कुछ दिन पहले किसी मूर्ख हिंदू नामधारी ने इस्लाम पर कुछ सिरफिरी टिप्पणी कर दी. चूंकि इस्लाम के अनुयायियों में मूर्खों की संख्या सर्वाधिक है, इसलिए उन्होंने आसमान सर पर उठा लिया. एक गुमनाम मूरख को चर्चा में ला दिया. उनका अल्लाह इतना कमजोर है कि किसी सिरफिरे की टिप्पणी पर आहत हो जाता है और पूरा इस्लाम खतरे में पड़ जाता है. दुख की बात है कि जितने धर्म जरा-जरा सी बात पर खतरे में आ जाते हैं, वे मिट नहीं रहे हैं. यह बड़े अफसोस की बात है.
तो उस टिप्पणी पर इस्लाम को खतरे में मानकर मुल्लों ने ऐतिहासिक रूप से भीड़ बटोरी और शहर-शहर प्रदर्शन किया. मालदा में आगजनी और तोड़फोड़ की. यह संघियों से मुसंघियों के गठबंधन का नतीजा है. ये दोनों आपस में एक हैं. एक-दूसरे को जहर उगलने का पूरा बहाना देते हैं. इस प्रदर्शन से संघियों को यह कहने का बहाना मिला कि उन बेचारों के साथ बड़ा भेदभाव होता है. प्रदर्शन या तोड़फोड़ करने वालों को फांसी दिए बगैर उनकी दंगाई हरकतों की आलोचना कैसे की जा सकती है?
अगर मालदा में तोड़फोड़ हुई और उसके लिए किसी को फांसी नहीं हुई, तो संघियों द्वारा सरकार प्रायोजित हत्याएं भी नाजायज कैसे हो सकती हैं? अगर आप उनकी हत्याअों को नाजायज कहेंगे तो वे आहत हो जाएंगे.
इन दोनों का आहत होने का धंधा बड़ा दिलचस्प है. इसका धरम से कोई ताल्लुक नहीं है. यह एक तरह का मूर्खतापूर्ण राजनीतिक प्रोजेक्ट है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गाय और खलीफा को लेकर आहत हो रहे मुल्लों ने ही देश का बंटवारा करवा दिया था. आहत होने की संवेदनशीलता ऐसी संवेदनहीन है कि हिंदुओं के 'महान देवता' (?) महिला के मंदिर में प्रवेश करते ही अपना 'संयम' खो देते हैं और दुनिया चलाने वाले वे शक्तिशाली देवता अपना ब्रम्हचर्य तक नहीं बचा पाते.
हैदराबाद में एक की जान लेकर प्रधानमंत्री असम में वोट मांगने गया. इस निर्लज्जता पर सोचिए. राजनाथ सिंह गृहमंत्री हैं. उनके पास दादरी और हैदराबाद पर जवाब नहीं है, न राज्य से मांगा. लेकिन ममता बनर्जी से जवाब मांग रहे हैं. इस सिलेक्टिव आंतरिक सुरक्षा पर सोचिए. कट्टरता की सनक जब विरोधियों को निपटा चुकी होती है तब अपने लोगों पर जुटती है. प्रशांत भूषण के मुंह पर उछाली स्याही कब सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर लिपट जाएगी, आप समझ नहीं पाएंगे. उन्माद अपने पराए में फर्क नहीं करता. मंटो ने यह उन्मादी 'मिश्टेक' करीब से देखा था.
सारे बुद्धिजीवी 'सेट' किये जा चुके हैं तो उन्हें छोड़ दीजिए उनके हाल पर. लेकिन अपने बारे में सोचिए. आपकी रसोईं में बने मशरूम को बीफ बताकर अफवाह उड़ सकती है और आप की जान ली जा सकती है. आप सरकार से असहमत हुए तो आपको नक्सली और देशद्रोही कहे जा सकते हैं.
इस कसौटी पर संघी गोविंदाचार्य को नक्सली और देशद्रोही कहा जाना चाहिए क्योंकि वे भी किसानों और गरीबों पर बोलते हैं, वे भी मोदी सरकार की आलोचना करते हैं. यह कसौटी इतनी संकीर्ण है कि आपको सवाल करने की इजाजत नहीं देती. यह कसौटी राष्ट्र की व्यापक संकल्पना को एक मूर्खता के पुंज से होते हुए एक मूर्ख व्यक्ति तक समेट देना चाहती है. यह कसौटी इस समूचे तंत्र को अंतत: सवर्णों, सामंतों और पूंजीपतियों तक समेट देती है.
