सोमवार, 22 नवंबर 2010

 गलत नीतियों का नतीजा है नक्सलवाद 
                                                                                          -प्रो. अमित भादुड़ी
स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बाद भी भारत के ज्यादातर भागों में विकास नहीं हुआ है. लोगों के कानूनी अधिकार अभी तक सुरक्षित नहीं हो सके हैं. जिन क्षेत्रों को हम नक्सल-प्रभावित मानते हैं वहां की मुख्य समस्या यही है. आदिवासी समाज के भी अपने कुछ अधिकार हैं, यह हमारी सरकारें और बहुराष्ट्रीय कंपनियां मानने को तैयार नहीं हैं. ट्राइबल राइट्स, लीगल राइट्स, कम्युनिटी राइट्स आदि की लगातार अनदेखी की जा रही है. सवाल उठता है कि जो सरकार खुद अपने संविधान की अनदेखी करती है और अपना कानून नहीं मानती, वह विकास कैसे करेगी? नक्सलवाद एक विचारधारा है जिसके मानने वाले राज्य पर अपने तरीके से नियंत्रण चाहते हैं. उनका राज्य से संघर्ष है. यह अलग मसला है. दूसरी तरफ राज्य की अपनी नीतियां हैं जो लगातार कारपोरेट घरानों को बढ़ावा दे रही हैं. हमारी चिंताएं हमारे नागरिकों के प्रति होनी चाहिए. सब बातों से ऊपर एक बात है कि नागरिकों को उनके अधिकार मिलने चाहिए. 
मैंने अपने कुछ साथियों के साथ पलामू, नंदीग्राम, दंतेवाड़ा का कई बार दौरा किया है. इस दौरान हमने पाया कि नक्सल प्रावित क्षेत्रों में ज्यादातर समस्याओं की वजह पुलिस का अत्याचार है. पुलिस के आतंक और अत्याचार से तंग आकर लोग नक्सलियों का समर्थन करते हैं क्योंकि नक्सली उन्हें पुलिस के खिलाफ सुरक्षा देते हैं. यह गौर करने की बात है कि आदिवासी वस्तुतः नक्सलियों के समर्थन में नहीं, बल्कि सरकार के विरोध में है. सरकार की नीतियां आदिवासी समाज के हित में नहीं हैं. वहां घोर गरीबी है. दिल्ली में बैठकर  नीतियां बनाने वाले वहां की स्थिति को ठीक से समझते भी नहीं. जिस आदिवासी समाज को हम पिछड़ा कहते हैं वे बहुत मामले में हमसे आगे हैं. सबसे बड़ी जरूरत उनकी आवश्यकताओं को समझने और उनके प्रति हो रहे अन्याय को रोकने की है. 
नक्सल समस्या को सरकार ला एंड आर्डर की समस्या मानती है. कैसा ला एंड आर्डर पुलिस किसी भी व्यक्ति को मुठभेड़ में मार देती है. पुलिस किसी भी व्यक्ति को रोज थाने पर हाजिर होने का फरमान सुना सकती है. पुलिस किसी के भी घर में घुस कर लोगों को प्रताड़ित करती है. पुलिस के लोग युवतियों का बलात्कार करते हैं. वे बच्चों को प्रताड़ित करते हैं. ऐसी बातों से ऊबे लोगों को बरगलाना आसान होता है. नक्सली यही करते हैं. ला एंड आर्डर मानने का अर्थ तब है, जब सरकार खुद ला एंड आर्डर का ख्याल रखे. कम से कम संविधान आदिवासियों को जो संरक्षण देता है, उन्हें सरकार सुनिश्चित करे. आदिवासियों को दोयम दर्जे का नागरिक न समझा जाए. उन्हें पर्याप्त सम्मान मिलना चाहिए. फर्जी मुठभेड़ों का सिलसिला बंद होना चाहिए. यह गैर-लोकतांत्रिक है. पुलिस बिना वजह कैसे किसी को मार सकती मार सकती है? आज हेमचंद्र पांडे हैं, कल हम आप या कोई और हो सकता है. 
यह एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि हम नक्सल-समर्थक नहीं हैं. हम अन्याय के विरोध में हैं. हमे नक्सली हिंसा या उनकी गतिविधियों से कोई सहानुभूति नहीं है, लेकिन वे लोग जो अपनी मजबूरी के चलते नक्सली गतिविधियों में शामिल होते हैं, उनसे सहानुभूति है. 
सरकार वहां जिस विकास की बात करती है, वह लोगों के लिए नहीं, कंपनियों के लिए हो रहा है. सैकड़ों किलोमीटर के जंगलों में हाइवे इसलिए नहीं बनाया गया है कि उस पर आदिवासी चलेंगे, बल्कि इसलिए बनाया गया है कि वे कंपनियों की व्यापारिक गतिविधियों में सहायक होंगी. असल स्थिति यह है कि अब सरकारें कारपोरेट घरानों से पैसा लेती हैं और वही करती हैं जो कंपनियां कहती हैं. 
