मंगलवार, 14 जून 2011

चंदू

चंदू सड़क किनारे रहता है 
बाटी चोखा और समोसा 
सिगरेट चाय बेचता है 
एक तखत, माटी की भट्टी 
तानी हुई पन्नी की चादर 
इतनी है  बस उसकी दौलत 
दो पिल्ले जैसे नवजात 
वहीं बगल में सारा दिन 
माटी में लोटते रहते हैं 
रोते कभी किलकते हैं 
कीचड़ में लिजलिज करते हैं 
चंदू की बीवी इस पर 
खुश होती है, झल्लाती है 
झाड़-पोछ कर, चूमचाट  कर 
माटी में बैठाती है 
चंदू के संग कामों में 
जुटती है हाथ बंटाती  है 

दुबला-पतला डांगर जैसा 
चंदू दिन भर हँसता है 
आने जाने वालों से वह 
खूब मसखरी करता है 
बीवी को वह मेरी प्यारी बिल्लोरानी 
कहता है 

लोकतंत्र की नज़र में चंदू 
एक अतिक्रमणकारी है 
कुछ कुछ दिन पर उसकी झुग्गी 
समतल कर दी जाती है
एक रोज़ दो रोज़ में लेकिन 
फिर से वह तन जाती है 

चंदू के सपने में अक्सर
हल्ला गाड़ी (अतिक्रमण हटाने वाला दस्ता) आती है 
मारे डर के रात में उसकी 
आँखें खुल-खुल जाती हैं 
कहता है चंदू हंसकर 
सब अपना-अपना काम करें  
वो अपना कानून चलायें 
हम रोटी का इंतजाम करें 

यही झेलते सहते बाबू!
उमर बयालीस पार गयी 
भटक भटक जीवन काटा पर 
नहीं हमारी हार हुई.





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