गुरुवार, 30 अगस्त 2018

क्या नोटबंदी एक घोटाला था?


बिना तैराकी जाने उफनती हुई नदी में कूद जाना भी बेहद साहसिक फैसला है, लेकिन इस साहस की उपादेयता क्या है? इसी तरह नक्सल समस्या या कश्मीर में आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए कोई प्रशासक अगर परमाणु विकल्प का इस्तेमाल करना चाहे तो बेशक यह बहुत साहसिक और कड़ा फैसला है. लेकिन क्या ऐसे विकल्पों की उपादेयता पर विचार नहीं किया जाएगा? क्या इससे होने वाली तबाही पर बात नहीं होगी? क्या हम सिर्फ इस फैसले की इसलिए तारीफ करेंगे कि यह कड़ा फैसला है और आतंकवाद मिटाने की अच्छी नीयत से लिया गया है?
नोटबंदी के समय लाइन में लगकर रोते हुए एक बुजुर्ग की वायरल हुई तस्वीर. 
नोटबंदी के बाद जब सरकार की आलोचना शुरू हुई तो प्रधानमंत्री बार बार भावुक हो रहे थे. वे यहां तक कह गए कि 50 दिन दे दीजिए, फिर जनता जिस चौराहे पर कहेगी आ जाऐंगे और सजा चाहें दे सकते हैं. यह एक फालतू बात थी. अगर वे किसी मामले में दोषी भी हैं तो उन्हें काननूसम्मत सजा ही दी जा सकती है. यह बात करके उन्होंने अपने पद की गरिमा को भंग किया.

नोटबंदी के बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक हुई तो प्रधानमंत्री इसमें भी भावुक हो गए. उन्होंने अपने फैसले को सही ठहराने के लिए फिर से गरीबों और मजदूरों का हवाला देते हुए कहा कि ये 'अनिवार्य' है. यह समझ से परे है कि प्रधानमंत्री आर्थिक सुधार के सिलसिले में लिए गए एक राजनीतिक फैसले को लेकर बार-बार भावुक क्यों होते रहे, जबकि चार साल में उस फैसले की कोई उपयोगिता साबित नहीं हुई. आर्थिक रूप से जो नुकसान हुआ, 150 से ज्यादा जानें गईं, उस बारे में भी भरपाई को कोई कदम नहीं उठाया गया. क्या जो लोग लाइन में लगकर मरे, उनको मुआवजा नहीं दिया जाना चाहिए?

नोटबंदी के बाद इसके किसी भी आलोचक या किसी विपक्षी दल या नेता ने यह नहीं कहा है कि वह कालाधन या भ्रष्टाचार का समर्थन कर रहा है. लेकिन नोटबंदी पर बगैर पुख्ता तैयारी के बरती गई हड़बड़ी और जनता को हो रही परेशानियों को लेकर जितने सवाल संसद में उठाए गए, प्रधानमंत्री या सरकार ने उनका स्पष्ट जवाब नहीं दिया. उल्टा आलोचकों को कालाधन समर्थक कहते रहे.

प्रधानमंत्री जो कर रहे हैं, यह वही तो है जो पिछले 70 सालों में होता रहा है और जिसे वे लगातार कोसते हैं. कॉरपोरेट को अभयदान देते जाना और उसे गरीबों को समर्पित करते जाना आम आदमी को गाली देने सरीखा है. इसका सिलसिला इंदिरा गांधी के ही समय से चल रहा है. मोदी जी खुद कह रहे थे कि 'मनमोहन सिंह ने बाजारवाद को ठीक से लागू नहीं किया, हम इसे ठीक से लागू करेंगे.' मनमोहन सिंह ने कॉरपोरेट जगत के लिए सरकारी खजाना खोल दिया था, मोदी जी सरकारी खजाने को दोनों हाथों से दलाल ​स्ट्रीट में लुटा रहे हैं. उसमें बहुसंख्यक गरीबों के लिए कुछ नहीं है, कॉरपोरेट और अमीरों के लिए सबकुछ है.