ज्यादातर देखने में आता है कि जिन लोगों को नक्सली घोषित किया जाता है, अगर आप उनसे मिलें तो देखेंगे कि ये वे बेहद सीधे-साधे लोग हैं. वे अशिक्षित हैं. उनके यहां शिक्षा नहीं है. वहां घोर गरीबी है. लोगों के पास खाने को खाना नहीं है. लोगों ने अभी तक बसें नहीं देखी हैं. लोगों ने चीनी नहीं देखी है. कितने इलाके हैं जहां बाजारों में सिर्फ नमक और चावल मिलता है. जिन लोगों ने कभी  माओ का नाम नहीं सुना, उन्हें माओवादी कहना हास्यास्पद है. वे माओवाद के लिए नहीं बल्कि अपने अधिकारों के लिए हथियार उठाते हैं. सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जमीनों का अधिग्रहण करा लेती है लेकिन विस्थापतों के बारे में नहीं सोचती. गांव के गांव उजाड़ दिये जाते हैं लेकिन उनके पुनर्वास का कोई पुख्ता प्रबंध नहीं होता. जबकि आदिवासी ऐसे लोगे हैं जो अपने जमीन से उजड़ने के बाद भीख भी  नहीं मांग सकते. वे कुछ सालों तक इधर-उधर भटकते हैं और फिर मर जाते हैं. 
मुश्किल यह है कि सरकार की नीतियां पूरी तरह कारपोरेट को ध्यान में रखकर बनायी जा रही हैं. अगर आदिवासियों के अधिकारों का खयाल रखा जाएगा तो कारपोरेट हित प्रभावित होंगे और सरकार ऐसा करके उन्हें नाराज नहीं कर सकती. आदिवासियों की समस्याएं अलग हैं. उनकी मांगें अपनी भाषा, संस्कृति और पहचान को लेकर है. 
जहां तक नक्सलवादी आंदोलन का सवाल है तो वैचारिक असहमति होने के बावजूद उनके अपराध सरकारी अपराध के मुकाबले बहुत कम हैं. नक्सली हिंसा को मैं जायज नहीं मानता. हमें इतिहास से सबक लेना चाहिए. रूस, चीन और विएतनाम जैसे देशों का उदाहरण हमारे सामने है. मैं उनकी विचारधारा से भी सहमत नहीं हूं. बावजूद इसके मैं मानता हूं कि नक्सलियों की लड़ाई विकास-विरोधी नहीं है. स्वास्थ्य सुविधाएं वहां न के बराबर हैं. जिन स्कूलों और अस्पतालों को नक्सलियों द्वारा गिराने की बातें होती हैं, वे ऐसी इमारते हैं जहां पुलिस फोर्स रहती है. नक्सली स्कूल इसलिए नहीं गिराते कि वहां पढ़ाई न हो, बल्कि इसलिए कि वहां पुलिस अपना डेरा न डाल सके. सरकार भले नक्सलवाद को ला एंड आर्डर की समस्या मान रही हो, मगर यह नीतिगत समस्या है. यह ला एंड आर्डर की समस्या तब होगी जब इसमें आदिवासी नागरिक न शामिल हों और यह सिर्फ एक विचारधारा पर आधारित लड़ाई रह जाए. अभी यह उस समाज और वहां के नागरिकों के अधिकारों की लड़ाई है. अगर जनता को उसका अधिकार मिले तो वह नक्सलियों को सपोर्ट नहीं करेगी और नक्सलवाद अपने आप खत्म हो जाएगा. 
आश्चर्यजनक है कि अरबपतियों की संख्या अचानक 8 से बढ़कर 56 हो गयी. स्विस बैंकों में सबसे ज्यादा पैसा भारतीयों का है. जिस देश में सबसे ज्यादा गरीब हैं, वहां सबसे ज्यादा अरबपति हैं. धन का यह केंद्रीकरण संविधान विरोधी है. ऐसा मान लिया गया है कि विकास सिर्फ मल्टीनेशनल कंपनियां कर सकती हैं. उद्योगपतियों और कंपनियों के इस गठजोड़ में स्थितियां और भी नाजुक होती जा रही हैं. आज आपको अगर चुनाव लड़ना हो, तो कम से कम आठ करोड़ रुपया चाहिए. अगर किसी बड़ी पार्टी से टिकट मिलता है, तो कम से कम 30 से 40 करोड़. ये लक्षण लोकतंत्र के तो कतई नहीं हो सकते. इन परिस्थितियों में आम आदमी की भागीदारी के अवसर ही खत्म हो जाते हैं. जो अति धनवान है, सारे अवसर भी उसी के लिए हैं. सरकार एक ओर कारपोरेट घरानों को 6 लाख करोड़ की सब्सिडी देती है, दूसरी ओर अपने नागरिकों के लिए भोजन की सुरक्षा देने से मना करती है. ऐसी नीतियों से विद्रूपताएं बढ़ेंगी. 
                                          (लेखक जन-अर्थशास्त्री हैं.  यहलेख बातचीत पर आधारित है )
  

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