सोमवार, 2 मार्च 2015

केजरी बाबू! लोकतंत्र कहां गया?

अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति के स्यवंभू
लोकतांत्रिक और सबसे ईमानदार हैं, इसलिए एक से ज्यादा पद पर काबिज रह सकते हैं. बहाना वही है जो सोनिया गांधी, माया या मुलायम के पास है कि पार्टी नहीं चाहती कि वे हटें. वे देश का सिस्टम पारदर्शी चाहते हैं. पूरा सिस्टम श्रीधरन की मेट्रो की तरह चाहते हैं कि कोई भी रहे पर बेईमानी न कर पाए, लेकिन अपनी पार्टी में ऐसी व्यवस्था नहीं बनाते कि विकेंद्रीकरण हो. उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद संयोजक पद से इस्तीफा दिया, पार्टी के लोगों ने मना कर दिया और वे मान गए! फिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के चापलूस यही करके क्या बुरा करते हैं? केजरीवाल के व्यवहार से तो लगता है कि खुदा न खास्ता, आम आदमी पार्टी की एक से ज्यादा राज्यों में सरकार बनने की नौबत आई तो स​बके मुख्यमंत्री केजरीवाल ही बनेंगे.
केजरीवाल ने चुनाव जीतने से पहले राजनीतिक ईमानदारी को लेकर बड़ा हल्ला मचाया लेकिन उम्मीदवारों को टिकट बांटने में वही किया जो कांग्रेस भाजपा करती हैं. टिकट बंटवारे को लेकर प्रशांत भूषण, शांति भूषण और पार्टी के लोकपाल की आपत्तियों को दरकिनार किया. जब लोकपाल की सुननी नहीं है तो वह दिखाने का दांत है किस काम का? केंद्र में मजबूत लोकपाल चाहिए जो एक ही शिकायत पर प्रधानमंत्री तक को जेल भिजवा दे. लेकिन अपना लोकपाल जो कहे, कहता रहे, चलता है.
उनके आंतरिक लोकपाल एडमिरल रामदास अगर पार्टी में लोकतंत्र को लेकर कई सवाल उठाते हैं तो केजरीवाल को क्यों नहीं सुनना चाहिए? अगर वे पार्टी के लोकपाल की हैसियत से कहते हैं कि यह पार्टी भी बाकी पार्टियों जैसी है, तो उनके सवालों पर गौर करने की जगह उनपर ही तलवार क्यों खींच लेना चाहिए? अगर वे पार्टी फंडिंग को लेकर सवाल पूछते हैं तो पार्टी को क्यों जवाब नहीं देना चाहिए?
प्रशांत भूषण वह आदमी है, जिसने एक साथ न्यायपालिका और केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था. हर बड़े घोटाले को अंजाम तक पहुंचाने वाले लोगों में प्रशांत सबसे आगे खड़े रहे. अब जब वे आम आदमी पार्टी से सवाल करते हैं तो केजरीवाल को बुरा क्यों लगता है? प्रशांत ने कहा, 'पार्टी ने अपने सभी अकाउंट को वेबसाइट पर जारी करने की बात की थी, लेकिन आरटीआई के अंतर्गत आने के बहुत बाद में भी हम ऐसे नहीं कर सके हैं. हमने चंदे के बारे में तो बता दिया लेकिन खर्च कितना किया, यह अभी भी पर्दे में है.' केजरीवाल के पास प्रशांत भूषण के इस सवाल का क्या जवाब है?
प्रशांत भूषण ने अपने पत्र में लिखा है कि 'हम राष्ट्रीय दल बनें, इससे पहले देश के अहम मुद्दों पर हमारी सोच का स्पष्ट होना भी जरूरी है.' केजरीवाल को यह उम्मीद अराजकता क्यों लगती है? दुनिया की कौन सी पार्टी या संगठन है जिसने बिना किसी विचारधारा या स्पष्ट सोच के तीर मार लिया हो? प्रशांत भूषण अगर पीएसी में किसी महिला सदस्य को शामिल करने की वकालत करते हैं तो वे अनुशासनहीन कैसे हो गए? पार्टी में छह महिला विधायक हैं. किसी को मंत्रिमंडल या पार्टी में अहम पद क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? उनका सवाल है कि 'एक व्यक्ति केंद्रित प्रचार से हमारी पार्टी अन्य दूसरी पारंपरिक पार्टियों की तरह बनती जा रही है जो एक व्यक्ति पर केंद्रित है...