गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

देश को एक और गांधी और जय प्रकाश की जरूरत है

कारपोरेट घरानों, मीडिया और नेताओं के बीच गठबंधन के इस सुविधावादी दौर में कुछ लोग जो हर तरह के अन्याय के खिलाफ बोलने की हिम्मत रखते हैं, उन्हीं में से एक हैं वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण.  वे सुप्रीम कोर्ट के नामचीन वकीलों में शुमार हैं लेकिन उनकी शोहरत इसलिए नहीं है कि वे बहुत बड़े और तेज-तर्रार वकील हैं. बल्कि उनकी शोहरत न्यायपालिका की जवाबदेही तय करने और नागरिक अधिकारों के लिए किए जाने वाले उनके संघर्ष को लेकर है. वे करीब तीन दशक से न्यायपालिका और कार्यपालिका सहित समूची व्यवस्था से लोहा ले रहे हैं. उनके शब्दों में उनकी लड़ाई ’ऐसे लोगों से है जो व्हाइट कालर (सफेदपोश) माफिया हैं. जो घूस देकर बेईमानी करवाते हैं.’ जो अपना काम निकालने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, लेकिन जहां सुविधा होती है, वहां आदर्शवाद भी बघारते हैं. प्रशांत भूषण कहते हैं मैं हर उस बात के खिलाफ हूं जो आम आदमी के अधिकारों के खिलाफ जाती हैं.
प्रशांत भूषण की पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी है, जहां से वे हर संभव और मनचाहा रास्ता चुन सकते थे. उन्होंने एक कठिन राह चुनी है. उनके पिता शांति भूषण उच्चतम न्यायालय में वकील थे. वे मोरार जी देसाई सरकार में मंत्री भी रह चुके थे. उन्होंने जब तब व्यवस्था में भ्रष्टाचार को लेकर आवाज बुलंद की. जाहिर तौर पर प्रशांत भूषण में यह गुण अपने पिता जी आया होगा. व्यवस्था के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने वाले प्रशांत भूषण ने जो रास्ता चुना है उसे लेकर उनके पास तर्क हैं. तर्क भी ऐसे मजबूत, कि उन्हीं तर्कों के दम पर वे लोकतंत्र के चारों स्तंभों  पर सवाल खड़ा करते हैं और जवाब मांगते हैं. उनका कहना है कि ’मूल बात यह है कि आपकी आत्मा क्या कहती है? अगर आपकी अंतरआत्मा यह कहती है कि यह जो बेईमानी चल रही है, जिसकी वजह से गरीब लोग पिस रहे हैं और कुछ बड़े-बड़े उद्योगपति, जिनको ’कैप्टन आफ इंडस्ट्री’ कहा जाता है, वे पूरे संसाधनों पर कब्जा करके बैठे हुए हैं और अपना व्यवसाय बढ़ाते जा रहे हैं यह ठीक नहीं है, अगर इससे आपका खून खौलता है जैसे मेरा खौलता है, तो आप सोचते हैं कि इसके खिलाफ जो कुछ कर सकते हैं, करें. इस तरह की बेईमानी, लूट, अत्याचार को रोकने के लिए जो कुछ कर सकते हैं, करें. यह अंतर आत्मा की बात है. अब मेरी क्यों बोलती है, औरों की क्यों नहीं बोलती, इसके कई कारण हो सकते हैं. एक कारण यह हो सकता है कि आपके परिवार ने आपको कैसा संस्कार दिया. दूसरा कारण यह हो सकता है कि आपकी व्यक्तिगत यात्रा कैसी रही है. इस तरह की चीजों से जब एक बार आप जुड़ गये तो जाने क्या-क्या चीजें आपको देखने को मिलती हैं. हम इस तरह के जनहित के मामलों में जैसे-जैसे शामिल होते गये, मुझे यह दिखता गया कि किस तरह से बेईमानी और अत्याचार इस देश में चल रहा है. मेरा अनुभव रहा है कि एक तरफ बड़े-बड़े कारपोरेशंस द्वारा लूट चल रही है, दूसरी तरफ जो गरीब और असहाय लोग हैं, उनपर कितना अत्याचार हो रहा है. मुझे इस पर खीझ होती है.’
इस तरह की पहली याचिका उन्होंने 1983 में दून वैली माइनिंग के मामले में दायर की थी. यह याचिका अवैध खनन को लेकर थी. इसी साल उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस शुरू की थी. उसके बाद बोफोर्स, भोपाल गैस कांड, नर्मदा बचाओ आंदोलन आदि से जुड़े रहे. इसके अलावा वे नागरिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली कई संस्थाओं के साथ काम करते रहे हैं. उनकी अपनी पूरी एक टीम है जो उनकी इस लड़ाई में उनका साथ देती है. तमाम गैर-सरकारी संगठन और बुद्धिजीवी उनके सहयोगी हैं. उनके साथ काम करने वालों की संख्या सैकड़ों में है. वे सभी घटनाक्रम पर निगाह रखते हैं और अगर उन्हें लगता है कि अन्याय हो रहा है तो वे उसके खिलाफ लामबंद हो जाते हैं. वे न्यायालय के भीतर होते हैं, तो संगठन की ताकत और उसका काम उनके साथ होता है, और न्यायालय के बाहर जब अपनी बात कह रहे होते हैं, तो कई नागरिक संगठन और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता उनके साथ खड़े होते हैं. वे पूरे सबूत और आत्मविश्वास के साथ देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर कार्यपालिका तक को आईना दिखाते हैं. वे कहते हैं कि ’अगर आप पूरे सबूत और दस्तावेज के साथ किसी न्यायाधीश या न्यायपालिका के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगायें, तो तब फिर आपके खिलाफ कुछ करना बड़ा मुश्किल हो जाता है. हालांकि, उसको भी न्यायालय की अवमानना माना जा सकता है, लेकिन कोई अवमानना का केस आपके खिलाफ चलाता नहीं. अगर आप ऐसी पोजीशन में हैं कि इन मुद्दों पर आपकी आवाज आसानी से दबायी नहीं जा सकती, तो वे लोग आपसे डरते हैं. ऐसे में आपके खिलाफ कुछ करना मुश्किल है. इसका मूलमंत्र यह है कि जो भी आप बोलें न्यापालिका या न्यायाधीश के खिलाफ, वह ठोस सबूत पर आधारित होना चाहिए. उसके प्रमाण होने चाहिए.’ वे खुद ऐसा करते भी हैं. उन्होंने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार होने बाते कहीं, तो न्यायालय ने अवमानना का नोटिस थमा  दिया. इस पर उनके पिता शांति भूषण जी ने लिखित तौर पर कोर्ट में एक हलफनामा पेश किया कि भारत में अब तक जो 16 मुख्य न्यायाधीश हुए हैं, उनमें से 8 निश्चित तौर पर भ्रष्ट थे.
इस तरह की गतिविधियों के अपने खतरे हैं. ज्यादातर ऐसा अभियान चलाने वालों को यह समय और समाज बरदाश्त नहीं कर पाता. अमित जेठवाओं, सतीश शेट्टियों के लिए यहां कोई जगह नहीं है. प्रशांत भूषण यह बखूबी जानते हैं, और इसके लिए वे तैयारी भी करते हैं. वे कहते हैं कि ’ऐसा करने से हमारे खिलाफ एक बड़ी लाॅबी तैयार जरूर होती है लेकिन फायदा यह है कि जब हम न्यायपालिका के खिलाफ बोल रहे होते हैं, तो कार्यपालिका का समर्थन प्राप्त होता है. जब हम कार्यपालिका पर सवाल उठा रहे होते हैं तो न्यायपालिका का समर्थन में होती है. इससे रास्ता आसान हो जाता है क्योंकि सब लोग मिलकर आपके ऊपर प्रहार नहीं कर पाते. और सब मिलकर भी प्रहार करें, तो जनमत तो आपके साथ ही रहता है. इस पर भी अगर आप अपना केस कोर्ट में हार गये तो जनता तो आपको हारा हुआ नहीं मानती. जनता यह मानती है कि जो आप कह रहे हैं वह सही है. अगर आप सबूत के आधार पर अपनी बात कह रहे हैं और न्यायपालिका उसे ठुकरा दे, तो जनता तो न्यायपालिका की बात नहीं मानती.
जो वे कर रहे हैं उसके लिए कुछ अलग से करने की जरूरत नहीं. वे कहते हैं कि ’मैं आराम से यह सब कर पा रहा हूं. हां, आम आदमी के लिए रास्ता बहुत कठिन है. जहां संगठन में लोग काम कर रहे हैं उन्हें सफलता भी मिल रही है. हालात काफी निराशाजनक हैं. भ्रष्टाचार, बेईमानी, चंद कारपोरेशन का नियंत्रण तेजी से बढ़ रहा है. इनसे निपटने के लिए मंजुनाथ, अमित जेठवा या सतीश शेट्टी जैसी तमाम कुर्बानियों की जरूरत है. आज देश को किसी गांधी या जयप्रकाश नारायण की जरूरत है, जो एक जनआंदोलन खड़ा कर सके.’

