहिद हसन ने एक पत्र लिख कर मौलाना वहीदुद्दीन खान से कुछ सवाल किये थे. हमने उस पत्र को मौलाना साहब के समक्ष फिर पेश किया. उन्होंने डा शाहिद हसन के सवालों का क्रमवार जवाब दिया है. प्रस्तुत है मौलाना वहीदुद्दीन खान का जवाब-
रांची से डा शाहिद हसन साहब का पत्र प्रभात खबर को 25 अक्तूबर को छपा है. इस पत्र में जो बातें कही गयी हैं, उसकी वजाहत के लिए मैं जरूरी बातें यहां लिख रहा हूं- 
1- भारत में माइनारिटी और मेजारिटी शब्द पहली बार ब्रिटिश राज में इस्तेमाल हुआ. यही शब्द आजादी के बाद भी लिखा और बोला जाने लगा. मगर इस शब्द को मैं इस्लाम की आत्मा (स्पिरिट) के खिलाफ समझता हूं. इस्लाम के मुताबिक सारे इंसान एक हैं. कुरान में तमाम लोगों के लिए एक ही शब्द इंसान का इस्तेमाल हुआ है. इंसान को माइनारिटी और मेजारिटी में बांटना इस्लाम में नहीं है.
इस्लाम के पैगंबर ने अपना मिशन 610 ईस्वी में अरब में शुरू किया. पहले 13 साल वे मक्का शहर में रहे, फिर 10 साल मदीना शहर में. मक्का के 13 सालों में वहां मुसलमान माइनाॅरिटी में थे और गैर-मुस्लिम मेजारिटी में थे, लेकिन कुरान में सबके लिए एक ही शब्द इस्तेमाल हुआ और वह ‘इंसान‘ था.
इसके बाद पैगंबर साहब 10 साल मदीने में रहे और मदीने में ही 632 ई. में आपका देहांत हुआ. मदीना के शुरू के सालों में भी वहां मुस्लिम माइनाॅरिटी में और गैर-मुस्लिम मेजारिटी में थे, लेकिन दोबारा आपने इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया. बल्कि, सबके लिए एक ही शब्द इंसान का इस्तेमाल किया.
इसलिए इस्लाम की तालीम के मुताबिक, मैं ये कहूंगा कि मुसलमान सब को यकसां तौर पर इंसान समझें. वह लोगों को माइनारिटी और मेजारिटी में न बाटें. इंडिया के अंदर और इंडिया के बाहर भी. इससे मुसलमानों के दरमियान यूनीवर्सल सोच पैदा होगी. सबको यकसां तौर पर देखने का मिजाज पैदा होगा. जब ऐसा होगा तो इसके बाद मुसलमानों के लिए हर किस्म की तरक्की के तमाम दरवाजे खुल जाएंगे.
2- 1947 के बाद हिंदुस्तान में मुसलमानों की सामाजिक  और आर्थिक हालत क्या है, उसको जानने का जरिया सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट नहीं, बल्कि मुसलमानों की खुद अपनी हालत है. मैंने किसी रिपोर्ट का असर लिए बगैर मुस्लिम समुदाय का एक सदस्य होने की वजह से खुद अपने सर्वे की बुनियाद पर निष्कर्ष निकाला है और अपनी एक किताब में छापा है. यह किताब उर्दू और अंग्रेजी दोनों जबानों में है. उर्दू में उसका नाम है- हिंदुस्तानी मुसलमान. अंग्रेजी में है- इंडियन मुस्लिम अ पाजिटिव आउटलुक.
मैंने कई बार ऐसा किया है कि मुख्तलिफ मकामात पर मुसलमानों के जलसे में स्टेज से यह सवाल किया कि 1947 के बाद हर मुसलमान और उसके परिवार ने तरक्की की है. आप में से इसको कोई न मानता हो तो वह बताये कि उसका परिवार 1947 से पहले तरक्की पर था और बाद में वह तरक्की पर नहीं है. पर किसी मुसलमान ने यह खड़े होकर नहीं कहा कि मैं या मेरा खानदान 1947 से पहले आगे था और बाद में वह पीछे हो गया.
