शनिवार, 25 जनवरी 2014

न्याय के नायक ही अपराधी हुए

अपनी भंडाफोड पत्रकारिता के लिए मशहूर तहलका पत्रिका के मुख्य संपादक तरुण तेजपाल पर जूनियर सहकर्मी ने यौन उत्पी़डन का आरोप लगाया तो समाज का हर वर्ग स्तब्ध रह गया. ऐसे सवाल उठे कि जो लोग राजनीतिक और सामाजिक शुचिता के लिए झंडे उठाए फिरते हैं, अगर महिलाओं के प्रति वे ही अपराध करने पर उतर आएं, तो महिलाएं क्या करें? ऐसे लोगों के प्रति कैसा सलूक किया जाए? हमने इस प्रकरण पर समाज के विभिन्न वर्ग की महिलाओं के बातचीत करके उनकी राय जानने की कोशिश की- - 

तमाम महिलावादी संगठन यह आरोप लगाते हैं कि समय और समाज बदलने के साथ महिलाओं के शोषण के तरीके भी बदल गए हैं. महिलाओं के लिए पुरुषों के बराबर ख़डे होने के अवसर तो ख़ूब दिखते हैं, लेकिन ये अवसर आभासी हैं. नई बाज़ारवादी संस्कृति में शोषण के तमाम न दिखने वाले स्तर और अदृश्य औज़ार मौजूद हैं, जिनके बहाने जो शक्तिशाली है, वो कमज़ोर का शोषण करता है. अवसर, तरक्की और विकास के माध्यम ही शोषण का साधन बनते हैं, जिसका शिकार ज्यादातर महिलाएं होती हैं. जाने-माने पत्रकार तरुण तेजपाल पर जब उनकी महिला सहकर्मी ने यौन हमले का आरोप लगाया, तो जिसने सुना वह सन्न रह गया. हमने हर वर्ग की महिलाओं से जब इस प्रकरण पर प्रतिक्रिया लेनी चाही, तो स्त्रियों की सोच इस रूप में सामने आई कि पुरुष समाज हमेशा स्त्री समाज से अलग ख़डा है और स्त्री अपने को न स़िर्फ असुरक्षित पाती है, बल्कि पुरुष के रवैये से बेतरह निराश भी है. इस मामले में तरुण तेजपाल समेत तमाम लोग ऐसे भी हैं जो ल़डकी पर ही सवाल उठा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर महिलाएं ऐसी घटनाओं के लिए स़िर्फ पुरुषों को ज़िम्मेदार मानती हैं. दिल्ली विश्वहविद्यालय (डीयू) में अंग्रेजी परास्नातक की छात्रा सृष्टि कहती हैं कि मैं तहलका प़ढती रही हूं. वे लोग इन चीज़ों का जमकर विरोध करते थे. बलात्कार पर भी मैंने तरुण तेजपाल का एक लेख प़ढा था जो बहुत अच्छा लगा था. लेकिन जब उनके बारे में ऐसा सुना, तो मुझे विश्वा स नहीं हुआ. यह बेहद स्तब्धकारी है कि आप ग़लत बातों का विरोध करते-करते ख़ुद ही ग़लत कर बैठे. जो भी ऐसा करे, उसे क़डी सज़ा मिलनी चाहिए. बीएचयू में हिंदी विभाग में शोध छात्रा और लेखिका क्षमा सिंह इस घटना के संदर्भ में कहती हैं कि नैतिकता का झंडा बुलंद करने वाले जब इस तरह का कोई काम करते हैं, तो ये समाज के लिए झटका होता है. तेजपाल के केस में भी यही हुआ. तेजपाल ने पहले तो गुपचुप तरी़के से लड़की से माफ़ी मांगी. तहलका से ख़ुद ही इस्तीफ़ा दिया. अब वे ख़ुद को ‘पॉलिटिकल विक्टिम’ बता रहे हैं. वे अपनी ग़लती को राजनीतिक रंग दे रहे हैं. लिखित माफ़ीनामे का अर्थ वे समझते होंगे. उसके बाद वे लड़की पर सवाल उठा रहे हैं. तीन दिन में अलग-अलग बयान उन्हें ही संदिग्ध बनाता है. ऐसी किसी घटना में आरोपी कितनी भी ऊंची पहुंच वाला हो, स़ख्त सज़ा मिलनी चाहिए. ताकि फिर कोई ऐसा करने की हिम्मत न कर सके. इस केस में लगता नहीं कि लड़की ने किसी लाभ के लिए ऐसा किया है. फिर भी ऐसी घटनाओं में अगर आरोप ग़लत साबित हों, तो आरोप लगाने वाले को भी स़ख्त सज़ा होनी चाहिए, जिससे क़ानून का दुरुपयोग न हो. जेएनयू में हिंदी की शोध छात्रा सुरभि त्रिपाठी कहती हैं कि जब महिलाएं घर के भीतर थीं, तब पुरुष उनपर घर में
