रविवार, 5 दिसंबर 2010

दिल्ली की लाल बत्तियों पर 

दिल्ली के बीहड़ चौराहे 
लिपटे जो लाल बत्तियों में 
करतब की अच्छी जगहें हैं  
कुछ बच्चे नन्हें नन्हें से 
हर रुकी कार के बाजू में 
आ आकर ढोल बजाते हैं 
हो सर के बल, हाथों से चल 
क्या क्या करतब दिखलाते हैं 
पावों को सर पे रखते हैं 
सर को पावों में लाते हैं 
फिर लटक कार के शीशे से 
इक रूपये को रिरियाते हैं 
इन मासूमो को लगता है 
जो लोग कार में बैठे हैं 
वे देख के इनको रीझेंगे
इन पर निहाल हो जायेंगे 
ढेरों पैसे बरसाएंगे 
इनको क्या मालूम कारों के 
भीतर का अपना कल्चर है 
वे इनपर नहीं रीझते हैं 
न इनपर ध्यान लगाते हैं 
वे ऐसी वैसी बातों में 
दिलचस्पी नहीं जताते हैं 
उनकी कारों में टीवी है 
उसमे मुन्नी के ठुमके हैं
वे बस उसमे रस लेते हैं   
बत्ती के लाल इशारे पर 
उनकी चमकीली कारों के 
पहिये आगे बढ़ जाते हैं 
कारों के संग कुछ दूर तलक 
ये बच्चे दौड़ लगाते हैं 
कारों के शीशे नहीं खुले 
गाड़ी के पहिये नहीं रुके 
दुखी दुखी मुंह लटकाकर 
वे लौट के वापस आते हैं 
वे फिर से ढोल बजाते हैं 
फिर फिर करतब दिखलाते हैं....

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