बैड लोन जैसी समस्या का क्या

मोदी कालाधन और पार​दर्शिता लाने और अपने को देश का चौकीदार होने की बात करते हुए चार साल से अधिक शासन करते रहे, अब रिजर्व बैंक कह रहा है कि जो एनपीए या बैड लोन 31 मार्च, 2015 तक तीन लाख करोड़ रुपये था, 31 मार्च, 2018 तक बढ़कर 10 लाख करोड़ रुपये के ऊपर पहुंच गया है. हाल ही में यह भी रिपोर्ट आई थी कि स्विस बैंकों में भारतीय कालाधन 50 प्रतिशत बढ़ गया है.

जुलाई, 2016 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बैड लोन की जानकारी देते हुए संसद को बताया था कि सरकार से कर्ज लेकर न लौटाने वाले ​बकायेदारों की संख्या 8167 है. इन पर 76,685 करोड़ रुपये का बकाया है. यानी 2016 के बाद भी एनपीए में भयानक बढ़ोत्तरी हुई. बैड लोन वह पैसा है जो सरकार पूंजीपतियों को व्यापार के लिए देती है और वह सरकार को वापस नहीं मिलता. विजय माल्या का 7000 करोड़ इसी के तहत है, जिसे सरकार ने एसबीआई के रिकॉर्ड से हटा दिया. नीरव मोदी का 13500 करोड़ इसी के तहत है जिसके मिलने की कोई आशा फिलहाल नहीं दिखती.

सरकार बैंक ऋण और बैंक डिफाल्टरों के पास मौजूद संपत्ति को हासिल करने के लिए क्या प्रयास कर रही है? क्या सरकार इसे कालाधन नहीं मानती? सरकार इन डिफाल्टरों के नाम क्यों नहीं सार्वजनिक करती? विजय माल्या जैसे डिफाल्टरों की संपत्तियां जब्त करने जनता का पैसा क्यों नहीं सरकारी खजाने में वापस लिया गया? अगर प्रधानमंत्री जनता की संपत्ति की लूट के प्रति गंभीर हैं तो नोटबंदी के समय ही 63 कॉरपोरेट डिफाल्टरों के 7016 करोड़ रुपये को भारतीय स्टेट बैंक के रिकॉर्ड से क्यों हटा दिया गया?

इसके पहले सरकार ने 2013 से 2015 के बीच 29 बैंकों से लिए गए 1.14 लाख करोड़ का कर्ज सरकार ने माफ कर दिया था, जिसे बैड लोन मान लिया गया था. हाल ही में इसका खुलासा इंडियन एक्सप्रेस ने किया था. पिछले तीन वित्त बर्ष का आंकड़ा है कि सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक का 40,084 करोड़ से अधिक का बैड लोन है. बैंक ने मान लिया है कि अब यह वसूला नहीं जा सकेगा.

क्या कालाधन खत्म हो गया

प्रधानमंत्री पुरजोर तरीके से कह रहे थे कि नोटबंदी से देश में भ्रष्टाचारी तत्वों पर लगाम लगाने के लिए की गई है. वे जनता से बलिदान मांग रहे थे. जनता ने यह बलिदान दिया. अब उस बलिदान के प्रतिदान का समय है. और कुछ न हो तो जनता ईमानदार जवाब की अधिकारी है.

इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि 93.3 प्रतिशत कैश वापस आ गया तो नोटबंदी के पहले का सरकार का क्या आकलन था और नोटबंदी क्यों की गई? अर्थशास्त्री तभी कह रहे थे कि कैश में करीब छह प्रतिशत कालाधन है. बाकी बचे 94 प्रतिशत कालेधन को लेकर सरकार क्या कार्रवाई की और अब क्या रही है?

जब बड़े नोटों के जरिये काला कारोबार करना ज्यादा आसान है तो पुराने नोटों पर प्रतिबंध के साथ ही नये 2000 रुपये के नोट काले कारोबार में और मददगार कैसे नहीं होंगे? कालाधन जहां पैदा होता है, कालेधन से जितने कारोबार होते हैं, सरकार ने उनके बारे में क्या रणनीति बनाई? बिना काला कारोबार रोके कालेधन पर लगाम कैसे लग सकती है?