घुसकर, अपहरण करके या राह चलते आक्रमण करता था. अब वे उनके साथ, घर से बाहर स़डक से दफ्तर तक काम कर रही हैं. वह कभी उन्हें लालच देता है, कभी उनपर अनुचित दबाव डालता है और समझौते करने के लिए तरह-तरह से मजबूर करने की कोशिश करता है. तेजपाल के मामले में ल़डकी की कोई ग़लती नहीं दिखती. यह एक प्रबुद्ध आदमी की फिसलन है कि वह अपराध में लिप्त हो गया. क़डी सज़ा ही एकमात्र रास्ता है. इस प्रकरण पर छात्रा अनिंध्या तोग़डे कहती हैं कि  गलती किसकी थी, यह बाद की बात है. अहम यह है कि उन्होंने अपराध किया, इसलिए उन्हें सजा मिलनी चाहिए. जब तक छोटे-ब़डे हर किसी को सज़ा नहीं मिलेगी, यह सब नहीं रुकने वाला. सज़ा मिलने से लोगों में संदेश जाएगा कि अपराधी कोई भी हो, बच नहीं सकता. महिलाओं के लिए काम करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन की कार्यकर्ता संध्या द्बिवेदी की राय है कि ल़डकी को क़ानूनी कार्रवाई करनी चाहिए, जो कि शुरू भी हो चुकी है, लेकिन पी़िडता की मुश्किल यह है कि वह इतने ब़डे संस्थान से ल़ड रही है, जहां हर कोई उसपर ही उंगली उठाएगा, क्योंकि लोगों के अपने-अपने हित हैं. पहले ल़डकी पर दबाव बनाया गया. अब उसी पर आरोप भी लगा रहे हैं. मामले की महिला सेल से निष्पक्ष जांच करानी चाहिए और ल़डकी को सपरिवार सुरक्षा देनी चाहिए. संध्या का कहना है कि कई बार ल़डकियों पर यह भी आरोप लगते हैं कि वे आगे ब़ढने के लिए संबंधों का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन यह सोचने की बात है कि ऐसा माहौल क्यों बनाया जाए कि एक ल़डकी को ग़लत तरीक़ों के बारे में सोचना प़डे? यह भी पुरुष की बनाई महिला विरोधी व्यवस्था का नतीजा है. हालांकि, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई ल़डकी अपने करियर के लिए इस तरह के समझौते करे. इससे उसे कुछ हासिल नहीं होता. दिल्ली विश्वौविद्यालय में एलएलबी की छात्रा स्वप्निल कहती हैं कि महिलाओं के प्रति पुरुषों की या कहें पूरे समाज की सोच अब तक बदली नहीं है. हम बदल नहीं रहे हैं. हम स़िर्फ शोर मचाते हैं लेकिन जब बदलाव की बारी आती है, तब हम ख़ुद अपराधी बन जाते हैं. स्वप्निल इसे क़डे कानूनों का अभाव और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की कमी मानती हैं. उसी विभाग की मीनाक्षी ऐसी घटनाओं को सामाजिक ढांचे से जो़डकर देखती हैं. मीनाक्षी का कहना है कि स्त्रियों की प्रता़डना समाज में पारंपरिक रूप में मौजूद है. ऐसे अपराधों को पारिवारिक स्तर पर ही ब़ढावा मिलता है. क्या कोई मां-बाप कभी अपने ल़डके को शिक्षा देता है कि घर से बाहर जाना तो किसी ल़डकी को परेशान मत करना? ऐसे अपराधों के लिए बहुत क़डे क़ानूनों की ज़रूरत है. उनकी बात पर ज़ोर देते हुए स्नातक की छात्रा अंजलि कहती हैं कि इससे फ़़र्क नहीं प़डता कि कोई व्यक्ति किस हैसियत का है. यह महिलाओं के प्रति अपराधिक सोच का परिणाम है. क़ानूनों को और क़डा किया जाना चाहिए और अपराधियों को स़ख्त सज़ा मिलनी चाहिए. डीयू में अंग्रेज़ी की छात्रा अंजलि गुप्ता कहती हैं कि तरुण तेजपाल बार-बार अपने बयान बदल रहे हैं, जबकि दफ़्तर में किसी ल़डकी के साथ ऐसी हरकत अपराध है. उन्हें क़डी सज़ा मिलनी चाहिए. ब़डे लोगों को सज़ा मिलती है तो इससे अपराध करने से पहले दस बार सोचेंगे. डीयू में हिंदी से एमए कर रही नेहा बेहद निराशा जताते हुए कहती हैं कि ऐसे मामलों में 70 प्रतिशत जानने वाले या रिश्तेदार होते हैं. पारिवारिक रिश्ते ही ज्यादातर अपराध को अंजाम देते हैं. यदि हम तरुण तेजपाल का बचाव करेंगे तो यह हर अपराधी का बचाव करना