रविवार, 19 जनवरी 2014

मोदी के विकास मॉडल का सच—1

यदि कोई यह कहता है कि मुझे मौका दीजिए, मैं देश का भाग्य बदल दूंगा तो आप इस पर कैसे विश्वास करेंगे? जाहिर है कि आप उसके अतीत खंगालेंगे कि उसने आखिर अबतक क्या किया है. मोदी का भाषण तथ्यों पर गौर किए बगैर सुनिए, तो आप खुशफहमी से सराबोर हो सकते हैं. बहुत से साथियों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं. आइए, उनके दावों के बरअक्स एक नजर डालते हैं गुजरात के विकास पर...

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि पे प्रधानमंत्री बनकर दुनिया भर में शिक्षा, शिक्षक और ज्ञान का निर्यात करेंगे. क्या गुजरात की शिक्षा के उन्होंने बेहतर बनाया है? बीती 12 जनवरी को अहमदाबाद में एक सेमिनार के दौरान ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉड्र्स के सदस्य लॉर्ड भीखू परीख ने गुजरात में उच्च शिक्षा की स्थिति पर कहा कि अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात में उच्च शिक्षा का स्तर काफी नीचा है.
दूसरी ओर,पिछले हफ्ते National University Education Planning and Administration की रिपोर्ट जारी हुई है, जिसमें प्राथमिक शिक्षा के मामले में गुजरात की रैंक 28वीं है. अपर प्राइमरी शिक्षा के मामले गुजरात 14वें स्थान पर है.
गुजरात सरकार ने मई 2012 में उच्च न्यायालय से कहा था कि सामाजिक–आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के छात्रों की प्राथमिक शिक्षा के लिए उसके पास पर्याप्त पैसा नहीं है. हालांकि, गुजरात सरकार का बजट 1.14 लाख करोड़ का है. लेकिन गरीबों को पढ़ाने के लिए पैसा नहीं है. 
2011 में गुजरात सरकार ने एक आदेश के जरिये निजी शिक्षा संस्थानों को प्रवेश प्रक्रिया और मनमानी फीस वसूलने की खुली छूट दी. गुजरात में 1999–2000 में सरकारी स्कूलों में 81.34 लाख बच्चे पढ़ते थे. 
2011–12 में उनकी संख्या घटकर 60.32 लाख रह गई. बाकी गरीब बच्चों को पढ़ाई छोड़ने या मध्यवर्ग के बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश के लिए बाध्य कर दिया गया. निजी स्कूलों में उनके अभिभावकों को ऊँची फीस भरनी पड़ती है. 
2003 में 16.80 लाख बच्चों ने पहली कक्षा में प्रवेश लिया था जबकि 2013 तक दसवीं कक्षा में मात्र 10.30 लाख बच्चे रह गए. इस तरह बच्चों को स्कूल में रोके रखने की दर के मामले में देशभर में गुजरात का 18वां स्थान है. 
प्राथमिक विद्यालयों की उपेक्षा का आलम यह है कि जहां 2005–06 में अहमदाबाद नगर निगम के पास 541 प्राथमिक विद्यालय थे, वहां 2011–12 में घटकर 464 रह गए. ये आंकड़े खुद गुजरात सरकार के हैं. गुजरात में निजी शिक्षा इतनी महंगी है कि आम आदमी के बच्चे उसमें पढ़ नहीं सकते.
आंकड़े बताते है कि गुजरात में एनीमिया से पीड़ित बच्चों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है. 1998–99 में यह अनुपात 74.5 प्रतिशत था जो 2005–06 में 80.1 प्रतिशत हो गया. इसी अवधि में एनीमिया से पीड़ित गर्भवती महिलाओं की संख्या 47.4 प्रतिशत से बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गई.
बाल विकास सेवा योजना के बारे में कैग की रिपोर्ट कहती है कि जिन आठ राज्यों में एक लाख से अधिक बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं, उनमें गुजरात भी शामिल है. इस राज्य में 44.6 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
बेरोजगारी का आलम यह है कि (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘पिछले 12 सालों में यहाँ रोजगार वृद्धि दर शून्य के करीब पहुंच चुकी है. सहज ही समझा जा सकता है कि अगर गुजरात में बेरोजगारी की समस्या हल कर ली गई होती तो देशभर से बेरोजगारों का पलायन गुजरात की ओर होता.
2001 से 2011 के बीच राष्ट्रीय साक्षरता दर 9.2 प्रतिशत के हिसाब से ब़ढी है, लेकिन गुजरात में दशक के हिसाब से साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से नीचे, मात्र 8.89 प्रतिशत है. यही हाल उच्च शिक्षा है. 
गुजरात में व्यावसायिक और उच्च शिक्षा का निजीकरण हो गया है. प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूल में महिलाओं, पिछ़डे, दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की पहुंच गुजरात में राष्ट्रीय स्तर से कम रही. निजीकरण के चलते गुजरात में शिक्षा पर सरकारी ख़र्च में राष्ट्रीय अनुपात की तुलना में भारी कटौती की गई. 
इसी दौरान शिक्षा के लिए सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों पर निर्भरता या तो ब़ढी या उतनी ही बनी रही. ऐसा ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में हुआ. ऐसा इसलिए क्योंकि निजी क्षेत्र के महंगे प्राइवेट स्कूल लोगों की पहुंच से बाहर हैं. 
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में गरीबों को शिक्षा प्राथमिकता में नहीं है क्योंकि शिक्षा क्षेत्र बाकी कई क्षेत्रों की तरह मालदार बाजार है. मकसद मुनाफ़ा कमाना है. जनविरोधी नीतियों को लेकर कहा जा रहा है कि जनता में इनकी लहर है. यह शिक्षा क्षेत्र की हकीकत है. बाकी मसलों पर बातें बाद में.

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