रविवार, 15 मई 2016

पत्रकारों की स्वामिभक्ति और उनकी हत्याएं

मीडिया में अब संपादक नहीं हैं. कुछ एक संस्थानों को छोड़ दें तो संपादक का पद ही खत्म हो गया है. मैं अपने सात साल के कॅरियर में दो-एक ही ऐसे लोगों को जानता हूं जो संपादकीय कुर्सी पर बैठकर अपने सहकर्मियों का साथ देते हैं. ज्यादातर मीडिया घरानों में सीईओ नाम का कॉरपोरेट दलाल बैठा है. पत्रकार फील्ड में रिपोर्टिंग करते हुए कहीं फंस जाए तो ये उसका साथ देने की जगह कह देते हैं कि यह हमारा नहीं है. पत्रकार अपना खून पसीना बहाए अखबार के लिए और उसके मरने पर अखबार या चैनल उसे अपना कहने से इनकार कर देते हैं. इसके बावजूद पत्रकार कभी संस्थानों पर सवाल नहीं उठाते क्योंकि उन्हें किसी भी सूरत में नौकरी प्रिय है.
छत्तीसगढ़ में सबसे बुरे हालात हैं. जीन्यूज, प्रभात खबर, नवभारत, भास्कर और दूसरे संस्थान अपने पत्रकारों को फंसने पर या तो पहचानने से इनकार कर चुके हैं, या फिर उनको नौकरी से हटा चुके हैं. छत्तीसगढ़ सरकार ने दर्जनों पत्रकारों पर फर्जी मुकदमें दर्ज कर चुकी है. चार पत्रकार जेल के अंदर हैं. छह फरार हैं. 2012 से अब तक वहां छह पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. वहां जो भी पत्रकार कॉरपोरेट या सरकार पर सवाल करता है, उसे पुलिस अधिकारी धमकाते हैं, फर्जी मामले बनाकर जेल में ठूंस देते हैं.
हाल में बिहार, झारखंड, यूपी में पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. सरकारें चाहती हैं कि पत्रकार उनके पीआर के रूप में काम करे. नेता चाहते हैं कि पत्रकार उनके गुर्गे के रूप में काम करे. हर पार्टी अपना सुधीर चौधरी चाहती है. पत्रकारों ने पार्टियों को ऐसा करने दिया है. एक दो अपवाद छोड़कर कोई मीडिया संस्थान अपने पत्रकार को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने देना चाहता. पत्रकार यूनियन बनाने से कतराते हैं. वे वैसे ही काम करते हैं जैसा उनका मालिक चाहता है. उनकी स्वामिभक्ति उनकी मौतों में तब्दील हो रही है तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पत्रकार संगठित नहीं होते. वे खुद अपने साथियों की जड़ें खोदने में लगे रहते हैं.
पत्रकारों को यह नहीं दिखता कि देश भर में वकीलों या डॉक्टरों के साथ शोषण या अन्याय की संस्थानिक हरकतें संभव नहीं है. एक वकील या डॉक्टर को कोई छू दे तो उनका बार काउंसिल और मेडिकल काउंसिल खटिया खड़ी कर देता है. पत्रकार अपनी स्वानवृत्ति के कारण लात खा रहे हैं. मार्केंडेय काटजू ने कहा, मीडिया का रेग्युलेशन होना चाहिए, इससे सुरक्षा और जवाबदेही दोनों सुनिश्चित होती, पर पत्रकारों ने ही मालिकों की तरफ से उनका मुंह नोच लिया था. यह कहने के लिए मुझे माफ करें कि आप मर रहे हैं क्योंकि आप पहले से ही मुर्दा हैं.
यहां की जनता भी अनोखी है. आप देखिए कि नागरिक स्वतंत्रताओं पर सरकारें कितने भी हमले करें, जनता को परेशानी नहीं होती. जनता सरकार की तरफ से गाली गलौज करती है, वह सरकार पर सवाल नहीं उठाती. गुलामी का यह चरम दौर है. एक पत्रकार बिहार में मारा गया, तो लोग कहते हैं कि वहां जंगलराज आ गया. झारखंड के बारे लोग ऐसा नहीं कह रहे. यूपी में एक पत्रकार को जिंदा जला दिया गया था. छत्तीसगढ़ में 6 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है, चार जेल में बंद हैं. दर्जनों पर या तो मुकदमा है. उसे कोई जंगलराज क्यों नहीं कहता? लोग हर एक घटना के बाद यह साबित करने में लग जाते हैं कि बिहार में जंगलराज है. यह सही है कि बिहार सबसे बेहतर प्रशासन वाला प्रदेश नहीं है. लेकिन अगर छत्तीसगढ़ में कोई जंगलराज नहीं मानता, अगर झारखंड में कोई जंगलराज नहीं मानता, तो बिहार में हर घटना के बाद जंगलराज कैसे आ जाता है? अगर हजारों करोड़ के तीन घोटाले और करीब 60 हत्या करवाने वाले मध्यप्रदेश में जंगलराज नहीं है तो बिहार में कैसे जंगलराज हो गया? क्या अपराध के मामले में बिहार सर्वोच्च पायदान पर है? क्या जंगलराज की बात इसलिए कही जाती है कि बिहार की सत्ता में लालू हैं और जंगलराज का जुमला उनसे चिपका हुआ है? बिहार की यह प्रोफाइलिंग किस आधार पर की जाती है?
जनता अब जनता नहीं है. वह राजनीतिक दलों की कार्यकर्ता भर है. यहां किसी की भी मौत का सिर्फ राजनीतिक महत्व है. 

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