इसी कसौटी पर देश का पूरा इंटैलीजेंशिया देशद्रोही हो गया है. हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या अथवा सरकारी हत्या के बाद 15 दलित अध्यापकों ने इस्तीफा दे दिया. कुछ ही दिन पहले बीएचयू से मैग्सेसे विजेता संदीप पांडेय को निष्कासित किया गया, जिस पर कोई हल्ला नहीं मचा. उन पर एबीवीपी का आरोप था कि वे नक्सली और देशद्रोही हैं. एबीवीपी की शिकायत के बाद बीएचयू के संघी प्रशासन ने यह कार्रवाई की.
90 प्रतिशत विकलांग डीयू के प्रोफेसर साईबाबा को नक्सली बताकर नागपुर की अंडाकार सेल में रखकर मरणासन्न होने तक प्रताड़ित किया गया. उनकी गिरफ्तारी को तथ्यत: गलत बताने पर अरुंधति राय पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया गया.
कल 20 जनवरी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में हिस्सा लेने गए प्रतिष्ठित पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन को नक्सली और देशद्रोही बताकर उनके कार्यक्रम का विरोध किया गया और उनके साथ बदतमीजी की गई. यदि सिद्धार्थ वरदराजन को देशद्रोही और नक्सली घोषित किया जा सकता है तो यह देश अब जाहिलों का स्वर्ग हो चुका है.
इसी कसौटी के आधार पर लगातार हत्याओं और अभिव्यक्ति पर हमलों के विरोध में उठ खड़े होने को 'मैनेज्ड और फिक्स' राजनीतिक कार्यक्रम बताने वाले लोग हर कैंपस में दीगर विचार रखने वालों को प्रताड़ित करने में लगे हैं.
राष्ट्रवाद और देशभक्ति अब एक बदबूदार कीचड़ में तब्दील हो चुका है जो हर कैंपस में, हर संस्थान में फैल रहा है. इस कीचड़ में दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और संघ की घृणा आधारित अमानवीय विचारधारा असहमत लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. दादरी से हैदराबाद तक की घटनाएं उसी का नतीजा हैं.
संघ सभी संस्थाओं में अपने लोगों घुसाए, कांग्रेस या अन्य पार्टियों की तरह यह उसका विशेषाधिकार है. उसके पास बुद्धिजीवी नहीं हैं तो हनुमान गढ़ी के पंडों को सब विश्वविद्यालयों का वाइस चांसलर बना दे. लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं गईं तेल लेने. लेकिन हत्याएं, उत्पीड़न, जेल और गोली के सहारे बुद्धिजीवियों का उत्पीड़न खतरनाक स्थिति तक पहुंच रहा है. नरेंद्र मोदी के तकनीकी लच्छेदार भाषणों के पीछे का सच यही है कि युवाओं को मूर्ख बनाकर उन्हें कैंपसों से निकली भेंड़ों में तब्दील किया जाएगा. जो इससे इनकार करेगा, उसे प्रताड़ित किया जाएगा.
बुद्धिजीवियों के साथ इतनी क्रूरता से अंग्रेज भी नहीं पेश आए थे. संघ के लोग बताते हैं कि किस तरह संघ में शुरू से ही पढ़े लिखे लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी. अब भी नहीं है. वे समर्पित प्रचारक और कार्यकर्ता तैयार करते हैं, जो उनके किसी भी राजनीतिक प्रोजेक्ट पर धर्म के नाम पर मर मिटें. वे अब विश्वविद्यालय के युवाओं को इसी तरह की भीड़ में बदलना चाहते हैं. विश्वविद्यालय के युवाओं को तालिबानी मूर्खों की भीड़ में तब्दील कर देने का संघी सपना साकार हुआ तो यह देश क्या बनेगा, यह समझने के लिए अफगानिस्तान, पाकिस्तान और सीरिया पर नजर दौड़ा लीजिए. धर्म जब राजनीति में उतरता है तो उसकी खून की प्यास असीम हो जाती है. बंटवारा ज्यादा पुराना नहीं है जब धर्म के झगड़े ने पूरे हिंदुस्तान को खून के दरिया में तब्दील कर दिया था. यह लोकतंत्र बड़ी मुश्किल से मिला है. लोकतंत्र को समझकर उसकी रक्षा कीजिए. एक की हत्या पर आवाज उठाइए वरना एक-एक करके हम सब शांत कर दिए जाएंगे.