नोटबंदी के बाद लंबे समय तक जनता तक नोट नहीं पहुंचे, कारोबार प्रभावित हुए, जबकि नोटबंदी के कुछ दिन बाद कश्मीर में आतंकवादियों के पास से 2000 के नकली नोट बरामद किए गए.

नोटबंदी के बाद संसद में सांसद सीताराम येचुरी, शरद यादव, गुलाम नबी आजाद आदि नेताओं ने कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए, जिसका दो साल भी सरकार ने समुचित जवाब नहीं दिया. जब कालेधन की मात्रा कैश में करीब 6 प्रतिशत अनुमानित है, तब सरकार ने इस छोटे से लक्ष्य के लिए पूरे देश को आर्थिक संकट में क्यों डाला? कालेधन का बड़ा हिस्सा काले कारोबार में लगाया जाता है जिससे और ज्यादा कालाधन पैदा किया जाता है. सरकार उसे लेकर क्या कार्रवाई करने जा रही है?

विदेशों में जो कालाधन है, जिसका जिक्र बार-बार नरेंद्र मोदी अपने चुनाव प्रचार में कर रहे थे, उस पर सरकार क्या कर रही है? विदेशों में कालाधन रखने वालों की लिस्ट भारत को किसी सरकार से नहीं मिली. इसे सार्वजनिक करने में कोई समझौता बाधा नहीं डालता. फिर भी सदन की मांग पर सरकार कालाधन खाताधारकों के नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किए गए?

अव्यवस्था का जिम्मेदार कौन?

हाल ही में राफेल घोटाले को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर रहे यशवंत सिन्हा ने कहा कि नोटबंदी के समय हमने जो गंभीर सवाल उठाए थे, उनके जवाब नहीं दिए गए. हमें शक है कि नये लाए गए 2000 के नोट भी कहीं एकत्र किए जा रहे हैं, जो समय आने पर निकाले जाएंगे. ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके जवाब मिलने बाकी हैं. कोई सरकार यह फैसला कैसे ले सकती है कि अचानक देश की 86 प्रतिशत करेंसी को अमान्य घोषित कर दे और पूरा देश मात्र 14 प्रतिशत फुटकर करेंसी के भरोसे छोड़ दिया जाए? नोटबंदी के फैसले से अगर आंशिक लगाम लगती है तो भी यह साहसिक फैसला था. लेकिन बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए यह निर्णय कैसे ले लिया गया?

नोटबंदी के बाद कई राज्यों में आरबीआई की ओर से कैश पहुंचाने में कई हफ्ते लगे. बैंकों को अपने एटीएम नये नोटों के हिसाब से कैलिब्रेट कराने में महीनों लगे. हाल में जारी नये नोट भी एटीएम में सही फिट नहीं हो रहे हैं. अब तक एटीएम का रीकैलिब्रेशन चल रहा है. इसके अलावा 2000 की नोट खुद एक समस्या के रूप में आई. नोटबंदी के दौरान 86 प्रतिशत कैश बाजार से खींच लिया गया तो 2000 के नोटों का फुटकर मिलना मुश्किल हो गया. लेकिन जिनको करोड़ों में रुपया एकत्र करना हो उनके लिए 2000 की नोट और मददगार ही है. क्या सरकार के लिए इस समस्या का अंदाजा लगाना मुश्किल था?

फायदे और नुकसान कितना?

अनुमानों और आंकड़ों के मुताबिक, नोटबंदी की कवायद में सरकार ने 21000 करोड़ से अधिक रुपये खर्च किए. लेकिन इससे फायदा क्या हुआ? इसके ठीक-ठीक फायदे क्या होंगे, कितना नुकसान होगा, सरकार ने इस बारे में क्या आकलन किया था? कितना कालाधन आएगा, या अब तक कितना आया, कितना नष्ट हुआ क्या इस बारे में कोई आंकड़ा न तब उपलब्ध था, न नोटबंदी के दो साल बाद उपलब्ध है. क्या सरकार के सामने इस फैसले से जुड़ा कोई सफल उदाहरण मौजूद है कि नोटबंदी के जरिये कालाधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद आदि समस्याओं का हल नोटबंदी के जरिये निकाला जा सकता है?