1 टिप्पणी:

RAMA SHANKER SINGH ने कहा…

प्रशांत भूषण के कर्म एवं विचारो से अवगत कराने के लिए शुक्रिया . कृष्णकांत जी उन्होने ठीक कहा है कि देश को गांधी और जयप्रकाश की जरूरत है फिर भी यह यक्ष प्रश्न बरकरार है कि अगला गांधी कौन बनेगा . देश को १९० सालो के बाद आजादी तब मिली थी , जब लोगो ने यह मान लिया था कि वे गुलाम है . अभी भी जन सामान्य , बुद्धिजीवी , मध्य वर्ग (और मीडिया भी ) इस बात को मानने को तैयार नही है कि भ्रष्टाचार बर्दाश्त की सीमा के बाहर जा चुका है. केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की बात करना तो भोलापन है क्योकि हम ऐसे लोगो को चुनकर भेज रहे है जिनके पास रीढ ही नही है . जब तक सामाजिक इच्छाशक्ति नही होगी , हम अपने हिस्से का अंत्योदय अनाज भी नही पा सकते , भ्रष्टाचार का खात्मा तो आकाश कुसुम ही रहेगा . फिलहाल यदि गांधी उपनाम से काम चल जाये तो देश में कई गांधी हैं और यदि आप उन गांधी के बारे में कोई आशा रखते हैं जिन्होने देश को आजादी दिलायी थी तो उन्हे तो १९४८ में ही गोली मार दी गयी थी.

क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...