तो उस टिप्पणी पर इस्लाम को खतरे में मानकर मुल्लों ने ऐतिहासिक रूप से भीड़ बटोरी और शहर-शहर प्रदर्शन किया. मालदा में आगजनी और तोड़फोड़ की. यह संघियों से मुसंघियों के गठबंधन का नतीजा है. ये दोनों आपस में एक हैं. एक-दूसरे को जहर उगलने का पूरा बहाना देते हैं. इस प्रदर्शन से संघियों को यह कहने का बहाना मिला कि उन बेचारों के साथ बड़ा भेदभाव होता है. प्रदर्शन या तोड़फोड़ करने वालों को फांसी दिए बगैर उनकी दंगाई हरकतों की आलोचना कैसे की जा सकती है?
अगर मालदा में तोड़फोड़ हुई और उसके लिए किसी को फांसी नहीं हुई, तो संघियों द्वारा सरकार प्रायोजित हत्याएं भी नाजायज कैसे हो सकती हैं? अगर आप उनकी हत्याअों को नाजायज कहेंगे तो वे आहत हो जाएंगे.
इन दोनों का आहत होने का धंधा बड़ा दिलचस्प है. इसका धरम से कोई ताल्लुक नहीं है. यह एक तरह का मूर्खतापूर्ण राजनीतिक प्रोजेक्ट है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गाय और खलीफा को लेकर आहत हो रहे मुल्लों ने ही देश का बंटवारा करवा दिया था. आहत होने की संवेदनशीलता ऐसी संवेदनहीन है कि हिंदुओं के 'महान देवता' (?) महिला के मंदिर में प्रवेश करते ही अपना 'संयम' खो देते हैं और दुनिया चलाने वाले वे शक्तिशाली देवता अपना ब्रम्हचर्य तक नहीं बचा पाते.
हैदराबाद में एक की जान लेकर प्रधानमंत्री असम में वोट मांगने गया. इस निर्लज्जता पर सोचिए. राजनाथ सिंह गृहमंत्री हैं. उनके पास दादरी और हैदराबाद पर जवाब नहीं है, न राज्य से मांगा. लेकिन ममता बनर्जी से जवाब मांग रहे हैं. इस सिलेक्टिव आंतरिक सुरक्षा पर सोचिए. कट्टरता की सनक जब विरोधियों को निपटा चुकी होती है तब अपने लोगों पर जुटती है. प्रशांत भूषण के मुंह पर उछाली स्याही कब सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर लिपट जाएगी, आप समझ नहीं पाएंगे. उन्माद अपने पराए में फर्क नहीं करता. मंटो ने यह उन्मादी 'मिश्टेक' करीब से देखा था.
सारे बुद्धिजीवी 'सेट' किये जा चुके हैं तो उन्हें छोड़ दीजिए उनके हाल पर. लेकिन अपने बारे में सोचिए. आपकी रसोईं में बने मशरूम को बीफ बताकर अफवाह उड़ सकती है और आप की जान ली जा सकती है. आप सरकार से असहमत हुए तो आपको नक्सली और देशद्रोही कहे जा सकते हैं.
इस कसौटी पर संघी गोविंदाचार्य को नक्सली और देशद्रोही कहा जाना चाहिए क्योंकि वे भी किसानों और गरीबों पर बोलते हैं, वे भी मोदी सरकार की आलोचना करते हैं. यह कसौटी इतनी संकीर्ण है कि आपको सवाल करने की इजाजत नहीं देती. यह कसौटी राष्ट्र की व्यापक संकल्पना को एक मूर्खता के पुंज से होते हुए एक मूर्ख व्यक्ति तक समेट देना चाहती है. यह कसौटी इस समूचे तंत्र को अंतत: सवर्णों, सामंतों और पूंजीपतियों तक समेट देती है.