बंद किए गए नोटों से सिनेमा टिकट मिलेगा, लेकिन खाना नहीं मिलेगा, यह फैसला देशहित से कैसे जुड़ा था? असम के चाय बागान कर्मियों को पुराने नोट खर्च करने की छूट दी गई तो बंगाल और उड़ीसा आदि राज्यों में यही छूट क्यों नहीं दी गई थी? इसका क्या तर्क था? बंगाल भाजपा के अकाउंट में नोटबंदी की घोषणा के साथ ही एक करोड़ रुपये जमा कराया जाना क्या महज इत्तेफाक था? नोटबंदी के ठीक पहले विभिन्न जिलों में भाजपा के कार्यालय के जमीन खरीदना क्या महज इत्तेफाक था? इस जमीन खरीद में कितना पैसा लगाया गया?

नोटबंदी के बाद गुजरात में एक ही बैंक में असीमित पैसा जमा होने का रहस्य क्या रहा? इसका जवाब भी जनता को नहीं दिया गया. जिन बैंकों के नाम भाजपा नेताओं से जुड़े और सवाल उठे, वह भी अब तक रहस्य ही है.

पुराने नोट वापस लेकर उन्हें नये 500, 1000 और 2000 मूल्य के नोटों से बदलने की कुल लागत कितनी रही? क्या यह लागत नष्ट होने वाले अनुमानित कालेधन से अधिक रही या उससे कम? अगर कालाधन निकला ही नहीं तो सरकार ने इस रोमांचक कवायद में कितने अरब रुपये पानी में बहाए?

हमारे व्यापार का 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र है. इस क्षेत्र को नोटबंदी से बहुत बड़ा झटका लगा. असंगठित क्षेत्र में 60 से लेकर 80 प्रतिशत तक गिरावट थी. वहां कैश में काम चलता है और जब उनके पास कैश की कमी आ गई, तो उनका जो लागत पूंजी थी, वो कम हो गई, जिसका असर अभी तक दिख रहा है. सीएमई के आंकड़ों के मुताबिक, नोटबंदी से 1.50 करोड़ से 6 करोड़ लोगों का रोज़गार चला गया. लोग शहरों से गांव की तरफ गए और मनरेगा में काम की डिमांड 5 प्रतिशत तक बढ़ गई. इस नुकसान पर सरकार ने कोई अध्ययन नहीं कराया. सरकार को इस योजना का नफा-नुकसान और तथ्यों से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक करना चाहिए.

वंचितों के बारे में कौन सोचेगा?

जैसा कि मोदी जी कहते हैं कि वे 125 करोड़ जनता के प्रधानमंत्री हैं. उनका काम है कि वे देश की समूची आबादी के बारे में सोचें. न्याय का सिद्धांत यह है कि '10 अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए.'

प्रधानमंत्री जी ने अपना निर्णय लेते समय भारत की करीब दो तिहाई ग्रामीण आबादी के बारे में क्या सोचा था जो बैंकिंग व्यवस्था से बाहर है? इंटरनेट से लेनदेन वैध करने के फैसले के साथ उस 78 प्रतिशत जनता के बारे में क्या सोचा जिसकी पहुंच इंटरनेट तक नहीं थी. क्या प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनजान हैं कि देश की मात्र 22 प्रतिशत आबादी इंटरनेट के दायरे में आती है.

पेटीएम जैसी व्यवस्था को प्रमोट करना सुविधाजनक रहा होगा, लेकिन सिर्फ उनके लिए जो स्मार्टफोन और तेज स्पीड इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं. देश की 125 करोड़ की आबादी में कुल 61 करोड़ के करीब मोबाइल यूजर हैं. इनमें से बड़ी संख्या साधारण मोबाइल का इस्तेमाल करती है. बड़ी संख्या में लोगों के पास एक से ज्यादा मोबाइल नंबर हैं. आधी से अधिक आबादी जो मोबाइल सुविधा का भी इस्तेमाल नहीं करती, उसके लिए क्या व्यवस्था की गई थी?