होगा. अंग्रेज़ी एमए की छात्रा सूजैन कहती हैं कि मेरी एकमात्र राय है कि तरुण तेजपाल को क़डी सज़ा मिलनी चाहिए. बीए तृतीय वर्ष की छात्रा निधि क़डी निंदा करते हुए कहती हैं कि इस प्रकरण से साफ है कि न्याय के लिए ल़डने वाले भी महिलाओं के प्रति अन्याय ही करते हैं. यह कितना शर्मनाक है. उनकी क्लासमेट कीर्ति ने कहा, यह कितना भयावह है. यह बेहद तंग करने वाली बात है कि एक ल़डकी अपने जानने वाले के पास भी सुरक्षित नहीं है. मैं ऐसे मामलों में और क़डे क़ानून और बेहद स़ख्त सज़ा की मांग करती हूं. युवा लेखिका इंदुमति सरकार कहती हैं कि पहले ऐसी हरकतें करना फिर दुनिया भर की दलीलें देना हैरान करने वाला है. आप जिन मसलों पर दूसरों को ग़लत कहते हैं, वही काम ख़ुद करके उसे सही ठहराने के कोशिश करते हैं. ऐसे में ये चीज़ें कैसे रुकेंगी? आपको स़िर्फ नारे नहीं लगाना है. आपको अपने आदर्श व्यवहार में भी उतारना होगा. महिलाओं पर हमले की प्रवृत्ति पुरुषवादी सोच से जु़डी है, जिसे बदलने की ज़रूरत है. एक तो लोगों को ऐसी शिक्षा दी जाए कि वे महिलाओं के प्रति सहानुभूति रख सकें, दूसरे ऐसा करने वालों को स़ख्त से स़ख्त सजा मिलनी चाहिए, ताकि एक नज़ीर कायम हो. जेएनयू में जर्मन सेंटर की छात्रा शिप्रा कहती हैं कि एक इंटरनल समिति बने, जैसा कि जेएनयू में भी होता है, वह सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में मामले की छानबीन करे. ताकि सारी सच्चाई सामने आ सके. कोई स्वतंत्र बॉडी ही मामले की सही जांच कर पाएगी. अगर तरुण तेजपाल ने ग़लत किया है तो उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए. जेएनयू के ही लैंग्विस्टिक इंपावर सेंटर में सहायक अध्यापक अपर्णा कहती हैं कि तरुण तेजपाल या अन्य किसी ऐसे मसले में बहस का तो कोई मुद्दा ही नहीं है. इसमें दूसरा पक्ष नहीं हो सकता. वे ल़डकी के लिए पारिवारिक सदस्य की तरह हैं, और उन्होंने जो किया, वह जघन्य अपराध है. उन्हें कठोर सज़ा मिलनी चाहिए. समाज विज्ञान केंद्र की छात्रा आस्था की भी राय कुछ ऐसी है कि ग़लत चीज़ों का कोई बचाव नहीं हो सकता. किसी जूनियर को लैंगिक प्रता़डना देना अपराध है और अपराध की सज़ा मिलनी चाहिए. जेएनयू भाषा सेंटर की छात्रा नमिता कहती हैं कि देश में हर मिनट कहीं न कहीं बलात्कार हो रहा है और कहीं कुछ नहीं होता. 16 सितंबर जैसा कांड होने के बाद भी दिल्ली में यह सब लगातार जारी है. ज़रूरत है कि सरकार बदले जो क़डा स्टैंड ले. लोगों की सोच बदले जो ऐसी घटनाओं के विरोध में हो तभी बात बनेगी. मैत्रेयी कॉलेज की अध्यापिका डॉ. ममता धवन की स्पष्ट राय है कि जब शिक्षित, बौद्धिक और समाज की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति महिला की स्थिति को कमतर आंकता है, अपनी ही संस्था में कार्यरत स्त्री की दैहिक और मानसिक अवमानना करता है तो यह उस स्त्री वर्ग के भविष्य पर करारा तमाचा है जो यह सोचता है कि महिलाओं की समानता और संभावनाओं का रास्ता तभी खुलेगा, जब पुरुष शिक्षित होगा और उसकी समाज शास्त्रीय समझ उसे महिलाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाएगी. हंसराज कॉलेज में सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनीता ने कहा, महिला समाज के संदर्भ में बहुत सी चीज़ें इतनी जटिल हो चुकी हैं कि आमतौर पर लोग मुंह नहीं खोलना चाहते हैं. बहुतेरे मामलों में कभी-कभी सही व्यक्ति भी फंस जाता है और कभी-कभी दोषी इंसान भी बच जाता है. मेरे ़ख्याल से इस