कृष्णकांत
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना...
-पाश
किसी समाज के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है कि
लोग मुर्दा शांति से भर जाने के लिए बेकरार हों. समाज में सबकुछ सहन कर जाने लायक
मुर्दनी छा जाना साधारण बात नहीं है. राममनोहर लोहिया कहते थे- 'जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करतीं.' लेकिन हमारा समय मनहूस समय है. यहां पर कौमों में जिंदा दिखने का कोई हौसला
नजर नहीं आता.
दुनिया भर में बदलाव हमेशा युवाओं के कंधे पर सवार
होकर आता है. हमारे यहां का युवा अपने कंधे पर कुछ भी उठाने को तैयार नहीं है.
उसने राजनीतिक मसलों को धार्मिक भावनाओं का मसला बना लिया है और आस्था में अंधे
होकर अपनी रीढ़ की हड्डी गवां दी है. इसलिए जब आप सरकार के किसी फैसले या किसी
कार्रवाई सवाल करते हैं तो अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े आपको गद्दार
कहता है, दलाल कहता है, देशद्रोही कहता
है या पाकिस्तान का एजेंट कहता है.
भोपाल एनकाउंटर को लेकर सोशल मीडिया पर वही युद्ध
शुरू हो गया है, जो हर मामले में होता है. राष्ट्रवादी बनाम
देशद्रोही. सेकुलर बनाम कम्युनल. हिंदुत्ववादी अपनी सांप्रदायिकता को ऐसे पेश करते
हैं जैसे कि सांप्रदायिक होना बहुत गौरव की बात हो. चाहे लेखकों की हत्या का मसला
रहा हो, दादरी कांड हो, फर्जी गोरक्षा हो, सर्जिकल स्ट्राइक हो या भोपाल में आठ कैदियों का एनकाउंटर.
हर सवाल पर आपको गद्दार और देशद्रोही कहने वाला युवा
ऐसी दुनिया में है जहां पर सरकार पर सवाल उठाना पाप है. बिना सवाल और समीक्षा के, बिना आलोचना और प्रतिपक्ष के कैसा समाज बनेगा, यह उसकी कल्पना
में कहीं नहीं है.
एक गैर-कानूनी सरकारी
कार्रवाई पर आप यह सोच कर सवाल उठाते हैं कि कानून का शासन ही लोकतंत्र की पहली
शर्त है. लेकिन भीड़ में होते युवा इस आलोचना को अपने राजनीतिक हितों पर होने वाला
हमला मानते हैं. वे लोकतंत्र में भागीदारी नहीं चाहते. वे भेड़चाल में दौड़ना
चाहते हैं. वे अपने आगे चलने वाली भेड़ के पीछे-पीछे सर झुका कर
बस चलते रहना चाहते हैं. धर्म की चाशनी में डूबी उनकी राजनीतिक ट्रेनिंग ही ऐसी
हो रही है कि वे राजनीति को आस्था की आंख से देखते हैं. जैसे प्रजा राजा में आस्था
रखती है, जैसे प्रजा राजा के लिए जान देने पर उतारू हो जाए, उसी तरह वे जान दे देने या ले लेने को तैयार हैं.
हमारे देश का युवा उन्मादी भीड़ में तब्दील हो रहा
है. उसे इत्मीनान से सोचने से परहेज है, उसे सवाल करने से
परहेज है, उसे देश और देश की व्यवस्था पर विचार करने से परहेज
है. उसे गाली देने की जल्दी है. उसे किसी को गद्दार, दलाल, देशद्रोही, पाकिस्तानी आदि कह देने की जल्दी है. उसे भारत माता
का नारा लगाने की जल्दी है. उसे सवाल करती महिला को वेश्या कह देने की जल्दी है.
उसे सजा देने की जल्दी है. उसे जज बनकर फैसला सुनाने की जल्दी है. उसे भीड़ में
तब्दील होकर किसी को मार डालने की जल्दी है.
इन युवाओं की शिक्षा, जागरूकता और
स्वाभिमान की कंडीशनिंग कैसे हुई होगी कि वे लोकतंत्र की मूल भावनाओं को ही गाली
देते हैं. वे देशभक्ति में इतने पागल हैं कि देशभक्ति का ड्रामा करने वालों का कोई
भी कारनामा बर्दाश्त करने को तैयार हैं. वे देशभक्ति के इन ड्रामों के लिए देश के
ही बुनियादी नियमों का उल्लंघन सहने को तैयार हैं. उन्हें इसमें कुछ भी बुरा या
असहज करने वाला नहीं लगता.
कितना अच्छा होता कि हर एनकाउंटर को कोर्ट द्वारा
फर्जी सिद्ध किए जाने से पहले हमारे देश का युवा सरकारों से पूछता कि पुलिस को
गोली मारने का अधिकार किसने दिया? वे पूछते कि किसी
अपराधी को दंड देने के लिए भीड़ को अधिकार किसने दिया? कोई संगीन अपराधों में लिप्त है तो उसे कानून और अदालतें सजा देंगी, या प्रमोशन का प्यासा अफसर उसे गोली मारकर दंड देगा? काश! हमारे देश के युवा यह पूछते कि अगर हम गैरकानूनी हत्याओं को सेलिब्रेट
करेंगे तो तालिबान या आईएसआईएस से अलग एक प्रतिष्ठित लोकतंत्र कैसे बनेंगे?
लोकतंत्र नागरिक भागीदारी का नाम है, जिसमें आप सत्ता से लगातार सवाल करके उसे निरंकुश होने से रोकते हैं. जब आप
सरकारों के पक्ष में खड़े हो जाएं और सवाल करना बंद कर दें, तब समझिए कि आप मुर्दा शांति से भर गए हैं. और जैसा कि पाश कहते हैं, सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना, तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना...
हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आप क्या होना चाहते
हैं? सवाल करता हुआ, लोकतंत्र को
मजबूत करता हुआ एक जागरूक नागरिक या मुर्दा शांति भरा हुआ लोकतंत्र में जनसंख्या
बढ़ाने वाला मात्र एक प्राणी? क्या आपको भी
उन्मादी भीड़ में तब्दील होने की जल्दी है?
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