नोटबंदी की घोषणा के समय भारत के 'अभिन्न अंग' कश्मीर घाटी में इंटरनेट पर प्रतिबंध था. उस बारे में सरकार ने क्या वैकल्पिक व्यवस्था की थी? देश में करीब ढाई करोड़ लोग क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं. बाकी की पूरी आबादी के बारे में सरकार ने क्यों नहीं सोचा? देश की करीब आधी आबादी अशिक्षित है. जो शिक्षित नहीं हैं, उनके इंटरनेट साक्षर होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. जाहिर है कि उनके पास कैशलेस पेमेंट की सुविधाएं नहीं हैं. उनके बारे में सरकार ने क्या योजना बनाई थी?

अच्छी नीयत पैमाना नहीं हो सकती

नोटबंदी के आपात निर्णय के बाद सरकार को हर दिन अपने निर्णय बदलने पड़े. इससे आम जनता को और भी असुविधा हुई. निर्णय के पहले गोपनीयता का मसला था. उसके बाद में भी निर्णय से जुड़ी अराजकता का समाधान तुरंत क्यों नहीं हुआ? नोटबंदी की वजह से जिन साधारण लोगों को जान गंवानी पड़ी, सरकार ने उन पर मुंह नहीं खोला. कितने लोग मरे हैं यह सिर्फ अनुमान है कि यह संख्या 150 के करीब होगी. सरकार ने नोटबंदी से हुई मौतों का आंकड़ा क्यों नहीं जारी किया?

पूरे देश में 70 से 80 प्रतिशत उद्योग-व्यापार प्रभावित हुआ है. देश की अर्थव्यस्था और उद्योग जगत को कितना नुकसान हुआ है, इसका अनुमान क्यों नहीं लगाया गया? क्या नोटबंदी से जितना हासिल हुआ, नुकसान उससे कम है या अधिक है? क्या इसका अनुमान लगाने का कोई तंत्र सरकार ने नहीं बनाया.

इन सब सवालों के बावजूद यह कहना होगा कि नोटबंदी का फैसला अच्छी नीयत से लिया गया था और साहसिक था. लेकिन अच्छी नीयत के आधार पर फैसले की असफलता और उससे उपजे संकट की समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए? प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि उन्होंने एक सार्वजनिक हित का निर्णय लिया. उसकी आलोचना भी सार्वजनिक हित से ही जुड़ी है. उन्हें हर मुद्दे को भावुकता का मसला बनाने से बचना चाहिए. कालाधन, भ्रष्ट हो चुकी अर्थव्यस्था, नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे राष्ट्रीय मसले भावुकता के मसले नहीं हैं. एक मजबूत प्रधानमंत्री को बार-बार भावुकता का सहारा क्यों लेना पड़ता है?

इतने सारे सवालों के मद्देनजर अरविंद केजरीवाल, यशवंत सिन्हा और कांग्रेसियों के यह आरोप ज्यादा भारी पड़ता है कि नोटबंदी देश का सबसे बड़ा घोटाला था. यह संदेह भी पुख्ता होता है कि भाजपा ने अपने फायदे के लिए यह कवायद की. इस​की पुष्टि एडीआर के उस हालिया आंकड़े से भी होती है ​जिसमें कहा गया है कि भाजपा सबसे अमीर राष्ट्रीय दल है और एक साल में उसकी आय 81.18 प्रतिशत बढ़ गई. 2016-17 में देश के सात राष्ट्रीय दलों ने कुल 1,559.17 करोड़ रुपये की आय घोषित की. इनमें भाजपा की आय सबसे ज्यादा 1,034.27 करोड़ रुपये रही. यह कुल राशि का 66.34 प्रतिशत है.

बैंक घाटे में, कंपनियां घाटे में, व्यापार घाटे में, अर्थव्यस्था घाटे में लेकिन भाजपा फायदे में. क्या यह तथ्य संदेह नहीं पैदा करते? क्या नोटबंदी वाकई एक घोटाला था?

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