बुधवार, 17 नवंबर 2010

इमारत के साथ ढहे तमाम सपने
                                                                                         -कृष्णकांत 

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में हुये हादसे का शिकार ऐसे लोग हुये, जो बेहतर जिन्दगी के सपनों के साथ दिल्ली आये थे. इस हादसे ने कुछ सपनों को दफन कर दिया तो कुछ बिखर गये. इस ढही इमारत के बीच बिहार और पश्चिम बंगाल के कुछ ऐसे ही लोगों की त्रासदी को महसूस करती एक रिपोर्ट-
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के एक इमरजेंसी वार्ड में विद्युत सरकार खून से लथपथ अपनी पत्नी जयंती सरकार का कंधा पकड़ कर बुत की मानिंद खड़े हैं. वे रोना भू चुके हैं और बस एक बात बार-बार दोहराते हैं कि पता नहीं यह सब कैसे हो गया. वे काम करके जब घर लौटे तो देखा कि जहां वे अपने परिवार के साथ सर छुपाते थे, वहीं आशियाना उनका सब कुछ लील गया. वे कल रात से अपने दो खोये हुए बच्चों को ढूंढते-ढूंढते थक चुके हैं और अब शांत है. उनके दो बेटे, बेटे क्रांति (14) और निशांत (13) लापता हैं. विद्युत सरकार जानते हैं कि वे दोनों उसी इमारत के मलबे में होंगे, जिसमें से 67 लाशें और 130 जख्मी लोगों को निकाल कर लाया गया है. विद्युत सरकार अपनी पत्नी, जो कि खून से भीगे बिस्तर पर बेहोश लेटी हुई हैं, उनको एक टक देख रहे हैं. लक्ष्मीनगर में सब्जी की दुकान चलाने वाले सरकार अपने बच्चों को पढ़ा तो नहीं सके, लेकिन जिंदगी ने उन्हें रोजी का पाठ पढ़ा दिया था और वे अपने बाप के साथ काम में हाथ बंटाने लगे थे. सोमवार की रात  भ्रष्टाचार की उपज एक इमारत ने इस परिवार के साथ कई-कई परिवारों को उजाड़ दिया. विद्युत सरकार रोटी की तलाश में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से दिल्ली इस उम्मीद से आये थे, किसब कुछ ठीक हो जायेगा, लेकिन सब कुछ उजड़ गया.’ महानगर के इस जंगल ने उनके जीवन  के सपनों को लील लिया.
तमाम खोये हुए लोगों के परिजन लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल से लेकर लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल तक चक्कर लगा रहे हैं. वे भी अस्पताल के बाहर चस्पा क्षतविक्षत लाशों की तस्वीरों में किसी पहचानने की कोशिश करते हैं तो भी वार्ड में बिस्तरों पर लेटी लाशों में किसी पहचाने चेहरे की तलाश करते हैं.
मुर्शिदाबाद की शोभारानी के नाक पर आक्सीजन मास्क लगा है. बदन पर जगह-जगह पट्टियां बंधी हैं. वह सहमी-सहमी आंखों से इधर-उधर लाशों की भीड़ को देख रही है. उसे यह नहीं पता कि उसका पति शाहदीप और दो बच्चे अब इस दुनियां में नहीं हैं. उनके आस-पास रहने वाले जो लोग इमारत गिरने के समय बाहर थे और बच गये, उनकी देखभा कर रहे हैं. शोभा अब तक यही जानती है कि वह पांच बच्चों की मां है. शोभारानी के खिदमतदारों ने भी तक उसे यह नहीं बताया है कि वह पति के साथ अपने एक साल के बच्चे एक बच्ची को खो चुकी है. उसके चेहरे पर बस अपने बदन में उठ रहे दर्द  का एहसास है. पहाड़ टूटना तो अभी  बाकी है. दिल्ली की लाइफलाइन मेट्रो रेल कारपोरेशन में काम करने वाले शाहदीप मेट्रो में लगातार हो रहे हादसों से बच गये, तो उस आशियाने से हार गये जहां पहुंचकर सबसे सुरक्षित महसूस करते रहे होंगे.
