गुरुवार, 12 मार्च 2015

जनांदोलन के विचार की दुर्गति

अरविंद केजरीवाल का उभार भाजपा और कांग्रेस मार्का घोड़ा खरीद राजनीति का नकार था. केजरीवाल उस काजल की कोठरी को पानी पी—पी कर कोसते हुए उसमें दाखिल हुए और कोठरी साफ करने की जगह सर से पांव तक खुद को कालिख से पोत लिया. केजरीवाल के उभार के साथ
हम सबने जनता की तड़पती हुई आकांक्षाओं को देखा है कि वह कितनी बेताबी से बदलाव के लिए छटपटाती है. नरेंद्र मोदी और भाजपा को मिला ऐतिहासिक बहुमत भी इसी जन छटपटाहट का नतीजा रहा. लेकिन इन दोनों ने ही जनता की आकांक्षाओं को बेरहमी से रौंदा. आम आदमी पार्टी के बारे में यह तो पहले से ही साफ था कि एक पार्टी बिना किसी घोषित विचारधारा के अगर चुनाव लड़ रही है तो वह सिर्फ सत्ता में जगह बनाने की कोशिश कर रही है. वह कोई दूरगामी परिवर्तन ला सकने की कूवत नहीं रखती. सत्ता मिलने के पंद्रह दिन बाद से सामने आई सिर फुटौवल इसका प्रमाण है. सिर्फ आलाकमान बनने की खब्त में केजरीवाल अपने तालीबाज अव​सरवादियों को अपनी विश्वसनीयता और अपने सियासी भविष्य से जैसा खिलवाड़ कर रहे हैं वह ऐतिहासिक मूर्खता असधारण है. केजरीवाल ऐसे लोगों से घिर गए हैं जिन्होंने अवसर देख राजनीति लपक ली है. राजनीतिक समझ से पैदल पदलोलुपों के भरोसे पार्टियां नहीं चलतीं. लेकिन केजरीवाल खुद को भी इस पदलोलुपता से नहीं बचा पा रहे हैं, नतीजतन वे अपने आदर्शों की तिलांजलि देकर दूसरी कांग्रेस या भाजपा बनाने में लगे हैं.
हिंदुस्तान की राजनीति में कई दशकों से खराबतर में से कम खराब चुनने का विकल्प मिलता रहा है. इस लिहाज से केजरीवाल जनता को कम खराब विकल्प के तौर पर मिले और उसने तवज्जो दी. अब वे यह साबित कर रहे हैं कि भारतीय युवा, जो अन्ना आंदोलन के बाद से राजनीति से कम घृणा करने लगे थे, राजनीति में शामिल हो रहे थे, वे गलत थे. केजरीवाल ने जनांदोलनों पर से जनता का भरोसा और हटा दिया है. उन्होंने अगले किसी आंदोलन पर भरोसा न करने की जमीन तैयार की है. 
दिल्ली में चुनाव जीतने के बाद से ही केजरीवाल ने लगातार यह साबित किया है कि जनता ने उनपर भरोसा करके गलती की. वे इस ऐतिहासिक बहुमत के सर्वथा अयोग्य थे और वे भाजपा या कांग्रेस मार्का राजनीति से अलग कुछ नहीं करने जा रहे हैं. अरविंद केजरीवाल के साथ जनता यकीनन इसलिए खड़ी हुई कि वे साफ सुथरी राजनीति और एक राजनीतिक आदर्श के चेहरे के रूप में दिखे थे. लेकिन वह एक भ्रम मात्र था. हो सकता है कि वे राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ते जाएं, लेकिन पारंपरिक भ्रष्ट राजनीति के काले बादल अभी छंटने नहीं जा रहे हैं. मोदी की अपेक्षा केजरीवाल का महत्व ज्यादा था, क्योंकि वे छोटे स्तर पर ही सही, पर जनता से ज्यादा जुड़े थे. हाल के कुछ प्रकरणों ने हमारी सामूहिक आशाओं पर न सिर्फ कुठाराघात किया, बल्कि यह साबित किया कि सत्ता की गली में जाने वाले की बातों और हरकतों में कितना फर्क होता है.
