सोमवार, 11 जुलाई 2011

पदयात्राओं की निष्ठा

आम तौर अमन, बदलाव और विग्रह के लिए की जाती रही हैं। फिलहाल, राहुल गांधी की पदयात्रा अमन और बदलाव के बीच में कहीं ठहरती है। लेकिन, उन्हें अपनी प्रतिबद्धता अभी साबित करनी है। अगर वह सिद्ध कर पाए तो इतिहास उन्हें जगह देगा, नहीं तो इसे हथकंडा मानकर हाशिए पर धर देगा।
                                                             

चैनलों में, अखबारों में, चाय की दुकानों पर, कैंटीन में, दफ्तरों में, आजकल जिधर देखो उधर राहुल गांधी की पदयात्रा जेरेबहस है। कोई कहता है कि राहुल ने राजनीति में नए युग की शुरुआत कर दी है और अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस पदयात्रा से जो उबाल आया है, वह कोई कोई अंजाम तो दे जाएगा। तो कोई कह रहा है कि भाई साहब! हिंदुस्तान विविधताओं का देश है। ऐसे-ऐसे तमाशे तो यहां रोज होते रहे हैं। तमाशों से इतिहास नहीं बदलता। अब राहुल गांधी की पदयात्रा से कुछ होता है कि नहीं, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन जमाना ऐसी कई यात्राओं का गवाह बन चुका है, जिन्होंने इतिहास बदला है। जिन-जिन यात्राओं की कहानियां हमें याद रह गई हैं, वे सभी मुक्तिकामी यात्राएं हैं। वे व्यापक जनहित में लड़ी गईं लड़ाइयां हैं।
किसी भी यात्रा का जिक्र आते ही हमारे जेहन में सबसे पहले महात्मा गांधी की डांडी यात्रा की तस्वीर कौंध जाती है। ऐसा शायद इसलिए होगा, क्योंकि डांडी यात्रा महज एकस्टंट यात्राज् नहीं है जो पार्टी की डूबती नाव को पार लगाने के लिए की जाए। वह सदियों से बिखरे हुए एक राष्ट्र के निर्माण की यात्रा थी। वह करोड़ों जनता की मुक्ति की यात्रा थी। वह दुनिया भर में स्थापित हो रहे लोकतंत्र की यात्रा थी। वह साम्राज्यवाद के विरोध में एक विद्रोह की यात्रा थी।
1930 में महात्मा गांधी ने नमक पर लगाये जा रहे कर के विरोध में अपने 78 समर्थकों के साथ साबरमती आश्रम से डांडी तक की 240 किलोमीटर की यात्रा की और नमक कानून तोड़ा।
ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक पर लगाए जा रहे कर के विरोध में छेड़ा गया यह आंदोलन, जिसे ब्रिटिश सरकार यूं ही छोटा-मोटा विरोध-प्रदर्शन समझ रही थी, देखते ही देखते वह देशव्यापी हो गया। आंदोलन की तीव्रता से ब्रिटिश सरकार असमंजस में पड़ गई। तो वह लाखों लोगों पर लाठियां और गोलियां बरसा सकती थी और ही आंदोलन को होते रहने दे सकती थी। इस तरह सविनय अवज्ञा आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया।
आजादी के बाद भारत में दूसरी बड़ी यात्रा की आचार्य विनोबा भावे ने। उन्होंने भूमि सुधारों की दिशा में भूदान आंदोलन चलाया, जिसके तहत पहले आंध्र प्रदेश में, उसके बाद पूरे उत्तर भारत में घूम-घूम कर लोगों को अपनी जमीनें गरीबों को दान देने के लिए प्रेरित किया। इस यात्रा का चमत्कारिक परिणाम मिला। सिर्फ आंध्र प्रदेश में विनोबा और उनके समर्थकों ने तीन महीने से कम समय में दो सौ गावों की यात्रा की और करीब छह लाख एकड़ जमीन हासिल कर ली। 1951 से 1956 तक इस अभियान के तहत 40 लाख एकड़ जमीन किसानों ने दान कर दी।
अगली यात्रा जो काबिले-जिक्र है, वह है जनवरी 1983 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा कन्याकुमारी से राजघाट तक की 171 दिन की 4260 किलोमीटर की पदयात्रा। देश को जानने के लिए की गई इस यात्रा का उन्हें राजनीतिक फायदा भी मिला।
इसी तरह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइएसआर राजशेखर रेड्डी ने जनसंपर्क अभियान के तहत 2003 में प्रदेश में 64 दिनों में डेढ़ हजार किलोमीटर की यात्रा की और अभूतपूर्व जनसमर्थन हासिल किया। इसके कुछ ही महीने बाद हुए विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी भारी मतों से जीती और उनकी सरकार बनी। इससे पहले 1983 में एनटी रामाराव की चैतन्य रथम यात्रा वाइएसआर की यात्रा से कहीं अधिक व्यापक थी। उन्होंने आंध्र प्रदेश में 40 हजार किलोमीटर की यात्रा की और सत्ता में आए।
अभिनेता से नेता बने सुनील दत्त ने भी 1987 में मुंबई से अमृतसर स्वर्ण मंदिर तक 78 दिनों में 2000  किलोमीटर की महाशांति पदयात्रा की। उस दौरान पंजाब में चल रही अस्थिरता से वे आहत थे और देश की चेतना को जगाना चाह रहे थे।
यात्राओं में सबसे विवादास्पद रही 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा। उनकी इस यात्रा का उद्देश्य देश को राम जन्मभूमि के बारे में जागरूक करना  था। उनकी रथयात्रा गुजरात के सोमनाथ मंदिर से शुरू होकर अयोध्या पहुंचनी थी लेकिन यह पूरी नहीं हो सकी। बिहार में लालू यादव की सरकार ने कड़ी कार्रवाई करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, इसके बाद इसी तरह कई घटनाक्रम सामने आए और इसका अंजाम बाबरी ध्वंस के रूप में हमारे सामने आया। 1991-92 में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने भी कन्याकुमारी से श्रीनगर तक राष्ट्रीय एकता यात्रा की थी और कांपते हाथों से लाल चौक पर पहली बार तिरंगा फहराया था।
12 जनवरी, 2011 को बीजेपी के युवा नेता अनुराग ठाकुर ने लाल चौक पर तिरंगा फहराने के लिए कोलकाता से यात्रा शुरू की, मगर उनके गन्तव्य तक पहुंचने से पहले उनकी 3037 किलोमीटर की यात्रा पर विराम लगा गया। जम्मू की सीमा में प्रवेश करते ही उन्हें दल बल सहित गिरफ्तार कर वापस भेज दिया गया। 
फिलहाल चर्चा में बनी राहुल गांधी की इस पदयात्रा को इतिहास अपने में कितनी जगह देगा, यह देखा जाना अभी बाकी है। अभी तो यह देखने का समय है कि उनकी इस यात्रा को जनता कितना महत्व दे रही है। कई सारे सवाल हैं जिनका जवाब आने वाला समय अपने आप दे देगा? सवाल हैं कि क्या वे वास्तव में किसानों की समस्याएं जानना चाहते हैं? क्या जिन समस्याओं को वे देख पाएंगे, उनके निदान के लिए अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करेंगे? क्या राहुल वाकई आम आदमी की समस्याओं को लेकर गंभीर हैं? फिलहाल, राहुल गांधी की इस यात्रा को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जमीन दिलाने की एक कोशिश से ज्यादा समझा जा रहा है। वास्तव में यदि राहुल की यात्रा का मकसद किसानों का हित साधना है तो उन्हें यह सिद्ध करना होगा।





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