कोई शख्स मुस्लिम आबादियों में जाकर सर्वे करे तो वह सच्चाई को पा लेगा. सर्वे की बुनियाद सिर्फ यह होनी चाहिए कि 1947 से पहले हिंदुस्तान में मुसलमानों की हालत क्या थी और 1947 के बाद उनकी हालत क्या है. मिसाल के तौर पर मैं दिल्ली में निजामुद्दीन वेस्ट में रहता हूं. यह कालोनी 1947 के बाद बसायी गयी. शुरू में इस कालोनी के तमाम मकानात हिंदुओं के थे. आज इस कालोनी में करीब 80 फीसदी मकानात मुसलमानों के कब्जे में हैं. ऐसा कैसे हुआ? वह इस तरह हुआ कि मुसलमानों ने नये हिंदुस्तान के अवसरों को इस्तेमाल करते हुए पैसा कमाया और यहां के हिंदुओं के मकानों को खरीदकर वे यहां रहने लगे. इसी तरह मेरा गृह जनपद आजमगढ़ है. आजादी से पहले आजमगढ़ जिले में मुसलमानों का सिर्फ एक अंग्रेजी स्कूल था- शिबली नेशनल स्कूल. आज यह हाल है कि आजमगढ़ में गांव-गांव में स्कूल खुल गये हैं. खुद मेरे अपने गांव (बड़हरिया) में अंग्रेजी का बहुत अच्छा स्कूल चल रहा है. उसकी तकरीबन दस बसें हैं जो रोजाना आसपास के गांवों से बच्चों को लाती हैं और ले जाती हैं. इन मामलों में एक गलती यह की जाती है कि मुसलमानों की तुलना हिंदुओं से की जाती है. असल सवाल यह है कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में मुसलमानों ने खुद तरक्की की है या नहीं. इसलिए सही तरीका यह है कि मुसलमानों की 1947 से पहले की हालत और 1947 से बाद की हालत की तुलना की जाय, न कि दूसरों से.
इस मामले का एक पहलू यह है कि हिंदुओं ने राजा राममोहन राय के जमाने से अंग्रेजी पढ़ना शुरू किया जो कि बहादुरशाह जफर के जमाने के आदमी थे. जबकि, मुसलमान सर सैयद के बाद अंग्रेजी शिक्षा के मैदान में आये. इस ऐतबार से हिंदू और मुसलमानों के दरमियान लगभग सौ साल का फासला है. इस बिना पर दोनों के दरमियान फर्क होना जरूरी है.
इसी तरह अंगे्रज जब हिंदुस्तान में नयी इंडस्ट्री लेकर आये तो हिंदुओं ने तेजी से अपनी इंडस्ट्री लगाना शुरू कर दिया. मिसाल के तौर पर गुजरात का टैक्सटाइल उद्योग. मगर मुसलमान माडर्न इंडस्ट्री के मैदान में दाखिल नहीं हुआ. इसका कारण यह था कि माडर्न इंडस्ट्री में बहुत पैसा लगाना पड़ता था और वो सिर्फ बैंक लोन के जरिये हो सकता था, जिसमें ब्याज शामिल था. मगर मुसलमान उलेमा ने फतवा दे दिया कि बैंक लोन हराम है क्योंकि उसमें ब्याज देना पड़ता है. इसलिए मुसलमान माडर्न इंडस्ट्री में शामिल नहीं हुआ. जबकि, माडर्न इंडस्ट्री इस जमाने में आर्थिक विकास का सबसे बड़ा स्रोत है. ऐसी हालत में अगर मुसलमान माडर्न इकोनामी में पीछे है तो इसका दोष खुद मुसलमानों पर आता है, न कि दूसरों पर. मैं कहूंगा कि इस मामले में मुसलमान किसी दूसरे के बताये हुए आंकड़ों या तैयार की हुई रिपोर्टों को न देखें, बल्कि वो खुद अपना सर्वे करके अपनी हालत जानें. ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि इस तरह मुसलमान अपने आप को नकारात्मक सोच से बचा सकते हैं और अपने अंदर सकारात्मक सोच पैदा कर सकते हैं. ऐसा न करने की सूरत में मुसलमान का हाल उस रवायती कहानी जैसा हो जायेगा, जबकि एक शख्स ने किसी से कहा कि देखो कौवा तुम्हारा कान ले गया तो वह आदमी कौवे के पीछे दौड़ने लगा. हालांकि, उसे खुद अपने हाथों से देखना चाहिए था कि उसका कान उसके सर पर है या नहीं.