लोकनायक अस्पताल में ही एक बेड पर दो छोटे बच्चे लेटे हैं. एक का नाम अमित है दूसरे का समित. अमित की उम्र करीब पांच साल होगी. उसके बदन  में खून से भीगी पट्टियां लिपटी हैं. वह धीरे-धीरे बोल पा रहा है. वे दोनों अब अनाथ हैं, यह अमित को भी तक पता नहीं है. एक साल पहले अपने बाप को खो चुके इन बच्चों ने अब अपनी मां को भी खो दिया. मोहल्ले की दो-एक औरतों ने उन्हें पहचान लिया, और उनके साथ हैं. उन्होंने बताया कि इन बच्चों के कुछ परिजन दिल्ली में ही रहते हैं. आज उन्हें खबर की जाएगी. गनीमत है उस बिल्डिंग में रहने वाले ज्यादातर लोग मुर्शिदाबाद के थे. सब एक दूसरे को पहचानते हैं. वे साथ मिलकर सब्जी बेचने और रिक्शा खींचने के अभ्यस्त हैं, इसलिए जो बच गये हैं, वे इस दुःख के पहाड़ को मिलजुल कर उठा रहे हैं.
मुर्शिदाबाद के जतिन हलदर 30 साल से दिल्ली में रह रहे हैं. वे अपने परिवार के साथ लक्ष्मीनगर की उसी इमारत में रहते थे जो 67 लोगों की जिंदगियां ले चुकी है. जतिन और उनकी बीवी, दोनों काम के सिलसिले में बाहर थे. उन्होंने अपने 16 साल के बेटे  सपन को खो दिया. उनका 16 साल का बेटा देर से ही सही, पढ़ने जाने लगा था. वह छठवीं में था. जतिन के बाकी दो बच्चे सलामत हैं. जतिन ने पहले कुछ सालों तक  टेंट का काम किया. जब उन्हें लगा कि मालिक उन्हें ठग रहा है तो रिक्शा चला चलाने लगे. आखिर उम्र के आखिरी पड़ाव पर आकर उन्हें इस हादसे ने ठग लिया.
मुर्शिदाबाद की ही नमिता अस्पताल के उस वार्ड के बाहर खड़ी हैं, जहां उनकी मां और तीन भाई-बहनों की लाश रखी गयी है. एक सबसे छोटा भा भी तक नहीं मिला है. अमिता की आंखों में खौफ झलक रहा है. वह अपने किसी परिजन से बार-बार कुछ पूछती है. इधर-उधर बड़ी बेचैनी से देखती है, जैसे डूबते व्यक्ति को किसी तरफ कोई सहारा नहीं दिख रहा हो. नमिता ने भी जिंदगी के मुश्किल से 18 वसंत देखे होंगे. कुछ भी पूछने उसकी आंसुओं में डूबी लाल आंखें भर भर आती हैं
इसी इमारत के एक कमरे में कटिहार का निवासी बीस वर्षीय इसकील अपने ग्यारह साथियों के साथ रहता था. उसका दोस्त, जो पिछले हते उन सबसे मिल कर आया है, ने बताया कि  वे सब के उस बिल्डिंग के साथ ही जमींदोज हो चुके हैं. ये ऐसे युवा थे, जो महाशक्ति भारत की कल्पना नहीं कर सकते थे. उनका आखिरी उद्देश्य रोटी था, जो उन्हें खींच कर उनकी माटी से दूर ले आया और अब वे अपनी जिंदगी भी गवां चुके हैं. इस हादसे की सबसे खास बात यही रही कि लक्ष्मीनगर की इस इमारत ने भी उन्हीं मेहनतकश लोगों को निशाना बनाया है, जो रोज कुआं खोदकर अपनी प्यास बुझाते हैं. मानव निर्मित हर त्रासदी का शिकार होते हैं. चाहे कामनवेल्थ खेल हों, हिंदी विरोधी दंगेहों या फिर मेट्रो लाईओवर में होने वाले हादसे. मरने वालों में कोई रिक्शा चलाता था, तो कोई ठेला लगाता था. कोई ठेके पर दैनिक मजदूरी करता था, तो कोई रोज चैराहों पर खड़े होकर किसी अन्नदाता का इंतजार करता था. हताहतों में ज्यादातर लोग पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और बिहार के कटिहार के हैं. इस इमारत में रह रहे कई लोग भी भी गायब हैं, जबकि दिल्ली सरकार, रवायत के मुताबिक मुआवजे का झुनझुना पकड़ाने की कोशिश में है. सरकार जानती है कि इन मजलूमों के मरने के बाद कोई जिम्मेदारी लेने वाला सामने आयेगा, जंतर-मंतर पर कोई धरना होगा, ही कोई कैंडिल मार्च. वे हांड़ तोड़ मेहनत करने वाले लोग थे, जिनकी जिंदगी की कीमत मात्र दो लाख लग सकती है, जो कि वह दिल्ली सरकार ने लगा दी है. वह खोये हुए बच्चों के शव अभी तक ले दे पायी हो, पर मुआवजे की राशि जरूर देगी.

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