इसी कसौटी पर देश का पूरा इंटैलीजेंशिया देशद्रोही हो गया है. हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या अथवा सरकारी हत्या के बाद 15 दलित अध्यापकों ने इस्तीफा दे दिया. कुछ ही दिन पहले बीएचयू से मैग्सेसे विजेता संदीप पांडेय को निष्कासित किया गया, जिस पर कोई हल्ला नहीं मचा. उन पर एबीवीपी का आरोप था कि वे नक्सली और देशद्रोही हैं. एबीवीपी की शिकायत के बाद बीएचयू के संघी प्रशासन ने यह कार्रवाई की.
90 प्रतिशत विकलांग डीयू के प्रोफेसर साईबाबा को नक्सली बताकर नागपुर की अंडाकार सेल में रखकर मरणासन्न होने तक प्रताड़ित किया गया. उनकी गिरफ्तारी को तथ्यत: गलत बताने पर अरुंधति राय पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया गया.
कल 20 जनवरी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में हिस्सा लेने गए प्रतिष्ठित पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन को नक्सली और देशद्रोही बताकर उनके कार्यक्रम का विरोध किया गया और उनके साथ बदतमीजी की गई. यदि सिद्धार्थ वरदराजन को देशद्रोही और नक्सली घोषित किया जा सकता है तो यह देश अब जाहिलों का स्वर्ग हो चुका है.
इसी कसौटी के आधार पर लगातार हत्याओं और अभिव्यक्ति पर हमलों के विरोध में उठ खड़े होने को 'मैनेज्ड और फिक्स' राजनीतिक कार्यक्रम बताने वाले लोग हर कैंपस में दीगर विचार रखने वालों को प्रताड़ित करने में लगे हैं.
राष्ट्रवाद और देशभक्ति अब एक बदबूदार कीचड़ में तब्दील हो चुका है जो हर कैंपस में, हर संस्थान में फैल रहा है. इस कीचड़ में दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और संघ की घृणा आधारित अमानवीय विचारधारा असहमत लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. दादरी से हैदराबाद तक की घटनाएं उसी का नतीजा हैं.
संघ सभी संस्थाओं में अपने लोगों घुसाए, कांग्रेस या अन्य पार्टियों की तरह यह उसका विशेषाधिकार है. उसके पास बुद्धिजीवी नहीं हैं तो हनुमान गढ़ी के पंडों को सब विश्वविद्यालयों का वाइस चांसलर बना दे. लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं गईं तेल लेने. लेकिन हत्याएं, उत्पीड़न, जेल और गोली के सहारे बुद्धिजीवियों का उत्पीड़न खतरनाक स्थिति तक पहुंच रहा है. नरेंद्र मोदी के तकनीकी लच्छेदार भाषणों के पीछे का सच यही है कि युवाओं को मूर्ख बनाकर उन्हें कैंपसों से निकली भेंड़ों में तब्दील किया जाएगा. जो इससे इनकार करेगा, उसे प्रताड़ित किया जाएगा.
बुद्धिजीवियों के साथ इतनी क्रूरता से अंग्रेज भी नहीं पेश आए थे. संघ के लोग बताते हैं कि किस तरह संघ में शुरू से ही पढ़े लिखे लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी. अब भी नहीं है. वे समर्पित प्रचारक और कार्यकर्ता तैयार करते हैं, जो उनके किसी भी राजनीतिक प्रोजेक्ट पर धर्म के नाम पर मर मिटें. वे अब विश्वविद्यालय के युवाओं को इसी तरह की भीड़ में बदलना चाहते हैं. विश्वविद्यालय के युवाओं को तालिबानी मूर्खों की भीड़ में तब्दील कर देने का संघी सपना साकार हुआ तो यह देश क्या बनेगा, यह समझने के लिए अफगानिस्तान, पाकिस्तान और सीरिया पर नजर दौड़ा लीजिए. धर्म जब राजनीति में उतरता है तो उसकी खून की प्यास असीम हो जाती है. बंटवारा ज्यादा पुराना नहीं है जब धर्म के झगड़े ने पूरे हिंदुस्तान को खून के दरिया में तब्दील कर दिया था. यह लोकतंत्र बड़ी मुश्किल से मिला है. लोकतंत्र को समझकर उसकी रक्षा कीजिए. एक की हत्या पर आवाज उठाइए वरना एक-एक करके हम सब शांत कर दिए जाएंगे.
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