3- यह बात दुरुस्त है कि हर आदमी किसी न किसी मनो (वैचारिक रुझान) से प्रभावित रहता है और इस बिना पर वो नगेटिव वोटिंग या पाजिटिव वोटिंग करता है. मुसलमानों का हाल यह है कि चुनाव में वे नगेटिव वोटिंग करते हैं और बाद में शिकायत करते हैं कि हमको देश की राजनीति में जो हिस्सा मिलना चाहिए, वो नहीं मिला. हालांकि, दूसरी बात पहली बात ही का रिजल्ट है. जब मुसलमान नगेटिव वोटिंग करेंगे तो नतीजा भी नगेटिव होगा. वे देश की राजनीतिक व्यवस्था में अपना हिस्सा नहीं पायेंगे. मुसलमानों को यह करना है कि वे अपनी जाती भावनाओं को अलग करके देश के हित को देखें. वे देशहित को लेकर अपनी राय बनायें. इसका फायदा यह होगा कि उनके अंदर सही नेशनल स्प्रिट जागेगी. वे देश की तरक्की में अपना वो हिस्सा पायेंगे जो उन्हें मिलना चाहिए. इस तरह वो दूसरों के खैरख्वाह बन जायेंगे और दूसरे उनके खैरख्वाह बन जायेंगे. अगर मुसलमान ऐसा करें तो उनके लिए इस देश में भविष्य का नया अध्याय खुल जायेगा.
4- एक और बात अयोध्या के बाबरी मस्जिद से ताल्लुक रखती है. यह मस्जिद 1528 में बाबर के गवर्नर मीर बाकी ने बनवायी थी. इस मस्जिद के बनाने में मीर बाकी ने एक इस्लामी उसूल के खिलाफ काम किया था, जिसका नतीजा बाद के मुसलमानों को भुगतना पड़ा.
कुरान की सूरा ‘अलहज‘ में मुसलमानों को यह हुक्म दिया गया है कि तुम लोगों को मामले में नजाअ का मौका न दो.
कुरान की इस आयत में एक नियम बताया गया है वो यह कि मुसलमान ऐसा काम न करें जो अपने नतीजे के ऐतबार से दो फरीकों के दरमियान झगड़े का कारण बनने वाला हो.
मैंने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को खुद 1942 में देखा है. वहां मस्जिद बनने से पहले हिंदुओं का एक पवित्र स्थान था जिसे वे सीता का रसोईघर या राम चबूतरा कहते थे. मीर बाकी ने ये गलती की कि हिंदुओं के इस पवित्र स्थान से सटाकर वहां मस्जिद बना दी. इस तरह यहां एक झगड़े की बुनियाद कायम हो गयी. सही तरीका यह था कि मस्जिद को राम चबूतरे से दूर बनाया जाता फिर कोई झगड़ा पैदा न होता.
कुरान के इस नियम की अमली मिसाल यह है कि इस्लामी तारीख के दूसरे खलीफा उमर फारुक के जमाने में मुसलमान फलीस्तीन (इजराइल) में दाखिल हुए. वहां के बिशप के बुलाने पर उमर फारुक (638 ईस्वी में) खुद वहां गये. यरुशलम के चर्च आफ रिजरेक्शन में मुसलमानों और ईसाइयों के दरमियान समझौता हुआ. जब ये बातचीत हो रही थी उस वक्त अस्र की नमाज का वक्त आ गया. खलीफा उमर ने कहा कि मुझे नमाज पढ़ना है. ईसाइयों के मजहबी सरदार ने कहा कि आप यहीं चर्च के अंदर नमाज पढ़ लें. खलीफा उमर ने कहा कि नहीं, मैं पत्थर फेंकने की दूरी पर जाकर नमाज पढ़ूंगा, क्योंकि अगर मैंने चर्च के अंदर या उसके पास नमाज पढ़ ली तो बाद के मुसलमान यह कहेंगे कि हम यहां मस्जिद बनायेंगे क्योंकि हमारे खलीफा ने यहां नमाज पढ़ी है. इस तरह यहां चर्च और मस्जिद में झगड़ा खड़ा हो जायेगा.
मीर बाकी ने कुरान के बताये हुए नियम और खलीफा उमर की अमली मिसाल से सबक नहीं लिया. उन्होंने हिंदुओं के अकीदा (आस्था) के मुताबिक, उनके पवित्र स्थान से सटाकर मस्जिद बना दी. इसके बाद जो हो सकता था, वही हुआ.  बाद के मुसलमानों को मीर बाकी की इस गलती की कीमत चुकानी पड़ी.

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