सोमवार, 22 नवंबर 2010

तय हो अल्पसंख्यकों की भागीदारी
                                                                    -शमसुल इस्लाम

भारत में कुल अल्पसंख्यकों का नब्बे प्रतिशत दलित जीवन जी रहा है. उनकी सामाजिक, आर्थिक और सामाजिक हालत वैसी ही है जैसे हिंदू समुदाय में दलितों की है. इनमें बुनकर, धुनकर, जुलाहे, कसाई आदि जातियां हैं, जिनकी हालत बेहद दयनीय है. बनारस का पूरा साड़ी उद्योग इन्हीं जातियों के दम पर टिका था. धीरे-धीरे वह सब बंद हो गया और लाखों लोग बेरोजगार हो गये. अंग्रेजों ने हमारी दस्तकारी पर सबसे बड़ा हमला किया था जिसमें मुसलमान सबसे ज्यादा प्राभवित हुए थे. आज भी उस पर नीतिगत हमला हो रहा है. बढ़ती बेरोजगारी को नजरअंदाज किया जा रहा है. इस पर किसी का ध्यान नहीं है कि बुनकर उद्योग बंद होने से करीब दो करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं वे कहां जायेंगे? इसकी परिणति में ये लोग रिक्शा चलाने या दैनिक मजदूरी करने को मजबूर हैं.  मुसलमानों के लिए अलग से कोई योजना चलाने या विधेयक लाने की जरूरत नहीं है. जरूरत इस बात की है कि सभी दलितों और गरीबों को आगे बढ़ाने पर ध्यान दिया जाये, मुसलमानों को अपने आप फायदा होगा. हिंदुओं की तरह मुसलमान भी जातियों में बंटे हैं. जिनमें कुछ समृद्ध और कुछ गरीब हैं. यहां धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था तय होनी चाहिये. मुसलमानों की कुछ निचली जातियां तो हिंदू दलितों से भी ज्यादा बदहाल स्थिति में हैं. 
अल्पसंख्यकों के पीछे रह जाने की क्या वजहें रहीं, अगर इसकी पड़ताल करें तो हमें पिछले साठ सालों से पहले के समय पर गौर करना पड़ेगा. अल्पसंख्यक आबादी मुख्यतः हस्तशिल्प से जुड़ी थी, जिसको अंग्रजों की औद्योगिक नीतियों ने तबाह किया. दूसरे, अंग्रेजों ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया. इससे भी अल्पसंख्क समुदाय का ही नुकसान हुआ. आजादी के पहले अंग्रजों ने जो विभाजनकारी नीतियां अपनायी थीं वे आजादी के बाद भी जारी रहीं. इससे मुसलमानों की स्थिति सुधरने के बजाय जस की तस रह गयी. तमाम वजहों से अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना बढ़ती गयी है. इसके अलावा राजनीतिक तौर पर भी अल्पसंख्यकों की स्थिति निराशाजनक है. वह इसलिए कि हमारे पास बेहतर राजनीतिक विकल्प नहीं हैं. हमें दो पार्टियों में से ही एक को चुनना होता है और मैं समझता हूं कि वे दोनों ऐसे दल हैं जो सत्ता में रहकर गरीबों को राहत नहीं दे सकते. अल्पसंख्यकों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति पर गठित सच्चर कमेटी का गठन एक राजनीतिक स्टंट था. कमेटी की रिपोर्ट और सिफारिशों के बाद भी न कोई उल्लेखनीय पहल हुई न बदलाव आया. इस आयोग का कोई औचित्य इसलिए भी नहीं था क्योंकि इंदिरा गांधी के समय में ही गोपाल सिंह आयोग बन चुका था जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ. जरूरत सिर्फ समितियों और आयोगों की नहीं, बल्कि जरूरत उनकी सिफारिशों के बारे में ईमानदारी से अमल करने की है. एक अध्ययन के मुताबिक भारत में अल्पसंख्यकों से संबंधित बलात्कार आदि आपराधिक मामलों में नौ में से सात मामले दर्ज ही नहीं होते और जो दर्ज होते हैं उनमें दोषियों को सजा दिलाने का अनुपात सिर्फ दो प्रतिशत है. जब तक हर स्तर पर न्याय नहीं मिलेगा तब तक चाहे दलित हों या अल्पसंख्यक, उनकी स्थिति नहीं सुधरने वाली है. आरक्षण की बात चाहे जितनी हो, परंतु वास्तविकता इससे अलग है. विभिन्न संस्थानों में ऊंचे और संपन्न तबकों का वर्चस्व है. यह भेदभाव सिर्फ सरकारी स्तर पर नहीं है. जो इस्लामिक संस्थान हैं वे भी गरीब मुसलमानों को अपने यहां आरक्षण नहीं दे रहे हैं. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हर फ्रंट पर गौर करें तो देखेंगे कि अल्पसंख्यकों और दलितों में असुरक्षा की स्थिति है. इसकी वजह है कि हमारा समाज धार्मिक और जातीय आधार पर विभाजित है. मुसलमानों का कहना है कि उनमें जाति व्यवस्था नहीं है परंतु मैं इससे सहमत नहीं हूं. वहां भी हिदूं समुदाय में दलितों की तरह एक तबका है जिसकी पहचान कर उन्हें सुरक्षा दी जानी चाहिए. 
हाल ही में अयोध्या विवाद पर दिया गया इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला अजीबो-गरीब है. यह भारतीय संविधान के प्रजातांत्रिक व सेकुलर मूल्यों को धक्का है. न्यायालय द्वारा कानून पर आस्था को तवज्जो दिया जाना बेहद हास्यास्पद है. अगर आस्था के आधार पर किसी मामले का हल खोजा जाएगा तो उसका कोई ओर-छोर नहीं होगा क्योंकि जहां आस्था होगी वहां तर्क नहीं टिकेंगे. हालांकि, फैसला किसी के हक में नहीं है. वहां बीच का रास्ता निकाला गया और दोनों समुदायों को थोड़ी-थोड़ी जमीन दे दी गई. उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में 1949 और 1992 की घटनाओं को नजरअंदाज किया. इस मामले पर राजनीति न करके तथ्यों पर गौर करना चाहिए. अगर कोई मंदिर गिरा कर वहां मसजिद बनाई गई तो रामकथा लिखने वाले कवि तुलसीदास ने उसका जिक्र क्यों नहीं किया. अगर आस्था के आधार पर निर्णय करना हो तो राम के प्रति तुलसीदास से बड़ी कौन सी आस्था है? लेकिन इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं लिखा. अयोध्या विवाद वस्तुतः अंग्रेजों की देन है जिसे अब और हवा नहीं दी जानी चाहिए. 1857 में हनुमानगढ़ी के महंत बाबा रामचरण दास और मौलवी अमीर अली, दोनों ने साथ मिलकर अग्रेंजों से लड़ाई लड़ी थी और उन्हें गिरतार कर एक साथ फांसी दी गई थी. यह सारे झगड़े 1857 में हमारी हार का परिणाम हैं. समाज में हिंदू बहुसंख्यक हैं, वे बड़े भाई की तरह हैं. उन्हें सब्र करना चाहिए और मुसलमानों को विश्वास में लेना चाहिए. गौरतलब है कि धर्म के आधार पर लड़ी जाने वाली लड़ाइयां कहीं ख़त्म नहीं होंगी. 
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के अध्यापक हैं. यह लेख उनसे बातचीत पर आधारित है)

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