केजरीवाल जब हल्ला मचा रहे थे कि भाजपा और कांग्रेस अनैतिक—अलोकतांत्रिक राजनीति करती हैं, तब वे कांग्रेस को तोड़कर सत्ता हथियाने का षडयंत्र रच रहे थे. यदि सामने आए स्टिंग की प्रामाणिकता पर संदेह करना चाहें तो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की चिट्ठी इस बात की तस्दीक करती है कि केजरीवाल सत्ता हथियाने के लिए किस कदर बेताब थे, कितने यत्न किए, जिसकी वजह से इन दोनों नेताओं से उनके मतभेद शुरू हुए. 
केजरीवाल लगातार साबित कर रहे हैं कि वे 'इंदिरा इज इंडिया' सिंड्रोम से पीड़ित हो चुके हैं. प्रशांत भूषण का भारतीय राजनीति में अराजनीतिक तरीके से क्या योगदान है, यह बताने की जरूरत नहीं है. बावजूद इसके, जायज सवालों की वजह से उन्हें बेइज्जत किया जा रहा है. इसी तरह केजरीवाल योगेंद्र यादव के साथ पेश आ रहे हैं. जबकि, इन दोनों नेताओं की चिट्ठी केजरीवाल का कच्चा चिट्ठा है. हो सकता है कि केजरीवाल के विधायक उनका साथ दें और योगेंद्र प्रशांत को पार्टी से बाहर कर दें, लेकिन ऐसाी करके भी वे हार जाएंगे. चिट्ठी में आंतरिक लोकतंत्र, स्वराज, राजनीतिक शुचिता संबंधी तमाम सवाल हैं जिनका अब तक पार्टी कोई जवाब नहीं दे सकी है और पार्टी का बर्ताव इसके विपरीत रहा है. इन दोनों नेताओं के तमाम आदर्शवादी और तर्कसंगत सवालों के जवाब की जगह उनपर हंटर चलाने की कोशिश की जा रही है, जैसे कांग्रेस या भाजपा में होती रही है.
केजरीवाल अब मूर्ख चापलूसों की उस फौज के सहारे नई राजनीति करने के इच्छुक हैं जो सार्वजनिक तौर पर आपराधिक सोच के साथ खड़ी है. कुमार विश्वास कहते हैं कि 'अलगाववादियों को गिरफ्तार न करके गोली मार देनी चाहिए'. यह बातें उस देश में कही जा रही हैं, जिसने अंग्रेज सरकार से सौ वर्षों तक आजादी की लड़ाई लड़ी है. जिस धरती पर धरना, अनशन, असहयोग जैसे राजनीतिक के हथियार विकसित हुए, वहां पर इक्कीसवीं सदी में अलगाववादियों को गोली मार देने की आकांक्षा पालने वाला लंपट दिमाग केजरीवाल का विश्वस्त सहयोगी है. उनके प्रवक्ता आशुतोष, जो कि पत्रकारिता के शिखर पर विराजमान थे, योगेंद्र और प्रशांत आदि को 'अति वाम' खेमा कहते हैं. वरिष्ठ पत्रकार की ऐसी समझ पर आप या तो सर पीट सकते हैं या फिर जब वे बोल रहे हों तो शहर में सबसे अच्छी आइसक्रीम की दुकान के बारे में बात कर सकते हैं. 
हो सकता है कि योंगेंद्र यादव और भूषण परिवार पर लग रहे आरोप सही हों, लेकिन यह साफ है कि केजरीवाल अपने झूठ, अपने आदर्शों के मायाजाल और असली लोकतंत्र लाने के शगूफे पर उठ रहे सवालों का कोई जवाब न देकर लंपटों की एक फौज के सहारे भाजपा और कांग्रेस नुमा आलाकमान बनने के लिए सारी ताकत लगाए दे रहे हैं. वे जीतें या हारें, इससे फर्क नहीं पड़ता. कांग्रेस सवा सौ साल पुरानी पार्टी है लेकिन फिलहाल जनता उसे एक राजनीतिक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं मान रही है. अब यह केजरीवाल को तय करना है कि वे क्या बनना चाहते हैं, एक मजबूत राजनीतिक विकल्प या मूर्खों के अप्रश्नेय सरदार!

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