मामले में तह तक जाए बिन कोई भी बात कहना जल्दबाज़ी होगी. बहुत बार ऐसा होता है कि अपना हित साधने हेतु हम सब बहुतेरे हथकंडे अपनाते हैं, जब मामला गंभीर होने लगता है, तब पहलू बदल लेते हैं. हालांकि, तहलका के तरुण तेजपाल के मामले में दस्तावेज़ी सबूत हैं. बावजूद इसके निष्पक्ष जांच की ज़रूरत जान पड़ती है. जामिला मिलिया इस्लामिया में शोध छात्रा तबस्सुम जहां का कहना है कि पुरुषप्रधान समाज का सबसे बड़ा दोष है कि वह अपने ऐसी हरकतें करके महिलाओं को आगे ब़ढने से रोकना चाहता है. तरुण तेजपाल मामले से ये ज़ाहिर होता है कि वह दोषी हैं और अब वह भी मामले पर लीपापोती करना चाहते हैं. दफ़्तर में यौन प्रताड़ना जैसी स्थिति का सामना अधिकतर महिलाओं को करना पड़ता है, पर बहुत कम मामले सामने आ पाते हैं. जो आते भी हैं उन्हें रफा-दफा करने की कोशिश की जाती है, या उल्टे लड़की पर ही दोषारोपण कर दिया जाता है कि उसने कामयाबी पाने के लिए ऐसा किया है. छात्रा सैयद सना का कहना है कि तहलका जैसी सम्मानित पत्रिका के संपादक तरुण तेजपाल से तो बिल्कुल ऐसे कृत्य की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्हें स़ख्त सज़ा मिलनी चाहिए. लेकिन ये वक़्त किसी के क़िरदार पर बहस करने से ज़्यादा उस सोच पर बहस करने का है जो कहीं न कहीं आपकी प्रगतिशीलता पर सवाल खड़े कर रहा है. महिलाओं को अपनी आवाज़ बुलंद करने की ज़रूरत है, तुरंत प्रतिक्रिया आपको ऐसे अपराधों से बचा सकती है. युवा पत्रकार रिम्मी शर्मा कहती हैं कि ऐसी घटनाओं के लिए महिलाएं और पुुरुष दोनों ज़िम्मेदार हैं लेकिन अनुपात 80 और 20 का है. 80 फ़ीसद मामलों में पुरुष अपनी पॉवर और पोज़ीशन का इस्तेमाल करता है और शोषण करता है. 20 प्रतिशत मामलों में ल़डकियां इसे करियर ग्रोथ और आगे ब़ढने के नाम पर जान-बूझकर ऐसे हथकंडे इस्तेमाल करती हैं. अंतत: सब पैसे के साथ ख़डे होते हैं. तरुण तेजपाल ने पहले भी ऐसा किया होगा, लेकिन इस बार ल़डकी ने विरोध का साहस दिखाया. कवियित्री और लेखिका विपिन चौधरी का कहना है कि ज़ाहिर है यदि कोई लड़की इस तरह संबंध कायम करने की इच्छुक होगी तो कभी शिकायत नहीं करेगी. जब भी कोई पढ़ी-लिखी लड़की नौकरी के लिए अपने घर से बाहर निकलती है तो अपने आत्मविश्वा स के बूते, कोई लड़की कभी इस तरह के संबंधों के लिए तैयार नहीं होती. यदि एक दो प्रतिशत ल़डकियां अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए संबंध कायम करती हैं तो भी उन्हें देर-सवेर उसे अपने किए पर ग़ौर करना ही पड़ता है और इन सबसे बाहर निकलने के लिए वह परेशान हो उठती है. हर रोज़ यौन उत्पीड़न की शिकायतें इसलिए सामने आ रही हैं, क्योंकि लडकियां अपने आप को शिकार नहीं बनने देना चाहतीं. हाल ही में तरुण तेजपाल वाले प्रकरण में मैंने स्वयं कई पुरुषों से सुना की लड़की गई ही क्यों थी उसके साथ. अब इस मूर्खतापूर्ण बात का क्या जवाब दिया जाए. दूसरी तरफ स्त्री को ही दोषी मानने वाले पुरुषों की संख्या हमारे समाज में बहुतायत में है. हमारे यहां पुरुषों का एक बड़ा वर्ग घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर काम करने वाली स्त्रियों के प्रति दुराग्रह से ग्रस्त हैं. इस दिशा में स्त्री के प्रति एक गंभीर सामाजिक नज़रिये के साथ एक बड़े सामाजिक बदलाव की ज़रूरत है. 
(यह रिपोर्ट तेजपाल प्रकरण के तुरंत बाद की है जो कि चौथी दुनिया साप्ताहिक में छप चुकी है. )

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