रविवार, 6 मार्च 2011


कमाता-खाता आदमी...


खटता रहता हूँ दफ्तर में 
कोल्हू के बैल की तरह 
पीछे-पीछे फटकारता मालिक 
फटकारता है पैना 
क्योंकि मुझे चारा देता है वह 
थक कर थमने लगते हैं ज्यों ही पांव 
पड़ता है पीठ पर पैना सटाक से 
तिलमिला कर भागता हूँ फिर 
कोल्हू के आरी-आरी 

यह हर मेहनतकश 
आदमी की मुश्किल है
जो भी चाहता है 
पसीना बहाकर पेट पालना

अकेला नहीं हूँ मैं 
पुट्ठे पर पैना खाने वाला 
और भी हैं मेरी तरह 
उच्च-शिक्षा प्राप्त युवा 
चलते जाते हैं चुपचाप 
जुए में नधे हुए 
निकलता हूँ जब दफ्तर से
चुसा हुआ-चुका हुआ 
गिरता हूँ घर जाकर 
निढाल बिस्तर पर 
मर जाता हूँ एक कतरा रोज़ 
बच जाती नौकरी 
भरता हूँ उदर 
पाता हूँ तारीफ 
मैं कमाता-खाता आदमी 
बेचारा!




1 टिप्पणी:

प्रतिभा कुशवाहा ने कहा…

यह हर मेहनतकश
आदमी की मुश्किल है
जो भी चाहता है
पसीना बहाकर पेट पालना.......
पहले भी इस ब्लॉग पर आना हुआ है मेरा ...

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