एक व्यक्ति केंद्रित अभियान असरदार हो सकता है, लेकिन तब क्या अपने सिद्धांतों को उचित ठहराया जा सकता है? अगर वे चाहते हैं कि पार्टी में कोई एक सुप्रीमो न हो, तो केजरीवाल को इतना बुरा क्यों लगता है कि प्रशांत भूषण उन्हें खलनायक लगते हैं?
अगर योगेंद्र यादव चाहते हैं कि पार्टी अपने आदर्शों को मजबूत कर देश भर में एक राजनीतिक विकल्प बने तो केजरीवाल को नागवार क्यों गुजरता है? केजरीवाल क्यों चाहते हैं कि वे दूसरे राज्यों में भी अपना ही चेहरा आगे रखें? उन्होंने दिल्ली में रहने की कसम खाई है तो रहें लेकिन बाकी नेताओं को
पार्टी के विस्तार की इजाजत क्यों नहीं देना चाहते?
भाजपा कांग्रेस भ्रष्ट हैं परंतु उनकी एक सही—गलत विचारधारा तो है! केजरीवाल सिर्फ ​भ्रष्टाचार का शगूफा लेकर कहां तक जाना चाहते हैं? कहीं यह भ्रष्टाचार विरोधी नारा मुलायम का सेक्युलरिज्म तो नहीं बन जाएगा, जिसका जिक्र आते ही लोग या तो हंसेंगे या चिढ़कर गालियां बकेंगे? दिल्ली एक केंद्र  द्वारा शासित एक पिद्दी सा राज्य है. केजरीवाल को अगर लगता है कि जिस ढंग से दिल्ली की सत्ता मिल गई, वैसे ही राष्ट्रीय राजनीति पलकें बिछाए उनका स्वागत करेगी, तो वे भारी भ्रम में हैं. उनकी अबतक की राजनीतिक उपलब्धि यही है कि उन्होंने भाजपा कांग्रेस को गरियाया है और सत्ता पर काबिज हुए हैं. इसके लिए उन्होंने भी तमाम हथकंडे अपनाए हैं. अग्रवाल समाज, सिख, हिंदू, मुसलमान सबको साधने के दबे छुपे उपक्रम किए. इसी क्रम में वे नास्तिक से आस्तिक तो हो ही गए, उनके ईश्वर चुनाव प्रचार से लेकर शपथ ग्रहण तक में दिखे. अब जब पार्टी और सत्ता को लोकतंत्रिक साबित करने का वक्त है, तब वे वही कर रहे हैं जो नरेंद्र मोदी, अमित शाह, सोनिया—राहुल या माया—मुलायम करते.
केजरीवाल को इतना समझदार नहीं बनना चाहिए कि उनका घामड़पन उनकी हर हरकत में टपकने लगे. जनता को मूर्ख बनाने के चक्कर में अपना शातिरानापन तो छुपाना ही पड़ेगा. लोकतंत्र के लिए ​चीखना और इसे व्यवहार में उतारना, ये दोनों दो बातें हैं. उनकी पार्टी के दो सबसे मजबूत नेता अब उनके लिए खलनायक इसलिए हैं क्योंकि वे उनपर ही सवाल उठा रहे हैं.

1 टिप्पणी:

Baldev Singh ने कहा…

Aapke vichar achhe hain. Prantu yeh sirf ek pehlu hai. Jo bhi log AAP party ke bare likh rahe hain, unka jhukav ya to Arvind Kejriwal ki tarf hai ya unke virodhiyon ki tarf.
Kisi bhi sena ke do General nahin ho sakte. Agar honge to unka yudh main haarna lajmi hai. Aakhir kisi ko to ek Ganeral Banana hi padegar aur uske netritav main hi kaam karna padega.



क्या मजदूरों और किसानों की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं?

एक तरफ करोड़ों की संख्या में नौकरियां चली गई हैं और बेरोजगारी 45 साल के चरम पर है. दूसरी तरफ, सरकार की तरफ से किसानों और मजदूरों पर एक साथ ...